Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 60
________________ आध्यात्मिक भजन संग्रह गन्धलोल पंकज मुद्रित में, अलि निज प्रान खपावै है । नयनविषयवश दीप - शिखा में, अंग पतंग जरावै है || ३ || करन विषयवश हिरन अरनमें, खलकर प्रान लुनावै है । 'दौलत' तज इनको जिनको भज, यह गुरु सीख सुनावै है ॥ ४ ॥ ६८. मानत क्यों नहिं रे मानत क्यों नहिं रे, हे नर सीख सयानी । । टेक ॥। भयौ अचेत मोह-मद पीके, अपनी सुधि बिसरानी ।। ११८ दुखी अनादि कुबोध अब्रततैं, फिर तिनसौं रति ठानी। ज्ञानसुधा निजभाव न चाख्यौं, परपरनति मति सानी ।। १ ।। भव असारता लखै न क्यौं जहँ, नृप है कृमि विट - थानी । सधन निधन नृप दास स्वजन रिपु, दुखिया हरिसे प्रानी ।। २ ।। देह एह गद-गेह नेह इस, हैं बहु विपति निशानी | जड़ मलीन छिनछीन करमकृत-बन्धन शिवसुखहानी || ३ || चाहज्वलन ईंधन - विधि-वन-घन, आकुलता कुलखानी । ज्ञान- सुधा- सर शोषन रवि ये, विषय अमित मृतुदानी ।।४ ।। यौं लखि भव-तन-भोग विरचि करि, निजहित सुन जिनवानी । तज रुषराग ‘दौल' अब अवसर, यह जिनचन्द्र बखानी ।। ५ ।। ६९. जानत क्यौं नहिं रे जानत क्यौं नहिं रे, हे नर आतमज्ञानी ।। टेक. ।। रागदोष पुद्गलकी संपति, निहचै शुद्धनिशानी ।। जानत. ।। जाय नरकपशुनरसुरगतिमें, यह परजाय विरानी । सिद्धसरूप सदा अविनाशी, मानत विरले प्रानी । । १ । । जानत. ।। कियौ न काहू हरै न कोई, गुरु-शिख कौन कहानी | जनम मरन मलरहित विमल है, कीचबिना जिमि पानी ॥ २ ॥ जानत. ॥ jitna bold pot smark 3 DKailash Da (६०) पण्डित दौलतरामजी कृत भजन सार पदारथ है तिहुँ जगमें, नहिं क्रोधी नहिं मानी। 'दौलत' सो घटमाहिं विराजे, लखि हूजे शिवथानी ।। ३ । । जानत. ।। ७०. छांडि दे या बुधि भोरी छांडि दे या बुधि भोरी, वृथा तनसे रति जोरी । ।टेक. ।। यह पर है न रहे थिर पोषत, सकल कुमल की झोरी । यासौं ममता कर अनादितैं, बंधो कर्मकी डोरी । सह्रै दुःख जलधि हिलोरी ।। १ । ।छांडि. ।। यह जड़ है तू चेतन यौं ही, अपनावत बरजोरी । सम्यक दर्शन ज्ञान चरण निधि, ये हैं संपति तोरी । सुखिया भये सदीव जीव 'दौल' सीख यह लीजे ११९ सदा विलसौ शिवगोरी ।।२ । छांडि. ।। जिन, यासौं ममता तोरी । पीजे, ज्ञानपियूष कटोरी । मिटै परचाह कठोरी ।। ३ । । छांडि. ।। ७१. छांडत क्यौं नहिं रे छांडत क्यौं नहिं रे, हे नर! रीति अयानी । बारबार सिख देत सुगुरु यह, तू दे आनाकानी । । छांडत ।। विषय न तजत न भजत बोध व्रत, दुख सुखजाति न जानी । शर्म चहै न लहै शठ ज्यौं घृतहेत विलोवत पानी । । १ । । छांडत. ।। तन धन सदन स्वजनजन तुझसौं, ये परजाय विरानी । इन परिनमन विनश उपजन सों, तैं दुःख सुख कर मानी ।। २ । । छांडत. ।। इस अज्ञानतैं चिरदुख पाये, तिनकी अकथ कहानी । ताको तज दृग - ज्ञान- चरन भज, निजपरनति शिवदानी । । ३ । ।छांडत. ।। यह दुर्लभ नर-भव सुसंग लहि, तत्त्व लखावत वानी । 'दौल' न कर अब पर में ममता, धर समता सुखदानी ॥ ४ ॥ छांडत. ।।

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