Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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आध्यात्मिक भजन संग्रह ज्यौं कुध्यान वश महिष मान निज, फंसि नर उरमाहीं अकुलान्यौ। त्यौं चिर मोह अविद्या पेस्यो, तेरों नैं ही रूप भुलान्यो ।।१।। तोय तेल ज्यौं मेल न तनको, उपज खपज मैं सुखदुख मान्यो। पुनि परभावनको करता है, तैं तिनको निज कर्म पिछान्यो।।२।। नरभव सुथल सुकुल जिनवानी, काललब्धि बल योग मिलान्यो।
'दौल' सहज भज उदासीनता, तोष-रोष दुखकोष जु भान्यो।।३।। ५६. चेतन अब धरि सहजसमाधि
चेतन अब धरि सहजसमाधि, जातें यह विनशैभव ब्याधि ।।चेतन. ।। मोह ठगौरी खायके रे, परको आपा जान । भूल निजातम ऋद्धिको तैं, पाये दुःख महान।।१।।चेतन. ।। सादि अनादि निगोद दोयमें, परयो कर्मवश जाय । श्वासउसासमँझार तहाँ भव, मरन अठारह थाय।।२।।चेतन. ।। कालअनन्त तहाँ यौं वीत्यो, जब भइ मन्द कषाय । भूजल अनिल अनल पुन तरु द्वै, काल असंख्य गमाय।।३।।चेतन. ।। क्रमक्रम निकसि कठिन तैं पाई, शंखादिक परजाय। जल थल खचर होय अघ ठाने, तस वश श्वभ्र लहाय।।४।।चेतन. ।। तित सागरलों बहु दुख पाये, निकस कबहुँ नर थाय । गर्भ जन्मशिशु तरुणवृद्ध दुख, सहे कहे नहिं जाय।।५।।चेतन. ।। कबहूँ किंचित पुण्यपाकतें चउविधि देव कहाय । विषयआश मन त्रास लही तहं, मरन समय विललाय।।६।।चेतन. ।। यौं अपार भवखारवार में, भ्रम्यो अनन्ते काल । 'दौलत' अब निजभाव नाव चढ़ि, लै भवाब्धिकी पाल।।७।।चेतन. ।। ५७. चिदरायगुन सुनो मुनो चिदरायगुन सुनो मुनो प्रशस्त गुरुगिरा। समस्त तज विभाव, हो स्वकीयमें थिरा ।।चिदरायगुन. ।।
पण्डित दौलतरामजी कृत भजन निजभावके लखाव बिन, भवाब्धिमें परा। जामन मरन जरा त्रिदोष, अग्निमें जरा।।१।।चिदरायगुन. ।। फिर सादि औ अनादि दो, निगोदमें परा। तहँ अंकके असंख्यभाग, ज्ञान ऊबरा।।२।।चिदरायगुन. ।। तहाँ भव अन्तरमहर्तके कहे गनेश्वरा। छयासठ सहस त्रिशत छतीस, जन्म धर मरा।।३ ।।चिदरायगुन. ।। यौं वशि अनंतकाल फिर, तहांतै नीसरा । भूजल अनिल अनल प्रतेक, तरुमें तन धरा।।४।।चिदरायगुन. ।। अनुंधरीसु कुंथु कानमच्छ अवतरा । जल थल खचर कुनर नरक, असुर उपज मरा।।५।।चिदरायगुन. ।। अबके सुथल सुकुल सुसंग, बोध लहि खरा । 'दौलत' त्रिरत्न साध लाध, पद अनुत्तरा।।६।।चिदरायगुन. ।। ५८. चित चिंतकै चिदेश कब चित चिंतकै चिदेश कब, अशेष पर वम् । दुखदा अपार विधि दुचार की चमू दमू ।। तजि पुण्यपाप थाप आप, आपमें रमू ।। कब राग-आग शर्म-बाग, दागिनी शमू ।।१।। दृग-ज्ञानभानतें मिथ्या, अज्ञानतम दम् । कब सर्व जीव प्राणिभूत, सत्त्वसौं छम् ।।२ ।। जल मल्ललिप्त कल सुकल, सुबल्ल परिनम् । दलके त्रिशल्ल मल्ल कब, अटल्लपद पम् ।।३ ।। कब ध्याय अज अमरको फिर न, भवविपिन भम् । जिन पूर कौल 'दौल' को यह, हेतु हौं नमू ।।४ ।। ५९. राचि रह्यो परमाहिं तू अपनो राचि रह्यो परमाहिं तू अपनो, रूप न जानै रे ।।टेक ।। अविचल चिनमूरत विनमूरत, सुखी होत तस ठानै रे ।।
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