Book Title: Adhyatmik Bhajan Sangrah
Author(s): Saubhagyamal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 32
________________ आध्यात्मिक भजन संग्रह ६२ ३. जग में जीवन थोरा, रे अज्ञानी जागि (राग ख्याल) जग में जीवन थोरा, रे अज्ञानी जागि । । टेक ॥ जनम ताड़ तरुतैं पड़े, फल संसारी जीव । मौत महीमैं आय हैं, और न ठौर सदीव ॥ १ ॥ । जगमें ।। गिर - सिर दिवला जोइया, चहुंदिशि बाजै पौन । बलत अचंभा मानिया, बुझत अचंभा कौन || २ || जगमें . ।। जो छिन जाय सो आयुमैं, निशि दिन दूकै काल । बाँधि सकै तो है भला, पानी पहिली पाल ।। ३ । । जगमें ।। मनुष देह दुर्लभ्य है, मति चूकै यह दाव । भूधर राजुल कंतकी, शरण सिताबी आव ॥१४ ॥ । जगमें. ।। ४. मेरे मन सूवा, जिनपद पींजरे वसि, यार लाव न बार रे (राग सोरठ) मेरे मन सूवा, जिनपद पिंजरे वसि, यार लाव न बार रे । । टेक ॥। संसार सेमलवृक्ष सेवत, गयो काल अपार रे । विषय फल तिस तोड़ि चाखे, कहा देख्यौ सार रे ।। १ ।। तू क्यों निचिन्तो सदा तोकों, तकत काल मंजार रे । दाबै अचानक आन तब तुझे, कौन लेय उबार रे ।। २ ।। तू फंस्यो कर्म कुफन्द भाई, छूटै कौन प्रकार रे । तैं मोह-पंछी - वधक-विद्या, लखी नाहिं गंवार रे ।। ३ ।। है अौं एक उपाय 'भूधर', छूटै जो नर धार रे । रटि नाम राजुल - रमन को, पशुबंध छोड़न हार रे ।।४ ।। ५. अरे ! हाँ चेतो रे भाई (राग ख्याल) अरे! हाँ चेतो रे भाई ।। मानुष देह लही दुलही, सुघरी उघरी सतसंगति पाई ।। १ ।। marak 3D Kailash Data Antanji Jai Bhajan Book p (३२) पण्डित भूधरदासजी कृत भजन ६३ जे करनी वरनी करनी नहिं, ते समझी करनी समझाई ।। २ ।। यों शुभ थान जग्यो उर ज्ञान, विषै विषपान तृषा न बुझाई || ३ || पारस पाय सुधारस ‘भूधर’, भीखके मांहि सु लाज न आई ।।४ ।। ६. जपि माला जिनवर नामकी (राग सारङ्ग) जप माला जिनवर नाम की। भजन सुधारससों नहिं धोई, सो रसना किस काम की ।। जपि ।। सुमरन सार और सब मिथ्या, पटतर धूंवा नाम की। विषम कमान समान विषय सुख, काय कोथली चाम की ।। १ ।। जपि ।। जैसे चित्र-नाग के मांथै, थिर मूरति चित्राम की । चित आरूढ़ करो प्रभु ऐसे, खोय गुंडी परिनाम की ।। २ । ।जपि . ।। कर्म बैर अहनिशि छल जोवैं, सुधि न परत पल जाम की। 'भूधर' कैसे बनत विसारैं, रटना पूरन राम की ।। ३ । । जपि ।। ७. थांकी कथनी म्हानै (राग ख्याल) थांकी कथनी म्हानै प्यारी लगे जी, प्यारी लगै म्हारी भूल भगै जी ।। तुम हित हांक बिना हो श्रीगुरु, सूतो जियरो कांई जगै जी ।। मोहनिधूलि मेलि म्हारे मांथै, तीन रतन म्हारा मोह ठगै जी । तुम पद ढोकत सीस झरी रज, अब ठगको कर नाहिं वगै जी ।। १ ।। टूट्यो चिर मिथ्यात महाज्वर, भागां मिल गया वैद्य मगै जी । अन्तर अरुचि मिटी मम आतम, अब अपने निजदर्व पगै जी ॥ २ ॥ भव वन भ्रमत बढ़ी तिसना तिस, क्योंहि बुझै नहिं हियरा दगै जी । 'भूधर गुरु उपदेशामृतरस, शान्तमई आनंद उमगै जी ।। ३ ।।

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