Book Title: Bina Nayan ki Bat
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय श्री चन्द्रप्रभ सागर बिना नयन की बात (श्रीमद् राजचन्द्र वाणी) Jai Education International For Personal & Private Use Only www.jainellibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिना नयन की बात महोपाध्याय श्री चन्द्रप्रभ सागर For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक श्री जितयशा फाउंडेशन ६ सी, एप्लानेड रो ईस्ट कलकत्ता ७०००६६ सौजन्य श्रीमती ललिता देवी डूंगरचंद हुंडिया, मोकलसर/इन्दौर संपादन विजयलक्ष्मी प्रवचन काल : १६ से २४ जुलाई, १६६३; इन्दौर प्रकाशन-वर्ष : १६६४ मूल्य : १० रुपये मुद्रक : राधिका ग्राफिक्स, इन्दौर For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेश से पूर्व युगान्तर परिवर्तन के बावजूद शास्त्र और शास्त्रकार हमेशा से रहे हैं। शास्त्रों और शास्त्रकारों की व्याख्या भी विविध प्रकार से की जा रही है। उनमें से ज्यादातर व्याख्याएँ तो स्वाध्याय की परम्परा के निर्वाह मात्र से अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हो पातीं। आज का मनुष्य वैज्ञानिक मनीषा से संपन्न है। वह न तो कोरे सिद्धान्तों से संतुष्ट होता है, न ही परम्परा से बंध जाने मात्र से अपनी स्वस्ति-मुक्ति मान लेता है। वह हर सिद्धान्त और परम्परा को बौद्धिक, व्यावहारिक और वैज्ञानिक कसौटी पर कस-परख लेना चाहता है। सौ टंच सिद्ध । प्रमाणित होने पर ही उसे हृदयंगम कर पाता है। धर्म का वही स्वरूप उसे प्रभावित करता है जो सहज हो, व्यावहारिक हो और मनुष्य को भीतर-बाहर दोनों दृष्टि से सुखद, उन्नत और ज्योतिर्मय बनाए। धार्मिक सिद्धान्त अपनी जगह सत्य है। हमारे शास्त्र ज्ञान के अखूट खजाने हैं, लेकिन उनकी उपादेयता तभी है जब उनका युगानुरूप और सर्वानुकूल प्रस्तुतीकरण हो। महोपाध्याय श्री चन्द्रप्रभ सागर जी युग की वह महामनीषा हैं, जो धर्म, सिद्धान्त और दर्शन को जीवन-मूल्यों की दृष्टि से देखते हैं। प्रयोगधर्मी, प्रत्यक्ष परिणाम उपलब्ध करने में विश्वास रखते हैं। उनकी व्याख्याओं से संभव है, पारम्परिक पंडितों के अहं को आघात पहुँचे, पर गुणधर्मी लोगों के लिए शीघ्र बोधगम्य और चैतन्यमय हैं। प्रज्ञामूर्ति श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि में श्रीमद् राजचन्द्र बीसवीं सदी की महान अध्यात्म-विभूति हैं। उनके पद अतीत के अध्यात्म को वर्तमान के धरातल पर पुनरुज्जीवित करते हैं। उनकी बात में काफी दम है, सच्चाई है। श्री चन्द्रप्रभ जैसी मनीषा द्वारा राजचन्द्र के पदों पर इतना विस्तृत प्रकाश डालना, सचमुच इससे राजचन्द्र की महत्ता बढ़ी है, लोगों की उनके प्रति दृष्टि विराट् हुई है। ___ चैतन्य-प्रभु श्री चन्द्रप्रभ में भगवत्ता और वैज्ञानिक बुद्धि का ऐसा अनूठा समावेश है कि आगम, योगसूत्र या अन्य किसी आदर्श सूत्र-ग्रन्थ की व्याख्या (iii) For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके लिए सहज कर्म है। उनका साहित्य ज्ञान-पिपासुओं की तृप्ति का उत्स बन चुका है। ___'बिना नयन की बात' श्रीमद् राजचन्द्र की अन्तरचेतना का अनावरण/ उद्घाटन है। यह पुस्तक एक नवचिंतन, स्फूर्त चेतना, जाग्रत दृष्टि और तीव्र आध्यात्मिक रुझान विकसित करने में सक्षम है। धर्म अब बुढ़ापे में समय व्यतीत करने का साधन मात्र न रहकर, नवक्षितिज का स्पर्श करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। - विजयलक्ष्मी (iv) For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बजी घंटियां मन-मन्दिर की मेरे प्रिय आत्मन्! हजारों वर्ष पुरानी बात है। कहते हैं, परमात्मा का मन्दिर गहरे समुद्र में डूब गया था और न जाने कितने वर्षों तक वह मन्दिर समुद्र में ही डूबा रहा। मैं आराम से सोया हुआ था, तभी मुझे परमात्मा के मन्दिरों के शिखरों पर लगी हुई घंटियों की आवाज सुनाई दी। मैं चौंका, पता नहीं चल रहा था कि घंटियों की आवाज किस दिशा की ओर से आ रही है। फिर सो गया, लेकिन फिर वही आवाज आने लगी। उस आवाज में एक जादू था, एक मिठास थी, एक आकर्षण था। मैं उस आवाज की ओर चल पड़ा। चलता गया, चलता गया। आवाज इतनी लुभावनी थी कि एक भी कदम रूक न पाया और बढ़ते-बढ़ते देखा - समुन्दर के किनारे पहुंच चुका हूं। आवाज उसी दिशा से आ रही थी। वहां संगीत था। वहां के मन्दिरों पर लगी हुई घंटियों का संगीत था। जब मैं समुद्र के किनारे पहुंचा तो मैंने देखा कि वहां पहले से ही हजारों लोग और भी खड़े हैं। वे भी चाहते हैं कि जिस दिशा की ओर से यह आवाज आ रही है, ये मधुरिम स्वर आ रहे हैं, उसकी ओर हम भी चलें, लेकिन वे लोग डर रहे थे। समुद्र की यात्रा खतरों से भरी है, कहीं डूब गये तो ? ये हजारों लोग, हजारों सालों से वहां खड़े थे, क्यों ? उस आवाज में ऐसा कोई जादू था। ____ मैंने झट से किनारे पर खड़ी नौका का लंगर खोला। उसमें छलांग मारी और नौका हवा और पानी से बातें करने लगी। नौका बढ़ती चली गई। हवा अपने आप उस दिशा की ओर ले जा रही थी। पतवारें निरन्तर चलती चली जा रही थीं। बहुत दूर चला गया। बहुत गहराई तक चला गया। जैसे-जैसे गया, जो आवाज आ रही थी, वह आना बंद हो गयी। मैं घबरा गया, भयभीत हुआ। बजी घंटियां मन-मन्दिर की / १ For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस संगीत की तलाश में, जिस आवाज के आकर्षण में, मैं इतनी दूर चला आया था, वहां तो बिल्कुल घुप्प अंधकार छा गया है। न कोई आवाज है, न कोई टापू है, न अब कोई संगीत है, लेकिन इतना दूर चला गया था कि वापस आने का कोई रास्ता न बचा। सात समुन्दर के बीच आदमी चला जाये, फिर कैसे पता चल पाए कि वह कहां से आया था और उसे कहां जाना है। जीवन के द्वार पर भटकाव शुरु हुआ । भटकता चला गया किन्तु वापस लौटने का नाम न लिया। निश्चय किया कि वापस जाएंगे तो उस संगीत को आत्मसात करके ही जाएंगे। खाली हाथ नहीं लौटेंगे। ___ अचानक एक दिन एक टापू मिल गया। उस टापू पर अपने कदम रखे। उस टापू पर रहना ही जीवन में शान्ति और समाधि का कारण बन गया। उस टापू पर रहते-रहते अचानक एक दिन देखा कि घंटियों की आवाज धीरे-धीरे, धीरे-धीरे फिर आने लगी। संगीत की ओर आकर्षित हुआ। कुछ दिनों के बाद देखा कि परमात्मा का मन्दिर भी धीरे-धीरे ऊपर उठता चला आ रहा है और एक दिन ऐसा आया जब परमात्मा का मन्दिर पूरा का पूरा साक्षात हो गया । तब एक अलख आनन्द जगा। तब जीवन में अनुभव के द्वार पर परमात्मा के साथ साक्षात्कार हुआ। व्यक्तिगत चेतन में परमात्म-चेतन का अनुभव हुआ। परमात्मा के मन्दिरों की घन्टियां मुझे आज भी सुनाई देती हैं। क्या आप लोगों तक भी उन घंटियों की आवाज पहुंच रही है? मैं साफ-साफ सुन रहा हूं कि वह परमात्मा के मंदिरों की घंटियों की आवाज अब भी आ रही है, अब भी आनन्द दे रही है, प्रेरित/झंकृत कर रही है। अब भी सदाबहार ऋतु की तरह जीवन में एक अलख आनन्द की लौ जगा रही है। जरा अपने कानों पर से अपने बालों को हटाइये, पर्दे और दीवारें हटाइये, ताकि इन आवरणों को हटाने के बाद परमात्मा के मन्दिरों का संगीत आप लोगों तक पहुंच सके। __ ये परमात्मा का मन्दिर किसी और समुन्दर में नहीं है, यह तो स्वयं के ही भीतर छिपे हुए सागर में डूबा हुआ है। मनुष्य के भीतर एक जो महासागर फैला हुआ है, उसी महासागर के भीतर वो परमात्मा का मन्दिर डूबा हुआ है। संगीत आ रहा है, घंटियां बज रही हैं, सुनने वाले सुन रहे हैं, लेकिन समुद्र के किनारे जाकर सब ठिठक गये हैं। कहीं डूब गये तो? कहीं भटक गये तो? जिनके जीवन में परमात्मा की एक अलख प्यास है, स्वयं के आत्म-साक्षात्कार की एक अलख जिज्ञासा है, स्वयं में छिपे हुए परमात्मा को पाने की एक अलख पिपासा है, वही व्यक्ति इस महामार्ग का अनुयायी हो सकता है। वही व्यक्ति विना नयन की वात : श्री चन्द्रप्रभ / २ For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पथ का पथिक हो सकता है। ऐसा ही एक इन्सान हुआ, जिसने उन घंटियों की आवाज को सुना और चल पड़ा। बाकी लोग किनारे पर खड़े रहे। एक आत्मा, एक इन्सान, उसने लंगर खोला और चल पड़ा। उसी साधक के बारे में आज मैं चर्चा करना चाहता हूं। वह साधक और कोई नहीं, एक सन्त, एक महन्त, एक अरिहन्त - वह है राजचन्द्र। श्रीमद् राजचन्द्र, गांधी के गुरु । जो लोग श्रीमद् की पूजा कर रहे थे, वे श्रीमद् नहीं बन पाये । वे श्रीमद् के शास्त्रों को पढ़ते रहे, लेकिन श्रीमद् नहीं हो पाये। पर जो व्यक्ति चल पड़ा, रास्ते के खतरों का सामना करने के लिए, जीवन के मूल्यों से संघर्ष करने के लिए, वही व्यक्ति अपने भीतर छिपी सम्भावनाओं में तीर्थंकरत्व को आत्मसात कर सकता है। जब तक इस मनुष्य की देह में छिपे हुए शूद्रत्व के भीतर, ब्राह्मणत्व के भीतर, मनुष्यत्व नहीं जगेगा, तब तक सिर्फ एक व्यवसाय कर सकते हो। धर्म का भी एक व्यवसाय कर सकते हो, लेकिन धर्म को आत्मसात नहीं कर सकते। उस परमधर्म का साक्षात्कार करने के लिए तो अपने क्षत्रियत्व को जगाना पड़ता है, भीतर के उस ओज को जागृत करना पड़ता है। क्योंकि बिना संकल्प के, बिना संघर्ष के यह यात्रा पूरी नहीं हो सकती। चलोगे, मगर कहीं नहीं पहुंचोगे। अगर यहां से सागर तक की यात्रा भी की तो भी कहीं नहीं पहुंच पाओगे। जब तक समुन्दर के भीतर अपना पांव न रखा, तब तक सागर में रहने वाले मोती नहीं मिल पाएंगे। __ जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ । मैं बौरी ढूंढन गई, रही किनारे बैठ ।। मैं गई तो ढूंढने थी, खोजने को गई, कुछ पाने को गई। पर डर गई, डूबने के खतरे से घबरा गई, सो किनारे पर ही बैठ गई। कबीर कहते हैं-- जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। मैं बोरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ। जो किनारे रह गया, वह किनारे पर ही रह गया। किनारे पर कभी सत्य नहीं मिलता। किनारे पर सीप के टुकड़े मिल सकते हैं। सीप में रहने वाले मोती नहीं मिल सकते। इसके लिए तो गहरे पानी में उतरना होगा। गहरे में उथल-पुथल करनी होगी। गहरा कोहराम मचाना होगा। जीवन में गहरापन लाना होगा। जिन लोगों ने जुआ खेला है, वे जानते हैं कि या तो बाजी इस पार बजी घंटियां मन-मन्दिर की / ३ For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहती है, या उस पार । अगर अध्यात्म को आत्मसात करना चाहते हो तो या तो इस पार रहो, या फिर उस पार निकल जाओ । अधर में लटका हुआ अध्यात्म कोई मायने नहीं रखता। अधर में लटकती हुई पैंडुलम, सार्थकता नहीं रखती । या तो इस पार, या फिर उस पार । जीवन को एक मार्ग पर ले चलो। या तो पूरी तरह से सेवन करो या फिर पूरी तरह से त्याग डालो। ये बीच का मार्ग कभी अपनाने की कोशिश मत करना । आधा भोगेंगे, आधा त्यागेंगे, वह व्रत कभी व्रत नहीं होगा। वो विरति कभी विरति नहीं हो पाएगी। या तो पूरी तरह से उससे छूट चलो, या फिर पूरी तरह से उसका सेवन करो ना.... कौन मना करता है आपको। दुनिया में कोई आपको परहेज रखने के लिए नहीं कहेगा । अगर पाना चाहते हो, अगर सच में कुछ होना चाहते हो, राजचन्द्र का जीवन स्वयं में घटित करना चाहते हो, अपने आपको आत्मसात करना चाहते हो, तो मैं चाहूंगा कि आप लोग अपने आपको मुझे सौंप दें। अगर पूरी तरह सौंप नहीं सकते, तो कम से कम मेरे हृदय तक अपने आपको पहुंचने दें। अगर मेरे हृदय में नहीं आ सकते, कोई दिक्कत नहीं, अपने हृदय तक तो मुझे ले जा सकते हो । अगर आपने, अपने मन में अपनी आत्मा में मुझे भी प्रवेश दे दिया तो भी काफी है । मैं भीतर एक कोहराम मचाऊंगा। मैं भीतर की लंका में आग लगाऊंगा और मैं चाहता हूं कि यह चैतन्य स्वरूप की आग सारे जहान में फैल जाए। जिसके भीतर भी रावण है, उस रावण को जला डाले और भीतर का सोया राम जग जाये। कचरा जल जाये, सोना कुंदन हो जाये। आदमी के भीतर जो दोगलापन है, जो भटकाव है, मैं उसे खत्म कर देना चाहता हूं। मैं आप लोगों को आग देना चाहता हूं, केवल चिराग नहीं ताकि आग आपके भीतर के कषाय को, राग-द्वेष के तन्तुओं को जलाकर राख कर सके। पूरी तरह से नाश न कर सके, तो कम-से-कम मैं राजचन्द्र की जो निष्पत्तियां आप लोगों को देना चाहता हूं, उन के द्वारा कम-से-कम इतना तो सिद्ध कर दो कि मेरे भीतर भी एक हनुमान सोया है, जो चाहे तो तहत - नहस मचा सकता है। लंका को जला सकता है । राजचन्द्र कोई मामूली आदमी नहीं है, असाधारण ! फिर भी साधारण । साधारण इसलिए क्योंकि वह आपसे पैदा हुए हैं। रामचन्द्र की तरह, कृष्ण की तरह भगवान का अवतार होकर नहीं आए हैं । तीर्थंकर की तरह जन्मजात अवधिज्ञान लेकर पैदा नहीं हुए हैं । वह तो साधक हैं, जो अपनी भुजा के बल से, अपने आत्मबल से कुछ प्राप्त करेंगे तो करेंगे। किसी तीर्थंकर गोत्र को प्राप्त करके किसी और की मेहरबानी से अवधि ज्ञान भी मिलता है, वो भी उधार खाता है। यह तो नकदानकद माल है । बिल्कुल ताजी - ताजी मिठाई है । बासी माल बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ४ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहां न मिलेगा। ये जो उनके पद हैं, ये बासी हो सकते हैं, पर ढूंढना पड़ेगा हमें कि इन पदों में कहीं कुछ ताजगी है, कहीं कोई सदा बहार की सम्भावना है ? ढूंढना पड़ेगा, तलाश करना पड़ेगा। इन पदों में से कहीं कोई संगीत आता हुआ दिखाई देगा। राजचन्द्र के पद कोई सिद्धान्त नहीं हैं । ये जीवन के अनुभवों की निष्पत्तियां हैं। सिद्धान्त अगर होते तो उन्हें श्रद्धा से सुना जाता । कल्पसूत्र में कोई सिद्धान्त है, वेद में कोई सिद्धान्त है, उपनिषदों में सिद्धान्त है, गीता में सिद्धान्त है, लेकिन राजचन्द्र में कोई सिद्धान्त नहीं है । ये तो उनके अनुभव के द्वार पर कुछ दीपक जले हैं और वो अनुभव उन्होंने आप लोगों को परोसे हैं। श्रीमद् राजचन्द्र की अन्तरात्मा तक हम पहुंचें, उनके अमृत पदों में प्रवेश करें, उससे पहले मैं सिर्फ यह कह देना चाहूंगा कि राजचन्द्र पवित्र नदी है। नदियाँ तो दुनिया में बहुतेरी हैं लेकिन राजचन्द्र गंगा जैसी नदी है। आपको यहां कुछ कमियाँ भी दिखाई देंगी। नदी में आपको कुछ कचरा बहता हुआ भी दिखाई देगा, घर-गृहस्थी की बातें भी सुनाई देंगी, लेकिन कितना भी हो, गंगा का पानी तो फिर भी निर्मल ही रहेगा । इसलिए राजचन्द्र तो गंगा में डुबकी लगाने जैसा है । 'अन बूड़ै - बूड़े तिरै' डूबकर ही, पानी में उतरकर ही सीख पाओगे तैरना । पानी से बचकर तैरना नहीं सीखा जा सकता । तैरना आता है कि नहीं, इसकी चिन्ता नहीं । एक डुबकी लगाओ, पवित्रता पाने के लिए। जो गंगोत्री से निपजी हुई गंगा है, उसमें तो शरीर को डुबोना होता है, पर राजचन्द्र की गंगा में अन्तरात्मा को डुबोना पड़ता है। राजचन्द्र कोई कवि नहीं है, अनुभवी है। इसलिए 'अंदाजे बयां ' कुछ 'और' है । इनके बयानों में बात ही कुछ निराली है, जो और कहीं नहीं मिलेगी । ये इस कलियुग के वह तीर्थंकर हैं, जिसे जमाने ने तीर्थंकर के रूप में स्वीकार नहीं किया। यह वे सर्वज्ञ हैं, जिनका अनुभव के द्वारों से गुजरने वालों में अपना एक नाम है । सर्वज्ञ ऐसे, जिसने जाना अपने बारे में सर्वस्व । अपने अस्तित्व को पूरा जान लेना ही स्वयं की सर्वज्ञता है । राजचन्द्र ध्रुव तारा हैं । तारे तो बहुतेरे हैं, पर ये ध्रुवतारा हैं। ये हिमालय हैं। दुनिया में पर्वत तो बहुत हैं, लेकिन हर पर्वत हिमालय नहीं हो सकता। राजचन्द्र तो हिमालय पर्वत हैं, एक अनेरा पर्वत - हिमाच्छादित अमल धवल । और दुनिया में - हजारों खिज्र पैदा कर चुकी है, नस्ल आदमी की, बी घंटियां मन-मन्दिर की / For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये सब तस्लीम, लेकिन आदमी अब तक भटकता है। न जाने मानवजाति ने अब तक कितने सारे तीर्थंकर, अवतार और पैगम्बर पैदा किये हैं, पर यह मानव जाति का दुर्भाग्य है कि वह अब तक भटक रही है । और यह तब तक भटकती रहेगी, जब तक इन्सान के भीतर तत्व को प्राप्त करने की कोई अभीप्सा, कोई संकल्प नहीं जगेगा। जब तक संकल्प नहीं होगा, रुचि नहीं होगी। तब तक यात्रा होगी ही नहीं । वह प्रार्थना मृत है, जिसमें परमात्मा को पाने की परिपूर्ण प्यास नहीं है । प्यास ही परमात्मा की यात्रा है । अन्यथा सम्भव ही नहीं है यह यात्रा, क्योंकि बीच में न जाने कितनी सारी बाधाएं आती हैं, भंवर आते हैं, तूफान खड़े हो जाते हैं, लुभाए जाते हैं और आदमी फिसल जाता है । तिब्बतियन कहावत है। सौ रवाना होते हैं, तो दस पहुंचते हैं। मगर यह मार्ग ऐसा है कि हजार रवाना होते हैं, तब कहीं मुश्किल से दस पहुंचते हैं। लेकिन यह भी जबानी जमा खर्च हुआ। हकीकत तो यह कि लाखों रवाना होते हैं तब कहीं राजचन्द्र जैसे कोई एक-आध व्यक्ति पहुंच पाते हैं। बाकी के तो बीच के प्रलोभनों में ही अटक कर रह जाते हैं । मार्ग पर आ भी गये तो क्या हुआ ? सन्त, आचार्य भी बन गए तो क्या हुआ ? प्रलोभन तो तब भी आते हैं। कोई कहता है, महाराज! मैं आपको आचार्य की पदवी दूंगा और सन्त महाराज पद की लोलुपता, पद के अहंकार में उल्टा नीचे गिर जाते हैं । संघ वाले प्रलोभन देते हैं कि प्रतिष्ठा करवानी है, कोई मन्दिर बनाना है, भवन बनाना है, किसी को पुरस्कार देना है । ये कितने-कितने सारे प्रलोभन आते हैं और यों आदमी आगे नहीं बढ़ पाता । प्रलोभनों में उलझ कर वह यहीं का यहीं पड़ा रह जाता है । हर प्रलोभन अपने आप में मकड़जाल में फंसाता है। दुनिया में कई तरह की एषणाएं होती हैं। पहली है - वितैषणा- धन की खोज। दूसरी होती है स्त्रैषणा - पत्नी की चाह । तीसरी होती है - पुत्रैषणा - पुत्र की चाह और चौथी होती है - लोकैषणा प्रसिद्धि की चाह । धन को छोड़ना सरल है, पत्नी को छोड़ना सरल है, पुत्र को, संसार को छोड़ना सरल है, लेकिन संन्यस्त जीवन में जाने के बाद लोकैषणा, प्रसिद्धि, प्रशंसा की इच्छा को छोड़ना काफी कठिन है । लेकिन आदमी जिस नाम की प्रशंसा चाहता है, वह नहीं जानता कि नाम कितना झूठा और कितना आरोपित है। वह समझता है कि मेरा नाम बढ़ रहा है। यह फैल रहा है । पर जरा सोचो कि अगर आपका नाम मिलापचन्द है, और आप सोचते हैं कि मिलापचन्द के नाम से लाखों का दान करूं, तो बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ६ - For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिलालेख खोदे जाएंगे। पर उन शिलालेखों को पढ़ता कौन है ? आपका बेटा तक नहीं पढ़ेगा, दुनियां कहां पढ़ने जाएगी ? फिर मिलापचन्द नाम के ही न जाने कितने सारे आदमी यहां भरे हुए पड़े हैं। यह एक मिथ्या आसक्ति है । किसी और के द्वारा आरोपित नाम के प्रति आसक्ति रखना, जड़ के भाव में चेतना को बेचना है। लोकेषणा मनःद्वार से छूटनी बहुत कठिन है । यश के प्रलोभन गिराने हैं। जो आदमी प्रलोभन से छूट जाता है वही कहीं पहुंचता है । और तो और, अब तो प्रवचनों में भी प्रलोभन का मार्ग खुलने लगा है । प्रवचन में अगर पंछी कम आते हों, तो सीधे प्रलोभन का दामन थामा जाता है और लड्डू की प्रभावना सिक्के की प्रभावना शुरु हो जाती है। जब मुझसे भी यह कहा गया, तो मैंने कहा, धर्म के द्वार पर क्यों लोभ - प्रलोभन की बातें चलाते हो। जिन्हें जरूरत होगी, वे आएंगे। जिन्हें जरूरत नहीं उन्हें बुलाना भी क्यों ? जिन्हें आवश्यकता होगी, वे खुद आएंगे। अगर लड्डू खाने हैं, कहीं और चले जाओ । हां ! अगर लोहार का हथौड़ा खाना है, तो आइए, ताकि भीतर की जंग उतारी जा सके । सुनार की हथौड़ी सौ बार खा ली तो क्या हुआ ? अब तो लोहार की हथौड़ी खानी है । भले ही मैं सुनार लगूं, लेकिन हाथ में हमेशा लोहार का थौड़ा है। 1 पर श्रीमद् राजचन्द्र के पदों में हम प्रवेश करें, इसके पहले मैं चाहूंगा कि उनके बारे में हम कुछ बातें समझ लें। पहली बात तो यह है कि राजचन्द्र कोई दार्शनिक नहीं हैं। उनकी अपनी कोई फिलॉसाफी नहीं है। राजचन्द्र तो दृष्टापुरुष हैं। दार्शनिक और दृष्टा में फर्क है। दार्शनिक तो हर कोई हो सकता है, पर दृष्टा हर आदमी नहीं हो सकता । दृष्टा, दृष्टि से निष्पन्न होता है । दार्शनिक वह होता है जो सोचता ज्यादा है । दृष्टा वह होता है, जो देखता ज्यादा है। सोचने और देखने में फर्क है । सोच-सोच कर तुम विचारक बन जाओगे, देख-देख कर वीतराग। अज्ञात के बारे में सोचा तो बहुत जा सकता है, लेकिन अज्ञात को देखा नहीं जा सकता। एक अंधा आदमी भी प्रकाश के बारे में सोच तो बहुत सकता है, लेकिन वह प्रकाश को देख नहीं सकता। जीवन में 'साधुवादता, धन्यभाग्यता, दार्शनिक होने से नहीं आती । वह तो दृष्टा होने से उपलब्ध होती है। एक अंधा आदमी प्रकाश के बारे में अपना भाषण देता फिरे, इससे बड़ा व्यंग्य और क्या होगा? यह तो स्वयं पर ही व्यंग्य है। दार्शनिक होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। इस समय दुनिया में हजारों दार्शनिक हैं और धर्म भी सैकड़ों, तीन सौ सड़सठ । लेकिन कोई धर्म ऐसा नहीं है, जो एक दूसरे को परास्त कर बजी घंटियां मन-मन्दिर की / ७ For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सके। ऐसा कोई भी दर्शन नहीं है, जो अपने आपको पूरी तरह अकाट्य कह सके। जिसका तर्क वजनदार उसका पलड़ा भारी । इसलिए यह तो दृष्टा होना है, आंखों से देखने की बात है । मैं जब जब भी बोलता हूं, यह नहीं कहता कि तुम मेरी बात पर विश्वास करना, श्रद्धा करना। मैं हमेशा यह चाहूंगा कि मेरी बात को हमेशा देखने का प्रयास करना। मानने की बात मैं नहीं कहूंगा, जानने की बात कहूंगा । दृष्टा हमेशा जानता है, दार्शनिक हमेशा मानता है । दार्शनिक ने जो लिखा है, वह उससे अलग रास्ते पर चल सकता है लेकिन दृष्टा ने जो जाना है, वह उससे अलग नहीं चल सकता । दार्शनिक विपरीतकाल में अपने सिद्धान्त से विचलित हो सकता है । दृष्टा हर हाल में उसी बात को दुहराएगा, जिसे उसने देखा है, जाना है । इसलिए मैं अगर कुछ बोलता हूं, तो यह मत सोचिएगा कि मैं कोई विचारक हूं, कोई दार्शनिक हूं। मैं देखने में विश्वास रखता हूं, जानने में विश्वास रखता हूं । साक्षित्व ही मैं हूं, यही मेरी अन्तरात्मा है । दूसरी बात श्रीमद् के बारे में, यह भी ध्यान में लीजिए कि राजचन्द्र कोई पारम्परिक नहीं है । वह आध्यात्मिक व्यक्ति है, मौलिक हैं । उनके पद अपने आप से निष्पन्न हुए हैं। इसलिए वे अध्यात्म - पुरुष हैं। अगर वे पारम्परिक होते तो आपकी तरह सुबह-शाम अड़तालीस मिनट सामायिक लेकर बैठ जाते। अगर वे पारम्परिक होते, तो नहीं समझे जाने वाले प्राकृत सूत्रों के प्रतिक्रमण के पाठ दोहराते रहते। अगर वे पारम्परिक होते, तो रोजाना मन्दिरों और स्थानकों में जाकर, देव गुरु और धर्म की वन्दना - विरूदावली, गाते रहते। वे पारम्परिक नहीं, वे आध्यात्मिक हैं । इसलिए वे विधिवादी नहीं, वे जीवन्त पुरुष हैं । जीवन्तता में विश्वास करने रखने वाले अनुशास्ता हैं। यहां तत्व पर विश्वास नहीं है। यहां अपने आप पर विश्वास है । इसलिए राजचन्द्र रूढ़िवादी धार्मिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक हैं, अध्यात्म के धनी हैं । धर्म व्यवहारों के साथ जुड़ा रहता है, पर अध्यात्म अपने आप से जुड़ा रहता है। धार्मिक वह है, जो यह जानता है कि समयसार में क्या लिखा है, या कि सुबह-शाम प्रतिक्रमण करना चाहिए लेकिन आध्यात्मिक आदमी वह है, जिसे स्वयं का बोध है, अपना ज्ञान है, अस्तित्व की पहचान है । स्वयं की सच्चाई का पता है । श्रीमद् राजचन्द्र के बारे में तीसरी बात जो बहुत महत्वपूर्ण है, कि राजचन्द्र कोई पंडित नहीं हैं, वे अनुभवी हैं। अगर पंडिताई देखने जाओगे तो बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ८ For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह उनमें नहीं मिलेगी । इसलिए राजचन्द्र कोई शंकराचार्य नहीं हैं । वे कोई आचार्य हेमचन्द्र नहीं हैं । राजचन्द्र सिर्फ राजचन्द्र