Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 28
________________ आध्यात्मिक भजन संग्रह १३७. जियको लोभ महा दुखदाई, जाकी शोभा ( ? ) ...... लोभ करै मूरख संसारी, छांडै पण्डित शिव अधिकारी । । जियको. ।। तजि घरवास फिरै वनमाहीं, कनक कामिनी छांडै नाहीं । लोक रिझावनको व्रत लीना, व्रत न होय ठगई सा कीना । । १ ।। लोभवशात जीव हत डारै, झूठ बोल चोरी चित धारै । नारि है परिग्रह विसतारै, पाँच पाप कर नरक सिधारै ।। २ ।। जोगी जती गृही वनवासी, बैरागी दरवेश सन्यासी । अजस खान जसकी नहिं रेखा, 'द्यानत' जिनकै लोभ विशेखा ॥ ३ ॥ १३८. गहु सन्तोष सदा मन रे! जा सम और नहीं धन रे........ आसा कांसा भरा न कबहूं, भर देखा बहुजन रे । धन संख्यात अनन्ती तिसना, यह बानक किमि बन रे । । गहु . ।। १ ।। जे धन ध्यावैं ते नहिं पावैं, छांडै लगत चरन रे ।। यह ठगहारी साधुनि डारी, छरद अहारी निधन रे ।। गहु ।। २ ।। तरुकी छाया नरकी माया, घटै बढ़े छन छन रे । 'द्यानत' अविनाशी धन लागें, जागें त्यागें ते धन रे । गहु . ।। ३ ।। १३९. साधो! छांडो विषय विकारी । जातैं तोहि महा दुखकारी जो जैनधर्म को ध्यावै, सो आतमीक सुख पावै । । साधो ।। गज फरस विषै दुख पाया, रस मीन गंध अलि गाया। लखि दीप शलभ हित कीना, मृग नाद सुनत जिय दीना । साधो. ।। १ ।। ये एक एक दुखदाई, तू पंच रमत है भाई । यह कौंनें, सीख बताई, तुमरे मन कैसें आई । । साधो . ।। २ ।। इनमाहिं लोभ अधिकाई, यह लोभ कुगतिको भाई । सो कुगतिमाहिं दुख भारी, तू त्याग विषय मतिधारी । | साधो || ३ || ये सेवत सुखसे लागें, फिर अन्त प्राणको त्यागें । तातैं ये विषफल कहिये, तिनको कैसे कर गहिये । । साधो ॥ ४ ॥ ५४ marak 3D Kailash Data Antanji Jain Bhajan Book pra (२८) पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन तबलौं विषया रस भावै, जबलौं अनुभव नहिं आवै । जिन अमृत पान ना कीना, तिन और रसन चित दीना । । साधो . ।। ५ ।। अब बहुत कहां लौं कहिए, कारज कहि चुप है रहिये । ये लाख बातकी एक, मत गहो विषयकी टेक । ।साधो . ।। ६ ।। जो तजै विषयकी आसा, 'द्यानत' पावै शिववासा । यह सतगुरु सीख बताई, काहू बिरले जिय आई । । साधो. ॥७॥ १४०. वे साधौं जन गाई, कर करुना सुखदाई. निरधन रोगी प्रान देत नहिं, लहि तिहुँ जग ठकुराई । । वे ।। १ ।। क्रोड़ रास कन मेरु हेम दे, इक जीवध अधिकाई ॥ । वे ।।२ ।। 'द्यानत' तीन लोक दुख पावक, मेघझरी बतलाई । । वे . ।। ३ ।। १४१. कर्मनिको पेलै, ज्ञान दशामें खेलै सुख दुख आवै खेद न पावै, समता रससों ठेलै । । कर्म. ।। १ ।। सुदर गुन परजाय समझके, पर-परिनाम धकेलै । । कर्म. ।। २ ।। आनंदकंद चिदानंद साहब, 'द्यानत' अंतर झेलै । । कर्म. ।। ३ ।। १४२. खेलौंगी होरी, आये चेतनराय ...... दरसन वसन ज्ञान रँग भीने, चरन गुलाल लगाय । । खेलौं ।। १ ।। आनँद अतर सुनय पिचकारी, अनहद बीन बजाय । । खेलौं ।। २ ।। रीझौं आप रिझावौं पियको, प्रीतम लौं गुन गाय ।।खेलौं ।। ३ ।। 'द्यान' सुमति सुखी लखि सुखिया, सखी भई बहु भाय । ।खेलौं ।।४ ।। १४३. चेतन खेलै होरी सत्ता भूमि छिमा वसन्तमें, समता प्रानप्रिया सँग गोरी । । चेतन. ।। मनको माट प्रेमको पानी, तामें करुना केसर घोरी । ज्ञान ध्यान पिचकारी भरि भरि, आपमें छोरै होरा होरी ।। १ ।। गुरुके वचन मृदंग बजत हैं, नय दोनों डफ ताल टकोरी । संजम अतर विमल व्रत चोवा, भाव गुलाल भरै भर झोरी । । २ ।।

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