Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 58
________________ ११४ आध्यात्मिक भजन संग्रह तन धन भ्रात तात सुत जननी, तू इनको निज जानै रे । ये पर इनहिं वियोग योग में, यौं ही सुख दुख मानै रे ।। १ ।। चाह न पाये पाये तृष्णा, सेवत ज्ञान जघानै रे । विपतिखेत विधिवंधहेत पै, जान विषय रस खानै रे ।। २ ।। नरभव जिनश्रुतश्रवण पाय अब, कर निज सुहित सयानै रे । 'दौलत' आतम ज्ञान - सुधारस, पीवो सुगुरु बखानै रे || ३ || ६०. मेरे कब है वा दिन की सुघरी मेरे कब है वा दिन की सुघरी ।। टेक ॥। तन विन वसन असनविन वनमें, निवसों नासादृष्टिधरी ।। पुण्यपाप परसौं कब विरचों, परचों निजनिधि चिरविसरी । तज उपाधि सजि सहजसमाधी, सहों घाम हिम मेघझरी ॥ १ ॥ कब थिरजोग धरों ऐसो मोहि, उपल जान मृग खाज हरी । ध्यान -कमान तान अनुभव-शर, छेदों किहि दिन मोह अरी ॥ २ ॥ कब तृनकंचन एक गनों अरु, मनिजडितालय शैलदरी । 'दौलत' सत गुरुचरन सेव जो, पुरवो आश यहै हमरी ।। ३ ।। ६१. ज्ञानी ऐसी होली मचाई ज्ञानी ऐसी होली मचाई। टेक. ।। राग कियौ विपरीत विपन घर, कुमति कुसौति सुहाई । धार दिगम्बर कीन्ह सु संवर, निज परभेद लखाई । घात विषयनिकी बचाई || १ || सम, तनमें तान उड़ाई । पूरक, रेचक बीन बजाई । कुमति सखा भजि ध्यानभेद कुंभक ताल मृदंगसौं लगन अनुभवसौं लगाई ।। २ ।। कर्मबलीता रूप नाम अरि, वेद सुइन्द्रि गनाई । दे तप अग्नि भस्म करि तिनको, धूल अघाति उड़ाई । करि शिव तियकी मिलाई || ३ || smark 3D Kailash D Annanji Jain Bhajan Book pr (५८) पण्डित दौलतरामजी कृत भजन ज्ञानको फाग भागवश आवै, सो गुरु दीनदयाल कृपाकरि, ११५ लाख करो चतुराई । 'दौलत' तोहि बताई । नहीं चितसे विसराई ॥४ ॥ ६२. मेरो मन ऐसी खेलत होरी मेरो मन ऐसी खेलत होरी ।। टेक. ।। मन मिरदंग साज-करि त्यारी, तनको तमूरा बनोरी । सुमति सुरंग सरंगी बजाई, ताल दोउ कर जोरी। राग पांचौं पद कोरी ।। १ । । मेरो ।। समकित रूप नीर भर झारी, करुना केशर घोरी । ज्ञानमई लेकर पिचकारी, दोउ करमाहिं सम्होरी | इन्द्रि पांचौं सखि वोरी ।। २ । ।मेरो ।। चतुर दानको है गुलाल सो, भरि भरि मूठि चलोरी । तप मेवाकी भरी निज झोरी, यशको अबीर उडोरी । रंग जिनधाम मचोरी || ३ || मेरो ।। 'दौल' बाल खेलें अस होरी, भवभव दुःख टलोरी । शरना ले इक श्रीजिनको री, जगमें लाज हो तोरी मिलै फगुआ शिवगोरी ||४ | मेरो ।। ६३. जिया तुम चालो अपने देश जिया तुम चालो अपने देश, शिवपुर थारो शुभ थान । । टेक. ।। लख चौरासी में बहु भटके, लह्यौ न सुखको लेश ।। १ ।। जिया. ।। मिथ्यारूप धरे बहुतेरे, भटके बहुत विदेश ।। २ । । जिया. ।। विषयादिक सेवत दुख पाये, भुगते बहुत कलेश ।। ३ । । जिया. ।। भयो तिरजंच नारकी नर सुर, करि करि नाना भेष || ४ || जिया. ।। अब तो निजमें निज अबलोको जहां न दुःख को लेश ॥ ५ ॥ । जिया. ।। 'दौलतराम' तोड़ जगनाता, सुनो सुगुरु उपदेश || ६ || जिया. ।।

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