है। यहां पंडिताई नहीं मिलेगी । राजचन्द्र कवि नहीं है। उनके अनुयायी जो उन्हें कवि कहते हैं, उनके साथ न्याय नहीं कर रहे हैं । कविता तो एक दस साल का छोटा बच्चा भी घड़ सकता है। राजचन्द्र कवि नहीं, अनुभवी हैं। अगर उनके पदों को सुनते समय यह लगे कि कहीं कोई शब्द टूट रहा है, शब्द - संयोजना ठीक नहीं है, ह्रस्व-दीर्घ का तालमेल नहीं है, छन्द - दोष है, तो चिन्ता मत कीजिएगा क्योंकि वह कवि की आत्मा नहीं है । यह तो सिर्फ एक आत्मा है, और आत्मा में जो संगीत उमड़ा है, वह दे रहे हैं। अनुभव संगीत है, इसलिए उसमें मजा है, उसमें जादू है, आनन्द है, आकर्षण है । वह परमात्मा का मन्दिर जो भीतर के समुन्दर में डूबा हुआ है, उसकी घंटियाँ निरन्तर बज रही है और आप लोगों को अपनी ओर बुलाना चाहती है। उन्हीं घंटियों की आवाज में से एक आवाज बता रहा हूं। एक स्वर झंकृत कर रहा हूं। इस स्वर को अपने भीतर तक जाने दीजिए - बहु पुण्य केरा, पुंज थी शुभ, देह मानव नो मळ्यो तो भी अरे भव-चक्र नो, आंटों नहीं एके टळ्यो । सुख प्राप्त करता, सुख टळे छे, लेश ए लक्षे लहो, क्षण-क्षण भयंकर भाव मरणे, कां अहो राची रहो । एक गहन निष्पत्ति है यह । मैंने जान बूझकर आज यह पद लिया है। इससे शुरुआत होनी चाहिए । इसलिए भी लिया है कि यह पद मुझसे कुछ जुड़ा हुआ है। मैं पद ही लूंगा, जो मेरी मान्यताओं के साथ फबता है । जो मुझे सही नहीं जंचता, वह फिर चाहे किसी का भी क्यों न हो, मैं उस पर चर्चा करना नहीं चाहता। इसलिए मैं वहीं कहूँगा, जो मैं वास्तव में कहना चाहता हूँ । राजचन्द्र को अपना माध्यम बना रहा हूं और उसमें से आपको वहीं दे रहा हूं जो मैं देना चाहता हूं । यह पद जुड़ा हुआ है हम से, मानववाद से । मैं चाहे जो होऊं, पर मेरे हर होने में मैं पहले इन्सान हूं, उसके बाद और कुछ । मेरे लिए पहले इन्सान होने का मूल्य है उसके बाद कुछ और होने का । राजचन्द्र कहते हैं कि तुमने इतने सारे महान पुण्य किये और उन पुण्यों को करने के बाद यह मानव काया मिली, पर इतना तो सोचो कि क्या फिर भी तुम्हारा भ्रमण टला ? सिर्फ यही सोचने की बात है । मनुष्य परम है, मनुष्य चरम है । मनुष्य आखिरी मापदंड है। दुनिया में जितने भी सिद्धान्त बने हैं, मानव मात्र के लिए बने हैं । धर्म मनुष्य के लिए होता बी घंटियां मन-मन्दिर की / ६ For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, मनुष्य धर्म के लिए नहीं । इसलिए मनु में और राजचन्द्र में फर्क है । मनु वह व्यक्ति हैं, ऐसे भगवान हैं, जो मनुस्मृति के लिए, या मनु ने जो सिद्धान्त बताए हैं, उनके लिए वे मनुष्य को कुर्बान कर सकते हैं। लेकिन हम मनुष्य को उन सिद्धान्तों के लिए कुर्बान नहीं कर सकते । मनुष्य के लिए उन सिद्धान्तों का हम उपयोग करवा सकते हैं। मनुष्य का निर्माण सिद्धान्तों के लिए नहीं हुआ है, सिद्धान्तों का निर्माण मनुष्य के लिए हुआ है। मनुष्य और सिद्धान्त अगर एक सहचर हो जायें, वहीं जीवन में साधना सफलीभूत हो जाती है, सिद्धि और सफलता हासिल हो जाती है । दुनिया में जितने भी सिद्धान्त बने हैं, समूह के लिए बने हैं, संघ समाज के लिए बने हैं, लेकिन मैं जिस सिद्धान्त की चर्चा कर रहा हूं, उसका सम्बन्ध एक - एक व्यक्ति से है । नियम और सिद्धान्त तो सार्वजनिक होते हैं। सबके लिए समान होते हैं । कोई भी सिद्धान्त ऐसा नहीं है जिसका अर्थ प्रत्येक व्यक्ति पर एक जैसा लागू हो। आखिर कोई भी इन्सान एक जैसा नहीं है। चेहरे अलग-अलग हैं। सबके पहनावे अलग-अलग हैं। सबके दृष्टिकोण अलग-अलग हैं, तो फिर सिद्धान्त एक जैसे क्यों? इसलिए मैं एक-एक व्यक्ति से जुड़ रहा हूं । महावीर के लिए गौतम एक होंगे। लेकिन मेरे लिए आप सब गौतम हैं । बुद्ध के लिए आनन्द एक होंगे, लेकिन मेरे लिए तो आप सभी आनन्द हैं और मैं एक-एक गौतम से, एक - एक आनन्द से बात कर रहा हूं । राजचन्द्र के लिए लघुराज स्वामी एक होंगे। लेकिन मेरे लिए आप सभी लघुराज स्वामी हैं और मैं एक-एक व्यक्ति के जीवन में रूपान्तरण, एक क्रान्तिकारी रूपान्तरण लाने की बात कर रहा हूं । बहुपुण्य केरा पुंजी शुभ देह मानव नो मल्यो, तो भी अरे-भव चक्र नो, आंटो नहीं एके टळ्यो । मनुष्य का शरीर मिल गया, यह पुण्य की बात है । सौभाग्य की बात है । पर क्या यही सौभाग्य की बात है शरीर मिल गया मनुष्य का? मनुष्य का शरीर तो एक वेश्या को भी मिला है। एक चोर को भी मिला है, एक डाकू को भी । हिटलर को भी मिला है और गांधी को भी । क्या मनुष्य शरीर की यह महिमा है? क्या हिटलर का शरीर प्राप्त हो जाना बड़े पुण्य की बात है ? यह कोई बड़ा पुण्य नहीं है। पुण्य तो तब होता है, जब भीतर का सोया हुआ मनुष्य जग जाए। तब समझना कि 'बहु पुण्य केरा पुंजथी शुभ देह मानव ना मल्यो ।' तुम्हें तुम्हारी काया नसीब से मिली। भीतर के मनुष्यत्व का जन्मना ही भीतर के परमात्मा का सामीप्य प्राप्त करना है । परमात्मा हमारी आत्मा का सपना बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / १० For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। भीतर के मनुष्य के जगने पर ही समझें कि भीतर के सागर में डूबा हुआ परमात्मा का मन्दिर उभरा। ___ भीतर के मनुष्य को, भीतर के मसीहा को जगाने के लिए ही तो घंटा बजाते हैं। क्या आप मन्दिर में जाकर घंटियां इसलिए बजाते हैं कि भगवान कहीं सोया हुआ हो, जो उसे सुनकर जग जाए? (हंसी) वास्तव में ये घंटनाद परमात्मा को जगाने के लिए नहीं किया जाता, बल्कि अपने-आपको जगाने के लिए किया जाता है। जोर से घंटा इसलिए बजाया जाता है ताकि हमारे अंदर के सारे स्नायुतंतु क्षणभर के लिए जग जाएं। मंदिर में परमात्मा नहीं है, मंदिर में तुम खुद हो । तुम मंदिर में हो तो परमात्मा मंदिर में है। यदि मंदिर में जाकर भी तुम संसार के बारे में सोचते हो, तो मंदिर में भी परमात्मा नहीं, संसार ही है। मंदिर में भी बाजार ही है, और यदि बाजार में जाकर, किसी शहर के चौराहे पर भी परमात्मा को याद करते हैं तो वह शहर का चौराहा नहीं, परमात्मा का मंदिर है। पहचानें हम अपने भीतर के भगवान को । भीतर का भगवान कैसे जानें, पहचानें इसी के लिए सारे साधन और साधना है। बेहतर होगा इसके लिए हम जगाएं पहले भीतर में सोये मनुष्य को। इधर हमारे भीतर का मनुष्य जग जाए, सोया हुआ इंसान जग जाए। यदि साधना की शुरुआत करनी है तो मैं पहला सूत्र देना चाहता हूं राजचन्द्र की ओर से ताकि भीतर का वह सोया हुआ इन्सान जग जाए। तभी तो क्षत्रियत्व जगेगा, हमारा पौरुष प्रकट होगा वह मनुष्य जगेगा। अभी तो जब तक भीतर का मनुष्य ही मरा-मरा सा पड़ा है, तब तक चेतना में कोई तरंग नहीं हो सकती। चेतना तुम में रहेगी, तुम चेतना में नहीं रहोगे। अफलातून ने मनुष्य की पहली परिभाषा दी है कि मनुष्य बिना पंखों का, दो पांवों से चलने वाला जानवर है। अफलातन ने किसी हिसाब से ठीक कहा होगा। किंतु डायोजनीज अफलातून के पास गया, एक मुर्गा लेकर। उसने अफलातून से कहा कि यदि इंसान बिना पंखों का दोपाया जानवर है, तो लो मैंने इस मुर्गे के पंख काट दिये। अब सिद्ध करो कि क्या यह मुर्गा इंसान हो गया? नहीं! वह इंसान नहीं हुआ। जानवर तो जानवर ही रहेगा, पर अभी तो इंसान भी जानवर ही बना हुआ है। जिस दिन मनुष्य के भीतर का मनुष्य पैदा हो जाएगा, उस दिन उसके भीतर का भगवान भी चला आएगा। पर जब तक भीतर से जानवर बने हुए हो तब तक बिना पंखों के दो पाया जानवर ही कहलाओगे। तब प्राण तो होंगे पर पशु-से प्राण । बजी घंटियां मन-मन्दिर की / ११ For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर अपनी अंतरात्मा का निरीक्षण करो, अगर अपने चित्त की वृत्तियों की विपश्यना करो, तो जानोगे कि तुम्हारे भीतर सोया हुआ इंसान जग गया है या अभी भी भीतर कोई जानवर या शैतान बैठा हुआ है। आज भी हमारे भीतर क्रोध है, वासना है, अहंकार है। लोभ और प्रपंच, छल और ईर्ष्या की भावना है। क्या करोगे ज्यादा शास्त्रों की तोता-रटन से यदि भीतर का इंसान नहीं जगा पाते हो। जैसे तुम कल थे, वैसे ही यदि आज भी करते चले जाओगे, तो ये शास्त्र कैसे कल्याण करेंगे। शास्त्रों में जो सच है, वह शाब्दिक है। अगर जीवन में शास्त्र उतर जावे तो शास्त्र सार्थक है, अन्यथा पंडितों के वाद-विवाद का साधन, तर्कजाल की व्यवस्था। ये शास्त्र कहीं हमारे लिए शस्त्र न बन जाएं, लड़ाई के माध्यम न बन जाएं। इस दुनिया में जितने अहित हुए हैं, धार्मिक और शास्त्रीय कट्टरता के कारण । संसार में अब तक करीब साढ़े पांच हजार युद्ध हुए हैं, उनमें से चार हजार युद्ध तो केवल धर्म और शास्त्रों के नाम पर हुए हैं। ये शास्त्र कहीं हमारे लिए संघर्ष के, युद्ध के एक-दूसरे को काटने, पछाड़ने और कट्टरता के माध्यम तो नहीं बन रहे हैं? जीवन का पहला मूल्य, जीवन की पहली साधना यही है कि अपने भीतर के इंसान को जगा लो। अन्यथा कभी तो हमारा मन बंदर की तरह डोलेगा, तो कभी कीड़े की तरह कीचड़ में धंसता चला जाएगा। माया, लोभ और परिग्रह के कारण हमारा मन क्रोध के साथ बहता हुआ 'चंडकौशिक' बन जाएगा, सर्पराज । ___ मैंने सुना है एक व्यक्ति बड़ा उदास था, रोने लगा। उसके मित्र ने पूछा, भाई! क्या बात है? रोते क्यों हो तो वह बोला , क्या बताऊं पिछले महीने मेरा चाचा मर गया। दोस्त ने कहा, चाचा मर गया तो क्या हुआ? जाते-जाते तुम्हारे लिये बहुत सारी जायदाद भी तो छोड़कर गया है । उसने कहा, दो महीने पहले मेरे दादा भी मर गये। दोस्त बोला, यह भी अच्छा हुआ। दादाजी के बहुत सारे खेत-खलिहान थे। सब तुम्हें मिल गये। इतना माल मिल गया फिर भी तुम रोते हो। बोला, रोता इसलिए हूं क्योंकि इस महीने अभी तक कोई नहीं मरा । (ठहाका) कहीं यही दुर्दशा तो हमारी नहीं है। सामान इकट्ठा हो रहा है, धन-दौलत बटोरते चले जा रहे हैं और बटोरने वाला निरन्तर खंडहर हो रहा है। जीवन के गलाघोंट संघर्ष में जीवन के मूल्य चुकते चले जा रहे हैं। मुखौटा कैसा है? गोरा है या काला है? बंदर जैसा है, कीड़े-मकोड़े जैसा है, हाथी, गधे जैसा है, या खच्चर, घोड़े जैसा है? कैसा है हमारे भीतर का चेहरा बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / १२ For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसे देखने का प्रयास करना है। भीतर के मानस को साफ करना है। स्वयं की प्रेक्षा-अनुप्रेक्षा करो, विपश्यना करो और देखो कि हमारा वास्तविक स्वरूप कैसा है? अगर आन्तरिक धुलाई से वह स्वच्छ, साफ हो सकता है, निर्मल हो सकता है, तो हम उसको निर्मल और पवित्र बनाने का प्रयास करें। यदि ऐसा होता है तो आगे की यात्रा बहुत सुखद और सुलभ हो जाएगी। सागर में मंदिर उभरते दिखाई देंगे। भीतर के भगवान की स्वतः पहचान होगी। शुद्ध चित्त के साथ अपने वर्तमान के प्रति सजग रहना ही धर्म का वास्तविक अभ्यास है, समाधि है। (घंटा बजने की आवाज) मंदिर में घंटिया बज रही हैं। घंटियां बजती रहे और सोया मनुष्य जगता रहे, इसी में घंटनाद की सार्थकता है। मन-मंदिर में बजती घंटियां तुम्हें भीतर बुला रही हैं। आज हमने कुछ प्रवेश किया है, कल और प्रवेश करें, तब तक के लिए मौन होने की अनुमति दीजिये। धन्यवाद। बजी घंटियां मन-मन्दिर की / १३ For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत नहीं, मृत्युंजय हों मेरे प्रिय आत्मन्! दमिश्क की एक दन्तकथा है । एक चालीस साल का आदमी राजधानी के चौराहे पर खड़ा, नौटंकी देख रहा था। हजारों की भीड़ थी। नाटकका आनन्द ही कुछ अनेरा था । नाटक देखते-देखते ही, उस आदमी के कंधे पर किसी के हाथ का स्पर्श हुआ । उसने अपने अगल-बगल में देखा । कहीं कोई ऐसा दिखाई नहीं दिया, जिसने उसे हाथ का स्पर्श किया हो। वह फिर नाटक देखने लगा। किसी ने फिर हाथ का स्पर्श किया। वह चिल्लाया। पूछा, कौन है ? धीरे से आवाज आई। 'मैं तुम्हारी मौत हूँ ।' मेरी मौत! वह चौंका। मौत का नाम सुनकर आदमी का चौंकना स्वाभाविक है। मौत ने कहा, अभी तो मैं सिर्फ तुम्हें चेताने के लिए आई हूँ। कल शाम को मैं तुम्हें लेने आऊंगी। उसके लिये तो नाटक हवा हो गया । वह घबड़ाया हुआ भागा और सीधा अपने सम्राट के पास गया । सम्राट को सारी बात बताकर कहा कि कल मेरी मौत मुझे लेने आने वाली है। सम्राट, मैंने जीवन भर आपकी सेवा की है । इसलिए आज मैं आपसे आखरी चीज मांगता हूँ। आप मुझे अपना स्वयं का घोड़ा दे दें, ताकि मैं इस राजधानी को छोड़कर एक दिन और एक रात में ही सैकड़ों मील दूर जा सकूं। मौत से बच सकूं। सम्राट ने घोड़ा दे दिया। वह निरन्तर घोड़ा दौड़ाता रहा। सारी रात, सारा दिन दौड़ाया और जब दौड़ते-दौड़ते सांझ हो गई अगले दिन की, तो वह रुका। उस समय उसके दिल में एक प्रसन्नता थी, एक खुशी थी, एक आत्म-सांत्वना थी कि मौत जहाँ कल उसे मिली थी, वह स्थान यहाँ से पचासों मील पीछे है । मैं बहुत दूर चला आया हूँ। अब मौत यहां नहीं आ सकती । वह घोड़े से नीचे बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / १४ For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतरा। उसने घोड़े की पीठ थपथपाई और कहा, उस्ताद! आज तूने मुझे मौत से बचाया है। मैं तेरा शुक्रगुजार हूँ। उसने घोड़े को थपथपाया ही था कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। वह चौंका, क्योंकि वो हाथ कल जैसा ही था। उसने पूछा, कौन? जवाब मिला - 'मैं ..... तुम्हारी मौत ।' लेकिन तुम यहाँ कैसे आ गई? मैं तो तुम्हें पचासों मील दूर छोड़कर आया था। मौत ने कहा, जिस घोड़े पर तुम सवार होकर आए हो, उसी घोड़े पर मैं भी आई हूँ। धन्यवाद है सम्राट को, जिसने तुम्हें दमिश्क का सबसे महान घोड़ा दिया। धन्यवाद है इस घोड़े को जिसने तुम्हें ठेठ वहां पहुंचा दिया जहां तुम्हारी मृत्यु होनी थी। मैं कल से इस चिन्ता में थी कि तुम्हारी मौत तो इस जगह तालाब के किनारे पेड़ के नीचे लिखी हुई है, पर मैं तुम्हें यहां तक कैसे लेकर आ पाऊंगी। लेकिन कृतज्ञ हूँ, दमिश्क के इस द्रुतगामी घोड़े की, जिसने तुम्हें यहां तक पहुँचा दिया। मृत्यु जीवन का आखिरी पड़ाव है और मृत्यु से बचा भी नहीं जा सकता। जीवन के द्वार पर मृत्यु की दस्तक तो अनिवार्यतः होती है। कोई कितना भी प्रयास करे, लेकिन मृत्यु से बचा नहीं जा सकता। मृत्यु तो जीवन का समापन है। जीवन के उपन्यास का उपसंहार है। आदमी चाहे कितना भी मृत्यु से बच-बचकर भागता हो, पर मौत से आज तक कोई बच पाया है? न राम रहे, न भीम रहे, न अर्जुन महाबली, एक वह बचे जो कर्म को मारे चले गये। यदि कोई तीर्थंकर हुए तब भी गए, कोई बुद्ध पुरुष हुए तब भी गए, मर्यादा पुरुषोत्तम हुए, तब भी गये। इस धरती पर जो भी आता है, उसे जाना ही पड़ता है। मनुष्य की मूढ़ता यही है कि वह सोचता है कि कोई और जाता होगा, कोई और मरता होगा, मैं थोड़े ही मरूंगा। मैं तो ऐसा ही रहूँगा, कल जैसा ही। जिस दिन जीवन में पहली बार इस बात का अहसास होता है कि मुझे भी उसी तरीके से जाना है, जिस तरीके से हिटलर या गांधी को जाना पड़ा, गोशालक और गौतम को जाना पड़ा, राम और रावण को जाना पड़ा, कंस और कृष्ण को जाना पड़ा। यह बात अलग है कि कंस की तरह मरोगे या कृष्ण की तरह, राम की तरह मरोगे या रावण की तरह, हिटलर की तरह मरोगे या गांधी की तरह, लेकिन मौत से बचा नहीं जा सकेगा। मरना तो निश्चित तौर पर है। व्यक्ति अपने जीवन में आत्मा या परमात्मा को देख पाता है या नहीं, लेकिन अपनी जिंदगी में कई लोगों को मरते हुए जरूर देखता है। इसलिए मृत्यु जीवन का परम सत्य है। जन्म पहला सत्य है, तो मृत्यु आखिरी । जो आदमी किसी और की मृत्यु देखकर भी नहीं जागता, उसका तो भगवान ही मालिक है। मृत नहीं मृत्युंजय हों | १५ For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं बुद्ध आ जाएं तो भी उसे नहीं जगा पाएंगे। जो जीवन की अन्तिम लीला देखकर, जीवन के विनाश को पढ़कर भी नहीं जागता, तो कोई तरीका नहीं है उसे जगाने का। किसी और की मृत्यु वास्तव में हमें हमारी मृत्यु की अग्रिम सूचना है। जिस दादा से आप कल तक बोलते थे, जिस से आप प्यार करते थे, या जो आपको प्यार करता था, उसी को मृत्यु के द्वार से गुजर जाने के बाद लकड़ी की चिता पर अपने हाथ से सजाते हो और अपने हाथ से ही उसे जलाने के लिए आग लगाते हो। कल की बात है : मैं सविकल्पक ध्यान से गुजर रहा था। मैंने देखा कि मेरे सामने चिता है, और उस चिता में और कोई नहीं, वह माँ है, जिसने मुझे पैदा किया। मैं आग देने के लिए जैसे ही आगे बढ़ा, मेरा हाथ स्थिर हो गया, मैं आग न लगा सका। मेरे हाथ से मशाल छूट गयी। चिता स्वतः जल उठी। और उसी के साथ जल गया मेरा तादात्म्य जो शरीर और मेरे बीच था। काया रह गयी, पर काया के प्रति रहने वाली माया की अन्त्येष्टि हो गई। तय है कि मौत तो अवश्यंभावी है, हर किसी को मरना है और जब अवश्यम्भावी है तो माँ को भी मरना है, बाप को भी मरना है, गुरु को भी मरना है। जब मसीहा और भगवान भी चले जाते हैं, तो माँ-बाप और गुरू तो हैं ही क्या? हम दादा के शव को अपने हाथ से जलाते हैं, फिर भी हमारे भीतर मृत्यु की कहीं कोई टीस या अहसास नहीं है, कहीं कोई मृत्यु की पदचाप सुनाई नहीं देती। आखिर आदमी के सामने जीवन की परिभाषा क्या है? आदमी को जीने की कला कैसे सिखाई जाये? जो मरते को देखकर भी जीने की कला नहीं सीख सकता, उसके लिए दुनिया का कौन सा शास्त्र है? अपने हाथों से शव को जलाकर, अपने हाथों से अन्त्येष्टि संस्कार करके भी जैसे कल थे, वैसे ही आज भी बने हुए हो और जैसे आज हो, वैसे ही कल भी रहने वाले हो। मानसिकता कहीं बदल नहीं रही। दादाजी जब जीवित थे तब भी गरम चाय पीते थे, अब जब दादाजी मर गये तब भी गरम चाय पीते हो और कल अन्त्येष्टि हो जाएगी तब भी गरम चाय पियोगे। कुछ छोड़ते भी हो? गरम चाय पीना नहीं छोड़ते। खाना खाना नहीं छोड़ते। श्मशान में गप्पे ठोंकना नहीं छोड़ते। तो छोड़ते क्या हो? मन्दिर जाना छोड़ते हो। दादा जी मर गये, बारह दिन सूतक लगेगा, मन्दिर जाना छोड़ दिया। सामायिक करना छोड़ दिया। छोड़ा क्या? धर्म छोड़ा, गुरू छोड़ा, अरिहंत छोड़ा। मृत्यु के बाद जो दुगुना करना चाहिए, उसे तो नहीं करते और जिनके बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / १६ For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रति आसक्ति टूटनी चाहिए, जिनको छोड़ना चाहिए, वे रंचमात्र भी नहीं छूट पाते । ये सूतकों की व्यवस्था पता नहीं किस सूत्रकार ने लिखी है ? कोई मर गया, बारह दिन तक मंदिर जाना छोड़ दो। जिस दिन दादा मर जाए, जिस दिन माँ मर जाए, जिस दिन पत्नी मर जाए या कोई और मर जाए तो अगर रोजाना एक घंटा मंदिर जाते हो तो उस दिन चार घंटे के लिए मंदिर जाना। जिस दिन आप बहुत शोक से ग्रस्त हैं, उस दिन परमात्मा आपके लिए शरणभूत होंगे। उस दिन आप परमात्मा को सही रूप में याद कर पाएंगे। शोक और कष्ट में तुम परमात्मा को ज्यादा स्मरण करते हो। इसलिए अगर किसी आदमी को दीक्षा भी लेनी है, संन्यास भी लेना है, तो मैं कहूंगा कि वह पहले तीन महीने तक श्मशान में रहे और वहाँ जलती हुई चिताओं को अपनी आंखों से देखे । देखे कि इम शरीर का अन्तिम हाल क्या होगा? दृश्य जीवन का अंतिम परिणाम, अंतिम समापन कितना निकृष्ट होता है । काया किस तरीके से देखते-ही-देखते राख हो जाती है। अपनी आंखों से जाकर देखें | जिस शरीर पर आज हम इतराते हैं, जिम शरीर को धोने, पोंछने, सजाने में हम दिन रात लगाते हैं, एक छोटा-सा छींटा भी लग जाए तो उसे धोते हैं। महिलाएं तो पर्स में पेपर सोप रखती हैं। न-न करते दिन में दस-बीस बार तो पेपर सोप से मुंह धो ही लेती हैं। जिस शरीर को रगड़ने के लिए, तुम इतना करते हो एक बार श्मशान में जाकर उसका हाल तो देखो । एक प्रथा पड़ी हुई है कि श्मशान तक केवल पुरुष जाते हैं । नहीं, महिलाओं को भी जाना चाहिए, ताकि वे अपनी आंखों से देख सकें कि जीवन का समापन कैसे होता है । शृंगार कैसे मटियामेट होता है । जिंदगी को चाहे जैसे गुजार लो, लेकिन मौत के समक्ष हर कोई नेस्तनाबूद और परास्त हो जाता है । मैंने किसी को मरते नहीं देखा । मन में जो औरों को देखने की भावना थी, वही शिथिल हो गई। एक प्रकार से मृत्यु हो गई। मेरे देखे, जो आज जीवित हैं, वह मृत्यु से गुजरने के बाद भी जीवित रहेगा और जो मृत्यु के बाद मृत होगा, वह आज भी मरा हुआ है । यह तो केवल शरीर और आत्मा का संयोग भर है । नदी - नाव का संयोग ! यह जितनी भी विचित्र लीला है, जीवन का जो कुछ भी रास है, वह सारा केवल एक संयोग का रास है। जिस दिन यह चेतना, यह ऊर्जा, सांस के स्पन्दन, यह दिन की धड़कन शान्त होगी, उस दिन सब समाप्त हो जाएगा। फिर सिर्फ इतना होगा, 'राम नाम सत्य है ' । इसलिए आज श्रीमद् राजचन्द्र जो सन्देश देना चाहते हैं, उसे बड़े ध्यान से लीजियेगा । यह महा सन्देश यही कहता है कि आम आदमी की तो बात ही क्या है, अगर कोई चक्रवर्ती मृत नहीं मृत्युंजय हों / १७ For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट भी होगा, चाहे वह कितना भी बलिष्ठ होगा, फिर भी मौत के आगे, काल के सामने तो हर आदमी झुक जाता है। पता ही नहीं चलता कि कोई आदमी कल था भी या नहीं । राजचन्द्र का पद है - छः खण्ड ना अधिराज जे, चंडे करीने नीपज्या, ब्रह्मांड मा बलवान थइ ने, भूप भारे ऊपज्या । ए चतुर चक्री चालीया, होता न होता होई ने, जन जाणिए, मन माणिए, नव काल मूके कोई ने । 'जन जाणिए, मन माणिए, नवकाल मूके कोई ने' छः खण्ड का जो पृथ्वीपति होगा, उस सम्राट का भी पता नहीं चल पाता कि वह था भी कि नहीं था। इस पृथ्वी पर आज तक न जाने कितने पृथ्वीपति सम्राट हुए, क्या किसी का पता है ? इतिहास की तारीखों में जो दो-चार लोगों के नाम मिल जाते हैं, बस उनकी बात अलग है। न जाने इस धरती पर कितने अनन्त लोग हुए हैं और कितने अनन्त लोगों का सफाया हुआ है, किसी को कुछ भी पता नहीं है । एक बात तय है कि जब इतने बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट नरेश नहीं रहे तो तुम तो हो ही किस बाग की मूली । तुम भी नहीं रहोगे । 