Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 56
________________ ११० आध्यात्मिक भजन संग्रह या बिन समुझे द्रव्य-लिंगमुनि, उग्र तपनकर भार भरो। नवग्रीवक पर्यन्त जाय चिर, फेर भवार्णव माहिं परो ।।२।। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरन तप, येहि जगत में सार नरो। पूरव शिवको गये जाहिं अब, फिर जैहैं, यह नियत करो।।३।। कोटि ग्रन्थको सार यही है, ये ही जिनवानी उचरो। 'दौल' ध्याय अपने आतमको, मुक्तिरमा तब वेग बरो।।४।। ५१. चिन्मूरत दृग्धारी की मोहे चिन्मूरत दृग्धारीकी मोहे, रीति लगत है अटापटी ।।टेक ।। वाहिर नारकिकृत दुख भोगै, अंतर सुखरस गटागटी। रमत अनेक सुरनि संग पै तिस, परनति नित हटाहटी ।।१।। ज्ञानविरागशक्ति ते विधि-फल, भोगत पै विधि घटाघटी। सदननिवासी तदपि उदासी, तातें आस्रव छटाछटी ।।२।। जे भवहेतु अबुधके ते तस, करत बन्धकी झटाझटी। नारक पशु तिय पँढ विकलत्रय, प्रकृतिन की 8 कटाकटी ।।३।। संयम धर न सकै पै संयम, धारन की उर चटाचटी। तासु सुयश गुनकी 'दौलतके' लगी, रहै नित रटारटी ।।४।। ५२. आप भ्रमविनाश आप आप भ्रमविनाश आप आप जान पायौ। कर्णधृत सुवर्ण जिमि चितार चैन थायौ ।।आप. ।। मेरो मन तनमय, तन मेरो मैं तनको। त्रिकाल यौं कुबोध नश, सुबोधभान जायौ।।१।।आप. ।। यह सुजैनवैन ऐन, चिंतन पुनि पुनि सुनैन । प्रगटो अब भेद निज, निवेदगुन बढ़ायौ।।२।।आप. ।। यौं ही चित अचित मिश्र, ज्ञेय ना अहेय हेय। इंधन धनंजय जैसे, स्वामियोग गायौ।।३ ।।आप. ।। पण्डित दौलतरामजी कृत भजन भंवर पोत छुटत झटति, बांछित तट निकटत जिमि । रागरुख हर जिय, शिवतट निकटायौ।।४ ।।आप. ।। विमल सौख्यमय सदीव, मैं हूँ नहिं अजीव । द्योत होत रज्जु में, भुजंग भय भगायौ।।५।।आप. ।। यौं ही जिनचंद सुगुन, चिंतत परमारथ गुन । 'दौल' भाग जागो जब, अल्पपूर्व आयौ।।६।।आप. ।। ५३. चेतन यह बुधि कौन सयानी चेतन यह बुधि कौन सयानी, कही सुगुरु हित सीख न मानी ।। कठिन काकतालीज्यौं पायौ, नरभव सुकुल श्रवन जिनवानी ।।चेतन. ।। भूमि न होत चाँदनीकी ज्यौ, त्यौं नहिं धनी ज्ञेयको ज्ञानी। वस्तुरूप यौं तू यौँ ही शठ, हटकर पकरत सोंज विरानी।।१।।चेतन. ।। ज्ञानी होय अज्ञान राग-रुषकर निज सहज स्वच्छता हानी। इन्द्रिय जड़ तिन विषय अचेतन, तहाँ अनिष्ट इष्टता ठानी।।२।।चेतन.।। चाहै सुख, दुख ही अवगाहै, अब सुनि विधि जो है सुखदानी। 'दौल' आपकरि आपआपमैं, ध्याय ल्यायलय समरससानी।।३।।आप. ।। ५४. चेतन कौन अनीति गही रे चेतन कौन अनीति गही रे, न मा सुगुरु कही रे। जिन विषयनवश बहु दुख पायो, तिनसौं प्रीति ठही रे ।।चेतन. ।। चिन्मय है देहादि जड़नसौं, तो मति पागि रही रे । सम्यग्दर्शनज्ञान भाव निज, तिनकौं गहत नहीं रे।।१।।चेतन. ।। जिनवृष पाय विहाय रागरुष, निजहित हेत यही रे । 'दौलत' जिन यह सीख धरी उर, तिन शिव सहज लही रे।।२।।चेतन. ।। ५५. चेतन तैं यौँ ही भ्रम ठान्यो चेतन तैं यौँ ही भ्रम ठान्यो, ज्यों मृग मृगतृष्णा जल जान्यो। ज्यौं निशितममैं निरख जेवरी, भुजंग मान नर भय उर आन्यो ।। sarak kabata

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