Book Title: Aagam 40 AAVASHYAK Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 1674
________________ आगम आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [६], मूलं [सू.-११] / [गाथा-], नियुक्ति: [१५६१...] भाष्यं [२४२...], (४०) R प्रत सूत्रांक [सू.११] 48 पोषधः ब्रह्मचर्यपोषधः, अत्र चरणीयं चर्य 'अवो यदि त्यस्मादधिकारात् 'गदमदचरयमश्चानुपसगात्' (पा०३-१-१००). दाइति यत्, ब्रह्म-कुशलानुष्ठान, यथोक्तं-"ब्रह्म वेदा ब्रह्म तपो, ब्रह्म ज्ञानं च शाश्वतम् ।" ब्रह्म च तत् चर्य चेति समासः | माशेष पूर्ववत् । तथा अव्यापारपोपधः । एत्थ पुण भावत्थो एस-आहारपोसधो दुविधो-देसे सबे य, देसे अमुगा विगती आयंबिलं वा एकसि वा दो बा, सबे चतुविधोऽवि आहारो अहोरत्तं पच्चक्खातो, सरीरपोषधो हाणुवणवण्णगविलेवणपुष्फगंधतंबोलाणं वत्थाभरणाणं च परिच्चागो य, सोवि देसे सबे य, देसे अमुगं सरीरसकारं करेमि अमुर्ग न करेमित्ति, सबे अहोरत, बंभचेरपोषधो देसे सबे य, देसे दिवारत्तिं एकसिं दो वा बारेत्ति, सबे अहोरत्तिं बंभयारी भवति, अबावारे पोसधो दुविहो देसे सवे य, देसे अमुगं वावारं ण करेमि, सचे सयलवाबारे हलसगडधरपरकमादीओ ण करेति, एस्थ जो| देसपोस करेति सामाइयं करेति वा ण वा, जो सदपोसधं करेति सो णियमा कयसामाइतो, जति ण करेति तो णियमा |वंचिजति, त कहिं , चेतियघरे साधूमूले वा घरे वा पोसघसालाए वा उम्मुकमणिसुवण्णो पढतो पोत्थगं वा वायतो अन पुनर्भावार्थ एषा-आहारपोषधो द्विविधा-येशतः सर्वतश्न, देशे अमुका विकृतिः आचामाम्लं वा एकको हिवा, सर्वतश्चतुर्विधोऽप्याहारोऽहोरात्रं प्रत्याख्यातः, शरीरपोषधः सानोदर्शनवर्णकविलेपन पुष्पगन्धताम्बूलानां चखाभरणानां च परित्यागात् , सोऽपि देशतः सर्वतश्च देशतोऽमुकं धारीरसत्कार करोम्य मुकं न करोमि, सर्वतोऽहोरात्रं, ब्रह्मचर्यपोषधो देशतः सर्वतश्र, देशतो दिवा रात्री वा एकशो द्विा, सर्वतोऽहोरात्रं ब्रह्मचारी भवति, अध्यापारपोषधो द्विविधा देशसः सर्वतच, देशवोऽमुकं व्यापार न करोमि सर्वतः सकलग्यापारान् हलशकटगृहपराक्रमादिकान् न करोति, अन यो देशपोवध करोति सामायिकं करोति वा नं वा, या सर्वपोष4 करोति स निमात् कृतसामायिका, यदि न करोति तवा नियमान्यते, तत्क, चैत्यगृहे साधुमूले बा गृहे वा पोषधशालायां वा। उन्मुक्तमणिमुवर्णः पठन पुस्तकं वा वाचयन् दीप अनुक्रम [७९] 6458 मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति: ~1673~

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