1 जीवन का रथ जन्म और मृत्यु के दो पहियों के सहारे चलता है । जन्म के साथ जीवन का प्रारम्भ होता है और मृत्यु के साथ जीवन का समापन । लेकिन जैसे ही व्यक्ति का जन्म होता है, मृत्यु की यात्रा प्रारम्भ हो जाती है । मनुष्य का जन्म जीवन के द्वार पर नहीं होता, मनुष्य का जन्म अनित्यता की गोद में होता है । मनुष्य जितने ज्यादा अपने जन्म-दिवस मनाता है, हकीकत यह है कि उसकी मृत्यु उतनी ही ज्यादा करीब होती चली जाती है इसलिए व्यक्ति का जन्म दिन वास्तव में उसका करीब आता मृत्यु दिन है । यदि व्यक्ति अपना साठवां जन्म दिन मनाता है, तो इसका अर्थ है कि वह साठ वर्ष मौत के करीब आ चुका है । अब तो धीरे-धीरे साल ज्यों-ज्यों गुजर रहे हैं, त्यों-त्यों जीवन नहीं बढ़ रहा है, बल्कि मृत्यु बढ़ रही है । यदि कोई कहता है कि मैं अपने बेटे से बड़ा हूँ, तो समझें कि मृत्यु की दृष्टि से वह आदमी बड़ा है लेकिन जीवन की दृष्टि से उसका बेटा बड़ा है। बेटा अभी और ज्यादा जिएगा । - जन्म और मृत्यु इन दो के सहारे जीवन का निर्माण होता है। जीवन तो बिल्कुल ऐसा है, जैसे वीणा के तार । जब तक तारों से संगीत पैदा हो रहा है - हो रहा है, अंगुलिया चल रही हैं, संगीत झंकृत हो रहा है लेकिन संगीत बजते-बजते बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / १८ For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पता नहीं किस क्षण ये तार टूट जाएं, भरोसा नहीं है। इसी तरह ये सांसों का संगीत चल रहा है लेकिन भीतर और बाहर आती-जाती ये सांसें किस क्षण हमेशा के लिए शान्त हो जाएं, पता नहीं, लेकिन अभी यह वीणा झंकृत है। अभी आप लोग जी रहे हैं। जी इसलिए रहे हैं क्योंकि मरे नहीं है। और मरे नहीं हैं, इसलिए जीना है। जब तक मरे नहीं हैं, तब तक जीना है और जब तक जीते हैं, तब तक मरे नहीं हैं। जब तक जीते हैं, बड़ी सच्चाई और सरसता के साथ जीना है ताकि जीवन में जन्म-मरण का चक्र मिट जाए। अगर जन्म टल गया, तो भी ठीक और मृत्यु टल गई, तो भी ठीक। अगर जन्म टल गया तो मृत्यु के बाद जन्म न होगा और मृत्यु टल गई तो वह आपके हाथ पर अमरता की मेंहदी रचजाएगी, अमरता की मेंहदी केसरिया रंग लगा जाएगी। तो जन्म या मृत्यु में से कोई भी एक नीचे गिर जाए। जीवन की गाड़ी हमेशा दो पहियों के सहारे चलती है। दो में से कोई भी एक पहिया गिर गया तो दूसरा पहिया अपने-आप अर्थहीन बेमतलब हो जाएगा। इसको बिल्कुल ऐसे समझिए कि जैसे आप दाएं और बाएं पैर के सहारे चलते हैं, वैसे ही जीवन भी जन्म और मृत्यु, इन दो पांवों के सहारे-सहारे चलता है। जैसे आसमान में पंछी दो डैनों के सहारे उड़ता है। कितना भी क्यों न ऊंचा उड़ता हो, दो में एक पंख भी टूट जाए, तो पंछी धड़ाम से नीचे आ गिरेगा और जो एक बार नीचे गिर पड़ा, तो फिर लोग क्या करेंगे, रोएंगे उनके पीछे? नहीं! जब तक व्यक्ति जीवित है, कोई उसके काम नहीं आता, मरने के बाद सब काम आते हैं। कोई भूखा मरता हो और दूसरे से कहे कि मुझे थोड़ा सहयोग दे दो, तो वह कहेगा कि कमा कर नहीं खा सकता? पर अगर वह भूखा मर जाए, तो हर कोई उसकी लकड़ियों का बन्दोबस्त अवश्य कर देगा। जीवित था, तो कोई व्यवस्था नहीं की, मर गया तो व्यवस्था करने की सोचते हो। मरने के बाद अगर नदी में बहा दो या जमीन में दफना दो, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जीते जी किसी के काम आना ही इंसानियत के मन्दिर के निर्माण का तरीका है। अगर तुम किसी व्यक्ति की मृत्यु पर रोते भी हो, तो कोई मृत व्यक्ति के लिए थोड़े ही रोते हो। सब अपने स्वार्थ के लिए रोते हैं। उसके लिए रोना होता तो पहले ही नहीं रो लेते, जब वह जीवित था। मरने के बाद तो अपने स्वार्थ के लिए रोते हो। सम्भव है, उसके कारण शायद तुम्हारी कुछ कमाई थी, तुम्हारी प्रतिष्ठा थी, समाज में तुम्हारा रुतबा था। उसके कारण तुम्हें कोई सहारा, कोई आलंबन होगा, इसलिए मरने के बाद उसे याद करते हो। स्वार्थ के कारण मृत नहीं मृत्युंजय हों / १६ For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोते हो। स्वार्थ को रोते हो। एक व्यक्ति बहुत जोर से रोने लगा। आसपास के लोग इकट्ठे हुए, पूछा - क्यों रोते हो। वह बोला - मेरी पत्नी मर गई। लोगों ने कहा - तो रोता क्यों है? रोज तो कहता था उससे मर जा, मर जा। मर गई तो अच्छा हुआ, शुक्र मान खुदा का जिसने तुम्हारी सुन ली, उसे ऊपर उठा लिया। वह व्यक्ति बोला, मैं उसके लिए थोड़े ही रोता हूँ। मैं तो और ही कारण से रो रहा हूँ। दरअसल, जब माँ मरी तो मोहल्ले की स्त्रियों ने कहा, चिन्ता मत कर। अगर तेरी माँ मर गई है, तो कोई बात नहीं। हम जो इतनी सारी औरते हैं, तेरी माँ बनने को तैयार हैं। फिर जब मेरी बहन मरी, तब भी मोहल्ले की औरतों ने कहा कोई बात नहीं। हम हैं तेरी बहन बनने के लिए। लेकिन आज जब मेरी पत्नी मर गई है, तो कोई नहीं आया यह कहने को कि चिन्ता मत करें, हम तैयार हैं तेरी पत्नी बनने को....... । __ऐसा ही होता है। पहली पत्नी के मरते ही दूसरी की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। कोई जुगाड़, कोई गोटी फिट करने की तैयारी में आदमी लग जाता है। इस मामले में एक साठ वर्ष का बुड्ढा भी बूढ़ा नहीं होता है। एक महिला अगर विधवा हो जाए तो कहेंगे कि तीस साल में बूढ़ी हो गई है। किन्तु आदमी साठ साल का विधुर होकर भी स्वयं को बूढ़ा नहीं मानता। कोशिश करता है कि दूसरी, तीसरी, चौथी आ जाए। सब अपने स्वार्थ के लिए रोते हैं। इसलिए श्रीमद् राजचन्द्र कहते हैं : चाहे कोई कितना भी बलवान हो, कितना भी सशक्त हो, हर आदमी इस धरती पर आकर समाप्त होता ही है। - जन जानिए, मन मानिए, नव काल मूके कोई ने यह मृत्यु, यह काल किसी को छोड़ता नहीं है। हर किसी को अपने झपेटे में ले लेता है। सूरज उदय होता है, तो उदय के साथ ही पश्चिम की ओर अपनी यात्रा प्रारम्भ कर देता है। फूल खिलता है तो खिलने के साथ ही, मुरझाने की यात्रा शुरू कर देता है। जहां-जहां संयोग हैं, वहां-वहां वियोग की रेखाएं अनिवार्यतः होंगी। जहां सुख है, वहां दुख भी है। जहां स्वर्ग है, वहां नरक भी है। जगत में ये अनिवार्य सम्भावनाएं हैं। यहां कोई भी नित्य नहीं है। कोई भी सनातन नहीं है। हर किसी को जाना है। तुम प्रतिदिन बूढ़े होते जा रहे हो। जीवन का घड़ा रोजाना बूंद-बूंद कर रिसता चला जा रहा है। कोई आदमी जवान नहीं होता, हर आदमी बूढ़ा होता है और बुढ़ापा अपने आप में जेलखाने के बराबर है। बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / २० For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे-जैसे, जीवन के प्याज का छिलका एक-एक कर उतरेगा, वैसे-वैसे उमरिया तो घटेगी ही। उम्र तो निरन्तर घट रही है लेकिन तृष्णा ? वह निरन्तर बढ़ रही है। तृष्णा नहीं घटती, वासना नहीं घटती, क्रोध नहीं घटता, अहंकार नहीं घटता, केवल उमरिया घट रही है। जीवन के मंगल कलश से पानी निरन्तर रिस रहा है । पता नहीं चलता, पर रिस रहा है। बीस साल पहले आप जवान थे। उससे भी बीस साल पहले बच्चे थे । उससे दो साल पहले माँ के पेट में थे । उससे पहले कोई अदृश्य आत्मा रहे, कोई छोटे से अणु रहे, बीज रहे। ये उमरिया ज्यों-ज्यों बढ़ रही है, व्यक्ति की जिंदगी, त्यों-त्यों घट रही है। नश्वर संसार में अनश्वरता कहाँ! न रहता भौंरों का आह्वान, नहीं रहता फूलों का राज । कोकिला होती अन्तर्धान, चला जाता प्यारा ऋतुराज । असम्भव है चिर सम्मेलन न भूलो क्षणभंगुर जीवन । महादेवी की बहुत प्यारी कविता है यह । भौंरों का आह्वान नहीं रहता, फूलों का साम्राज्य नहीं रहता । कोकिला भी लुप्त हो जाती है । बसन्त भी चला जाता है । इसलिए यह गुमान न करें कि मुझे हमेशा रहना है, हमेशा जीना है । एक बात हमेशा याद रखनी है कि मुझे भी एक दिन जाना है । मेरी भी एक दिन डोली उठनी है । चार जनों के कंधों पर श्मशान की यात्रा करनी है। आखिर, माटी में समाना है। कब जन्मे, कब मरे, इसका कोई महत्व नहीं है । किस तारीख को जन्मे, किस तारीख को मरेंगे इसका कोई मूल्य नहीं है। मंगलवार की बजाए, गुरुवार को मर जाएं, जन्म जाएं या सोमवार की बजाय शनिवार को मर जाएं इससे क्या फर्क पड़ जाएगा। फर्क तो इस बात से पड़ता है कि हमने अपनी जिंदगी का उपयोग क्या किया? मूल्य सिर्फ इस बात का है कि तुम जीवन कितना जीते हो। जीवन को उत्सव बनाकर जियें, यही महत्त्वपूर्ण है । हम यहां पर आए, प्रवेश किया। प्रवेश किया है, तो निश्चित तौर पर हमें प्रस्थान भी करना होगा। जिस दिन प्रवेश किया, उसी दिन से प्रस्थान की तैयारियां भी प्रारम्भ हो गई होंगी । हम कब आए और कब जाएंगे, इसका इतिहास लिखने का कोई मतलब नहीं है । महत्व इस बात का है कि हमारे आने के बाद, मरने से पहले, हमने जीवन का कितना उपयोग किया, जीवन कितना सार्थकता For Personal & Private Use Only मृत नहीं मृत्युंजय हों / २१ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से जिया। सोये-सोये जिये या जागे-जागे? फूल खिला या कली कांटों से ही घिरी रह गयी? जीवन का अर्थ जीवन के उपयोग में ही है। जीवन का अर्थ जन्म और मृत्यु में नहीं। जीवन का अर्थ जीवन को सही ढंग से जीने में है। जन्म और मृत्यु महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण जीवन में जो समय मिला है, उसका उपयोग करने में है। समय तो सबके लिए एक जैसा आता है, लेकिन जैसी जिसकी पात्रता, व्यक्ति वैसा ही उसका उपयोग करता है। बादल से गिरी पानी की बूंद अगर मिट्टी में गिर जाए तो उसी समय धूमिल हो जाएगी, सागर में गिरे तो पानी में समा जाएगी, तप्त लोहे पर गिरे तो भाप बनकर उड़ जाएगी, केले के पेड़ के गर्भ में गिरे तो कपूर बन जाएगी, सर्प के मुंह में पड़कर जहर और सीप के मुंह जाकर मोती बन जाएगी। पानी की बूंद वही एक है, समय वही एक है। पर एक के लिए वह जहर बढ़ाती है और दूसरे के लिए मोती। जिदंगी सब के साथ है, फर्क सिर्फ उसके उपयोग करने का है। महावीर भी मरेंगे और गोशालक भी, गांधी भी मरेंगे और हिटलर भी, पर गोशालक और हिटलर से दुनिया लज्जित होगी, वहीं महावीर और गांधी पर नाज करेगी। निश्चित तौर पर मरेंगे आप भी, मैं भी, लेकिन मृत्यु होनी चाहिए कपूर की तरह, जो खुद जलकर भी यह अहसास करा दे कि यहाँ कोई कपूर जला था। ऐसी खुशबू छोड़कर जाएं। एक गुलाब का फूल पौधे पर रहेगा, तब भी खुशबू देगा, भगवान के चरणों में चढ़ाया जाएगा तब भी महकेगा, किसी के पैरों तले कुचला जाए तो भी अपनी सौरभ बिखेर जाएगा और यदि कुम्हला भी जाए तो भी सूखकर मिठाइयों को सुवासित करेगा। कीमत पंखुरियों की नहीं, फल में रहने वाली खुशबू की है। प्लास्टिक के फूल गुलदान में सजाए जाते हैं। असली फूलों को हार बनाकर गले में पहना जाता है। आजकल के दोस्तों ये कागज के फूल हैं सब, देखने में खुशनुमा पर सूंघने में धूल हैं। जिस फूल में खुशबू है, वह फूल गले का हार है। जिस फूल में खुशबू नहीं वह फूल ही बेकार है। सुगंध-हीन फूल की कीमत दो कौड़ी भी नहीं होती। आपके जीवनपुष्पों को सुवासित करने के लिए ही निवेदन कर रहा हूँ ताकि आप लोग अपने अप्रतिम जीवन का, अमूल्य समय का उपयोग कर सकें। एक बात तय है कि अगर समय बीत गया, जीवन का यह अपूर्व अवसर बीत गया, तो बीता हुआ समय कभी भी लौटकर वापस नहीं आएगा। अगर कोई देवता आपके व्यवहार विना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / २२ For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से रूठ जाए तो वह आपकी खुशामद, पान-प्रसाद, सिंदूर, भेंट से प्रसन्न हो जाएंगे, लेकिन बीता हुआ समय कभी भी वापस लौटकर नहीं आ सकता। एक भिखारी ने दिनभर खूब भीख मांगी, मगर सुबह से शाम तक एक फूटी कौड़ी, एक अन्न का दाना न मिला। शाम के वक्त जब वह अपने घर लौटने लगा तो उसके एक सहधर्मी बन्धु ने, भिखारी का सधर्मी भिखारी ही होगा, कहातुम्हें आज भीख में कुछ नहीं मिला, मुझे मिला है। मुझे तीन मुट्ठी चावल मिले हैं, एक मुट्ठी तुम ले जाओ। मेरा कोई सधर्मी बन्धु भूखा मरे, ऐसा नहीं हो सकता। मैं थोड़ा कम खा लूंगा लेकिन तुम भूखे तो नहीं सोओगे। उसने एक मुट्ठी चावल अपने सधर्मी बन्धु को दे दिया। वह भिखारी एक मुट्ठी चावल लेकर चलने लगा तो देखा, सामने से देश का राष्ट्रपति चला आ रहा है। उसने सोचा, वाह! क्या सुकून मिले हैं। आज तो मैं राष्ट्रपति के पैरों पर गिर कर इतनी भीख मांग लूँगा कि मेरे जीवन भर का दारिद्र्य दूर हो जाए। तभी उसने देखा कि राष्ट्रपति ने स्वयं ही उसके पास अपनी कार रुकवा ली और बाहर आकर भिखारी के चरणों में लेट गया, कहने लगा - भाई मुझे कुछ दे दो। भिखारी को बड़ा गुस्सा आया। मन में आया कि पांवों में जूते नहीं हैं, वरना तेरे सिर पर जरूर दे देता। मैं तो सोचता था कि आज जनम-जनम के भिखारी का दारिद्र्य दूर हो जाएगा, पर यह राष्ट्रपति तो मेरा दारिद्र्य और बढ़ा रहा है। राष्ट्रपति ने कहा - देखो, तुम मुझे ना मत करना। आज जैसे ही मैं अपने सदन से बाहर निकला, तो एक ज्योतिषी ने कहा - आज इस रास्ते पर जो पहला आदमी तुम्हें मिल जाए, उस आदमी से तुम कुछ मांग लेना, यदि उसने तुम्हें कुछ दे दिया, तो तुम्हारा काम हो जाएगा। इसलिए मुझे ना मत कहो, कुछ दे दो। कुछ भी दो, मगर दे दो। भिखारी ने बड़ी मुश्किल से कांपता हुआ हाथ झोली में डाला। केवल करोड़पति के हाथ ही नहीं कांपते देते हुए, भिखारियों के हाथ भी कांपते हैं । करोड़पति कौन सा अपना सारा माल दे देते हैं। करोड़ों में से हजार देते हैं, सो जैसे करोड़पति करोड़ों में हजार देता है, वैसे ही भिखारी ने झोली के चावलों में से एक चावल निकाल कर राष्ट्रपति को दे दिया। राष्ट्रपति ने चावल लेकर भिखारी को धन्यवाद दिया और चला गया। पर भिखारी लगा राष्ट्रपति को गाली बकने । और कुछ करने में तो पैसा लगता है। गाली बकने में कुछ नहीं लगता। वह भिखारी राष्ट्रपति को गाली देते-देते घर पहुँचा। पत्नी ने पूछा, आज क्या बात है? इतनी गालियां किसे दे रहे हो? भिखारी बोला, क्या बताऊं? यहां के राष्ट्रपति को कोस रहा हूँ। वह भी भिखमंगा है। कहता है कुछ मृत नहीं मृत्युंजय हों । २३ For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दे दो - तो मैंने चावल का एक दाना दे दिया। पत्नी बोली - चलो दे दिया, ठीक किया। इतनी गालियां क्यों देते हो? चावल का एक दाना ही तो दिया है। क्या फर्क पड़ेगा। जो बचा है, वही मुझे दे दो। मैं उसे चुन-बीन कर पका लेती हूँ, दोनों थोड़ा-थोड़ा खा लेंगे। आश्चर्य, उसने जैसे ही चावल थाली में डाले, वह भौंचक्की रह गई। उसने देखा कि उन चावल के दानों में एक दाना सोने का था। उसने पति को बुलाया और कहा - गजब हो गया। चावल का एक दाना सोने का हो गया। अरे जाइए - जाइए। सारे के सारे चावल राष्ट्रपति को दे आइए। कहीं सारे ही चावल सोने के हो जाएं! भिखारी ने कहा, अब ऐसा नहीं हो सकता। जब अवसर था, तब कंजूसी कर गया और अब सारे-केसारे चावल भी दे दूँ तो क्या ! जो समय बीत गया, सो बीत गया। . अगर आप दुनियादारी के लिए चौबीस घन्टे लगाते हों, तो कम-से-कम एक घन्टा तो अपने-आप के लिए खर्च करो। एक बात तय है कि समय बीत जाने के बाद पछताने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगेगा। लेकिन प्रायश्चित के आंसू मुझे आप लोगों से नहीं दुलकवाने है। इसलिए राजचन्द्र का पद हृदय तक उतरने दीजिए। जन जानिए, मन मानिए, नव काल मूके कोई ने। यह काल किसी को छोड़ता नहीं है। केवल उसी के बचत खाते में समय रहता है, जो अपने समय का उपयोग कर लेता है। शेष सभी का समय बर्बाद होता है। समय का हम उपयोग करें। समय को सार्थक और सकारात्मक रूप दें। जीवन मृत्यु की ड्योढ़ी पर अपना दम तोड़े, उससे पूर्व फूल खिला होना चाहिये। फूल का खिलना ही फूल के जीने का उद्देश्य है। फूल का न खिलना, उसका कली ही बने रह जाना, उसकी अपूर्णता है, संसार में पुनर्वापसी का कारण है। पुनर्जन्म उसके साथ घटित होता रहेगा, तब तक जब तक वह पूर्ण नहीं हो जाती, कली फूल नहीं बन जाती। कली की मृत्यु, मृत्यु है। फूल की मृत्यु महामृत्यु है, जीवन का अमृत महोत्सव है। हमें मृत नहीं, अमृत होना है, मृत्युंजयी होना है। अमर वह है जो मृत्युंजय है। शेष तो, सिकन्दर भी क्यों न हो जाओ, मरते वक्त हाथ पसारे हो, खाली हो, रीते हो। जो बाहर से मर गया, मृत्यु के वक्त वह खाली चला जाता है। जो भीतर से मर गया, अपनी आत्म-सम्पदा को उपलब्ध कर गया, वह भरा चला जाता है। मृत्यु का पहरा उस पर प्रभावी नहीं होता। मृत्यु उसे अमरता के बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / २४ For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम्राज्य में प्रवेश करने की बाइज्जत इजाजत दे देती है, अगवानी के साथ आदर करते हुए । नमस्कार । मृत नहीं मृत्युंजय हों / २५ For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बार प्रभु हाथ थाम लो मेरे प्रिय आत्मन् ! मैंने सुना है महाकवि सूर अपने इकतारे पर प्रभु के भजन गाते हुए जंगल के रास्ते से गुजर रहे थे। इकतारे पर निरन्तर भजन की एक ही कड़ी गुनगुनाई जा रही थी। प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो। भक्त सूरदास अपनी धुन में गाए चले जा रहे थे। बरसात का मौसम था। आंखों से अंधे थे। सो रास्ते से चूक गये और गड्ढे में गिर पड़े। वे जानते थे, इस घनघोर जंगल में कोई व्यक्ति उन्हें बाहर निकलाने नहीं आयेगा। सो वे उस कीचड़ से भरे गड्ढे में बैठे-बैठे ही वही धुन इकतारे के साथ गुनगुनाने लगे प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो। इकतारा बजता रहा। हृदय में भक्ति की उर्मियां स्वतः खिलने लगीं। इतने में गड्ढे के बाहर से किसी ने आवाज दी, सूरदास! तुम मेरे हाथ पकड़ो और बाहर आ जाओ। सूर ने पूछा, तुम कौन हो? वह बोला, चरवाहा । मैं अपनी गायों को लेकर इस राह से गुजर रहा था, तभी मैंने तुम्हें इस गड्ढे में गिरे हए देखा। सोचा तुम्हें बचा लूँ। सो मैं रुक गया। मेरी गायें आगे बढ़ चुकी हैं। तुम जल्दी मेरा हाथ पकड़ो और बाहर निकल आओ। सूरदास ने चरवाहे का हाथ पकड़ा और बाहर निकल आये। चरवाहे ने हाथ छुड़ाकर जाना चाहा, लेकिन सूरदास ने हाथ नहीं छोड़ा। चरवाहे ने पूछा, तुम मेरा हाथ क्यों नहीं छोड़ते? सूरदास ने कहा, एक बार जो हाथ पकड़ा है, वह अब छूटने वाला नहीं है। चरवाहे ने कहा कि तुम्हें कोई गलतफहमी हो गई है। मैं तो एक सामान्य सा चरवाहा हूँ। सूरदास ने कहा, भले ही तुम चरवाहे हो। पर मेरे लिए तो कान्हा, बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / २६ For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्हैया हो। सूरदास ने हाथ छुड़ाना न चाहा, हाथ छोड़ना न चाहा, पर चरवाहे ने एक झटका दिया और दौड़ पड़ा। सूरदास ने कहा। हाथ छुड़ाकर जात हो, निबल जानके मोहे । हृदय से जब जाओगे, सबल मैं जानू तोहे । ऐ कन्हैया! तुम मेरा हाथ छुड़ाकर जाते हो तो जाओ, लेकिन बलराम तो मैं तुम्हें तब समझूगा, जब तुम मेरे हृदय से निकल जाओगे। यह तय है कि हाथ छुड़ाकर जाया जा सकता है लेकिन जिस व्यक्ति ने अपने हृदय में किसी को बसा लिया है, उसको हृदय से नहीं निकाला जा सकता। यह तो बाहर की आंख मिचौली है। यह तो भगवान की रासलीला है । वस्तुतः किसी के हृदय से नहीं जाया जा सकता। प्रेम की इससे बेहतरीन अभिव्यंजना और कोई नहीं हो सकती। वह प्रेम धन्य है, जो स्वयं परमात्मा बन जाता है, एक प्रार्थना बन जाता है। प्रेम स्वयं परमात्मा का प्रसाद हो जाता है। प्रेम में जहां माँ बेटे का वात्सल्य है, पति-पत्नी का राग है, भाई-बहन का प्यार है, वहीं हृदय में रहने वाले हृदयेश्वर की पुकार भी है। प्रेम में राधा की पीड़ा है तो राजुल की विरह व्यथा और मीरा की थिरकन भी है और वहीं हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरी-फरहाद की विरह-वेदना भी है। लेकिन प्रेम अलंघनीय है। उसे कभी भी लांघा नहीं जा सकता। फिर चाहे वह केवट की अरदास हो या सूर का हृदय हो, चाहे मीरा की करताल हो पर प्रेम को लांघा नहीं जा सकता। किसी का किसी से सम्बन्ध विच्छेद हो सकता है, व्यक्ति एक देश से दूसरे देश में जाकर बस सकता है, लेकिन प्रेम से अपने आप को अलग नहीं कर सकता। जिस दिन किसी इन्सान ने स्वयं को प्रेम से अलग रखने का प्रयास किया, उस दिन वह इन्सान नहीं, पत्थरों और चट्टानों से सजा पहाड़ हो जाएगा। संत हृदय नवनीत समाना, कहा कवित्त पे कहा न आना । निज परिताप द्रवे नवनीता पर दुख द्रवे सो संत पुनीता। तुलसी कहते हैं यदि कोई कवि सन्त के हृदय की कोमलता की तुलना मक्खन से करता है, तो इसका मतलब है कि उसे कविता करना ही नहीं आया। क्योंकि मक्खन तो अपने नीचे की आग से ही पिघलता है लेकिन सन्त का हृदय तो पराई पीड़ा से ही द्रवित हो उठता है। जब जब भी इस धरती पर किसी प्रेमी के मन में कोई पीड़ा जागी, कोई क्रीड़ा इठलायी, विरह की वेदना निष्पन्न हुई, तब-तब परमात्मा चाहे जितनी दूर रहता हो, उसे आना पड़ता है। कभी वो एक बार प्रभु हाथ थाम लो | २७ For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरदास के पास चरवाहा बनकर आता है, तो कभी चन्दनबाला के पास महावीर बनकर, कभी अहिल्या के पास राम बनकर तो कभी द्रोपदी के पास कृष्ण बनकर, लेकिन वह आता अवश्य है भले ही हमें वह परमात्मा न लगकर माखनचोर लगे। अरे! वह माखनचोर नहीं, वह तो चित-चोर है। जिसने दिल ही चुरा लिया, वह माखन चुराये तो कौन-सी बड़ी बात है। यह चोरी भी उस परमात्मा की एक लीला जो लोग परमात्मा के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं, वे जानते हैं कि परमात्मा किस-किस रूप में, किस-किस के द्वार पर पहुँचता है। उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। आप सोचते हैं कि द्वार पर आकर मांगने वाला भिखारी है, पर नहीं, वह तो तुम्हारा परमात्मा, तुम्हारा महावीर है, जो चन्दनबाला के द्वार पर आया है, केवल उड़द के बाकुले स्वीकार करने के लिए। ...... यदि कोई भिखारी द्वार पर आ जाए तो उसका तिरस्कार मत करना। परमात्मा तुम्हारे द्वार पर आएगा कभी भिखारी बनकर, कभी पड़ोसी बनकर, कभी गाय बनकर और कभी कुत्ता बनकर । परमात्मा तो बार-बार तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता है, अपनी पदचाप करता है। अगर तुम्हारे भीतर वो अन्तर्दृष्टि है, परमात्मा की तल्लीनता और रसमयता है, तो तुम उस परमात्मा को पहचान जाओगे अन्यथा परमात्मा तुम्हारे द्वार पर आकर भी खाली हाथ लौट जाएगा। तो जरा सोचो कि जितना प्रेम आपका धन के प्रति है, क्या उतना कभी परमात्मा के प्रति हो पाया? जितनी आसक्ति पत्नी के प्रति है, क्या कभी परमात्मा के प्रति हो पाई? जितनी हायतौबा आप धन और दुकान के लिए मचाते हो क्या उतनी कभी प्रभु के लिए, परमात्मा के लिए भी मचाई? ____सारी दुनिया स्वार्थी है। यहां आदमी परमात्मा के मन्दिर में भी जाता है, तो स्वार्थ के लिए ही प्रार्थना करता है। इस दुनिया में ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जो मन्दिर में जाकर परमात्मा से परमात्मा को ही मांगने के लिए प्रार्थना करते हों। लोग परमात्मा के पास जाकर भी बड़ी भिखमंगी प्रार्थनाएं करते हैं। कोई धन-दौलत मांगता है, कोई दुकान की याचना करता है, कोई मकान-जायदाद चाहता है, लेकिन कोई भी व्यक्ति यह नहीं मांगता कि हे प्रभु! मुझे अपनी प्रभुता दे दो। भगवान! तुम मुझे अपनी भगवत्ता दे दो। एक अपरिग्रही महावीर से दुकान-मकान-सन्तान की प्रार्थना करना कितना असमंजसता पूर्ण है। भगवान से उसकी भगवत्ता चाहो, दीप से अंधकार नहीं, प्रकाश चाहो। जब तक ऐसा नहीं होता, परमात्मा से परमात्मा को ही मांगने की अभीप्सा बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / २८ For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं जगती, तब तक जैसे परमात्मा भिन्न-भिन्न रूपों में आकर भी तुम्हारे द्वार से खाली हाथ लौट गया था, वैसे ही तुम भी परमात्मा के द्वार से खाली हाथ लौट आओगे । वास्तव में, वह व्यक्ति धन्य है, जो प्रभु से उसकी प्रभुता की प्रार्थना करता है। वह ध्रुव है, जो विश्वविभु से उसकी ध्रुवता मांगता है। शाश्वतता वहीं आती है, शंकरत्व वहीं उभरता है, जब व्यक्ति परमात्मा से परमात्मा को ही मांगता है। भगवान से होने वाला प्रेम वास्तव में उसकी भगवत्ता से होना चाहिए । इसलिए जितना प्रेम पत्नी के प्रति है, उतना ही प्रेम परमात्मा के प्रति भी होना चाहिए, बल्कि उससे भी ज्यादा। ज्यादा न कर सको, न सही, पर उतना तो करो, जितना पत्नी से प्रेम करते हो । पत्नी एक दिन को मायके चली जाती है, तो सोना और जीना हराम हो जाता है लेकिन परमात्मा के लिए क्या कभी नींद हराम हुई ? जैसे आप पत्नी के विरह में आधी रात को जागकर उठ बैठते हैं, क्या कभी अपने प्रभु के विरह में भी जागे हो ? उसकी प्रतीक्षा में रात-रात भर खिड़की में बैठे हो ? उसकी इन्तजारी का चिराग जलाया है? परमात्मा को पाने के लिए गहरी अभीप्सा चाहिए। केवल इच्छा नहीं । अरविन्द ने जिसे अभीप्सा कहा है, ऐसी प्यास चाहिए, जिसके लिए तुम अपने आप को कुर्बान कर सको । मिटा सको । प्यासे को सिर्फ पानी चाहिए। एक चुल्लू पानी के लिए प्यासा आदमी अपना सब कुछ न्यौछावर कर सकता है । ठीक इसी तरह परमात्मा के लिए अभीप्सा जगती है, प्यास जगती है, तो परमात्मा हमारे पास होता है। पानी कीमती है, पर उसकी कीमत के सारे मापदण्ड हमारी प्यास पर टिके हैं । महाकवि तुलसीदास के जीवन की एक चर्चित घटना है । एक बार वे अपनी प्रेमिका के घर गये और यह सोचकर कि प्रेमिका ने