Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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आध्यात्मिक भजन संग्रह
अनुक्रमणिका
१५२. करौं आरती वर्द्धमानकी। पावापुर निरवान थान की राग-बिना सब जग जन तारे। द्वेष बिना सब करम विदारे।।१।। शील-धुरंधर शिव-तियभोगी। मनवचकायन कहिये योगी ।।२।। रतनत्रय निधि परिग्रह-हारी। ज्ञानसुधाभोजनव्रतधारी ।।३ ।। लोक-अलोक व्याप निजमाही। सुखमय इंद्रिय सुखदुख नाहीं ।।४।। पंचकल्याणकपूज्य विरागी। विमलदिगंबर अंबर-त्यागी।।५ ।। गुनमनि-भूषन भूषित स्वामी। जगतउदास जगंतरस्वामी ।।६।। कहै कहां लौं तुम सब जानौ। 'द्यानत' की अभिलाष प्रमानौं ।।७।। १५३. मंगल आरती आतमराम | तनमंदिर मन उत्तम ठान...... समरस जलचंदन आनंद। तंदुल तत्त्वस्वरूप अमंद।।१।। समयसारफूलन की माल । अनुभव-सुख नेवज भरि थाल ।।२।। दीपकज्ञान ध्यानकी धूप। निरमलभाव महाफलरूप ।।३ ।। सुगुण भविकजन इकरँगलीन । निहचै नवधा भक्ति प्रवीन ।।४ ।। धुनि उतसाह सु अनहद गान । परम समाधिनिरत परधान ।।५।। बाहिज आतमभाव बहावै। अंतर है परमातम ध्यावै ।।६ ।। साहब सेवकभेद मिटाय । ‘द्यानत' एकमेक हो जाय ।।७।। १५४. आरति कीजै श्रीमुनिराजकी, अधमउधारन आतमकाजकी... जा लक्ष्मी के सब अभिलाखी। सो साधन करदम वत नाखी।।१।। सब जग जीत लियो जिन नारी। सो साधन नागनिवत छारी ।।२।। विषयन सब जगजिय वश कीने। ते साधन विषवत तज दीने ।।३।। भुविको राज चहत सब प्रानी। जीरन तृणवत त्यागत ध्यानी ।।४।। शत्रु मित्र दुखसुख सम मानै । लाभ अलाभ बराबर जानै ।।५।। छहोंकाय पीहरव्रत धारें। सबको आप समान निहारें ।।६।। इह आरती पढ़े जो गावै। ‘द्यानत' सुरगमुकति सुख पावै ।।७।।
२. पण्डित भूधरदासजी कृत भजन
५९-७७ • लगी लो नाभिनंदनसों • भगवन्त भजन क्यों भूला रे • जग में जीवन थोरा, रे अज्ञानी जागि • मेरे मन सूवा, जिनपद ६२
पींजरे वसि, यार लाव न बार रे . अरे! हाँ चेतो रे भाई जपि माला जिनवर नामकी. थाँकी कथनी म्हानै भवि देखि छबी भगवान की • जिनराज चरन मन मति बिसरै जिनराज ना विसारो, मति जन्म वादि हारो पुलकन्त नयन चकोर पक्षी...... नैननि को वान परी, दरसन की ६५ प्रभु गुन गाय रै, यह औसर फेर न पाय रे
सुन ज्ञानी प्राणी, श्री गुरु सीख सयानी • वे मुनिवर कब मिलि है उपगारी • सो गुरुदेव हमारा है साधो ६७
अब पूरी कर नींदड़ी, सुन जिया रे! चिरकाल...... भलो चेत्यो वीर नर तू, भलो चेत्यो वीर देखो भाई! आतमदेव बिराजै अन्तर उज्जवल करना रे भाई! • अब मेरे समकित सावन आयो सुनि ठगनी माया, तैं सब जग ठग खाया अज्ञानी पाप धतूरा न बोय • ऐसी समझके सिर धूल चित्त! चेतनकी यह विरियां रे . गरव नहिं कीजै रे, ऐ नर निपट गंवार • बीरा! थारी बान बुरी परी रे, बरज्यो मानत नाहिं
Antanjidain Bhajan Book pands
(३०)

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