Book Title: Aagam 40 AAVASHYAK Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 1666
________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [सू.९] + गाथा ॥१-३|| दीप अनुक्रम [७३-७७] Educat आवश्यक" मूलसूत्र - १ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [६], मूलं [स्] / [गाथा १-३], निर्युक्तिः [ १५६१...] आष्यं [२४३...... सावरण कथं कायर्वति १, इह सावगी दुविधो-इहीपत्तो अणिपत्तो य, जो सो अणिपत्तो सो चेतियघरे साधुसमीपे वा घरे वा पोसघसालाए वा जत्थ वा विसमति अच्छते वा निवावारो सवत्थ करेति तत्थ, चउसु ठाणेसु नियमा काय - चेतियघरे साधुमूले पोपधसालाए घरे आवास करेंतोत्ति, तत्थ जति साधुसमासे करेति तत्थ का विधी 2, जति परं परभयं नत्थि जतिवि य केणइ समं विवादो णत्थि जति कस्सइ ण धरेइ मा तेण अंछवियधियं कज्जिहिति, जति य धारणगं दडूण न गेण्हति मा णिज्जिहित्ति, जति वावारं ण वावारेति, ताधे घरे चैव सामायिक कातूणं चच्चति, पंचसमिओ तिगुत्तो ईरियाबजुत्ते जहा साहू भासाए सावज्जं परिहरंतो एसणाए कई लेहुं वा पडिले हिउँ पमज्जेतुं, एवं आदाणे णिक्खेवणे, खेलसिंघाणे ण विगिंचति, विगिंचतो वा पडिलेहेति य पमज्जति य, जत्थ चिट्ठति तत्थवि गुत्तिणिरोध करेति । एताए विधीए गत्ता तिविधेण णमित्तु साधुणो पच्छा सामाइयं करेति, 'करेमि भन्ते ! सामाइयं सावज्जं जोगं पञ्चक्खामि दुविधं तिविधेणं जाव साधू पज्जुवासामित्ति कातूणं, पच्छा ईरियावहियाए ३] [आायकेण कथं कर्त्तव्यमिति ?, इह आवको द्विविधः सद्विप्रासोऽनृद्धिमाप्तथ यः सोऽवृद्धिप्राप्तः स चैत्यगृहे साधुसमीपे वा गृहे वा पौधशालायां वा यत्र वा विश्राम्यति तिष्ठति वा निपपारः सर्वत्र करोति तत्र चतुर्षु स्थानेषु नियमात् कर्त्तव्यं चैत्यगृहे साधुले पौधशालायां गृहे वा ऽऽवश्यकं कुर्वचिति, तत्र यदि साघुसका करोति तन्त्र को विधिः? यदि परं परभयं नास्ति यदि च केनापि सार्धं विवादो नास्ति यदि कलैचि धारयति मा तेनाकर्षविकर्षं भूदिति, यदि वाधमणं दृष्ट्वा न गृह्येष मा नीयेयेति, यदि व्यापारं न करोति तदा गृह एवं सामायिकं कृत्वा व्रजति पञ्चसमितस्त्रिगुप्त ईयाद्युपयुक्तो यथा साधुः भाषायां सावधं परिहरन् एषणाय हुं काएं वा प्रतितिष्य प्रसृज्य एवमादाने निक्षेपे, मसिने नगति त्यजत् वा प्रतिलिखति च प्रमा च, यत्र तिष्ठति तत्रापि गुप्तिनिरोधं करोति, एतेन विधिना गत्वा त्रिविधेन नाथा साधून् पश्चात् सामायिकं करोति करोमि भदन्त ! सामायिकं सावयं योगं प्रत्याख्यामि द्विविधं विविधेन यावत् साधून् पर्युपासे इतिकृया पश्चात् पथिक For Parts Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि रचित वृत्तिः -------- ~1665~ ibrary.org

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