ऊपर चढ़ने के लिए रस्सी लटकाई होगी, सर्प को पकड़कर ऊपर चढ़ गये । पर वह रस्सी नहीं वह तो अजगर था। तब प्रेमिका ने उलाहना देते हुए कहा कि जितनी प्रीति तुम्हारी मेरे प्रति है, उतनी श्री राम के प्रति होती तो तुम कुछ और होते । और तब तुलसी के जीवन में क्रान्ति घटित हुई । प्रेमी सब कुछ सहन कर सकता है, पर पत्नी का उपालम्भ नहीं। वह झनझना उठे। बदल गया सब - मन, दृष्टिकोण, जीवन । राजुल ने रथनेमि से कहा था कि रथनेमि ! जो तुम मुझे देखकर विचलित, कामातुर, प्रेम पिपासु हुए हो अगर तुम उतने ही प्रेमपिपासु भगवान श्री नेमिनाथ के प्रति हो जाते तो रथनेमि तुम सार्थक हो जाते। शायद नेमिनाथ से पहले निर्वाण को उपलब्ध हो जाते । एक बार प्रभु हाथ थाम लो / २६ For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर तुम्हारे हृदय में परमात्मा के प्रति इतनी गहरी प्रीति है तो परमात्मा तुम्हारा हाथ पकड़ने के लिए तैयार है बशर्ते तुम भी अपना हाथ परमात्मा की ओर बढ़ाओ। परमात्मा की ओर हाथ बढ़ाओ, तो पूरी तैयार के साथ। हाथ भी बढ़ा दो, और फिर पछताओ, तो कोई मतलब नहीं है। क्योंकि परमात्मा का हाथ कोई हाथ नहीं है वह तो पारस है। पारस के पास जाने के लिए लोहे को मिटने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। लोहा पारस के पास जाए और लोहा ही रह जाए, तो फिर क्या गये पारस के पास । आज राजचन्द्र का जो पद मैंने लिया है, वह भी इसी हाथ पकड़ने की ओर संकेत करता है। राजचन्द्र हम लोगों के हृदय के तारों को छेड़ना चाहते हैं। उस इकतारे को छेड़ना चाहते हैं ताकि भीतर सोया हुआ कान्ह-कन्हैया एक चरवाहा बनकर, हम नीचे गिरे हुए लोगों को गड्ढे में से निकाल ले। तुम गड्ढे में गिरे हुए हो। भगवान चरवाहा बनकर खड़ा है, मदद को। अब तो जरूरत सिर्फ उसे पुकारने की है। अपने हृदय की वीणा के तारों को झंकृत करने की जरूरत है। उसी झंकार को पैदा करने के लिए दो तीन प्रेरणा-सूत्र हैं - हे प्रभु, हे प्रभु शृं कहूँ, दीनानाथ दयाल । हूँ तो दोष अनन्तनो, भाजन छू करुणाल । केवल करुणा-मूर्ति छो, दीन बन्धु दीनानाथ । पापी परम अनाथ , ग्रहो प्रभु जी हाथ। प्रभु-प्रभु लय लागी नहीं पड्यो न सद्गुरु पाय । दीठा नहीं निज दोष तो, तरिए कौण उपाय । राजचन्द्र कहते हैं कि मैं तो अनन्त दोषों का स्वामी हूँ। मेरे भीतर अवगुण भरे पड़े हैं। मैं तो पापी हूं, अनाथ हूँ, पर आप तो नाथ हो । प्रभु एक बार बस मेरा हाथ पकड़लो। एक बार प्रभु हाथ थाम लो, एक बार प्रभु हाथ । चहुँ ओर मेरे घोर अंधेरा, भूल न जाऊं द्वार तेरा एक बार प्रभु हाथ पकड़ लो मन का दीप जलाऊँ मैं। क्या तुम भी राजचन्द्र की तरह हाथ थमाने के लिए तैयार हो? यदि एक बार भी तुमने अपना हाथ परमात्मा की ओर बढ़ा दिया और परमात्मा ने एक बार भी तुम्हारा हाथ थाम लिया, तो तुम वह न रहोगे जो तुम आज हो। तुम्हारे जीवन में एक क्रान्ति घटित हो जाएगी, तुम्हारा कायाकल्प हो जाएगा। लोहे की बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ३० For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खदान भी सोने का राजकोष हो जाएगा। जब तक परमात्मा हाथ न थामे तब तक ही अंधेरा है। जिस दिन उसने अपना पारस-स्पर्श दे दिया, तो लोहा-लोहा न रहेगा, सोना हो जाएगा, और इस तरह जब तुम बदल जाओगे तो पत्नी, पत्नी न लगेगी बल्कि माँ लगेगी। पुत्र पुत्र न लगेगा बल्कि पिता लगेगा। घर, घर न लगेगा परमात्मा का मन्दिर लगेगा। माँ तो माँ लगेगी ही पत्नी भी तब कस्तूरबा हो जाएगी। क्या तुम स्वीकार कर लोगे यह परिवर्तन? पहले यह मानसिकता बनाओ कि परमात्मा को पाने की राह में अगर कुछ जीवन परिवर्तन हुआ, तो उसे अपना अहोभाग्य समझोगे। बाद में परमात्मा को उपालंभ मत देना कि तूने मुझे वह न रहने दिया, जो मैं था। अगर परमात्मा का हाथ थामना है, तो तुम्हें ऐसा होना पड़ेगा। अहं को सर्व में, बूंद को समुद्र में मिटना होगा। परमात्मा के मन्दिर में जाने पर यदि आंखों में एक अहोभाव न जगे, अगर हृदय का सागर उमड़-उमड़ कर न आये तो परमात्मा के मन्दिर में जाना, जाना न होगा। जब ध्यान में बैठो तो जब तक आंखों से आंसू उमड़कर नहीं आये, तो नहीं मानना कि आज मेरा ध्यान सार्थक हुआ। अगर परमात्मा को याद किया, और उस याद की खुमारी अगर आंख में न छाई तो क्या याद किया? एक नशा होना चाहिए परमात्मा की याद का। परमात्मा का नाम हमारी आंखों में, हमारी जिह्वा में, हमारे हृदय में उतर जाना चाहिए। परमात्मा का प्रेम, परमात्मा का प्रसाद, परमात्मा का अहोभाव हमारे अन्तर में इस हद तक उतर जाना चाहिए कि हम उसके आनन्द में, उसके रस में जी सकें। - ऐसा नहीं है कि मन्दिर में परमात्मा को याद करने से परमात्मा मिलेगा, या प्रार्थना करने से परमात्मा से तुम्हारा साक्षात्कार हो जाएगा, या अर्चना करने से परमात्मा तुम्हारे सामने प्रकट हो जाएगा। लेकिन यह निश्चित है कि जितनी देर तुम प्रार्थना में तल्लीन हो, उतनी देर तुम परमात्मा में जी रहे हो। तुम्हारी अर्चना और तुम्हारी प्रार्थना से हटकर नहीं है परमात्मा । ऐसा नहीं है कि ध्यान करने से शान्ति मिलेगी, वरन ध्यान करना ही अपने आप में शान्ति में जीना है। दान करने से स्वर्ग नहीं मिलेगा बल्कि दान करना अपने आप में स्वर्ग है। दान ही स्वर्ग है। ध्यान ही आनन्द है, शान्ति ही सामायिक है, पाप-मुक्ति ही प्रतिक्रमण है, प्रार्थना ही परमात्मा है। प्रार्थना रुकते ही परमात्मा तुमसे दूर हो जाएगा। जब तक प्रार्थना का इकतारा बजता रहेगा, परमात्मा अपना कान लगाये सुनता रहेगा। जैसे ही हृदय का इकतारा बजना बंद हुआ, परमात्मा हाथ छुड़ा कर भाग जाएगा। एक बार प्रभु हाथ थाम लो / ३१ For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए जितनी देर परमात्मा में जीना चाहते हो, उतनी देर अपनी प्रार्थना में जीने का प्रयास करो। प्रार्थना तुम्हारे उरकंठ की प्यास है। सच पूछो तो उस प्यास में ही परमात्मा का वास है। एक बड़ी प्यारी घटना है, जो है तो गुरुनानक से सम्बन्धित, पर वह मुझे बहुत प्रिय, जीवन में पूरी तरह आत्मसात है। कहते हैं, गुरु नानक रात के वक्त प्रार्थना में बैठे हुए थे। रात के दो बज रहे थे। नानक की माँ जागी, तो नानक को बिस्तर पर न पाया। समझ गई कि इस समय नानक कहाँ होगा। घर से बाहर आई देखा, नानक खुले आसमान के नीचे अपने घुटनों के बल बैठा प्रार्थना कर रहा है। उसके दोनों हाथ आसमान की तरफ उठे हुए हैं और उसकी पुकारभरी आंखें निरन्तर अन्तरिक्ष की ओर उठती चली जा रही हैं। आंखों से आंसुओं की धार बह रही है, एक अहोभाव के साथ। माँ पास आई और बेटे को झकझोरा। कहा, बेटा! तुम यूँ कब तक रोते रहोगे। नानक ने कहा, मां उस पेड़ पर बैठे हुए पपीहे की आवाज सुन । उसकी पिउ-पिउ की रट सुन । वह रात भर से इसी तरह पुकार रहा है। तो जब एक पपीहा रातभर अपने पिऊ को पुकार सकता है, तो नानक अपने परमात्मा को क्यों नहीं पुकार सकता। पपीहे का पीऊ तो आसपास ही होगा, फिर भी वह इतना पुकारता है, पर मेरा परमात्मा तो जाने कितने जन्म-जन्मान्तरों से मुझसे बिछुड़ा हुआ है। उसे तो मुझे जाने कितनी रातों तक पुकारना पड़ेगा। हो सकता है, इस जन्म नहीं उससे भी आगे न जाने कितने जन्मों तक पुकारते रहना पड़ सकता है। मां! मेरे ये आंसू, आंसू नहीं, मेरी खुमारी है, परमात्मा- प्रेम का नशा है। जितनी देर मैं इन आंसुओं में डूबा रहता हूँ, उतनी ही देर मैं आनन्द में जीता यह एक तल्लीनता थी, रसमयता थी। वेद कहते हैं - रसो वै सः। परमात्मा रस रूप है। इसलिए जितना समय जीते हो, जितनी लय लीनता में जीते हो, उतना ही परमात्मा में जीते हो। इसीलिए तो राजचन्द्र कहते हैं - 'प्रभु-प्रभु लय लागी नहीं।' कितना सुन्दर पद है यह, कितनी सुन्दर संरचना है यह। प्रभु-प्रभु लय लागी नहीं, पड्यो न सद्गुरु पाय । दीठा नहीं निज दोष तो, तरिए कौन उपाय? न तो मेरे भीतर प्रभु की लय लगी है, न ही मैं सद्गुरु की शरण गया बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ३२ For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूं, न ही अपने दोषों को देख पा रहा हूँ तो कौन-सा रास्ता है, जो संसार-सागर के पार जा पाऊँ? कोई रास्ता नहीं है। अगर लौ लग चुकी है, तल्लीनता आ चकी है, तो फिर तो कुछ भी करते रहो। यदि एक बार नौका के लंगर खोल कर सागर में उतार दिया गया है तो नौका अपने आप बढ़ती चली जाएगी। लेकिन लंगर ही न खुले तो कोई रास्ता नहीं है। महरवा ए जज्ब-ए-खुद एतबादी महरवा । वो हिला तूफां का दिल, होने लगी कश्ती रवां। एक बार कश्ती रवाना हो गयी तो तूफान का जो दिल धड़का है, वो अपने आप नौका को इस पार से उस पार पहुँचा देगा। यह तो जुआरियों का खेल खेलना है। याने इस पार या उस पार। या तो पार लग जाओगे या बीच में उठने वाले भंवर में डूब जाओगे। डूबना तो है ही, मरना तो है ही, चाहे भंवर में डूब कर मरो, चाहे किनारे पर खड़े-खड़े मरो। मरना तो सुनिश्चित है। पर खड़े-खड़े मरने से बेहतर है, कुछ करते-करते मरो। कम से कम यह तो तसल्ली रहेगी कि मैंने पुरुषार्थ तो किया। मंजिल पर नहीं पहुँचे, कोई बात नहीं। किसी ने पूछा, शादी करने वाला भी पछताता है और न करने वाला भी पछताता है। तो दोनों में कौन-सा पछतावा सही है। मैंने कहा जब दोनों में ही पछताना है, तो कम से कम शादी करके ही पछताओ ना, कम से कम शादी की मृगतृष्णा तो नहीं रहेगी। जो डूबने से, पानी में उतरने से डर गया, वह कभी सागर पार नहीं जा सकता। उसके अन्तर के सागर में परमात्मा का मन्दिर साकार नहीं हो सकता। प्रभु की लय अगर लग जाती है, तो सोते, उठते, बैठते, खाते-पीते, बाजार में धंधा करते, हर जगह प्रभु का स्मरण चलता रहता है। सुबह एक सज्जन कह रहे थे कि जब घर से फैक्ट्री जाता और वापस आता हूँ, कार में अकेला रहता हूँ, तो उस एकाकीपन में निरन्तर परमात्मा का स्मरण करता चला जाता हूँ। सच है एक बार लय लग जाती है, तो कार में चलते हुए भी परमात्मा का स्मरण बना रहता है। लेकिन अगर लय नहीं लगी, तो परमात्मा के मन्दिर में भी चले जाओ, तो भी प्रार्थना नहीं होगी। वहां भी धन-दौलत, जमीन-जायदाद, पति-पत्नी, मकान-दुकान, घर-परिवार की ही प्रार्थना होगी। इसी भाव में आनन्दघन ने एक पद कहा है - ऐसे प्रभु चरणे चित लाऊं रे, गुण गाऊँ रे मना उदर भरण के कारणे रे गौआ वन मां जाय । एक बार प्रभु हाथ थाम लो / ३३ For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारो चरे, चहुँ दिशि फिरे वाको मनवो बछरुआ रे मांह । ऐसे प्रभु चरणे चित्त लाऊं रे, गुण गाऊं रे मना । जैसे गाय जंगल में जाती है, घास चरती है, इधर-उधर डोलती है लेकिन सब कुछ करने के बावजूद, उसका मन तो बछड़े में ही लगा रहता है। आनन्दघन कहते हैं, ठीक उसी तरह मैं भी बाहर के सारे कामकाज करता हूँ, लेकिन मेरा मन तो ठीक वैसे ही परमात्मा में लगा हुआ है, जैसे जंगल में डोलती गाय का ध्यान अपने बछड़े में रहता है। चार-पांच सहेलियां रे हिलमिल पाणी भरवा जाय । ताली दिये, खड़-खड़ हंसे रे, वा को मनड़ो गगरुवा रे माह । गांव में महिलाएं जब एक साथ पानी भरने जाती हैं, तो उनके सिर पर चार-चार घड़े रहते हैं। वे जब लौटती हैं, भरे हुए घड़े लेकर, तो हंसती भी हैं, बोलती भी हैं, तालियां भी बजाती हैं, लेकिन उनका ध्यान पानी के घड़ों पर ही रहता है। ऐसे ही तो केन्द्रित रहना पड़ता है परमात्मा के प्रति । जब झाडू लगाते हुए भी हृदय राम-राम करता रहे, प्रभु-प्रभु करता रहे, तो वह घर में झाडू लगाना भी मन्दिर में झाडू लगाने जैसा है। आनन्दघन कहते हैं नटवो नाचे चौक में रे लोक करे लख शोर । बांस ग्रही वर्ते चढ़े रे, वा को चित्त न चले, कहूँ ठौर । रस्सी पर नृत्य करते नर्तक का ध्यान केवल रस्सी पर केन्द्रित रहता है, . चाहे लोग कितनी ही वाह-वाही करें, कितना ही शोर करें। इतनी वाह-वाही के बीच भी ध्यान तो नृत्य में, रस्सी में। ऐसे ही ध्यान जीवन्त रखना पड़ता है अन्तर में विराजमान परमात्मा के लिए। आनन्दघन फिर कहते हैं - जुआरी मन जुओ बसे रे कामी रे मन काम आनन्दघन हम विनवे रे, तमे लेलो प्रभु रो नाम । जैसे जुआरी के मन में जुआ, शराबी के मन में शराब, कामी के मन में काम ही हर समय छाया रहता है, इसी तरह जब कोई व्यक्ति स्वयं को परमात्मा के सुपुर्द कर देता है, जब स्वयं को इतना तल्लीन, लयलीन कर देता है, तो फिर परमात्मा हमसे दूर कैसे रहेगा? परमात्मा की तो सतत स्मृति रहनी चाहिये, सुरति बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ३४ For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहनी चाहिए। दुनिया चाहे कुछ भी कहे, खोटा या खरा, भला या बुरा लेकिन - तू तो राम सुमर जग लड़वा दे। हाथी चलत है अपनी गति से, कुतर भूसत वा को भूसवा दे। तू तो राम सुमर जग लड़वा दे। कबीर कहते हैं, तू तो राम का स्मरण करता चला जा। आलोचना करने वालों को करने दे। हाथी तो अपनी चाल से चलता है। कुत्तों के भौंकने की वह परवाह नहीं करता, अन्यथा चल ही नहीं पाता। इसलिए तुम तो अपने रास्ते पर बढ़ते चले जाओ, तुम तो अपना कार्य करते चले जाओ। अगर दुनिया की सुनोगे, तो उसकी कैसे सुन पाओगे, जो वह अन्तर में झंकृत हो रहा है। दुनिया तो कहेगी, वह तो तुम्हें सुरति से डिगाएगी। उसका तो काम पथ से डिगाना है ही, तुम न डिगो, यही तुम्हारी अडिगता रहनी चाहिए। जो लड़ते हैं उन्हें लड़ने दो। तुम मत कूद पड़ना दूसरों की लड़ाई में, अन्यथा कुछ भी हासिल नहीं होगा। एक बार दो आदमी लड़ पड़े। एक ने कहा कि अगर मेरा एक चूंसा भी तेरे पड़ गया, तो पूरी बत्तीसी बाहर आ जाएगी। दूसरे ने कहा, अच्छा! मेरी बत्तीसी बाहर आ जाएगी? अरे! अगर तुझे मेरा एक ही घूसा पड़ गया तो चौंसठ दांत बाहर आ जाएंगे। पास खड़े एक आदमी ने कहा, भैया! बत्तीस दांत बाहर आने की बात तो समझ में आती है, लेकिन चौंसठ दांत वाली बात समझ में नहीं आती। दूसरे ने कहा, मुझे पहले ही पता था कि तू बीच में जरूर बोलेगा। बत्तीस इसके, और बत्तीस तेरे। यह दुनिया तो ऐसे ही लड़ती रहेगी। दुनिया का रिवाज, प्रपंच तो ऐसा ही चलेगा। लेकिन तुम अपने को उसमें मत उलझाओ। 'तू तो राम सुमर जग लड़वा दे'। खाना, पीना, उठना, बैठना सब परमात्मा के नाम पर होना चाहिए। परमात्मा की परिक्रमा होनी चाहिए। वह व्यक्ति धन्य है, जो बाजार में जाते हुए भी कहता है कि परमात्मा के मन्दिर की परिक्रमा करने जा रहा हूँ। कबीर कहते हैं - खाऊ, पिऊ सो सेवा, उलूं, बैलूं सो, परिक्रमा। मैं जो खाता-पीता हूँ, वह मैं नहीं खाता। यह जो मेरे अन्दर तू बैठा है, उसे खिला-पिला रहा हूँ। मेरे भीतर जो भगवान विराजमान है, उन्हें खिलाता हूँ। यह शरीर नश्वर होते हुए भी परमात्मा के रहने का घर है, मन्दिर है। इसलिए यह मन्दिर खण्डहर नहीं होना एक बार प्रभु हाथ थाम लो / ३५ For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए। हम इसकी देखभाल करें। इसकी रखवाली करें। इसमें हमारा परमपिता परमात्मा विराजमान है। मेरे द्वारा किया गया भोजन उस परमपिता परमात्मा को चढ़ाया गया अर्घ्य है। इसलिए यह संकल्प रखो कि मैं कोई गलत चीज नहीं खाऊंगा। क्योंकि मैं अपने भगवान को गलत चीज का अर्घ्य नहीं चढ़ा सकता। जब मैं मन्दिर जाता हूँ तो परमात्मा के नाम पर पेड़े, नारियल चढ़ाता हूँ, फिर उस भीतर के परमात्मा को तम्बाकू कैसे खिला दूँ? उसे बाजारू भोजन कैसे करा दूं? ऐसा नहीं है कि मुनि की मर्यादा का पालन करने के लिए हम सिगरेट नहीं पीते। अगर यह मुनि की मर्यादा है, तो क्या जैनियों की मर्यादा नहीं है? लेकिन मैं सिगरेट इसलिए नहीं पीता रे क्योंकि सिगरेट पीने से भीतर के भगवान का गला जलेगा, धुएं से उसका दम घुटेगा। जब हम मन्दिर में जाकर किसी ऐसी वैसी चीज का अर्घ्य चढ़ाना नहीं चाहते, तो फिर अपने इस भीतर के भगवान को गलत चीज क्यों चढ़ा रहे हो । यदि इसे गलत चीज चढ़ाओगे तो फिर अच्छी चीज कहां भेंट करोंगे? मंदिर में तो पुजारी है। कम से कम अपने पुजारी तो तुम खुद बन जाओ। कबीर जाति के जुलाहा थे। न तो उन्होंने कभी अशोक वृक्ष के नीचे बैठकर साधना की, न महावीर की तरह नग्न रहे, न बुद्ध की तरह चीर धारण किया और न मुनियों की तरह सफेद बाना पहना। जुलाहा थे, कपड़े बुनते-बुनते अपने आपको बुन गये। यही तो जीवन की बलिहारी है। व्यवसाय भी जिसके लिए परमात्मा की सेवा बन चुका है, वह परमात्मा के सदा करीब है। मुझे डर है कि कपड़े का धंधा करते-करते कहीं आप अपने आपको ही न बेच डालें। इसमें बड़ा खतरा है। . . एक व्यक्ति जानवरों की भाषा जानता था। एक पशुपालक उसके पास जानवरों की भाषा सीखने गया। शिक्षक ने कहा, तू जानवरों की भाषा मत सीख । हजम नहीं कर पाएगा। लेकिन वह व्यक्ति न माना और हठ करने लगा, तो उस व्यक्ति ने उसे जानवरों की भाषा सिखा दी। पशुपालक बहुत खुश हुआ क्योंकि अब वह जानवरों की आपस की बातचीत सुन-समझ सकता था। एक दिन उसने सुना, उसका एक मुर्गा, दूसरे से कह रहा था कि अपने मालिक का घोड़ा कल मरने वाला है। मालिक यह सुनकर बहुत खुश हुआ। उसने शाम को वह घोड़ा बेच दिया। दूसरे दिन जब पता लगा कि वह घोड़ा मर गया है, तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा । आखिर वह नुकसान से जो बच गया था। पुनः एक दिन उसने उन्हीं मुर्गों की बातचीत में सुना कि उसका तीसरे बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ३६ For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्बर का गधा अगले दिन मरने वाला है । मालिक ने उस गधे को भी बेच दिया और नुकसान से बच गया । फिर एक दिन उन्हीं मुर्गों की बातचीत में उसने खच्चर की मृत्यु के बारे में सुना और उसे भी बेच दिया । इस तरह उसने हजारों रुपये भी कमा लिए और जानवरों की मृत्यु से होने वाले घाटे से भी बच गया। पर अगले ही दिन उन मुर्गों की बातचीत सुनकर उस पशुपालक के होश उड़ गये। एक मुर्गा दूसरे से कह रहा था कि बड़े अफसोस की बात है । अपना मालिक दो दिन बाद मरने वाला है। पशुपालक यह संवाद सुनकर बहुत घबरा गया और दौड़ा-दौड़ा अपने सद्गुरु के पास पहुंचा और सारा किस्सा उन्हें सुनाकर पूछा कि अब मैं क्या करूं? सद्गुरु ने कहा, तुम बिल्कुल वही करो, जो तुमने अपने घोड़े, गधे और खच्चर के साथ किया है। जैसे तुमने उन्हें बेचा है, ठीक इसी तरह तुम अपने आपको बेच डालो। मुझे आपसे भी यही खतरा है कि कहीं आप इसी तरह अपने आपको भी न बेच डालें। कबीर कहते हैं : ____ झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया हे राम! मैंने तुम्हारे लिए झीनी-झीनी चदरिया बुनी है, पर उसमें तुम चदरिया मत देखो। यह चदरिया नहीं, मेरी अर्चना है, मेरी प्रार्थना है। कबीर जब उस चदरिया को बेचने बाजार जाते, तो उसके ग्राहक नहीं ढूंढते, बल्कि ग्राहक-ग्राहक में राम को ढूंढते। परमात्मा को तलाशा करते। जिसके भीतर उन्हें राम दिखाई दे जाते, उसे कहते - भैया! यह चदरिया ले जाओ। यह चदरिया मैंने बहुत प्यार से बुनी है। बड़े प्रेम और भक्ति भाव से बुनी है। यह तुम्हारे एक जन्म नहीं, जन्म-जन्म तक काम आएगी, क्योंकि इसमें मैंने अपने आपको ऊंडेला है। अपना श्रम, अपना अहोभाव उलीचा है। इसलिए यह चदरिया नहीं, यह तो खुद कबीर है, भक्त की आत्मा है, प्रेमी का प्रेम है। यह मेरी अर्चना है। जिस दिन किसी व्यक्ति ने व्यवसाय करते-करते उस व्यवसाय को ही प्रार्थना बना लिया, तो वह व्यवसाय ही प्रार्थना हो जाएगा। वह रसमयता ही परमात्मा का प्रसाद हो जाएगा। कीमत उसी रस और प्रेम की होती है, जो प्रेम परमात्मा को पुकारता है। तुम्हारे पास है तुम्हारी प्रार्थना, तुम्हारा परमात्मा, तुम्हारी संपदा । जितनी देर तुम प्रार्थना करते हो, उतनी ही देर तुम परमात्मा में जीते हो। जितनी देर के लिए प्रार्थना से हटे, उतनी देर के लिए परमात्मा से भी तुम्हारा सम्बन्ध विच्छेद हो गया। राजचन्द्र कहते हैं -- प्रभु-प्रभु लय लागी नहीं, एक बार प्रभु हाथ थाम लो / ३७ For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड्यो न सद्गुरु पाय। दीठा नहीं निज दोष तो, तरिए कोण उपाय। तिरने का उपाय प्रभु की लय का लगना है। अब तिरना है कि डूबना है या किनारे पर ही खड़े रहना है, या अपनी नौका के लंगर खोलकर आगे बढ़ना है, यह तो आप पर ही निर्भर है। पाता वही है जो पानी में छलांग लगाता है। किनारे पर खड़े-खड़े मरने से तो तिरते-तिरते, तिरने के प्रयास में मरना ज्यादा सुखद है। गधे और कुत्ते जैसी सौ साल की जिंदगी से तो सिंह और हाथी जैसी दो दिन की जिंदगी ही काफी है। सोया सिंहत्व जगाएं, सोया स्वाभिमान जगाएं, सोयी प्यास जगाएं, उपलब्धि तुम्हारे सामने होगी। तुम ही तुम्हारे उपलब्धि बनोगे। जो उपलब्ध हो रहे हैं, सिद्ध-सार्थक हो रहे हैं, उन्हें मेरा अहोभाव । नमस्कार। बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ३८ For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयन बिना पावे नहीं मेरे प्रिय आत्मन्! आज का पद है - बिना नयन पावे नहीं, बिना नयन की बात । जो सेवे श्री सद्गुरु, सो पावे साक्षात ।। राजचन्द्र के इस पद में प्रवेश करें उससे पूर्व कुछ पहलू समझ लें। किसी युवक को पर्वत पर चढ़ाई करनी थी। युवक भोर होने से पूर्व अन्धेरे-अन्धेरे ही पहाड़ की ओर रवाना हो गया। तलहटी तक पहुंचा, तो पाया कि तलहटी में तो प्रकाश है, जिस रास्ते से वह आया, उस पर भी चिमनियां जल रही थीं, लेकिन जिस पर्वत पर उसे चढ़ना था, उस पर घुप्प अंधेरा था। युवक का मन यह सोचकर थोड़ा विचलित हुआ कि आखिर ऐसे घटाटोप अंधकार में पर्वत की यात्रा कैसे हो पाएगी। रास्ता कैसे सूझेगा। इतने में ही उसके पास एक वृद्ध व्यक्ति हाथ में कंदील लिए पहुँचा। उसने युवक से कहा - तुम निराश क्यों हो? इस कंदील को थामो और इसकी रोशनी के सहारे पहाड़ पर चढ़ जाओ। युवक ने लालटेन की रोशनी देखी और कहा - इसके सहारे इतने बड़े पहाड़ की चढ़ाई कैसे पूरी हो पायेगी? इस कंदील का प्रकाश तो केवल दस-बारह मीटर तक ही जाता है, जबकि मुझे तो बीस किलोमीटर लम्बी यात्रा करनी है। वृद्ध ने कहा, तुम आगे बढ़ो तो सही, कंदील का प्रकाश भी तुम्हारे साथ-साथ आगे बढ़ता जायेगा। तुम रुकोगे, तो यह भी रुक जायेगा। तुम जितना आगे बढ़ोगे, उतना ही यह प्रकाश तुम्हारा साथ निभायेगा।। गुरु का दायित्व भी इतना ही होता है। गुरु से सम्बन्ध होने का अर्थ भी सिर्फ यही है कि गुरु तुम्हारे भीतर एक हौंसला, एक हिम्मत जगाए ताकि तुम नयन बिना पावें नहीं / ३६ For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलहटी में ही बैठे न रह जाओ बल्कि उससे आगे की यात्रा प्रारम्भ कर सको। ___ संसार में 'गुरु-शिष्य' सम्बन्ध के अलावा जितने भी सम्बन्ध हैं, सब सांयोगिक और पौद्गलिक है। लेकिन गुरु-शिष्य में न केवल सांसारिकता और पौद्गलिकता का कोई सम्बन्ध होता, बल्कि आध्यात्मिकता का भी कोई सम्बन्ध नहीं होता। यदि कोई सन्तान की कामना-पूर्ति के लिए गुरु से वरदान पाने की इच्छा लेकर, गुरु के पास जा रहा है, तो वह सांसारिक सम्बन्ध जोड़ने जा रहा है। यदि मन की शान्ति पाने के लिए गुरु की शरण में जा रहा है तो वह आध्यात्मिक सम्बन्ध बनाने जा रहा है। लेकिन सम्बन्ध तो सम्बन्ध ही है, चाहे सांसारिक हो या आध्यात्मिक । गुरु-शिष्य के सम्बन्ध को मैं सम्बन्ध नहीं कहना चाहता, संसर्ग कहना नहीं चाहता। कारण इस सम्बन्ध में अध्यात्म तो होगा, लेकिन अध्यात्म के नाम पर भी इच्छा-विस्तार ही परिपक्व होगा। इच्छा चाहे संसार की हो, चाहे अध्यात्म की, इच्छा दोनों ही है। खूटे बदल जाएंगे। संसार से जुड़ी हुई इच्छा अध्यात्म से जुड़ जायेगी, लेकिन इच्छा तो होगी ही, सम्बन्ध तो रहेगा ही। फिर चाहे सम्बन्ध पिता-पुत्र का हो या गुरु-शिष्य का। इसलिए मैं गुरु-शिष्य सम्बन्ध के बीच एक विरोधाभास खड़ा करना चाहता हूँ। दुनिया