Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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आध्यात्मिक भजन संग्रह ६. हे जिन मेरी, ऐसी बुधि कीजै हे जिन मेरी, ऐसी बुधि कीजै। टेक।। रागद्वेष दावानलतें बचि, समतारसमें भीजै।।१।। परकों त्याग अपनपो निजमें, लाग न कबहूँ छीजै।।२।। कर्म कर्मफलमाहि न राचै, ज्ञानसुधारस पीजै।। ३ ।। मुझ कारज के तुम कारन वर, अरज 'दौल' की लीजै।।४।। ७. आज मैं परम पदारथ पायौ
आज मैं परम पदारथ पायौ, प्रभुचरनन चित लायौ।।टेक।। अशुभ गये शुभ प्रगट भये हैं, सहज कल्पतरु छायौ।।१।। ज्ञानशक्ति तप ऐसी जाकी, चेतनपद दरसायो।।२ ।। अष्टकर्म रिपु जोधा जीते, शिव अंकूर जमायौ।।३ ।। दौलत राम निरख निज प्रभो को उरु आनन्द न समायो ।।४।। ८. जिनवर-आनन-भान निहारत जिनवर-आनन-भान निहारत, भ्रमतम घान नसाया है ।।टेक. ।। वचन-किरन-प्रसरनौं भविजन, मनसरोज सरसाया है। भवदुखकारन सुखविसतारन, कुपथ सुपथ दरसाया है ।।१।। विनसाई कज जलसरसाई, निशिचर समर दुराया है। तस्कर प्रबल कषाय पलाये, जिन धनबोध चुराया है।।२।। लखियत उड्ग न कुभाव कहूँ अब, मोह उलूक लजाया है। हँस कोक को शोक नश्यो निज, परनतिचकवी पाया है।।३ ।। कर्मबंध-कजकोप बंधे चिर, भवि-अलि मुंचन पाया है। 'दौल' उजास निजातम अनुभव, उर जग अन्तर छाया है।।४।। ९. त्रिभुवनआनन्दकारी जि न छवि त्रिभुवनआनन्दकारी जिन छवि, थारी नैननिहारी ।।टेक. ।। ज्ञान अपूरब उदय भयो अब, या दिनकी बलिहारी। मो उर मोद बड़ो जु नाथ सो, कथा न जात उचारी ।।१।।
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
सुन घनघोर मोरमुद ओर न, ज्यों निधि पाय भिखारी। जाहि लखत झट झरत मोह रज, होय सो भवि अविकारी ।।२।। जाकी सुंदरता सु पुरन्दर-शोभ लजावन हारी। निज अनुभूति सुधाछवि पुलकित, वदन मदन अरिहारी ।।३।। शूल दुकूल न बाला माला, मुनि मन मोद प्रसारी । अरुन न नैन न सैन भ्रमै न न, बंक न लंक सम्हारी ।।४।। ताते विधि विभाव क्रोधादि न, लखियत हे जगतारी। पूजत पातक पुंज पलावत, ध्यावत शिवविस्तारी ।।५।। कामधेनु सुरतरु चिंतामनि, इकभव सुखकरतारी। तुम छवि लखत मोदतें जो सुर, सो तुमपद दातारी ।।६।। महिमा कहत न लहत पार सुर, गुरुहूकी बुधि हारी।
और कहै किम ‘दौल' चहै इम, देहु दशा तुमधारी ।।७।। १०. निरखत जिनचन्द्र-वदन निरखत जिनचन्द्र-वदन, स्वपदसुरुचि आई ।।टेक. ।। प्रगटी निज आनकी, पिछान ज्ञान भानकी। कला उदोत होत काम, जामिनी पलाई ।।१।। शाश्वत आनन्द स्वाद, पायो विनस्यो विषाद । आनमें अनिष्ट इष्ट, कल्पना नसाई ।।२।। साधी निज साधकी, समाधि मोह व्याधिकी। उपाधिको विराधिकैं, आराधना सुहाई ।।३ ।। धन दिन छिन आज सुगुनि, चिंतें जिनराज अबै ।
सुधरे सब काज 'दौल', अचल ऋद्धि पाई ।।४ ।। ११. निरखत सुख पायौ जिन मुखचन्द निरखत सुख पायौ जिन मुखचन्द ।।टेक.।। मोह महातम नाश भयौ है, उर अम्बुज प्रफुलायौ। ताप नस्यौ बढि उदधि अनन्द।।१।।निरखत. ।।

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