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आध्यात्मिक भजन संग्रह
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन
६४. मत कीज्यौ जी यारी
मीन मतंग पतंग भंग मृग, इन वश भये दुखारी। मत कीज्यौ जी यारी, घिनगेह देह जड़ जान के ।।टेक. ।।
सेवत ज्यौं किंपाक ललित, परिपाक समय दुखकारी।।५ ।।मत. ।। मात-तात रज-वीरजसौं यह, उपजी मलफुलवारी।
सुरपति नरपति खगपतिहू की, भोग न आस निवारी। अस्थिमाल पल नसाजाल की, लाल लाल जलक्यारी।।१।।मत. ।।
'दौल' त्याग अब भज विराग सुख, ज्यौं पावै शिवनारी।।६।।मत.।। कर्मकुरंगथलीपुतली यह, मूत्र पुरीषभंडारी।
६६. मत राचो धीधारी चर्ममंडी रिपुकर्मघड़ी धन, धर्म चुरावन-हारी।।२।।मत. ।।
मत राचो धीधारी, भव रंभथंभ सम जानके ।।टेक. ।। जे जे पावन वस्तु जगत में, ते इन सर्व बिगारी।
इन्द्रजालको ख्याल मोहठग, विभ्रमपास पसारी। स्वेद मेद कफ क्लेदमयी बहु, मद गद व्यालपिटारी।।३ ।।मत. ।।
चहुँगति विपतिमयी जामें जन, भ्रमत भरत दुख भारी।।१।।मत. ।। जा संयोग रोगभव तौलौं, जा वियोग शिवकारी।
रामा मा, मा वामा, सुत पितु, सुता श्वसा, अवतारी। बुध तासौं न ममत्व करें यह, मूढ़मतिन को प्यारी।।४ ।।मत. ।।
को अचंभ जहाँ आप आपके, पुत्र दशा विसतारी।।२।।मत. ।। जिन पोषी ते भये सदोषी, तिन पाये दुख भारी ।
घोर नरक दुख ओर न छोर न, लेश न सुख विस्तारी। जिन तपठान ध्यानकर शोषी, तिन परनी शिवनारी।।५।।मत. ।।
सुरनर प्रचुर विषयजुर जारे, को सुखिया संसारी।।३।।मत. ।। सुरधनु शरदजलद जलबुदबुद, त्यौं झट विनशनहारी।
मंडल है आखंडल छिन में, नृप कृमि सधन भिखारी। या भिन्न जान निज चेतन, 'दौल' होहु शमधारी।।६।।मत. ।।
जा सुत विरह मरी लै वाघिनी, ता सुत देह विदारी।।४ ।।तन. ।। ६५. मत कीज्यौ जी यारी
शिशु न हिताहितज्ञान तरुण उर, मदनदहन पर जारी। मत कीज्यौ जी यारी, ये भोग भुजंग सम जानके ।।टेक. ।।
वृद्ध भये विकलांगी थाये, कौन दशा सुखकारी।।५ ।।मत. ।। भुजंग डसत इकबार नसत है, ये अनंत मृतुकारी।
यौं असार लख छार भव्य झट, भये मोखमगचारी। तिसना तृषा बढै इन सेयें, ज्यौं पीये जल खारी।।१।।मत. ।।
यातें होउ उदास 'दौल' अब, भज जिनपति जगतारी।।६।।मत. ।। रोग वियोग शोक वनको घन, समता-लताकुठारी ।
६७. हे मन तेरी को कुटेव यह केहरी करी अरी न देत ज्यौं, त्यौं ये 4 दुखभारी।।२।।मत. ।।
हे मन तेरी को कुटेव यह, करनविषय में धावै है ।।टेक ।। इनमें रचे देव तरु थाये, पाये श्वभ्र मुरारी।
इनहीके वश तू अनादित, निजस्वरूप न लखावै है। जे विरचे ते सुरपति अरचे, परचे सुख अधिकारी।।३ ।।मत. ।।
पराधीन छिन छीन समाकुल, दुर्गति विपति चखावै है।।१।। पराधीन छिनमाहिं छीन लै, पापवंधकरतारी ।
फरस विषयके कारन बारन, गरत परत दुख पावै है। इन्हैं गिनें सुख आकमाहिं तिन, आमतनी बुधि धारी।।४।।तन. ।। amrpan रसनाइन्द्रीवश झष जलमें, कंटक कंठ छिदावै है ।।२।।
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