में और तो सभी सम्बन्धों को जोड़ने की बात करते हैं, एक मात्र गुरु ही ऐसा होता है, जो हर सम्बन्ध को तोड़ने की प्रेरणा देता है। असली गुरु सद्गुरु वह होता है जो शिष्य का सम्बन्ध न केवल संसार से तोड़ता है बल्कि गुरु से और अपने आप से भी तोड़ डालता है। इसलिए जहाँ-जहाँ पर भी सम्बन्धों की जंजीरें बंधी हैं, वहाँ-वहाँ से उन्हें खोलनी पड़ेंगी। यदि नौका तट से, जंजीरों से बंधी हुई है, तो जंजीरों को खोले बिना नौका कभी भी आगे नहीं बढ़ पायेगी। मैंने सुना है कुछ शराबी, शराब के नशे में समुद्र के तट पर पहुँचे और तट पर खड़ी नौका पर सवार हो गये। समुद्र विहार करने के लिए पतवारें खोल ली और चलाने लगे। रातभर खूब पतवारें चलाई। सुबह हुई और नशा कुछ कम हुआ तो उनमें से किसी ने कहा - हमने रातभर पतवारें चलाई। ठंडी-ठंडी हवा में हम इतनी दूर चले आये हैं, किनारे भी लग गये हैं। जरा पता तो करें कि रातभर में हम कितने किलोमीटर की यात्रा कर चुके हैं। उन शराबियों में से एक व्यक्ति नौका से नीचे उतरा और हंसने लगा। बोला, बड़ा मजा आया। हम जहाँ से रवाना हुए थे, वहीं पहुँच गये हैं। सभी ने उतर कर देखा, वे रात को जहाँ से रवाना हुए थे, वहीं खड़े हैं। क्योंकि नौका की जंजीरें तो खोली ही नहीं बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ४० For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई थी। बिना लंगर उठाए, पतवारें कितनी भी चलाओ, पहुँचना कहीं नहीं होगा । जीवन के सागर में भी यही होता है। जब तक जंजीरें न खुलेंगी, पतवारें तो बहुत चलेंगी मगर पहुँचोगे कहीं नहीं । कभी किसी छोटे बच्चे को देखना । वह अपने घर में स्टैण्ड पर खड़ी हुई सायकल पर बैठ जाता है और खूब पैडल चलाता है, लेकिन पहुँचता कहीं नहीं है। कारण सायकल तो स्टैण्ड पर खड़ी है। गुरु का काम सिर्फ यह होता है कि वह तुम्हें बता दे कि तुम्हारी सायकल स्टैण्ड पर खड़ी है। गुरु का काम कभी जंजीरों को खोलना नहीं होता। गुरु तुम्हें पतवारें दे सकता है, यह बता सकता है कि तुम्हारी जंजीरें ये- ये हैं, लेकिन जंजीरें तो तुम्हें ही खोलनी पड़ेंगी। मैं जानता हूँ कि मैं आपके हाथों में पतवारें पकड़ा दूँ तो आप उन्हें खूब चला लेंगे। पतवारें चलाने का आपको बहुत अभ्यास है, लेकिन आप अपनी जंजीरें खोलने का प्रयास नहीं करेंगे। आप संसार का मजा भी लेना चाहते हैं। और समाधि का आनन्द भी लूटना चाहते हैं । हम बार-बार नहाते हैं, लेकिन उतनी ही बार अपने शरीर पर कादा - कीचड़ भी उछाल लेते हैं । इसलिए कभी भी निर्मलता नहीं आ पाती है । हाथी का वह स्नान व्यर्थ है, अगर वह सरोवर से बाहर निकलते ही अपनी पीठ पर माटी डालता है। सद्गुरु का संयोग तो कई बार मिला, गुरु ने बताया भी कि तुम्हारे पानी में कीचड़ जमा है । तुम उसमें फिटकरी घुमाते हो, कचरा नीचे जम जाता है, पानी साफ हो जाता है लेकिन गुरु के जाते ही हवा का झोंका लगता है । उस हलचल से नीचे जमा कीचड़ ऊपर आ जाता है । पानी जैसा था, वैसा ही हो जाता है। नतीजा यह होता है, जितनी बार कीचड़ नीचे जमता है, उतनी ही बार वह फिर ऊपर आ जाता है। क्योंकि कीचड़ था तो वहीं, पात्र से बाहर तो नहीं हुआ था। पानी के निर्मलीकरण के लिए पानी बाहर निकालो। भीतर जमा कचरा अलग कर डालो । मल और जल, दोनों साथ-साथ हों, तो जल निर्मल नहीं हो सकता । जल निर्मल हो सकता है, इसीलिए तो मल की ओर, जल की ओर इशारा कर रहा हूँ। जल निर्मल करें, जीवन के लंगर खोलें। नौका तो दो चार जंजीरों से बंधी होती है, पर मनुष्य तो न जाने कितनी जंजीरों से बंधा हुआ है । हाथों में हिंसा की हथकड़ियां और पांवों में मोह की बेड़ियां पड़ी हुई हैं। धन की जंजीर, पद की जंजीर, प्रतिष्ठा की जंजीर, परिवार, संसार न जाने कितनी - कितनी जंजीरों से बंधा हुआ है मनुष्य । दोस्तों से ही नहीं, दुश्मनों से भी बंधा हुआ है। आदमी को जितनी याद दोस्तों की नहीं आती, उससे कहीं ज्यादा दुश्मनों की याद सताती नयन बिना पावें नहीं / ४१ For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। यह एक गहरा मनोविज्ञान है। रात को नींद में भी व्यक्ति दुश्मन को खत्म करने के उपाय सोचता रहता है। दोस्तों की खुशी होती है, दुश्मनों का गम; पर दोस्तों ने इतने कष्ट पहुंचाये हैं कि दिल से दुश्मनों की शिकायत करने की इच्छी ही चली गयी। दोस्तों के इस कदर सदमें उठाए जाने पर, दिल से दुश्मनों की शिकायत का गिला जाता रहा। दुश्मनों की शिकायत क्या की जाए, यहां तो हर कोई अपनों का ही सताया हुआ है। बेटा बाप से, बाप बेटे से सताया हुआ है। सास बहु से, बहु सास से सतायी हुई है। घर वालों ने ही इतनी बेड़ियां बांध रखी हैं कि औरों की बेड़ियां तो बेड़ियां लग ही नहीं रही हैं। दुश्मन ने मेरा अहित किया है, यह कहने वाले कम मिलेंगे, ज्यादातर लोग तो अपनों की ही शिकायत करते मिलेंगे। दुश्मनी की जंजीरें तो एक बार खुल भी जाए, मगर दोस्ती की जंजीरें खुलना कठिन है। दुश्मन को छोड़ना सरल लेकिन दोस्त को छोड़ना मुश्किल है। यदि तुमसे तुम्हारे परिवार, पद, प्रतिष्ठा, धन को छोड़ने के लिए कहा जाए तो तुम कहोगे कैसे छोड़ दूं? आखिर वह मेरा पुत्र है, उसे कैसे छोड़ दूं? धन मैंने अपने पुरुषार्थ से कमाया है, उसे कैसे छोड़ दूँ? और अगर मैंने ये सब छोड़ दिया तो मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? मेरे मकान, धन-दौलत, जमीन-जायदाद का क्या होगा? तुम छोड़ो या मत छोड़ो, पर यह सब तो आखिर एक दिन छूटना ही है। मौत आएगी और सब छुड़ा ले जाएगी। तुम्हें मजबूरन छोड़ना पड़ेगा। पर मजबूरी से छोड़ना भी कोई छोड़ना है? जब तक व्यक्ति अपने हाथों से नहीं छोड़ता, जंजीरें स्वयं नहीं खोलता, तब तक पतवारें तो खूब चलेंगी, लेकिन कहीं पहुंचना न हो पायेगा, किनारे नहीं लग पाओगे। पहुँचने के लिए पहले जंजीरें खोलनी जरूरी है, फिर पतवारें न भी चलाई तो भी कोई चिन्ता नहीं। सम्भव है फिर तो तुम्हारी प्रकृति, नियति हवा के झोंकों के साथ अपने आप तुम्हारी नौका को आगे बढ़ाती ले जाए। मेरे इशारे लंगर खोलने के लिए है। यह लंगर का खुलना ही-आंख के भीतर आंख का उघड़ना है। अभ्यन्तर की आंख से ही जीवन को जाना-पहचाना जा सकता है। आज का जो पद है, वह बिना नयन की बातें कर रहा है। आंख के भीतर की बातों को भीतर की आंख के बिना पाया नहीं जा सकता। सद्गुरु के प्रति समर्पण कर दिया है जिसने स्वयं को, साहस के साथ पा जाता है वह प्रत्यक्ष उन बातों को, तथ्यों को। राजचन्द्र कहते हैं -- बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ४२ For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिना नयन पावे नहीं, बिना नयन की बात । जो सेवे श्री सद्गुरु, सो पावे साक्षात ।। राजचन्द्र कहते हैं कि जो व्यक्ति सद्गुरु की सेवा करेगा, उसके पास चाहे कुछ न हो, वह साक्षात उपलब्ध करेगा। उसकी उपलब्धि प्रत्यक्ष होगी। लेकिन तुम्हारे पास न तो अपने नेत्र हैं, न स्वयं की प्रज्ञा है, न शिव-नेत्र है, न सम्यक् दृष्टि है, न अन्तर्दृष्टि और न ही सद्गुरु की सेवा, तो उपलब्धि कहां से होगी? सद्गुरु अन्तर-जागरूकता प्रदान करता है और उसके लिए चाहिये सतत समर्पण, सतत साहस, पूर्ण स्वीकार । गुरु का काम शिष्य की हिम्मत बढ़ाना है। गुरु तुम्हें परमज्ञान नहीं दे सकेगा। गुरु तुम्हें जीवन का सत्य नहीं दे सकेगा। गुरु न तो तुम्हें आत्मा दे सकता है, न परमात्मा। यह देना गुरु के हाथ में है भी नहीं। गुरु तो सिर्फ हमारी खोई हुई क्षमता से हमारी पहचान करवा सकता है, हमारी अभीप्सा जगा सकता है। ___एक छोटा बच्चा जो चलना नहीं जानता, मां उसे चलना सिखाती है। वह गिरता है, पड़ता है, घुटनों में चोट भी लगती है, वह घबराता भी है, पर मां उसे बार-बार उठने और चलने को प्रेरित करती है, हिम्मत बंधाती है, हौंसला बढ़ाती है। यों उसे चलना सिखा देती है। ऐसा मां इसलिये कर पाती है कि बच्चे में पहले से ही चलने की क्षमता है। मां तो अपनी अंगुली थमाकर बस उसे उसकी क्षमता का बोध करवा देती है। चलने की क्षमता बच्चे में ही होती है। मां में चलाने की क्षमता नहीं होती। अन्यथा मां किसी पंगु बच्चे को चलाकर दिखाए? नहीं। सम्भावना तो स्वयं मनुष्य में ही है। गुरु का दायित्व उन सम्भावनाओं से मनुष्य का परिचय कराना भर है। गुरु किसी विकलांग को नहीं चला सकता, लेकिन जिनमें चलने की क्षमता है, उनका उस क्षमता से परिचय करवा सकता है। आगे बढ़ने के लिए हौंसला अफजाई कर सकता है। एक बार अपनी क्षमता का विश्वास जाग जाए, फिर तो अपने आप चलोगे, अपने आप आगे बढ़ोगे। दो-चार बार गिरोगे भी, पांव भी लड़खड़ा सकते हैं, फिसल भी सकते हो, चोट भी लगेगी, गुरु पुचकारी देगा। सांत्वना देगा, ढाढ़स देगा, घबराओ मत चोट तो ऐसे ही लगती रहती है। गुरु के यही शब्द तुम्हें प्रोत्साहित करते हैं। तुम गिरकर भी फिर-फिर चलना चाहते हो और यों तुम्हारा चलना पक्का हो जाता है, दृढ़ता आ जाती है। यदि कोई व्यक्ति तैरना सीखना चाहता है तो पहले-पहले तो वह पानी में पैर रखने में भी घबराता है कि कहीं डूब गया तो? जब प्रशिक्षक कहता है नयन बिना पावें नहीं / ४३ For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि डरते क्यों हो? अगर डूबने लगोगे, तो मैं तुम्हारे साथ हूँ। मैं तुम्हें डूबने नहीं दूंगा । तो शिष्य की थोड़ी हिम्मत बढ़ती है । कोई बचाने वाला साथ है, यह विश्वास उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है और वह धीरे से एक पैर पानी में डालता है लेकिन तत्क्षण ही चौंकता है, सिहर उठता है और पांव खींच लेता है । गुरु फिर हिम्मत देता है डरो मत। मैं तुम्हारे साथ हूँ, दूसरा पैर भी पानी में डालो । तो शिष्य पुनः उत्साहित होता है और डरते-डरते एक सीढ़ी उतरता है, फिर दूसरी, फिर तीसरी और क्रमशः यह होते-होते एक दिन वह गले-गले पानी में खड़े होने में सफल हो जाता है । शिष्य में इतनी हिम्मत जाग जाने पर गुरु अपना हाथ उसके नीचे रख देता है पेट छाती पर, और शिष्य से कहता है- अब तैरो । हाथ-पांव चलाओ । शिष्य जब हाथ-पांव चलाने की चेष्टा करने लगता है, तो गुरु धीरे से अपने हाथ हटा लेता है। शिष्य को विश्वास होता है, गुरु का हाथ तो नीचे है, लेकिन वस्तुतः वह स्वयं तैर रहा होता है क्योंकि आपकी तैरने की क्षमता जगाकर गुरु ने तो हाथ कब का ही हटा लिया है। अगर गुरु हाथ नहीं हटाता है, तो इसका मतलब है गुरु सद्गुरु नहीं है। वहां खामी है । गुरु ने अगर हमेशा हाथ नीचे लगाये रखा, तो शिष्य कभी भी तैरना नहीं सीख पाएगा, कभी भी गहरी डुबकी नहीं लगा पायेगा। गुरु तैरना सीखने में मदद कर सकता है लेकिन तैरा नहीं सकता। गुरु तुम्हें सत्य नहीं दे सकता लेकिन सत्य को प्राप्त करने के लिए जिस साहस की जरूरत है, वह साहस तुम्हें दे सकता है। शिष्य जब तैरना सीख जाता है, तो स्वयं ही गहरी डुबकी लगाने लगता है । गुरु ने तो सिर्फ तैरना सिखाया डुबकी लगाना नहीं, लेकिन जैसे-जैसे शिष्य तैरना सीख जाता है, वह गहरी से गहरी डुबकी लगाने लगता है । गहराई में आनन्द में डुबकी लगती है । जब तक गहरे में न उतरो, तैरने का मजा ही नहीं आता। गुरु ने तुम्हें मार्ग भर बताया है डुबकी लेना भर सिखाया है। अब आनन्द तुम ले रहे हो, गुरु नहीं । क्षमता हमारे पास है, गुरु ने उसका उद्घाटन भर किया है। मूर्ति का अनावरण किया है । यह क्षमता की पहचान ही बिना नयन की बात है, जो चर्मचक्षुओं से जानी नहीं जा सकती । साहस से जगायी जा सकती है । अभ्यन्तर की आंख को खोला जा सकता है । यह मैं विश्वास के साथ इसलिए कहता हूँ, क्योकि जब मेरी आंखें खुल सकती हैं, तो आपकी क्यों नहीं ? जीसस कहते हैं लोगों के पास आंख है, पर वे देखते नहीं, कान है, पर वे सुनते नहीं। अंधे ही अंधे नहीं, आंख वाले भी अंधे हैं । बहरे ही बहरे नहीं, कान वाले बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ४४ For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी बहरे हैं। अगर आंख बन्द हो, तो तुम कितना भी प्रकाश दिखा दो उसके लिए प्रकाश मजाक होगा। प्रकाश भी उसके लिए अंधकार होगा। कान अगर बन्द है, तो बादल कितने भी गरजते रहें, पर उसकी हर गर्जन व्यर्थ है। आँख खोलना ग्राहकता को उपलब्ध करना है। सत्य तभी हमारा होता है, जब उसे ग्रहण करने की ग्राहकता हम में आ जाये। नयन तो आपके पास है। गुरु आपके अन्तर्चक्षुओं को सहलाता है और कहता है, नेत्र खोल लो। गुरु एक तालमेल बैठाता है। गुरु तो शिष्य का ब्लूप्रिन्ट तैयार करता है। हमारे अन्तर और बाह्य में एक तालमेल, एक समायोजन, एक लयबद्धता बैठाता है। जैसे वीणा के तारों में सुर पहले से ही मौजूद होते हैं। हमारी अंगुलियां भी हमारे पास मौजूद हैं। गुरु यह बता देता है वीणा के तार पर किस जगह अंगुली रखने से षड्ज निकलेगा और कहां छूने से ऋषभ। प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात ने गुरु की तुलना एक मिडवाइफ से की है दाई से की है। दाई का काम होता है बच्चे को पैदा कराना। दाई अपने पेट से बच्चा पैदा नहीं करती, बल्कि किसी और के पेट से बच्चा पैदा होने में मदद करती है। गुरु भी इसी तरह शिष्य की मदद करता है उसके छिपे हुए ज्ञान को प्रगट करने में, सत्य का चिराग जगाने में। मैं आपको वही हिम्मत, वही हौंसला देना चाहता हूँ, सहारा देना चाहता हूँ ताकि आप लोग भी अपने भीतर के उस परमतत्व को, बिना नयन की बातों को 'बिना नयन' के पहचान सको। भीतर के तथ्यों को भीतर की आंखों से निहार सको। मैं आपको सत्य नहीं दे सकता, सत्य तो स्वयं आपके पास है। मैं तो सत्य को पहचानने की हिम्मत दे सकता हूँ। मैं मदद कर सकता हूँ मित्रवत्। मेरे लिए आप सभी आत्म-मित्र हैं। जो औरों को शिष्य बनाते हैं, वे चूक रहे हैं। वे सोचते हैं उन्हें शिष्य मिले। वे नहीं जानते कि जिसे तुम शिष्य कह रहे हो, वह पहले से ही गुरु बना हुआ है। एक चौधरी एक साधु के पास पहुँचा और साधु की सेवा करने लगा। साधु वृद्ध थे। सोचा, इस चौधरी को चेला बनाना ठीक रहेगा। उसने चौधरी से पूछा, चौधरी! तेरी सेवा से हम प्रसन्न हैं। बोल, चेला बनेगा? चौधरी ने पूछा - ये चेला क्या बला है? गुरु ने कहा - चेला वह होता है जो गुरु के आदेशों का पालन करता है और गुरु वह होता है जो आदेश देता है। चौधरी बोला - तो बाबा! अपने भी गुरु ही बनेंगे .... । तो चेला बनाओगे किसको? यहाँ तो सब पहले ही गुरु बने हुए हैं। नयन बिना पावें नहीं | ४५ For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्गुरु वह है जो दूसरों को पहले तो शिष्य बनाता है और फिर कहता है 'अप्प दीवो भव'। अपने दिये आप खुद बनो । दुनिया में दो तरह के मत हैं । एक मत कहता है, परमात्मा की राह पर गुरु जरूरी है, क्योंकि 'गुरु बिना ज्ञान नहीं ।' लेकिन दूसरी परम्परा कहती है कि 'गुरु संग ज्ञान नहीं ।' पहली परम्परा प्रेरणा देती है कि बिना गुरु के ज्ञान नहीं है। वह अपनी जगह ठीक है, लेकिन जब यह बात कोई गुरु ही मंच पर बैठकर कहता है, तो परोक्ष रूप से वह यह भी चाहता है कि तुम मुझे अपना गुरु बना लो, क्योंकि मैं गुरु हूँ और गुरु के बिना तुम्हें ज्ञान नहीं मिलेगा । मैं इन गुरुओं से पूछता हूं क्या करोगे किसी के गुरु बनकर । दूसरों के तुम जितने ज्यादा गुरु बनोगे, तुम्हारा अहंकार उतना ही बढ़ता जाएगा और अन्ततः गुरु और शिष्य के अहंकार, जब आमने-सामने खड़े होंगे तो संघर्ष अवश्यम्भावी है । जिन्होंने गुरु-शिष्यों के बीच गाली-गलोच होते सुना है, डंडे चलते देखे हैं, वे यह जानते हैं। जो व्यक्ति अनजान है, अबोध है, अगर उसे कह दिया जाए कि गुरु को कोई जरूरत नहीं है, तो यह भी एक भूल है । उसे गुरु की जरूरत है क्योंकि वह बच्चा है और बच्चे को अंगुली का सहारा मिलना आवश्यक है । इसके लिए शिष्य को अपना अहंकार गुरु के समक्ष समर्पित करना होता है । यह सिर झुकाया कि न झुकाया, इससे फर्क नहीं पड़ेगा अगर सिर झुकाने के बाद भी अहंकार वैसा का वैसा ही रहा । शिष्य ने गुरु के चरणों में पचासों बार सिर नवाया, लेकिन जरा सी विपरीत बात गुरु ने कह दी तो शिष्य सीधा गुरु का महागुरु बन गया । यह झुकना कोई झुकना नहीं है । गुरु तो आपकी उन्नति के लिए, आपकी हिम्मत बढ़ाने के लिए, आपकी परीक्षा लेने के लिए न जाने क्या-क्या करवा सकता है। यह तो गुरु पर ही निर्भर करता है। शिष्य की ओर से तो चाहिये पूर्ण समर्पण । लेकिन गुरु की भूमिका की भी एक सीमा है । गुरु को हमेशा इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि वह शिष्य को बस अंगुली पकड़ाये, वो भी हौले से। कहीं ऐसा न हो कि शिष्य को अंगुली पकड़ाते पकड़ाते स्वयं उसकी अंगुली पकड़ ले और छोड़े ही नहीं । गुरु का काम तो पोले- पोले हाथों से शिष्य को अंगुली पकड़ाना होता है, कसकर पकड़ना नहीं होता । वरना शिष्य बिना गुरु के चल ही न पायेगा । दो साल का बच्चा बिना मां के चल नहीं पाता, यह बात तो समझ मे आती है पर अगर आठ साल का बच्चा भी मां की अंगुली का सहारा लेकर ही बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ४६ For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलता है तो इसका अर्थ है मां ने उससे सही वक्त पर अपनी अंगुली नहीं छुड़ाई । उसे स्वयं बिना किसी सहारे के चलने की प्रेरणा न दी । परिणाम स्वरूप बच्चे को अंगुली पकड़ कर चलने की आदत बन गई है, जो अब छूट नहीं सकती। ऐसा बच्चा कभी भी आत्म-निर्भर नहीं हो सकता। इसलिए गुरु को अपनी, सहारा देने की सीमा का बोध रखना चाहिए। बड़े हल्के से अपनी अंगुली पकड़ानी चाहिए और जैसे ही शिष्य चलना सीख जाए, उसकी शिक्षा पूर्ण हो जाए, गुरु को बिना देर किये अपनी अंगुली छुड़ा लेनी चाहिए । ज्योतिर्मय दीप 'बुझे दीप को' तब तक ही संसर्ग दे जब तक उसकी बाती लौ न पकड़ ले। दीप जलाना ही तो मुख्य मुद्दा है। गुरु दीप है । दीप का काम दीयों की बाती को जगाना है, प्रज्वलित करे और आगे बढ़ चले। गुरु का काम शिष्य को सिर्फ यह इशारा करना होता है कि देखो यह रही अंगुली और वह रहा चांद और जब शिष्य ने चांद देख लिया तो किस अंगुली ने चांद दिखाया, यह बात गौण हो जाती है । अब यदि शिष्य चांद को नहीं देख पाता सिर्फ गुरु की अंगुली ही देखता रह जाता है, तो यह उसका दोष है । क्योंकि अंगुली कभी चांद नहीं हो सकती । पानी में चांद की परछाई देखने से काम नहीं चलने वाला | चांद देखने के लिए नजर को ऊपर उठाना पड़ेगा। नेत्र खोलने होंगे। लेकिन ज्यादातर लोग अंगुली पकड़कर बैठ जाते हैं, सीढ़ी को ही मंजिल मानकर चादर तानकर सो जाते हैं। गुरु के ही स्वरूप में खोकर रह जाते हैं । और फिर शुरू हो जाते हैं, तेरे गुरु और मेरे गुरु के झगड़े । प्रारम्भ हो जाता है दुराग्रह, कट्टरता, मत-मतान्तर । शिष्य को अपनी दृष्टि हमेशा लक्ष्य पर रखनी चाहिए। उसे चांद देखने से मतलब है, या अंगुली पकड़ने से। अगर अंगुली पकड़े रहे तो जिन्दगी भर बच्चे ही बने रह जाओगे । कभी अपने पैरों पर खड़े न हो सकोगे। वैशाखी चाहिये हर हालत में । अब तुम्हें सत्य देखने से मतलब है या गुरु को देखने से ? गुरुं ने इशारा करके चांद दिखाया और जब चांद देख लिया तो फिर उस अंगुली का ज्यादा महत्व नहीं है जिसने दिखाया। यह तुम्हारा भ्रम है कि गुरु की शरण में जाने से तुम्हें समकित मिल जाएगा, बोधिसत्य प्राप्त हो जाएगा। गुरु के पास समकित की कोई टकसाल नहीं खुली है कि तुम पहुंचे और गुरु तुम्हें समकित दे देंगे। समकित का दीप तो तुम्हें स्वयं में ही प्रज्वलित करना पड़ेगा। गुरु का काम तो तुम्हें कंदील थमाना और यह प्रेरणा देना है कि आगे बढ़ो । प्रकाश तुम्हारे साथ-साथ आगे बढ़ता जाएगा। नयन बिना पावें नहीं / ४७ For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और जब प्रकाश को उपलब्ध हो जाओ, जब नौका सागर पार कर जाती है, तो छलांग लगा देना तट पर चढ़ने के लिए। अगर गौतम ने छलांग न लगाई तो वीतरागता और भगवत्ता से, करीब होकर भी दूर रहोगे। इसलिए गुरु का महत्व तो है, निश्चित ही है लेकिन उतना ही महत्व है जितना एक दिशादर्शक का होता है, अंगुली दिखाने वाले का होता है। किसी मिडवाइफ का होता है। इससे आगे की यात्रा तो हमें स्वयं ही करनी पड़ेगी। राजचन्द्र का पद है -- बिना नयन पावे नहीं, बिना नयन की बात । जो सेवे श्री सद्गुरु, सो पावे साक्षात।। वे बातें जो बिना नयन की हैं, जिन्हें साक्षात देखा नहीं जा सकता, उन बातों को देखने के लिए ही सद्गुरु का महत्व है। सद्गुरु वह है जो तुम्हारे चित्त को आंदोलित कर दे, प्रभावित कर दे और परिवर्तित कर डाले । गुरु का उपदेश सुनकर आपके हृदय में तीस-तीस दिन के उपवास का उदय हो या न हो, लेकिन आपके जीवन में, आपके मन के भावों की परिणतियों में एक निर्मलता और सरलता आनी चाहिए। सम्यक्त्व - बिना नयन की बात है, जो हमारे भावों की सरलता में ही सम्भावित है। हमारे मन के परिणाम जितने निर्मल-भद्र-सरल-ऋजु होते चले जायेंगे, हमारे भीतर प्रकाश की सम्भावनाएं उतनी ही बढ़ती जाएंगी। मुझे सुनकर हो सकता है आप अड़तालीस मिनट तक लगातार एक ही आसन पर बैठने में सफल न हों, लेकिन जब-जब भी आपके मन में क्रोध उमड़ेगा, चेतना तत्काल झकझोरेगी कि अरे मैं क्रोध कैसे करूं? मैं आप लोगों को अड़तालीस मिनट की सामायिक नहीं देना चाहता, बल्कि चौबीस घंटे की समता देना चाहता हूँ। मैं आपको एक पाषाण की पूजा नहीं देना चाहता, बल्कि ऐसी पूजा और प्रार्थना देना चाहता हूं कि आप चौबीसों घंटे परमात्मा में जी सको। इसके लिए जरूरी है कि एक बार दृष्टि खुल जाए, अन्तर्दृष्टि जाग जाए। जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि जैसी व्यक्ति की निगाह होती है, वैसा ही दृश्य व्यक्ति को नजर आता है। काले चश्मे वाले को दीवार काली दिखेगी और सफेद चश्मे वालों को सफेद । जब तक चश्मे पहने हुए हो, सत्य को नहीं देख पाओगे। मैं चाहता हूँ कि चश्मे उतर जाएं और भीतर की दृष्टि तीव्रतर हो जाए, ताकि आप खुद पहचान सकें, देख सकें कि आपके भीतर सम्भावनाएं हैं। ___ मैं शास्त्रों पर विश्वास रखता हूँ, धर्म पर भी विश्वास करता हूँ, लेकिन उसी शास्त्र और धर्म पर विश्वास करता हूं जिसे अपने जीवन में क्रियान्वित किया जा सके, जिसके सत्य को हम स्वयं जान सकें । वह शास्त्र हमारे लिए भारभूत बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ४८ For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा, जो हमारी संभावनाओं के दर्शन हमें न करा सके। बेहतर होगा कि अपने भीतर के शास्त्रों को समझने के लिए आप इन बाहर के शास्त्रों को दराजों की शोभा बना डालो। जब तक आंखों के आगे हम किताबों की कदाग्रहता के चश्मे लगाते रहेंगे तब तक बात चर्चाओं के दायरे तक सीमित रहेगी, लेकिन श्रीमद् राजचन्द्र तो बिना नयनों की बात, नयनों के बिना ही देख पाने की बात करते है दर्शन पाहुड़ में एक बड़ी गहरी गाथा है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं दंसण भट्ठा भट्ठा सण भट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं । सिझंति चरिय भट्ठा सण भट्ठाण सिझंति । जो दर्शन से भ्रष्ट है वही भ्रष्ट है। जो अपने भीतर अन्तर-स्वभाव से, अपनी सहजता से पतित, विचलित, भ्रष्ट हो चुका है, वही भ्रष्ट है। कुन्दकुन्द जैसी इतनी बड़ी क्रान्तिकारी बात कहने वाला अन्य कोई आचार्य पूरी जैन परम्परा में और कोई नहीं हुआ होगा। कुन्द-कुन्द कहते हैं सिज्झन्ति चरिय भट्ठा-जो चारित्र्य से भ्रष्ट है, वह शायद मुक्ति प्राप्त भी कर लेगा, लेकिन जो आदमी दर्शन से भ्रष्ट है, उसके निर्वाण की कल्पना भी नहीं की जा सकती। बात अपनी दृष्टि की है, दृष्टिकोण की है, दृष्टि में हुए मिलावट को दूर करने की है। मान लीजिए दो आदमी कारागृह में कैद है और वह कारागृह किसी तालाब के किनारे पर स्थित है। एक कैदी कहता है कहां कारागृह बनाया है। इस तालाब में कीचड़ है, मच्छर है, कितने कीड़े-पतंगे उड़ते-रहते हैं, कितनी दुर्गन्ध आती है। वहीं दूसरा कैदी आसमान की ओर नजर उठाकर कहता है वाह क्या नजारा है? क्या आसमान की नीलिमा है? कैसी चांदनी बरस रही है? वह व्यक्ति चांद में नहा उठता है। लेकिन दोनों की नजरों में फर्क है। एक की नजर तालाब के कीचड़ पर है। और दूसरे की आसमान में उगने वाले चांद पर है। पहला किरण से अछता रह जाता है, दूसरा चांद में नहा लेता है। जैसी जिसकी दृष्टि होती है, वैसी ही उसकी सृष्टि होती है । दृष्टि पर ही तो सब कुछ केन्द्रित है। अन्तरदृष्टि का विमोचन ही जीवन में अध्यात्म का उद्घाटन है। दृष्टि को उपलब्ध होना जीवन की दृष्टि से महान् उपलब्धि है। कोई व्यक्ति जन्मजात गूंगा हो, बहरा हो, चलेगा, लेकिन अंधा हो तो संसार से उसका संबंध ही टूट जाएगा। बहरे हुए तो लिखकर काम चला लोगे। गूंगे हुए तो इशारों से बात कर लोगे, लेकिन अंधे हुए तो प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होगा, सुनी-सुनाई बातों पर ही विश्वास करना पड़ेगा। यानी सत्य का दर्शन नहीं कर पाओगे। नयन बिना पावें नहीं / ४६ For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य को सुन तो लोगे, लेकिन आंखों देखी सो सच्ची सब, कानों सुनी सो झूठी। दृष्टि जीवन की महानतम उपलब्धि है और अंतर्दृष्टि खुलजाने से अधिक उपलब्धि पूर्ण जीवन का कोई और अंजाम नहीं हो सकता। दर्शन हमेशा होश से पैदा होता है, भीतर की जागरूकता से जनमता है। भीतर की अप्रमत्तता से दर्शन आत्मसात होता है। सम्यक दर्शन को प्राप्त करने का एकमात्र तरीका यही है कि तुम कितने होश से, कितनी जागरूकता से, कितने यत्न से, कितनी स्वाभाविकता से जीते हो। हमारा होश, हमारा अप्रमाद, हमारी अप्रमत्तता जितनी तीव्र होगी, जितनी खरतर और प्रखर होगी, उतनी ही ज्यादा हमारी सम्यक्दर्शन की सम्भावना मुखर होती चली जाएगी। सम्यक्दर्शन तो अनुभव का मार्ग है, कहने या सिखावे का नहीं। और जो व्यक्ति अनुभव से गुजरता है वह स्वयं में पूर्ण होता है, किसी बच्चे को कहो कि आग में हाथ मत डालना, हाथ जल जाएगा, तो बच्चा नहीं मानेगा, लेकिन वह एक बार आग के पास चला जाए और उसकी अंगुली जरा-सी भी जल जाए तो उसे आग की जलन का बोध हो जाएगा। वह आग के प्रति हमेशा के लिए सावचेत हो जाएगा। हजार बार दी गई सीख के मुकाबले एक बार का अनुभव ज्यादा सार्थक, ज्यादा कारगर होता है। एक बार बिजली के झटके का अनुभव हो जाए तो बिजली के तार को छूना तो दूर, व्यक्ति उसके प्लग को हाथ लगाने से भी डरता है। क्योंकि करंट का अनुभव है। कहावत है कि दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। वह अनुभव से गुजरा होता है। जिसने एक बार अनुभव से गुजर कर जान लिया कि वासना का क्या दुष्परिणाम होता है, वह वासना से मुक्त हो जाएगा। जिसने एक बार जागरूकता पूर्वक क्रोध को जान लिया, क्रोध के दुष्परिणाम को समझ लिया,उसे फिर क्रोध का हेतु मिलने पर भी क्रोध नहीं आएगा। लेकिन जब तक होश पूर्वक क्रोध से गुजरेंगे नहीं तब तक क्रोध मत करो - ऐसा किसी के कह देने मात्र से क्रोध ठंडा नहीं हो जाएगा। किताबों को पढ़ने से या किसी के कोरे प्रवचनों को सुनने से क्या अभी तक किसी का क्रोध खत्म हुआ है? जन्म से अब तक पढ़ते आ रहे हो कि क्रोध पाप का बाप है, क्रोध दिमाग का धुंआ है, क्रोध शैतान का घर है, फिर भी क्रोध कर रहे हो। सिगरेट के डिब्बे पर रोज पढ़ते हो, सैकड़ों बार पढ़ा होगा कि सिगरेट स्वास्थ्य के लिए हानिकर है, पर सिगरेट नहीं छूटी । जब खांसी उठेगी, दम घुटेगा, जी जलेगा, तब अनुभव होगा, ओह! सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ५० For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितना हानिकर है। किसी फिल्म थियेटर में कितनी भी अच्छी फिल्म चल रही हो और अचानक कोई व्यक्ति आग-आग का शोर मचा दे, तो आग कहाँ लगी है, यह देखने के लिए कोई हॉल में रुकेगा नहीं, बल्कि जान बचाकर भागने का ही प्रयास करेगा। वहां सब आग के अनुभवों से गुजरे हुए लोग होते हैं। वे आग की तपिश को जानते हैं। अनुभवी हैं, इसलिए भाग जाते हैं। एक व्यक्ति हवाई जहाज में बैठा। टिकट ले लिया। हवाई जहाज जैसे ही उड़ने लगा, वह व्यक्ति कैप्टन के पास पहुंचा और उससे पूछा कि कैप्टन! हवाई जहाज में पेट्रोल तो भरवा लिया है ना। कैप्टन थोड़ा हैरान हुआ कि ऐसा यात्री तो आज तक नहीं चढ़ा, जिसने पेट्रोल की चिन्ता की हो। पर हवाई जहाज में यात्रियों से सद्व्यवहार की परम्परा है, अतः उसने जवाब दिया - हाँ जी, पेट्रोल वगैरह सब भरवा लिया है। आप आराम से यात्रा कीजिए। वह व्यक्ति अपनी जगह पर जाकर बैठ गया। लेकिन एक मिनट बाद पुनः कैप्टन के पास पहुँचा और पूछा - कैप्टन, इंजन वगैरह तो चेक किया है ना? कहीं प्लेन बीच में खराब तो नहीं होगा? कैप्टन ने उस यात्री को घूरकर देखा और कहा भाई, कैप्टन आप हैं या मैं हूँ। यह तो मुझे सोचना है कि पेट्रोल भरवा लिया है या नहीं, इंजन ठीक है या नहीं। आप जाकर शान्ति से अपनी जगह बैठिए। उस यात्री ने कहा, आप अभी तो इस तरह बोलते हैं जब बीच रास्ते में हवाई जहाज का पेट्रोल खत्म हो जाए, या इंजन खराब हो जाए तो यह मत कहना कि नीचे उतरो और धक्का लगाओ। वह आदमी रोडवेज की बस में बैठने का आदी रहा है। इसे ही कहते हैं दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। ____जिसे एक बार सम्यक् दर्शन उपलब्ध हो जाए, उसका हर अगला कदम सावचेत होता है, सतर्क होता है और गुरु का काम बस इतना होता है कि मनुष्य की दृष्टि की जो क्षमता है, उसे जाग्रत कर दे, सही रास्ते पर लगा दे ताकि सत्य को आप खुद देख सकें, पहचान सकें। सद्गुरु हाथ पकड़ कर अभ्यन्तर के राजमार्ग पर ले जाना चाहते हैं, जिससे कि प्रवेश और यात्रा सुगम हो सके । यहाँ पर शास्त्रों के जानकार तो बहुत हैं, किताबों को कंठस्थ करने वाले बहुत है लेकिन दृष्टि सम्पन्न लोग विरले ही हैं। उन्हें मेरे प्रणाम हैं, जिन्हें अन्तर्दृष्टि प्राप्त है। खुली हो जिनकी अभ्यन्तर की आंख, आंख के भीतर की आंख । नयन बिना पावें नहीं / ५१ For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन की चैतन्य - यात्रा मेरे प्रिय आत्मन्! एक सौदागर व्यापार के लिए हिन्दुस्तान आया । उसे यहां एक परिंदा बहुत पसंद आया। उसने वह परिंदा खरीद लिया । उस परिंदे के लिए उसने एक खूबसूरत सुनहरा पिंजरा भी बनवाया। वापसी में वह उस परिंदे को अपने देश ले गया। वहां उसने उसकी देखभाल, खान-पान, खेलकूद की बेहतरीन व्यवस्था की । अगली बार जब सौदागर अपना माल बेचने फिर हिन्दुस्तान आने लगा तो उसने परिंदे से पूछा कि हिन्दुस्तान से तुम्हारे लिए कुछ सामान लाना है ? परिंदे निःसांस छोड़ते हुए कहा, मालिक! लाना तो कुछ नहीं है लेकिन मेरी एक प्रार्थना है कि आपको हिन्दुस्तान के जंगल में यदि कोई मेरा कोई जाति भाई मिल जाए तो उसे यहां मेरे पिंजरे में कैद होने का समाचार दे देना । सौदागार हिन्दुस्तान आया । वह जंगल से गुजर रहा था, तभी उसने एक पेड़ की टहनी पर अपने परिंदे के सजातीय को बैठे देखा । वह रुका। उसे उसके बन्धु के परदेश में कैद होने की बात बताई। उस परिंदे ने जैसे ही यह समाचार सुना, वह टहनी से धड़ाम से नीचे आ गिरा और मर गया । सौदागार को इससे बड़ा दुख हुआ। वह उसकी मृत्यु का निमित्त बना था । पर वह कर भी क्या सकता था। वह अपने व्यवसाय का काम निपटाकर स्वदेश लौट गया । वहाँ उसके परिंदे ने उससे अपने सन्देश का जवाब पूछा, तो सौदागर थोड़ा सकुचाया, उससे जवाब देते न बना। लेकिन परिंदे के बहुत आग्रह करने पर उसने आप बीती सुनाई। उसे बताया कि तुम्हारे कैद का समाचार सुनते ही तुम्हारा स्वजातीय बन्धु मर गया । इतना सुनते ही वह पिंजरे का परिंदा पिंजरे में ही बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ५२ For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकदम लुढ़क कर गिर गया। सौदागर को बड़ा धक्का लगा। उसने सोचा कि यह अपने बन्धु की मृत्यु का सदमा बरदाश्त नहीं कर पाया, सो यह भी मर गया है। उसे उस परिंदे की मृत्यु से बहुत दुख हुआ। दुखी मन से उसने पिंजरे का दरवाजा खोलकर उस परिदे को बाहर निकाला और एक स्थान पर उसकी देह को रखा। लेकिन जैसे ही सौदागर मुड़ा, वह परिंदा एकदम आकाश में उड़ गया। हिन्दुस्तान में उसके सजातीय बन्धु के मृत्यु के अभिनय ने उसे उसकी मुक्ति का उपाय बता दिया था। मैं भी आप लोगों को मुक्ति का ऐसा ही सन्देश देना चाहता हूँ। संसार की दृष्टि से हुई मृत्यु ही जीवन के लिए मुक्ति का महासन्देश साबित होता है। जिस व्यक्ति ने यह जान लिया, यह अहसास कर लिया कि मैं पिंजरे में बंद हूँ, और इस पिंजरे से मुक्त होना चाहता हूं, वह मुक्ति का सन्देश पाने के लिए सद्गुरु की तलाश करेगा ही और सद्गुरु इशारे-ही-इशारे में उसे उसकी मुक्ति का मार्ग समझा देता है। ये परिजन, मालिक, गुलाम, रिश्तेदार, ये सब पिंजरे की सलाखें है। ये तुम्हें तब-तक अपनाये रखेंगे, जकड़ रखेंगे, जब तक कि तुम जीवित हो। लेकिन यदि तुम एक बार मृत्यु का अभिनय भी कर जाओ तो ये ही रिश्तेदार, ये ही परिजन अपने ही हाथों से तुम्हें घर के पिंजरे से बाहर कर देंगे। तुम्हें सुपुर्दे खाक कर देंगे। तुम वास्तव में तो जब मरोगे, तब मरोगे लेकिन यदि हो सके तो उससे पहले एक बार मृत्यु से गुजर जाओ। एक बार यह देख लो और दिखा दो कि मृत्यु से गुजरने के बाद कौन कितना तुम्हारा होता है। कौन अपना और कौन पराया होता है। जान लो कि मृत्यु के बाद लोगों का तुम्हारे साथ क्या रवैया होने वाला है। ___ मैं चाहता हूं कि उस पिंजरे के परिदे की तरह आप लोग भी अपनी मुक्ति के बारे में कुछ सोचें, विचारें, मुक्ति की क्रान्ति घटित होनी चाहिये। संसार में कैवल्य की अनुभूति साकार होनी चाहिये। यहां से मुक्ति का सन्देश लेते जाएं। लेकिन इससे पहले यह अहसास होना जरूरी है। हम पिंजरे में कैद हैं। यह पिंजरा अपना ही बनाया हुआ है। यह सुनहरा पिंजरा, हो सकता है करोड़ों का हो। यह पिंजरा पांच सात मंजिला मकान का हो सकता है, समाज की संकीर्णताओं का हो सकता है। घर की माया का हो सकता है। इसका स्वरूप कुछ भी हो सकता है। पिंजरा तो आखिर पिंजरा ही है। चाहे वह सोने का हो, या लोहे का मन की चैतन्य-यात्रा / ५३ For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो। फांसी का फंदा चाहे रेशम का हो या सूत का, फांसी तो दोनों से ही लगेगी। पिंजरा चाहे सोने का हो, या लोहे का, कैद तो दोनों की ही कहलायेगी। राजा उदायन के बारे में प्रसिद्ध है कि वह संवत्सरी का प्रतिक्रमण और प्रायश्चित करके उस कक्ष में गया जहाँ उसने राजा चन्द्रप्रद्योत को कैद कर रखा था। वहां वह राजा चन्द्रप्रद्योत से क्षमायाचना करने लगा। राजा चन्द्रप्रद्योत यह देख मुस्कुराया। उसने मौके का फायदा उठाया। उसने कहा कि तुम्हीं ने मुझे यहां कैद कर रखा है और तुम्हीं मुझसे माफी मांगते हो। तुम्हीं ने मेरे हाथों में हथकड़ियां, पांवों में बेड़ियां डाल रखी हैं। और तुम्हीं मुझसे माफ करने को कहते हो। यह कैसी क्षमा याचना है। राजा उदायन ने कहा - अरे! मैंने तो तुम्हें सोने की जंजीरों में कैद किया है। ऐसा सम्मान तो आज तक किसी कैदी को नहीं मिला। फिर भी तुम अप्रसन्न हो। चन्द्रप्रद्योत ने कहा, राजन्! बन्धन चाहे सोने के हो या लोहे के, बांधते तो दोनों ही है। यह निर्णय आपको करना है कि आपका पिंजरा कैसा है, लोहे का है या सोने का, सुखद है या दुखद? एक बात तय है कि पिंजरा चाहे खुशियों से भरा हो या गम और शिकवों से, लेकिन है तो पिंजरा ही। तुम चाहे सुख के बंदी हो, चाहे दुख के, हो तो बन्दी ही। क्या तुम्हें अपनी कैद में होने का अहसास है? क्या तुम्हें लगता है कि तुम बन्धन में हो? तुम दुख से घिरे हो। उलझनों से त्रस्त हो। एक बार अगर आपको अपनी कैद का अहसास हो जाए, यह विश्वास हो जाए कि मैं पिंजरे में हूँ, मैं बन्धन में हूं, मैं जंजीरों से जकड़ा हुआ हूं, तो तत्क्षण आपके भीतर मुक्ति की रुचि, एक दृष्टि, एक सम्यक भावना जगेगी कि मैं इस पिंजरे से मुक्त होने का मार्ग खोजूं। ये सारे रास्ते आपके काम आएंगे बशर्ते पहले आपको यह अनुमान हो जाए कि मैं बन्धन में हूं। जब तक इस बन्धन का अहसास आपको नहीं होगा ये मार्ग आपके किसी काम के नहीं हैं। जब तक बन्धन का अहसास नहीं है, तब तक कोई भी मार्ग मोक्ष का मार्ग नहीं हो सकता। सारे मार्ग स्वर्ग या नरक के होंगे, मुक्ति के नहीं। कारागृह का बोध हुए बिना केवल लोहे के पिंजरे को, सोने के पिंजरे में बदलने का यत्न होगा, पिंजरे से मुक्त होने का भाव नहीं होगा। पिंजरा भले ही सोने का हो, मगर स्वतन्त्र आकाश के, मुक्त गगन के पंछी तो तुम तब भी नहीं कहलाओगे। अगर पाना है आकाश भर आनन्द, स्वतन्त्रता की बुलन्दियां तो पिंजरे के दरवाजे खोलने होंगे। द्वार की चटकनी गिराने की तरकीब निकालनी होगी। वह सन्देश आत्मसात् करें, जिससे गिरा सकें विना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ५४ For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम भीतर-बाहर के बन्धन । श्रीमद राजचन्द्र द्वारा बताए गये किसी भी मार्ग को समझने से पूर्व, आप लोगों को यह बोध होना जरूरी है कि आपको उपाय की आवश्यकता है, मार्ग की जरूरत है। आप बन्धन में हैं, आप पिंजरे में हैं, आप जकड़े हुए हैं, आप कैदी हैं। यदि आपको अपने बन्धनों का बोध हो गया हो, तो मैं आप लोगों को वह सन्देश देना चाहता हूं, जिससे आप अपने बन्धनों को नीचे गिरा सकें। मैं आपको उस मार्ग का स्वामी और सम्राट बनाना चाहता हूँ, जिसका अनुसरण कर आप अपनी जंजीरों को तोड़ सकें। ये कौन से बन्धन हैं, इन्हें समझना जरूरी है। ये बन्धन अगर बाहर के बन्धन होते तो हर व्यक्ति इन्हें समझ लेता, लेकिन ये तो भीतर के बन्धन हैं, जिन्हें जानने के लिए आपको किसी चैतन्य-मित्र की जरूरत है। मेरी अन्तर्दृष्टि एक-एक व्यक्ति पर केन्द्रित है, जो देख रही है कि मनुष्य किस कदर भीतर से जकड़ा हुआ है। वह बाहर से तो मुक्ति के शास्त्र पढ़ रहा है, मोक्ष का स्वाध्याय कर रहा है लेकिन भीतर बन्धनों की जड़ इतनी गहरी है, बेड़ियां इतनी मजबूत हैं कि मुक्ति-मार्ग के कोई शास्त्र कारगर और कामयाब नहीं हो पा रहे हैं। ___कायाकल्प बाहर का नहीं, कायाकल्प भीतर का करने की जरूरत है। बाहर में कितना भी पढ़ रहे हो, लेकिन भीतर में मुक्ति की महत्वाकांक्षा नहीं है। बाहर में तो मोक्ष के भाषण हैं, लेकिन भीतर में वासना की गहरी तरंग है। मनुष्य के भीतर जितनी गहरी वासना है, जब उतनी ही गहरी मोक्ष की महत्वाकांक्षा होगी, तभी व्यक्ति के जीवन में मुक्ति का कोई बोध, मुक्ति का कोई विचार, मुक्ति की क्रांति सम्भावित हो सकेगी। स्वाध्याय करते हुए भी मनुष्य के अन्तरंग में जाने कब वासना की तरंग खड़ी हो जाती है। इसी तरह क्रोध और भोग करते हुए कभी क्षणभर के लिए भी मोक्ष की भावना पनपे तो समझिए कि आपके मन में मुक्ति की कोई अभीप्सा, मुक्ति की कहीं कोई कामना है, नहीं तो सब ऊपर की लीपापोती है। बाहर में निर्माण होते चले जा रहे हैं, बाहर में मन्दिर बनते चले जा रहे हैं लेकिन अन्दर के मन्दिर का क्या हो रहा है? बाहर के भवन को सजा रहे हो, लेकिन हृदय की सजावट का, अन्दर के शृंगार का कहीं कोई ध्यान नहीं है। बाहर का मकान तो बन रहा है, मगर भीतर का मकान खंडहर हो रहा है। अगर बाहर कोई मकान बने या न बने लेकिन भीतर का मन्दिर तो नहीं ही गिरना चाहिए। तरस तो इसी बात पर आती है कि भीतर के मन्दिर ध्वस्त हो रहे हैं, मगर उसकी किसी को खबर ही नहीं है। बाहर यदि इसी तरह आलीशान भवनों मन की चैतन्य-यात्रा / ५५ For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का निर्माण होता गया और अन्दर के मन्दिर इसी तरह खंडहर होते चले गये तो जीवन में एक दुराव रहेगा। बाहर के मन्दिर क्या अर्थ रखेंगे अगर भीतर के मन्दिर खंडहर होते चले जायें। मन्दिरों की आबादी बढ़ाने की बजाय सुरक्षित लोगों के हाथों में मन्दिरों का रहना ज्यादा जरूरी है। बाह्य निर्माण से पहले जरूरी है अन्तर निर्माण की। इन मन्दिरों के निर्माण के लिए तो तुम चन्दा मांगोगे। गांव-गांव जाकर चिट्ठा-टीप करोगे, तब अपने गांव का मन्दिर बनाओगे लेकिन अपने जीवन के मन्दिर का क्या होगा। मन्दिर तो होना ही चाहिए। हर घर में एक छोटा-सा मन्दिर होना चाहिए पर वह अपनी कमाई का होना चाहिए। अपने मन का मन्दिर होना चाहिए। मैं चाहता हूँ जैसे घर-घर में दीप जलते हैं वैसे ही जीवन-जीवन में मन्दिर का निर्माण होता चला जाए। घर-घर दीप जलें, जीवन-जीवन मन्दिर बनें। कोई भी मकान यदि सौ साल से ज्यादा रहा हो तो वह पुराना कहलाता है। उसे गिर जाना चाहिए। धर्म भी हजार साल में पुराना हो जाता है। हजार साल में धर्म, धर्म नहीं रहता, सम्प्रदाय का रूप धारण कर लेता है। मनुष्य का कल्याण धर्म से सम्भावित है, सम्प्रदाय और साम्प्रदायिक कट्टरता से नहीं। साम्प्रदायिक धर्म को समाप्त हो जाना चाहिये, ताकि हर इन्सान अपने नये धर्म को जन्म दे सके, स्वभावमूलक धर्म पनप सके, जमाने के हिसाब से धर्म का रूपान्तरण हो सके। वह धर्म मूल्यवान नहीं है, जो अरबों-खरबों वर्षों से चला आ रहा है बल्कि वह धर्म मूल्यवान है, जो मनुष्य को सही अर्थों में मनुष्य बनाए। ज्यों-ज्यों धर्म पुराने होते जाएंगे, वे गच्छ, सम्प्रदाय, गण और समुदायों में बंटते चले जाएंगे। जरा सोचिए कि एक शरीर से कोई व्यक्ति हाथ काट ले, . कोई पैर और कोई गला काट ले तो एक-एक अंग भी मुर्दा होंगे और मूल शरीर भी बेजान होगा। क्योंकि उनमें से आत्मा किसी के भी पास नहीं होगी। सब के पास मरे हुए अंग रह जाएंगे, मुर्दो के टुकड़े रह जाएंगे। तो आप को मुर्दे चाहिए या जीवन्त साधना, मनुष्य की आत्मा चाहिए। अगर आत्मा चाहिए तो जरा अपने भीतर तलाशो कि भीतर मकान बना हुआ है, या मन्दिर बना हुआ है। भीतर कोई शहर आबाद है या श्मशान की वीरानी बसी है। भीतर में कौन क्या है? इसकी तलाश करनी है। स्वयं की ज्योतिर्मयता प्रगट करनी है। ___औरंगजेब ने हिन्दुस्तान में भले ही कितने ही मंदिरों को तहस नहस कर दिया हो लेकिन जब तक मनुष्य के भीतर का मन्दिर सलामत है, तब तक बाहर के हजार-हजार मंदिर बन जाएंगे, टूट-टूट कर बनते जाएंगे लेकिन भीतर का बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ५६ For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दिर अगर टूट गया तो फिर ..... । राजचन्द्र का आज का पद इसी बात के लिए है ताकि आदमी अपने भीतर के बन्धनों को पहचान सके और उनसे मुक्त हो सके। दिन-रात भीतरही-भीतर, भावों-ही-भावों में जीवन को एक सार्थक दिशा प्रदान कर सकें। . ज्ञान ध्यान वैराग्यमय, उत्तम जहाँ विचार, जो भावे शुभ भावना, ते उतरे भव पार। इसे हम समझें। मनुष्य आन्तरिक चेतना का एक बाहर की ओर बहता हुआ प्रवाह है। इस प्रवाह के तीन स्वरूप हो सकते हैं। पहला तो यह कि मनुष्य के मन की ऊर्जा बाहर की ओर बहकर अपना समस्त विस्तार पा लेती है। मनुष्य की आन्तरिक चेतना के प्रवाह का दूसरा परिणाम यह हो सकता है कि मन की ऊर्जा का प्रवाह बाहर की ओर न हो, बल्कि मन की ऊर्जा मन में ही उलझ कर रह जाये। ऐसे में अन्दर एक उथल-पुथल मची रहती है। जो मन ऐसा होता है, उसी के जीवन में घुटन और तनाव होता है। जब हमारा मन, अपने ही विकारों में, अपने ही विकल्पों में जाकर उलझ जाता है, तब व्यक्ति के मस्तिष्क में एक घुटन, एक तनाव, एक त्रासदी, एक भीतर का प्रलय पैदा होता है। मन की जो तीसरी परिणति होती है, उसमें मन न बाहर बहता है और न मस्तिष्क में जाकर उलझता है। तब मन चेतना की एक यात्रा करता रहता है। जब हमारा मन भीतर की ओर मुड़ता है और हमारी ऊर्जा जब हमारी चेतना में प्रवेश करने लगती है, तो जीवन में एक पूर्णता की किरण उभरने लगती है। पहली स्थिति में मन अपनी ऊर्जा को बाहर फैलाता है। ऐसे में मनुष्य अपने सारे सुख, अपनी हर महत्वाकांक्षा की आपूर्ति, सब कुछ बाहर ढूंढने लगता है। बाहर पाने की इच्छा रखता है और सोचता है कि बाहर सब कुछ मिल जाएगा। ___मन चेतना की यात्रा तो बहुत मुश्किल से करता है। मन या तो ज्यादातर बाहर बहेगा या फिर अपनी ही उलझनों में अपने ही विचारों में घटता चला जाएगा। जब मन बाहर की ओर बहता है तब परिणाम यह निकलता है कि मनुष्य अपने दुखड़े दूसरों को दे देता है और दूसरों के दुखड़े स्वयं ले लेता है। इसलिए जब कोई व्यक्ति तनाव में होता है तो सोचता है कि कुछ देर के लिए घर से बाहर निकलूं, तो मन हल्का हो जाएगा। वह किसी और के घर जाता है और अपने मन का शिकवा/शिकायत, जो भी त्रासदी अन्दर भरी हुई है, वह कह देना चाहता है। लेकिन होता यह है कि जिसको वह अपनी व्यथा सुनाना चाहता __मन की चैतन्य-यात्रा | ५७ For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वह पहले ही अपनी ही त्रासदियों से घिरा हुआ है और वह तो स्वयं आपसे अपनी रामकहानी कहकर हल्का हो जाना चाहता है। आप अपना दुख किसी और को सुनाते हो, कोई और अपना दुख आपको सुनाता है। दुख कम किसी का नहीं होता, बस इधर से उधर स्थानान्तरित होकर रह जाता है। व्यक्ति स्वयं कभी अपने आपको नहीं देखता, हमेशा दूसरों को देखता है। दूसरे में गुण है या नहीं। वह व्यक्ति बुरा है या उसमें ये अवगुण है। वह दूसरों को देखेगा और निंदा शुरु कर देगा। ईर्ष्या से जलेगा। दूसरों की निंदा करने में बड़ा रस आता है लेकिन जब कोई व्यक्ति दूसरों की निंदा करने में रस पाता है, तो इस रस का नाम ही हिंसा है, इस रस का नाम ही मिथ्यात्व है। हिंसानन्दी और मिथ्यात्वी है वह। मनुष्य आइने के सामने जाता है, देखता है कि मैं कैसा हूँ लेकिन 'वास्तव में मैं कैसा हूं' यह भाव ही नहीं पनपता। किसी बड़े शहर में एक अनोखी दुकान खुली - वधुओं की दुकान, मनपसन्द वधुओं की दुकान । आइए और मनपसन्द वधु बिना दाम ले जाइए। अब ऐसी दुकान पर भीड़ होना तो स्वाभाविक है। एक इच्छुक मैनेजर के पास पहुंचा और उसने अपने लिए वधु प्राप्त करने की इच्छा जाहिर की। मैनेजर ने उससे पूछा - आपको गोरी वधू चाहिए या काली। बिना किसी हिचक के उस व्यक्ति ने गोरी पत्नी की इच्छा जताई। स्वयं चाहे कितने भी काले हों पर जब बिना दाम मनपसन्द पत्नी मिल रही हो तो काली वधू को कौन चाहे। मैनेजर ने कहा - गोरी पत्नी चाहिए तो उस कमरे में जाओ। वह व्यक्ति जब कमरे में पहुंचा तो उसे वहां दो दरवाजे दिखे और दोनों पर तख्ती लटकी हुई थी। एक पर लिखा था - पैसे वाली गोरी लड़की, दूसरे पर - फटेहाल गोरी लड़की। स्वाभाविक रूप से उस व्यक्ति ने पैसे वाली गोरी लड़की का दरवाजा खोलकर बड़ी उमंग से कमरे में प्रवेश किया। वहां उसे फिर दो दरवाजे मिले। एक पर लिखा था - संगीत जानने वाली, दूसरे पर लिखा था - साधारण घरेलू महिला । उस गुण ग्राहक ने संगीत जानने वाली को पसन्द किया और अगले कमरे में प्रवेश किया, तो अपने को फिर दोराहे पर खड़ा पाया। एक दरवाजे पर लिखा था - खाना पकाने वाली, दूसरे पर लिखा था - खाना न पकाने वाली। उसने खाना पकाने वाली का दरवाजा खोला तो पुनः दो दरवाजे उसके सामने थे। पहले पर लिखा था - सरकारी नौकरी करने वाली, दसरे पर लिखा था - हाउस वाइफ। उस व्यक्ति ने सोचा - चलो कमाने की चिन्ता से भी मुक्ति मिल जाएगी। सो उसने नौकरी करने वाली महिला का दरवाजा खोलकर बड़ी आतुरता से प्रवेश किया। अब उसे दो बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ५८ For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरवाजों का सामना नहीं करना पड़ा। बल्कि अब कमरे की एक दीवार पर परदा पड़ा था और तख्ती पर लिखा था - परदा हटाइए। सर्वगुण सम्पन्न पत्नी के दीदार की आकांक्षा से पुलकित होकर उसने धड़कते हृदय से परदा हटाया, तो सामने एक आदमकद आइना लगा था, जिस पर लिखा था - कृपया! अपना चेहरा इस आइने में देखो ताकि आपको पता चल जाए कि आप किस योग्य हैं। ____ हम सबकी दशा ऐसी ही है। हम स्वयं कैसे हैं, क्या हैं इसे जांचे बिना सदा दूसरों के गुण-दोष देखा करते हैं। अपने अवगुण तो हम कभी देखते नहीं, दूसरों से सर्वगुण सम्पन्नता की अपेक्षा रखते हैं, पर कभी तो अपने आपको पड़तालने का प्रयास करो, कभी तो स्वयं को जांचने की, परखने की कोशिश करो। मन जो निरन्तर बाहर बहता जा रहा है, बाहर विस्तार पा रहा है, कभी तो उसे समेटने का प्रयत्न करो, अन्यथा मन की दूसरी परिणति घुटन ही होगी। तब मन में एक चिन्ता जन्म लेगी। मनुष्य की चिंता अगर संस्कारित हो जाए तो चिन्तन बन जाती है और विकृत हो जाए तो चिंता हमारा चिन्तन जो चेतना की यात्रा के लिए होना चाहिए, नहीं हुआ। नतीजतन वह चिंता में बदल गया और हम दिन-रात घुटते चले जा रहे हैं। उस तनाव से, चिंता से, त्रासदी से मुक्त होने के लिए ही आज का पद है -- ज्ञान ध्यान वैराग्यमय, उत्तम जहां विचार । जो भावे शुभ भावना, ते उतरे भव पार।. जहाँ मनुष्य के भीतर सदविचार हैं, जहां ज्ञान की संभावना है, ध्यान की मौलिकता है, वैराग्य की परिणति है, वहां कोई बंधन, बंधन नहीं रहता। वहां वैचारिकता में एक चैतन्यता होती है। कर्तृत्व में सहजता होती है। जो व्यक्ति शुभ भावों से पूर्ण होता है, वहीं तो पार उतरता है। ‘आतम भावना भावतां, जीव लहे केवल ज्ञान रे।' स्वयं की आत्म-दशा में रमण करते हुए व्यक्ति भव-सागर पार कर जाता है। आत्मज्ञान और कैवल्य-ज्ञान उपलब्ध कर लेता है। दो पहलू हैं - एक तो है विचार दूसरा है भाव। ये दोनों एक नहीं हैं। इनमें कुछ फर्क है। विचार हमेशा मन में उठते हैं और भाव हमेशा हृदय में पनपते हैं। भाव का सम्बन्ध मन से नहीं होता, विचार का संबंध हृदय से नहीं होता। इसलिए जो व्यक्ति भावों में जीता है, सद्भावों से पूर्ण रहता है, वह हृदय में जीता है वह हार्दिक है और जो विचारों में जीता है, वह अपने मन में जीता है। मुक्ति का मार्ग कभी मन से नहीं मिलता, वह हमेशा हृदय से मिलता है। मनुष्य की आत्मा कभी भी मन में नहीं रहती, उसका सारा संबंध हृदय से होता है। मन की चैतन्य-यात्रा / ५६ For Personal & Private Use Only - Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्मा हमारे मन में नहीं रहता, वह हमारे हृदय में विराजमान है। ___ इसलिए मैं थोड़ी उल्टी यात्रा शुरू करूंगा। मैं चाहूँगा कि आपका मन हृदय में परिणत हो जाए, हृदय में विसर्जित हो जाए। आपके विचार, विचार न रहें बल्कि भाव बन जाएं। क्योंकि जब तक विचार रहेंगे, मनुष्य तर्कों से, विकल्पों से, लेश्याओं से घिरा रहेगा, मिथ्यात्व और संशय की स्थिति से घिरा रहेगा। इसलिए मन का विसर्जन आवश्यक है। तब मन, मन नहीं रहेगा, वरन् वह भी अन्तरात्मा का एक स्पन्दन, एक धड़कन हो जाएगा। यह जीवन का एक धन्य भाग होगा। कृत पुण्य होगा। वह दिन सौभाग्य का दिन होगा जिस दिन हमारा मन शान्त होकर हमारा हृदय जग जाएगा। इस हृदय में ही हमारा मोक्ष है। ___ स्वर्ग-नरक मन में रहते हैं, मोक्ष हृदय में रहता है। जब तक मन में जिओगे, निरन्तर स्वर्ग-नरक का भव-भ्रमण करते रहोगे। मरने के बाद जो भवभ्रमण होगा वह तो अलग बात है पर इस समय भी भव-भ्रमण चालू है। हमारा मन जो रात-दिन उमड़ता-घुमड़ता रहता है, इधर-उधर झख मारता रहता है यही तो भव भ्रमण है। कभी मन यहां, तो कभी मन वहां। कभी मन प्रेम में जाता है, तो कभी क्रोध में। कभी हमें वह स्वर्ग में ले जाता है तो कभी नरक में। मन बड़ी तरकीबें निकालता है। स्वर्ग की, नरक की, मोक्ष की - हजारों तरकीबें। जगह-जगह मन्दिर-मस्जिदों में उपाश्रय, गुरुद्वारों में नक्शे टांग रखे हैं। वे नक्शे, जो हजारों साल पहले खोज लिए गए थे। जब धरती का नक्शा भी नहीं बना था, तभी हमने स्वर्ग और नरक के नक्शे बना लिए थे। यहां तक कि मोक्ष का नक्शा भी बना लिया था, जहां कि बिना निर्वाण जाया ही नहीं जा सकता। इन तक पहुंचने के रास्ते खोज लिए गये, सीढ़ियां बना दी गई, प्रवेश-द्वार बना दिये गये। धरती के इन्सान बना नहीं पाये और स्वर्ग-नरक का चित्रांकन कर लिया। स्वर्ग और नरक कहीं बाहर नहीं है। स्वर्ग-नरक, जन्नत-जहन्नुम, और बाहर दिखाई देने वाले ये सब चित्र मन की तरकीबें हैं। ये मन के द्वारा खोजे गये बहाने हैं, बचाव के रास्ते हैं। निजात की सम्भावना तुम्हारे भीतर है। तुम्हारे अन्दर इस समय भी स्वर्ग हो सकता है या नरक हो सकता है। जो व्यक्ति क्रोध करता है, व्यसनों में लिप्त है, अहंकार से ग्रस्त है, छल, प्रपंच और ईर्ष्या से घिरा हुआ है, वह इस समय भी नरक में है, भीतर के नरक में। अगर सुधार लो, अगर बदल डालो अपने आपको, तो यही नरक स्वर्ग हो सकता है। जिन-जिन पर क्रोध करते हो, उन-उन से प्रेम करो, जिन्हें धोखा देते हो, उन्हें गले गलाओ, जिनसे वैमनस्य है, उनसे क्षमायाचना करो तो यह भीतर का नरक अपने आप ही बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ६० For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्ग में बदलता चला जाएगा। जिन दिन मन से संकल्प-विकल्प दोनों ही नेस्तनाबूद हो जाएंगे उस दिन जीवन में पहली बार मोक्ष की किरण उतरेगी। मरने के बाद हमें निर्वाण मिले या न मिले, हम जहन्नुम में जाएं या जन्नत में, लेकिन जीते जी अपने में मोक्ष का अनुभव करो, जीते जी अपने भीतर जीवन-मुक्ति का रसस्वादन करो। जीते जी ही निजात ईजाद हो जानी चाहिये, मुक्ति का बोध हो जाना चाहिए। यह मत सोचो कि पंचमकाल में क्या होगा। अगर तुम कर सकते हो तो इस समय भी सब कुछ होता है। अगर अनुभव के रास्ते से गुजरना चाहो तो बहुत कुछ सम्भावनाएं हैं। अभी तो बूंद समुद्र में समा रही है, बाद में समुद्र ही बूंद में समा जाएगा। अगर हमारी भाव-दशा गहरी है और हम उसमें और गहरे उतरते जा रहे हैं तो हम गृहस्थ हों या मुनि इससे क्या फर्क पड़ता है। सामान्यतया हम लोग मुनि उसे कहते हैं, जिसने औरत को छोड़ दिया है, बच्चों को छोड़ दिया है, धन-दौलत और संसार को छोड़ दिया है और गृहस्थ उसे कहते हैं, जिसके पत्नी है, पति है, बच्चे हैं, धन-दौलत है, संसार है। यह तो ऊपर की बातें हैं। ऐसे त्याग करने से आदमी भीतर से बदल नहीं जाता। कल्पना करो, हिटलर न तो कभी रात को खाता था, न कभी झूठ बोलता था, न उसने कभी सिगरेट पी, न कभी तम्बाकू खाई। ऊपर से तो वह पक्का जैनी था। यदि इन उसूलों से आदमी को नापोगे तो हिटलर तुम जैसा, शायद तुमसे भी पक्का जैनी था लेकिन क्या आप उसे जैनी कहने के लिए तैयार होंगे? आप रात को खाते हैं, सिगरेट पीते हैं, तम्बाकू नहीं छोड़ पाते, शायद शराब भी पीते होंगे। हिटलर को इनमें से एक भी लत नहीं थी। वह इन सब मामलों में आपसे ज्यादा शरीफ था, लेकिन फिर भी आप उसे जैनी मानने को तैयार नहीं होंगे। वह भीतर से इतना गिरा हुआ था, उसमें इतनी क्रूरता और हिंसा भरी हुई थी कि जिसका एक अंश भी आप में नहीं है। इसलिए आप हिटलर से श्रेष्ठ हैं, इसलिए आप हिटलर की अपेक्षा ज्यादा पक्के जैन हैं। मुनि वह है जिसका मन तो टिका हुआ है लेकिन पांव दिन-रात चलते हैं। गृहस्थ वह है, जिसके पांव तो टिके हुए हैं लेकिन मन दिन-रात चलता है। मुनि वह है जिसका मन टिका हुआ है लेकिन गृहस्थ के पांव टिक गये हैं एक परिवार में, एक स्थान में, सम्बन्धों के एक सीमित दायरे में, एक उपाश्रय में, एक मन्दिर में। लेकिन जिसका मन टिक गया है, चाहे पांव चल रहे हैं, हाथ चल रहे मन की चैतन्य-यात्रा / ६१ For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं, जुबान चल रही है, लेकिन मन केन्द्रित है। जिसका मन शान्त हुआ, वह संत है। 'संत' शब्द का अर्थ है - शान्त । सन्त का अर्थ होता है, जिसके भव का अंत हो चुका है। संत वह है, जो शांत हो चुका है। शांत मन ही मुनि है और अशान्त मन ही संसारी। ____ 'मुनि', महावीर ने अपने शिष्यों को बहुत अच्छा शब्द दिया है यह । जिसके मन ने मौनव्रत ले लिया है, वह मुनि है। जब-जब भी व्यक्ति का मन मौनव्रत ले लेता है, तब-तब उस के भीतर मुनित्व का आयोजन होता है, भीतर में मुनित्व साकार होने लगता है। इसलिए वह व्यक्ति मुनि है, इन कपड़ों में रहकर भी मुनि है, जिसका मन शांत हो गया है, केन्द्रित हो गया है, एकाग्र है, जिसका मन हृदय में विसर्जित हो चुका है। गृहस्थ वह है जो भले ही संन्यास के वेश-परिवेश में रहता हो, लेकिन जिसका मन दिन-रात उमड़ता-घुमड़ता रहता है। मैं एक मन्दिर बनाऊं, एक उपाश्रय बनाऊं, मैं प्रतिष्ठा करूं, शिलान्यास करूं ऐसे संकल्प-विकल्प जिसके अभी भी चल रहे हैं, वह गृहस्थ है। रास्ते बदल गये हैं, खूटे बदल गये हैं, बंधा हुआ तो अब भी है, बंधन तो उसके अब भी हैं। भगवान बुद्ध के जीवन का एक प्रसंग है, मुझे सर्वाधिक प्रिय। भगवान बुद्ध किसी रास्ते से गुजर रहे होते हैं, आगे भयानक जंगल पड़ने वाला था। लोगों ने उन्हें कहा, भन्ते! आप इस मार्ग से मत जाइये। ये मार्ग छोटा जरूर है, लेकिन इस रास्ते पर एक भयंकर रक्त-पिपासु अंगुलीमाल रहता है। वह मनुष्यों की अंगुलियां काटकर उनकी माला बनाता है और उसे अपनी आराध्य देवी को अर्घ्य के रूप में चढ़ाता है। उसने शपथ ले रखी है कि वह एक हजार मनुष्यों की अंगुलियां देवी को चढ़ाएगा। वह नौ सौ निन्यानवे मनुष्यों की अंगुलियां तो चढ़ा चुका है। अब उसे केवल एक और मनुष्य की आवश्यकता है। इसलिए भन्ते! अब आप इस मार्ग से न जाएं। बुद्ध ने कहा - यदि किसी मनुष्य को मेरी जरूरत है तो मुझे जाना ही चाहिए। उसे अब केवल एक आदमी की जरूरत है और मैं चाहता हूँ कि वो अन्तिम आदमी मैं ही बनूं। उसने बहुत क्रूरता कर ली, बहुत हिंसा कर ली। अब या तो मैं मर जाऊंगा या उसके अन्दर का 'हिंसक' मर जाएगा। लोगों ने प्रभु को बहुत समझाया, पर प्रभु न माने। वे उसी मार्ग से गये। जंगल में पहुँचने पर अंगुलीमाल ने बुद्ध को ललकारा। उसने सोचा किसकी मौत आई है, जो इस जंगल में बढ़ा चला आ रहा है। चलो अच्छा हुआ। बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ६२ For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कई दिनों से मैं एक आदमी की प्रतीक्षा कर रहा था ताकि देवी का अर्घ्य सके। आज मेरी प्रतीक्षा पूरी हो जाएगी । उसने देखा, जो आदमी करीब आता चला जा रहा है, वह तो कोई साधु है, भिक्षु है । मन में एक बार इच्छा हुई कि भिक्षु को न मारा जाए लेकिन उसकी प्रतिज्ञा का क्या होगा? उसने बुद्ध को ललकारा, ऐ साधु! तुम जहां हो वहीं रुक जाओ । बुद्ध ने सुनकर अनसुना कर दिया और आगे बढ़ते रहे । अंगुलीमाल को गुस्सा आ गया। सोचा, अरे! एक भिक्षु ने मेरी अवमानना कर दी। उसने फिर कहा - भिक्षु रुक जाओ, वरना तुम्हें मैं खत्म कर दूंगा । बुद्ध ने कहा- वत्स! मैं तो रुका हुआ हूँ। अगर हो सके तो तुम रुक जाओ। यह कहते हुए भी बुद्ध चलते रहे । अंगुलीमाल को आश्चर्य हुआ । यह भिक्षु होकर झूठ बोलता है। खुद चल रहा है और कहता है मैं रुका हूँ और मैं जो रुका हुआ हूं, तो मुझे कहता है रुक जाओ। वह दौड़कर बुद्ध के पास आया और अपना फौलाद उठाकर चिल्लाया- तुमने झूठ क्यों कहा भिक्षु ! तुम भिक्षु होकर झूठ क्यों बोले ? मैं अब तुम्हें जीने नहीं दूंगा । वह प्रहार करने को उद्धत हुआ। तभी बुद्ध बोले- वत्स! मैं तो रुक गया। जिसका मन रुक गया, वह रुक गया लेकिन तुम निरन्तर हिंसा और क्रूरता में बहते चले जा रहे हो। तुम्हारा मन इनमें निरन्तर चलता चला जा रहा है । इसलिए अगर हो सके तो तुम अपने आपको रोक लो। कब तक इस हिंसा और क्रूरता के मार्ग को तुम अपनाए रहोगे । हो उपदेश सुनकर अंगुलीमाल और क्रोधित हुआ और वार करने के लिए फौलाद ऊपर उठाया, लेकिन न जाने क्या हुआ जो वह वार बुद्ध पर न पड़कर स्वयं अंगुलीमाल के ही सिर आ पड़ा और वह भगवान बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा। दो मिनट पहले जो भयंकर डाकू था, दो मिनट में वही भगवान बुद्ध का अन्तेवासी हो गया, साधु - भिक्षु हो गया । पूरा बुद्ध उस अंगुलीमाल को साथ लेकर अपने विहार में पहुँचे, जहां और भी बहुत से 'साधु, शिष्य भिक्षु थे । बुद्ध अपने आसन पर बैठे । अंगुलीमाल उनके पास बैठ गया। सारे नगर में यह घटना बिजली की भांति फैल गयी । राजा अजातशत्रु तक भी यह खबर पहुंची कि हिंसक, रक्त पिपासु अंगुलीमाल भगवान बुद्ध से परास्त हो गया है, उसने हिंसा छोड़ दी है, वह उन का शिष्य बन गया है। अजातशत्रु बुद्ध के पास पहुँचा और उनसे पूछा - भन्ते! क्या आप उस मार्ग से गुजरे ? 'हां! मैं उस मार्ग से गुजरा । ' For Personal & Private Use Only मन की चैतन्य - यात्रा / ६३ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'क्या आपको वहां अंगुलीमाल मिला?' 'हां! मिला।' 'क्या उसने आपका कुछ नहीं किया?' 'नहीं! उसने मुझे तो कुछ नहीं किया, पर वह स्वयं बहुत कुछ हो गया 'क्या मतलब?' बुद्ध ने कहा - यह देखो। यह मेरे बगल में जो भिक्षु बैठा है, वह कोई और नहीं, अंगुलीमाल है। अजातशत्रु स्तब्ध रह गया। कल तक का हत्यारा आज भिक्षु बन गया है। उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा । दोपहर बारह बजे अंगुलीमाल ने भगवान बुद्ध से पूछा - भन्ते! आहार के लिए जाने की अनुमति दीजिए। बुद्ध ने कहा - वत्स! आज तुम प्रथम बार आहार के लिए जा रहे हो, लेकिन आज का दिन तुम्हारे आहार का दिन नहीं, बल्कि तुम्हारे जीवन की कसौटी का दिन है। इसलिए आज जब जाओ तो अपने भावों और परिणामों में इतनी पवित्रता और रमणीयता रखना कि आज का आहार तुम्हारे लिए मोक्ष का विहार बन जाए। - अंगुलीमाल ने कहा - प्रभु! ऐसा ही होगा। अंगुलीमाल रवाना हुआ और बीच बाजार में पहुँचा। उसने अब तक न जाने कितने लोगों की हत्याएं की थीं। जिस-जिस ने सुना कि अंगुलीमाल भिक्षु के रूप में आया है तो पहले तो वह थोड़ा सहमे, लेकिन फिर उसे निहत्था अपने बीच पाकर उनकी प्रतिहिंसा जाग उठी। उन्होंने कहा - ये पाखंडी है। इसे मारो, पत्थरों से पीटो, तलवार चलाओ, मार डालो इसे। लोगों ने उसे पीटा, गालियां दीं। पत्थर फेंके। वह सहता रहा, सहता रहा। चुपचाप । वह लहूलुहान हो चुका था। और ज्यादा सहन न हुआ तो वह बीच चौराहे पर गिर पड़ा। वह बेहोश सा पड़ा था। अचानक उसने अपने माथे पर किसी के हाथ का कोमल स्पर्श महसूस किया। उसने आंखें खोली तो भगवान बुद्ध को अपने पास पाया। वह मुस्कुराया और उसने भगवान को प्रणाम किया। बुद्ध ने उससे पूछा, बोलो वत्स! इस समय तुम्हारे मन में क्या हो रहा बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ६४ For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुलीमाल ने कहा - भन्ते! आप मुझसे पूछते हैं? इस समय मेरे मन में एक अहोभाव जग रहा है। मेरे मन में यह भाव पैदा हो रहा है कि ये सारे लोग धन्य हैं। मैंने जीवन भर पाप बटोरे। ये लोग कुछ क्षणों में ही मेरे सारे पाप धो डालने में मेरी मदद कर रहे हैं। प्रभु! मेरे मन में इन लोगों के प्रति बड़ा अहोभाव, बड़ा कृतज्ञता का भाव जग रहा है। ये लोग धन्य हैं प्रभु! इनके प्रति क्षमा है, मैत्री है, प्रमुदितता है। बुद्ध ने कहा - अंगुलीमाल! तुम्हारी मृत्यु, मृत्यु नहीं अपितु निर्वाण का महोत्सव है। तुम मर नहीं रहे हो, तुम अरिहन्त हो गये हो। ऐसे मनुष्यों के समक्ष भगवान बुद्ध स्वयं खड़े होकर कहते हैं - अरिहन्तों को नमस्कार हो। उन सारे अरिहन्तों को, जो भले ही जीवन भर डाकू रहे हों, कल तक वे चाहे कुछ भी रहे हों, लेकिन जो मरते वक्त अपने भावों में एक अरिहन्त-भाव भरकर मर रहे हैं, उनकी मृत्यु धन्य है। ध्यान में मृत्यु हो, मृत्यु समाधि बने, धन्यभाग! प्रणाम है ऐसे सब अंगुलीमालों को, ऐसे सभी कृतपुण्यों को, जिनके अन्तरंग में अरिहन्त होने के भाव जग रहे हैं। की चैतन्य-यात्रा / ६५ For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करें, क्रोध पर क्रोध मेरे प्रिय आत्मन्! भगवान के जीवन की एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना है। भगवान उन दिनों कौशाम्बी नगरी में विराजमान थे। जहां कोई महापुरुष अवतार लेता है, विहार करता है, वहां जितने उसके समर्थक होते हैं, उससे कहीं ज्यादा आलोचक होते हैं, निन्दक होते हैं। आम आदमी की तो बात ही क्या करें, लोग भगवानों को भी नहीं छोड़ते। कौशाम्बी नगरी में भगवान की बहुत आलोचना होने लगी, तो शिष्य बड़े घबराये। लोग भगवान के समक्ष ही उनके बारे में अनर्गल प्रलाप करते, तो शिष्यों का विचलित होना स्वाभाविक ही है। भगवान आहार के लिए निकलते तो लोग उन्हें साधु न कहकर पाखंडी कहते। भगवान के शिष्यों को यह सुनकर बड़ी ग्लानि होती, बड़ी वेदना होती। इतने शिष्यों के होते हुए भी भगवान को अशिष्ट बातें सुननी पड़े, यह शिष्यों को सहन नहीं होता था। शिष्यों ने भगवान से कहा - प्रभ! लोग अकारण ही आपको इतनी गालियां देते हैं, आप इनका प्रतिवाद क्यों नहीं करते? भगवान ने मुस्कुराकर कहा- अगर मैने ऐसा किया, तो अंधेरा मुझसे नाराज हो जाएगा। इसलिए प्रतिकार या प्रतिवाद करने की जरूरत नहीं है। विवश हो शिष्य खामोश हो गए, लेकिन आलोचना जब सीमाएं तोड़ने लगीं तो एक दिन भगवान के प्रिय शिष्य आनन्द ने साहस कर कहा - भन्ते! अब और सहन नहीं होता। अच्छा हो अगर हम यहां से किसी और स्थान को चलें। भगवान ने कहा - क्यों? यहां के लोग बहुत आलोचना करते हैं, बहुत गालियां देते हैं, इसलिए तुम घबरा कर किसी और गांव में जाना चाहते हो। मानलो, तुम किसी और गांव में गये वहां भी लोगों ने ऐसी ही गालियां दी तो? बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ६६ For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्द ने कहा - भन्ते! तो मैं आपसे निवेदन करूंगा कि कहीं और चल पड़ें। वत्स! अगर वहां भी यही हालत हुई तो? तो हम फिर स्थान बदल लेंगे। भगवान ने कहा - वत्स! ऐसे कहां-कहां भागते फिरोगे? कितने स्थान बदलोगे? गालियां तो तुम्हें हर जगह ऐसे ही मिलेंगी। चेहरे बदल-बदल कर ये ही लोग, ऐसे ही गांव तुम्हें हर पड़ाव पर मिलेंगे। जहां-जहां मनुष्य का निवास है, गालियां तो तुम्हें वहां-वहां अवश्य मिलेंगी। आखिर तुम कितने गांव बदलोगे? गालियों से घबराकर स्थान बदलने की चेष्टा मत करो। विष पी जाने वाला ही, जहर पचा जाने वाला ही शिव-शंकर होता है अन्यथा अमृत पीकर भी देवों का कुल रोता है। अच्छा तो यह होगा कि तुम किसी गाली को पकड़ो मत, स्वीकार मत करो। जैसे ही तुम किसी गाली को पकड़ोगे, वह गाली तुम्हारी हो जाएगी। जब कोई गाली देता है, लेकिन तुम उसे लेते नहीं, तब तक कोई परेशानी नहीं। जैसे ही तुमने गाली को स्वीकार कर लिया, तुम्हारे अन्दर उसकी प्रतिक्रिया पैदा होगी। यहां तो हर इन्सान ने जन्मजात गालियां सीख रखी हैं। तुम किस-किस से बचोगे? किस-किस का मुंह बन्द करोगे? मनुष्य को थोड़ा-सा क्रोध आया, थोड़ा सा बेमन हुआ है और वह गालियां देना शुरू कर देता है। तुम स्थान बदल-बदल कर उनसे बच नहीं पाओगे। प्रतिकार का बस एक ही उपाय है कि गाली को स्वीकार ही मत करो। जैसे ही तुमने किसी की गाली को कानों में प्रवेश दिया और भीतर उतारा, तत्काल तुम्हारे भीतर प्रतिक्रिया स्वरूप उसके प्रति एक गाली जन्म लेगी, और फिर प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया से गालियों का एक अन्तहीन सिलसिला चल पड़ेगा। गाली से गाली लड़ने लगेगी। जब आग से आग भिड़ती है, तो क्या होता है? जब क्रिया की प्रतिक्रिया और प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया होगी तो उससे प्रतिहिंसा का कितना भीषण विस्फोट होगा, यह सोचने जैसी बात है। कोई भी क्रिया तब तक खतरनाक नहीं होती, जब तक उसकी प्रतिक्रिया न हो। कोई भी क्रिया तभी बन्धनकारक होती है, जब उसकी प्रतिक्रिया अभिव्यक्त हो । जैसे ही प्रतिक्रिया व्यक्त होती है, तत्काल कर्म का एक स्फुलिंग, उत्तेजना की धड़कन पैदा होगी, जो हमारी आत्मा को चारों ओर से जकड़ लेगी। जगो पहरुए, नचिकेता की अग्नि जली लासानी । करें क्रोध पर क्रोध / ६७ For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिक्रिया के दस्यु डाल दें, कहीं न उसमें पानी ।। क्रिया, क्रिया तक सीमित रहनी चाहिए। क्रिया के प्रति होने वाली प्रतिक्रिया ही वैर - वैमनस्य को, द्वेष-द्रोह को बढ़ावा देती है । क्रिया प्रतिक्रिया तभी बनेगी, जब उसे हम स्वीकार करेंगे, महत्व देंगे । अगर गाली का जवाब गाली से दिया जाता रहा, तो गालियों की एक शृंखला बनती चली जाएगी। लड़ाई से लड़ाई बढ़ती चली जाएगी। आक्रमण पर प्रति- आक्रमण होता चला जायेगा । इस तरह प्रारम्भ में एक गाली जो मात्र एक कटु शब्द थी, वह एक से अनेक में परिवर्तित होती चली जाएगी। देते गाली एक हैं, उल्टे गाली अनेक जो तू गाली दे नहीं, रहे एक की एक । गाली से गाली बढ़ती है। आग से आग भड़कती है, गाली का गणित कुछ विचित्र है, आम गणित से। अंक गणित में एक और एक दो होते हैं लेकिन गालियों के हिसाब में एक और एक ग्यारह होते हैं, दो और दो बाईस, तीन और तीन तैंतीस होते है और यह शृंखला अंततः एक + एक अनेक में परिणत होती जाती है । गालियां देना भले लोगों की पहचान नहीं है । व्यक्ति कैसा है, इसकी जानकारी उसके मुंह से निकलने वाले वचनों से हो जाती है । जो व्यक्ति अन्दर से जैसा होता है, वैसे ही वचन उसके मुंह से निकलते हैं। भला व्यक्ति दूसरे को भी भला ही समझता है, भला ही कहता है । वह सबसे आदर पूर्वक मिलता है और इसीलिए आदर पाता भी है । लेकिन एक बुरा व्यक्ति जैसा है, वैसा ही दूसरों को भी समझता है। उसके शब्द कोष में दूसरे के लिए अपशब्द ही भरे पड़े हैं और बदले में वह अपने लिए भी अपशब्द और अपमान ही पाता है । = प्रतिकार या प्रतिवाद किसी क्रिया का सामना करने का सही तरीका नहीं है । चाहे गाली हो या प्रशंसा, रूप हो या कुरूपता, उसे स्वीकार न करना ही, उसका सामना करने का सबसे अच्छा तरीका है। यदि आप स्वीकार करते हैं तो आपके मन में प्रतिक्रिया होगी, जिसकी अभिव्यक्ति भी अवश्य ही होगी और यह अभिव्यक्ति ही सारे झगड़ों की जड़ है। यदि आप किसी क्रिया को स्वीकार ही न करें, तो उसकी कोई प्रतिक्रिया आपके मन में नहीं होगी। यदि किसी व्यक्ति आपकी प्रशंसा की और आपके मन ने उसे स्वीकार नहीं किया, तो उस प्रशंसा से आपके मन का अहंकार पुष्ट और फलीभूत नहीं होगा । बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ६८ For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वीकार से ही प्रतिक्रिया की तरंग पैदा होती है। तालाब में फेंकी गई कंकरी को जैसे ही तालाब का जल ग्रहण करता है, प्रतिक्रिया स्वरूप उस जल में लहर-पर-लहर, तरंग-पर-तरंग उत्पन्न होती है और पूरा तालाब हलचल से भर जाता है । गाली को स्वीकार करो तो क्रोध की लहरें उठेंगी, सौंदर्य को स्वीकार करो तो वासना जगेगी, प्रशंसा को स्वीकार करो तो अहंकार जगेगा और निंदा को स्वीकार करो तो नफरत जगेगी । स्वीकार करते ही अन्तरंग में तरंग पैदा होगी। मन के भीतर की इस तरंग का नाम ही 'कर्म' का बन्धन और वृत्ति का निर्माण है। जैसे ही प्रतिक्रिया की लहर उठी, मनुष्य के प्रारब्ध में कर्म की एक और रेखा का निर्माण हो जाता है । हाथ की रेखाएं तो जन्मजात होती हैं या दो-चार साल में बदलती हैं लेकिन कर्म-बन्धन की रेखाओं का निर्माण और ध्वंस तो पल - प्रतिपल होता जा रहा है । स्वीकार और अस्वीकार में ही सारी झंझट है, इसलिए स्वीकार भी मत करो, अस्वीकार भी मत करो। जो जैसा कर रहा है, वैसा उसे करने दो। जिसके द्वारा जैसा होना है, वैसा हो रहा है । तुम तो इस होने न होने, स्वीकार - अस्वीकार के बीच में से वैसे ही निकल जाओ जैसे दो किनारों के बीच में से नदी का पानी निकल जाता है। नदी का पानी न किनारों को स्वीकार करता है, न ही अस्वीकार, वह तो बस बह रहा है। बहता चला जा रहा है । न इस किनारे से, न उस किनारे से, वह किसी से भी प्रभावित नहीं होता, सिर्फ बहता है । सहज रूप में बहना ही उसका व्यक्तित्व है । प्रवाह ही उसका जीवन है । ठीक इसी तरह मनुष्य को भी निकल जाना होता है, क्रोधित और प्रफुल्लित वातावरण के बीच से, अप्रभावित रहकर। जैसे जंगल से रेलगाड़ी गुजर जाती है, ठीक इसी तरह आदमी को दुनियादारी के दंगल से गुजर जाना होता है । आप दो संत - एक वृद्ध और एक युवक, एक नदी के किनारे पहुँचे । नदीं में पानी था। पार जाना था, तट पर कोई नौका नहीं थी । नदी किनारे एक युवा महिला भी बैठी थी, उसे भी नदी पार जाना था । उसने वृद्ध संत से कहा नदी को पार करेंगे। मुझे भी दूसरे किनारे जाना है । मुझे तैरना नहीं आता है । यदि आप मेरा हाथ पकड़कर ले चलें, तो मैं भी आपके सहारे - सहारे नदी पार करके अपने घर पहुँच जाऊंगी। वृद्ध सन्त ने कहा - हम महिलाओं को नहीं छूते । नारी का स्पर्श साधु के लिए वर्जित है । अतः मैं तुझे नदीं पार नहीं करा सकता । यह कहकर वृद्ध सन्त आगे बढ़ गया और नदी पार करने लगा। दूसरे - For Personal & Private Use Only करें क्रोध पर क्रोध / ६६ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किनारे पर पहुंच कर उसने देखा कि उसका शिष्य, वह युवा सन्त भी दूसरे किनारे पहुंच रहा है लेकिन लड़की का हाथ पकड़कर । दोनों किनारे पर पहुंचे। लड़की धन्यवाद देकर अपने घर चली गयी। दोनों सन्त फिर अपनी राह चलने लगे । काफी आगे पहुंचने पर वृद्ध ने अपना मौन तोड़कर युवा साधु से कहा- तुम्हें पता नहीं है, साधु को महिला का स्पर्श नहीं करना चाहिए ? युवा साधु ने कहा- पता तो है । बूढ़ा सन्त बोला, तो फिर तुमने उस लड़की को हाथ पकड़कर नदी कैसे पार कराई ? युवा साधु ने जवाब दिया- मैंने महिला को कहां छुआ? मैं एक पथिक था, वह भी एक पथिक थी। वह नदी पार करना चाहती थी। मैंने, एक पथिक ने पथिक को, नदी पार करने में मदद की। वह महिला थी या पुरुष, इससे मुझे कोई सरोकार नहीं और मैं तो उसे नदी पार कराकर वहीं छोड़ आया हूं, आप तो अभी भी उसे साथ लेकर चल रहे हैं । आपने उसे महिला के रूप में स्वीकार किया, इसलिए अभी तक विचार से घिरे हैं। मैंने उसे महिला के रूप में न स्वीकार किया, न अस्वीकार । आप भी उसे महिला के रूप में स्वीकार किये बिना नदी पार करवा देते तो सम्भवतः आपके मन में इतनी उथल-पुथल न होती, जितनी अभी हो रही है । भगवान शुकदेव के जीवन का भी ऐसा ही प्रसंग है । शुकदेव और उनके पिता, दोनों ही परमज्ञानी माने जाते थे। दोनों अपने गांव से बाहर जंगल की ओर जा रहे थे। पिता आगे थे, शुकदेव उनसे कुछ पीछे। रास्ते के तालाब में बहुत सारी महिलाएं निर्वस्त्र स्नान कर रही थीं। शुकदेव के पिता को तालाब के किनारे से गुजरते देख झट से सभी महिलाओं ने, स्वयं को वस्त्रों से ढांक लिया । शुकदेव के पिता नजरें नीची किये तालाब को पार कर गये, तो महिलाएं फिर नहाने लगीं । शुकदेव के पिता कुछ आगे जाकर, यह सोचकर ठिठक गये कि पीछे जवान पुत्र आ रहा है। ऐसा न हो यह दृश्य देखकर वह विचलित हो जाए । शुकदेव भी उसी मार्ग से आये पर उन्हें आता देख महिलाओं ने न तो स्वयं को ढकने का प्रयास किया, न ही शुकदेव को तालाब पार करते हुए नजरें नीची करनी पड़ीं। वे अपनी मस्ती में चलते रहे और तालाब पार कर गये । " शुकदेव के पिता महिलाओं की इस निर्लज्जता से क्षुब्ध हो उठे और महिलाओं को सबक सिखाने की दृष्टि से पुनः तालाब के पास आकर बोले - क्या तुम लोग इतनी निर्लज्ज हो ? मैं तो बूढ़ा हो गया हूँ, तुम्हारे पिता समान हूं। मुझसे तुम एक बारगी परदा न करतीं, तो भी कोई बात न थी । लेकिन मेरे जवान पुत्र बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ७० For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सामने तुम लोग निर्वस्त्र क्यों नहाती रहीं? महिलाओं ने कहा - यह प्रश्न तो आपके युवा पुत्र के मन में उठना चाहिए था। हम जानती थी कि आपके मन में यह प्रश्न अवश्य उठेगा, इसलिए हमने आपके सामने शरीर को ढंक लिया पर शुकदेव तो शुकदेव ही है। वे चाहे आपके बेटे हों, पर भगवान कहलाने के अधिकारी वे ही हैं। अच्छा हो, इस प्रश्न का जवाब आप उन्हीं से पूछे। शुकदेव के पिता ने तालाब के पास से गुजरते वक्त आंखें नीची की. लेकिन शुकदेव ने नहीं की। क्योंकि शुकदेव के मन में स्वीकार का भाव नहीं था। जो होना है वह तो हो ही रहा है। किस-किस को स्वीकार करोगे और किस-किस को अस्वीकार। चीज वही एक होती है, एक निगाह से देखो, तो गुस्सा आता है। दूसरी निगाह से देखो, तो हंसी आती है। कितना अच्छा हो, हम न क्रोध करें और न हंसें। इसलिए बीच रास्ते से गुजर जाओ, किनारों से अप्रभावित रहकर। अनुकूल-प्रतिकूल के वातावरण से गुजर जाओ सन्तुलित होकर, तटस्थता से। समत्वबुद्धि लाओ, स्थितप्रज्ञ बनो। (जरा सोचें, कोई पागल आदमी अगर सड़क पर खड़ा होकर गालियां बक रहा हो, तो क्या आप उसे डांटते हैं, थप्पड़ लगाते हैं, गाली देने से रोकते हैं? नहीं ना! उसे आप इसलिए नहीं डांटते क्योंकि आपने जान लिया है कि यह तो पागल है। इस तरह सड़क पर गाली बकने वाला तो पागल होता ही है, लेकिन वस्तुतः जब भी कोई आदमी गाली बकता है, वह उतने समय के लिए पागल होता है। पागल दिखाई देने वाला तो प्रकटतः पागल है, पूर्ण विक्षिप्त है और गाली बकने वाले अव्यक्त पागल है, अर्द्ध विक्षिप्त है। एक अर्द्ध विक्षिप्त, पूर्ण विक्षिप्त से ज्यादा खतरनाक होता है। पागल आदमी को तो पागल मान लेंगे। गाली बकने वाले अर्द्ध विक्षिप्त को तो पागल कह भी नहीं सकते। यदि आपको आपका पागलपन बताया भी जाए तो आप उसे स्वीकार नहीं करेंगे। क्रोध करने वाला कभी स्वीकार नहीं करता कि उसने क्रोध किया और क्रोध करना कोई गलत काम है। कुछ लोग आदतन क्रोध करते हैं। मास्टर जब तक बच्चों को डांट-डपट न ले, पीट न ले उसे सन्तुष्टि नहीं होती क्योंकि क्रोध उसके व्यवहार में रच बस गया है। जो व्यक्ति आदतन क्रोध करते हैं, अशिष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं, उन्हें यदि अपनी इस आदत को परितुष्ट करने का अवसर न मिले तो यह अशिष्टता उनकी सामान्य बातचीत का अंग बन जाती है। गानी उनका तकिया कलाम हो करें क्रोध पर क्रोध | ७१ For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाती है। क्रोध या गाली एक तरह का वमन है, मानसिक वमन । लोगों के भीतर जो जहर भरा है, क्रोध के रूप में, गाली के रूप में, वे उस जहर का वमन करते हैं। अब यह आप पर है कि उस वमन को आप ग्रहण करें या न करें। कोई भी समझदार आदमी वमन को स्वीकार नहीं करता। वान्त पदार्थ का सेवन करना मनुष्य-कर्म नहीं, श्वान-कर्म है। (यदि कोई आदमी आपको दो कड़वे शब्द कह भी देता है, तो उसे एक संयोग मानकर चलो। ऐसा होना था, हो गया। उसके द्वारा गाली दी जानी थी, दी गई) रास्ते चलते कोई कुत्ता हम पर भौंकता है तो हम पलट कर भौंकने नहीं लगते। अगर हम पलट कर उस पर चिल्लायें या हमने उसे मारने के लिए हाथ उठाया तो वह और ज्यादा भौकेगा और तुम पर उल्टा झपटेगा। हम अपनी जगह पर खड़े हो जाएं, उसके भौंकने का कोई प्रत्युत्तर न दें तो वह अपने आप ही चुप, शान्त हो जाएगा। लोहा, लोहा है। लोहा भले ही गरम हो जाये, पर हथौड़े को तो गरम होना ही नहीं चाहिये। अगर हथौड़ा ही गरम हो गया तो अपना ही हत्था जला बैठेगा। एक फकीर एक रास्ते से गुजर रहा था। अचानक एक व्यक्ति पीछे से दौड़ता हुआ आया और फकीर की कमर पर उसने लठ मार दिया। साधु ने पीछे मुड़कर देखा, तो पहचान लिए जाने के डर से वह लकड़ी वहीं छोड़कर भागने लगा। फकीर ने उसे आवाज दी - भाई! अपनी लाठी तो लेते जाओ। ___ फकीर के शिष्य ने पूछा - गुरुजी! उसने आपको लाठी से मारा, आपको गुस्सा नहीं आया? फकीर ने कहा - नहीं। यह तो एक संयोग है। फकीर ने उसे एक घटना सुनाई। बोला - कल मैं इसी रास्ते से गुजर रहा था, तो एक पेड़ की डाली टूटकर मेरे कन्धे पर आ गिरी। मुझे कन्धे पर चोट लगी, दर्द भी हुआ पर डाली का टूटकर मुझ पर गिरना एक संयोग था। इसलिए उस पर गुस्सा नहीं किया जा सकता। जब पेड़ की टहनी पर गुस्सा नहीं, तब इन्सान के हाथ की लकड़ी पर गुस्सा क्यों? यदि पेड़ से लकड़ी के टूटकर गिरने को एक संयोग मान सकते है, तो मनुष्य द्वारा पहुंचाई जाने वाली चोट को संयोग नहीं मान सकते? __मनुष्य की मूढ़ता यही है कि वह अपने साथ घटने वाले व्यवहारों को संयोग, भवितव्य के रूप में नहीं लेता। कुत्ते के भौंकने को वह सहन कर लेगा, डाली के टूटने को झेल जाएगा लेकिन किसी अपने-पराए ने दो कड़वे बोल, बोल बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ७२ For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिये तो वह बरदाश्त नहीं कर पायेगा। इस ना-बरदाश्तगी के कारण ही संसार में इतने विवाद हैं, इतने झगड़े और अशान्ति है। ज्ञानी को अज्ञानी के आचरण पर कभी क्रोध नहीं आता। हमारी सबसे बड़ी पुण्यवानी यही है, हम एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हैं। अपमान करने के लिए तो दुश्मन बहुत हैं, पर यदि भाई ही भाई का अपमान करेगा तो सम्मान कौन किसका करेगा? एक ही परिवार में एक ही मां-बाप की सन्ताने भी लम्बे समय तक एक साथ नहीं रह पातीं, इसका मुख्य कारण एक दूसरे की उपेक्षा, तिरस्कार, असम्मान, एक दूसरे की भावनाओं का अनादर ही है। अलगाव हमेशा एक दूसरे की भावनाओं को न समझने के कारण ही आता है। बुजुर्गों का सम्मान करना छोटों का धर्म है, तो छोटों की भावनाओं का ध्यान रखना बड़ों का कर्तव्य है। बहू का फर्ज है वह सास को मां समझे, पर सास को भी उसे अपनी बेटी, अपनी सहेली मानना चाहिए। पिता अगर बेटे को हमेशा बेटा ही न मानकर, अपना दोस्त बना ले तो वह बेटे से ज्यादा प्रगाढ़ता पाएगा। क्या आपने कभी सोचा कि कोई व्यक्ति अपने मित्र से, अपने दोस्त से अलग क्यों नहीं होता? मां-बाप से, भाई से क्यों अलग हो जाता है? क्योंकि वहां भावनाओं का सम्मान नहीं है। अंकुश जरूर लगाओ मगर ऐसा भी नहीं कि हाथी के मस्तक पर घाव पड़ जाए, नासूर-भगंदर हो जाए। हमें अपनी बरदाश्त करने की क्षमता को विकसित करना होगा। सहिष्णुता को अपनी अस्मिता बनाना होगा। क्रोध को, गाली को, अशिष्टता को मात्र एक संयोग मानकर देखना होगा। ऐसा करने से सामने वाले का क्रोध पानी-पानी हो जाएगा। तुम पानी बनो, सामने वाला पानी-पानी हो जाएगा। राजचन्द्र का आज का पद इसी क्षमता को विकसित करने की प्रेरणा देता है। ताकि लोग स्वयं के क्रोध से लड़ना, स्वयं के क्रोध पर क्रोध करना सीख सकें। क्रोध करना, अशिष्ट व्यवहार करना, अनर्गल भाषा का प्रयोग करना असभ्यता की निशानी है। एक छोटा बच्चा भी इसे समझता है। कल ही एक आठ साल का बच्चा मेरे पास आया और यह शिकायत करने लगा कि मेरी दादी को बोलने का ढंग नहीं है। वह बात-बात में गाली का प्रयोग करती है। बच्चा भी जानता है कि गाली बकना, असभ्यता की पहचान है। बच्चे भी अपने बड़ों के ऐसे व्यवहार से स्वयं को लज्जित महसूस करते हैं, मगर बड़ों को ही इसकी समझ नहीं। तुम्हें अपने ही पागलपन की समझ नहीं है। राजचन्द्र का आज का पद इसी असभ्यता, क्रोध या पागलपन से लड़ने का, संघर्ष करने का पद है। करें क्रोध पर क्रोध | ७३ For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह अरिहन्त होने की बात कहता है, क्रोध पर क्रोध करने की। वे कहते हैं क्रोध प्रत्ये तो वर्ते क्रोध स्वभावता, मान प्रत्ये तो दीनपणा नुं मानजो। माया प्रत्ये माया साक्षी भाव नी, लोभ प्रत्ये नाहीं लोभ समान जो। क्रोधं किस पर करना है? अपने आप पर? यह तो हमेशा करो। दूसरों पर क्रोध करना तो पागलपन है, स्वयं की समझ का दिवालियापन है। - अगर तुम्हें क्रोध करना ही है, तो अपने क्रोध पर ही क्रोध करो। तुम सोचते हो कि दूसरों पर क्रोध करके तुम उसे नुकसान पहुंचा सकते हो, पर यह सोच वैज्ञानिक नहीं है। इस संबंध में अभी तक का सारा वैज्ञानिक अन्वेषण यही कहता है कि क्रोध करके मनुष्य दूसरे के साथ-साथ स्वयं को भी हानि पहुंचाता है। सच तो यह है कि स्वयं को ही अधिक हानि पहुँचाता है। प्रसन्न रहने में, मुस्कुराने में, हंसने में हमारी ऊर्जा बढ़ती है। क्रोध करने में खर्च होती है। हम यदि क्रोध करते वक्त थोड़ा-सा स्वयं का विश्लेषण करते रहने का बोध कायम रख सकें तो इस बात की सचाई को अच्छी तरह जान सकते हैं। एकदिन भोजन करके चौबीस घन्टे में हम जितनी ऊर्जा एकत्रित करते हैं, एक बार क्रोध करने में उतनी ऊर्जा नष्ट हो जाती है। आप देखियेगा, जो व्यक्ति ज्यादा क्रोध करते हैं, वे रातभर या तो सो नहीं पाते या रातभर सोकर भी प्रफुल्लित नहीं दिखाई पड़ते। उनकी थकान नहीं मिटती। उनकी ऊर्जा क्रोध करने में ही नष्ट हो जाती है। क्रोध ऊर्जा का अपव्यय कर देता है, लेकिन जो लोग क्रोध नहीं करते उनकी ऊर्जा सृजनात्मक हो जाती है। अपनी मानवीय ऊर्जा को सृजनात्मक, रचनात्मक रूप देना ही उसका सार्थक उपयोग है। क्रोध करने वाला व्यक्ति स्वयं का भी खून जलाता है और दूसरे का भी। दूसरे का खून जलाना, उसकी आत्मा को कष्ट देना, शोषण का कार्य है। इसलिए सबसे अच्छा तो यही है कि क्रोध को मात्र एक संयोग मानो और भूल जाओ। फिर भी यदि कभी क्रोध आ भी जाए तो अपने क्रोध पर ही क्रोध करने का प्रयास करो। पूछो अपने आप से कि तुझे इतना क्रोध क्यों आता है? __यह अपने आप से संघर्ष करने का युद्ध करने का, मार्ग है। इस पर वीर योद्धा बनकर आगे बढ़ो। अरिहन्त-भाव से कदम बढ़ाओ। जिन वह है, जिसने स्वयं को जीता है और जैन वे हैं जो इन जीते हुओं के पीछे-पीछे चले । युद्ध में सेनापति हजारों लोगों को जीतता है लेकिन इस जीत बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ७४ For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का क्या फायदा अगर खुद से हारे ही रह गये। दूसरों पर पायी जाने वाली हर जीत में अहंकार की विजय होती है और अहंकार की हर विजय अन्ततः हार में ही बदल जाती है। असली विजय तो वह है, जब आदमी स्वयं को जीतता है । एगप्पा अजिए सत्तु, कसाया इन्दियाणी य । ते जिणित्तु जहानायं, विहरामी अहं मुणि । एक मात्र मैं ही तो अपना दुश्मन हूँ, जिसे मुझे जीतना है। यह मैं ही हूं जो अपने आप से अविजित हूं, परास्त हूं। मैं अपनी आत्मा से हार गया हूं, अपनी इन्द्रियों से, अपने कषायों से मैं हार गया हूं। मुझे इनका स्वामी होना चाहिए था, पर मैं इनका गुलाम हो गया हूं। क्रोध मेरा दुश्मन है, अहंकार मेरा दुश्मन है, मुझे इनको परास्त करना था पर मैं उल्टे इनसे परास्त हो गया हूं। क्रोध, लोभ ये सब मेरे दुश्मन हैं और मैं दुश्मन के घर में जाकर बस गया हूँ । कोई प्रशंसा करता है, अहंकार को सहारा मिलता है, मजा आता है । ये जो मजा है यही अपने को हराने का हथियार है । प्रशंसा हो या क्रोध, अलिप्त रहकर ही उन्हें जीता जा सकता है । मानलो किसी ने फोन पर कोई नम्बर डायल किया और रिसीवर उठाकर गालियां बकनी शुरू कर दीं। काफी देर तक गालियां देने के बाद जब वह रुका तो सामने वाले ने पूछा- महाशय ! आपको कौन सा नम्बर चाहिए? जवाब मिला, ३५१३६७ ! उधर से आवाज आयी - रांग नम्बर । और रिसीवर रख दिया गया । फोन करने वाले की दशा ऐसे में दयनीय होती है लेकिन फोन सुनने वाले पर उसकी गालियों का कोई असर नहीं होता। फोन करने वाले का क्रोध ऐसे में दुगुना हो जाता है । झल्ला उठता है वह तो । दांत किटकिटाता उठता है। यह तो अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है । अपनी ही नाक पर बैठी मक्खी को मारने के प्रयास में स्वयं को चोट पहुंचाना है । अगर स्वयं को चोट पहुंचाना चाहते हो तो बेशक क्रोध करो अन्यथा क्रोध का विसर्जन करो। हमें अपने भावों की अभिव्यक्ति को जरा परिष्कृत करने की जरूरत है । हमारे पास दिमाग है, बुद्धि है, विवेक है, आवश्यकता है उसके उपयोग की, क्रोध के रूपान्तरण की । क्रोध अगर संस्कारित हो जाये, तो श्रद्धा में घटित हो सकता है। श्रद्धा में आदमी दूसरे के पांवों में अपना सिर नवाता है । क्रोध में दूसरे के सिर पर अपने पांव । क्रोध की मृत्यु हो जानी चाहिये । जीभ पर मिठास होनी चाहिये। आंखों में मुस्कान होनी चाहिए । यदि तुम किसी से मिठास भरी भाषा करें क्रोध पर क्रोध / ७५ For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का उपयोग करते हो, लोग तुम्हें चाहेंगे, इज्जत देंगे। इसके विपरीत अशिष्ट भाषा का प्रयोग करते हो, तो कोई पास बिठाना भी पसन्द नहीं करेगा, लोग नफरत करेंगे। बोलने का, अभिव्यक्ति का, भाषा का व्यवहार करने का अधिकार सभी को है, लेकिन व्यवहार की मर्यादा के अतिक्रमण का अधिकार किसी को भी नहीं है। कोई तुम पर क्रोध करता है, करने दो, पर तुम उसे स्वीकार मत करो, सहन कर जाओ तो वह आदमी शान्त हो जाएगा, उसकी गालियां उसी पर प्रतिध्वनित होकर लौट जाएंगी। जैसे आप किसी व्यक्ति को भोजन के लिए आमन्त्रित करें और वह आपका निमन्त्रण अस्वीकार कर दे तो आपका भोजन आपके घर ही में रह जाता है। इसी तरह यदि कोई आप पर क्रोध करता है, गालियां बकता है और आप उन्हें स्वीकार नहीं करते, तो वह क्रोध, वे गालियां उसी व्यक्ति के पास रह जाती हैं। - कोई कुछ भी कहे आपको अपने आप पर नियन्त्रण, अपने आप पर अनुशासन और सभी के प्रति मानवीय भाव रखना चाहिए। क्रोध की प्रतिक्रिया क्रोध से करेंगे तो क्रोध की ही वृद्धि होगी। यदि क्रोध का सामना प्रेम से करेंगे तो क्रोध परास्त हो जाएगा। क्रोध को न कोई परिजन अच्छा मानता है, न दोस्त स्वीकार करता है। समाज भी प्रेम का, सद्व्यवहार का पुजारी है। हम अपने पर क्रोध करें तो उस पर समाज को लेशमात्र भी ऐतराज नहीं है पर जहां हमारा क्रोध समाज पर हावी होगा, समाज उसे बिना न्याय के कभी स्वीकार न करेगा। . आप प्रतिभावान् हैं, प्रबुद्ध हैं। हमें अपनी प्रतिभा का उपयोग क्रोध में नहीं, क्रोध के छिछलेपन में नहीं, मधुरता और विनम्रता में करना चाहिये। क्रोध अपने भीतर के क्रोध पर होना चाहिय । अक्रोध ही मार्ग है अरिहन्त का। भीतर का विष रूपान्तरित होना चाहिये। संस्कारित विष का नाम ही शक्ति का अमृत होना है। मेरा निमन्त्रण अमृत का है, अमृत के लिए है। चलें हम क्रोध से अक्रोध की ओर, प्रतिहिंसा से प्रेम की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, विष से अमृत की ओर। राजचन्द्र तुम्हारे लिए सहायक हो सकते हैं। अर्हतता की उपलब्धि, जिनत्व की साधना ही राजचन्द्र का राज है। जीवन में सहजता लाएं, स्वाभाविकता लाएं - परमार्थ का यही व्यावहारिक रूप है। 'सहजात्म स्वरूप परम गुरु' । राजचन्द्र को नमस्कार है। आपको, आपकी समस्त अर्हत् सम्भावनाओं को। अमृत प्रेम। बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ७६ For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जितयशाश्री फाउंडेशन का उपलब्ध साहित्य (मात्र लागत मूल्य पर) फाउंडेशन का साहित्य सदाचार एवं सद्विचार का प्रवर्तन करता है। इस परिपत्र में जोड़ा गया साहित्य अलौकिक है, जीवन्त है। इस जीवन्त साहित्य को आप स्वयं संग्रहीत कर सकते हैं, मित्रों को उपहार के रूप में दे सकते हैं। इन अनमोल पुस्तकों के प्रचार-प्रसार के लिए आप सस्नेह आमंत्रित हैं। ध्यान/अध्यात्म/चिन्तन अप्प दीवो भव: महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर श्री चन्द्रप्रभ के अनमोल वचनों का संकलन; जीवन, जगत् और अध्यात्म के विभिन्न आयामों को उजागर करता चिन्तन-कोष; आत्म-क्रान्ति का अमृतं-सूत्र । पृष्ठ ११२, मूल्य १५/चलें, मन के पार : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर विश्व-स्तर पर प्रशंसित ग्रन्थ, जिसमें दरशाये गये हैं मनुष्य के अन्तर-जगत् के परिदृश्य; सक्रिय एवं तनाव-रहित जीवन प्रशस्त करने वाला एक मनोवैज्ञानिक युगीन ग्रन्थ । पृष्ठ ३००, मूल्य ३०/व्यक्तित्व-विकास : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर हमारा व्यक्तित्व ही हमारी पहचान है, तथ्य को उजागर करने वाली पुस्तक, जो बचपन से पचपन की हर उम्र वालों के लिए उपयोगी । एक बाल-मनोवैज्ञानिक प्रकाशन। पृष्ठ ११२, मूल्य १०/संसार और समाधि: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर संसार पर इतना खूबसूरत प्रस्तुतिकरण पहली बार । संसार की क्षणभंगुरता में शाश्वतता की पहल । यह किताब बताती है कि संसार में रहना बुरा नहीं है। अपने दिल में संसार को बसा लेना वैसा ही अहितकर है, जैसे कमल पर कीचड़ का चढ़ना। पृष्ठ १६८, मूल्य १५/संभावनाओं से साक्षात्कार : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर अस्तित्व की अनंत संभावनाओं से सीधा संवाद। पृष्ठ ९२, मूल्य १०/ज्योति जले बिन बाती : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर ध्यान-साधकों के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक, जिसमें है ध्यान-योग की हर बारीकी का मनोवैज्ञानिक दिग्दर्शन। का मनावशानकादग्दशन। पृष्ठ १०८, मूल्य १०/आंगन में आकाश: महोपाध्याय ललितप्रभसागर तीस प्रवचनों का अनूठा आध्यात्मिक संकलन, जो आम आदमी को भी प्रबुद्ध करता है और जोड़ता है उसे अस्तित्व की सत्यता से। पृष्ठ २००, मूल्य २०/ For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) जीवन-यात्रा: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर सुप्रसिद्ध प्रवचनकार श्री चन्द्रप्रभ के मानक प्रवचनों का अनोखा संकलन । जीवन के हर क्षितिज में कदम-कदम पर राह दिखाने वाला यात्रा-स्तम्भ । मौलिक जगत में जीने वालों के लिए विशेष उपयोगी। पृष्ठ ३८६, मूल्य ५०/नवजीवन : महोपाध्याय ललितप्रभसागर व्यक्तित्व को ज्योतिर्मय बनाने वाली प्रवचनावली। प्रवचनों में है विषयगत गाम्भीर्य और जनमानस की उपयुक्त नापजोख। पृष्ठ ७६, मूल्य ५/अमीरसधारा: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर जिनत्व के सम्पूर्ण विराट वैभव को भाषा की ताजगी एवं विश्लेषण की गहराई के साथ प्रस्तुत करने वाले प्रवचनों का संकलन। पृष्ठ ८०, मूल्य ५/प्रेम के वश में है भगवान : महोपाध्याय ललितप्रभसागर एक प्यारी पुस्तक, जिसे पढ़े बिना मनुष्य का प्रेम अधूरा है । पृष्ठ ४८, मूल्य ३/जित देखू तित तूं: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर ईश्वर-प्रणिधान पर अनुपमेय पुस्तिका। अस्तित्व के प्रत्येक अणु में परमात्म-शक्ति को उपजाने का श्लाघनीय प्रयत्न। पृष्ठ ३२, मूल्य २/चलें, बन्धन के पार : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर बन्धन-मुक्ति के लिए क्रान्तिकारी सन्देश। प्रवचनों में है बन्धन की पहचान और मुक्ति का निदान । आम नागरिक के लिए विशेष उपयोगी प्रकाशन । . पृष्ठ ३२, मूल्य २/वही कहता हूँ: महोपाध्याय ललितप्रभसागर अध्यात्म के उपदेष्टा ललितप्रभ जी के दैनिक समाचार-पत्रों में प्रकाशित स्तरीय प्रवचनांशों का संकलन, लोकोपयोगी प्रकाशन। पृष्ठ ३२, मूल्य २/समाधि की छांह: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर ध्यान की ऊंचाइयों को आत्मसात् करने के लिए एक तनाव-मुक्त स्वस्थ मार्गदर्शन । जीवन-कल्प के लिए एक बेहतरीन पुस्तक। पृष्ठ ८४, मूल्य ५/ आंख दो, रोशनी एक : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर बिना आसन लगाए सिद्धि दिलाने वाली एक उपयोगी पुस्तक । "पृष्ठ २४, मूल्य २/मैं तो तेरे पास में:महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर गंभीर एवं दार्शनिक विचारों का बोलता दस्तावेज। ध्यान-साधना के जगत् में मार्गदर्शक एक मील का पत्थर । पृष्ठ ६४, मूल्य ५/विराट सच की खोज में : महोपाध्याय ललितप्रभसागर सत्य की अनन्त संभावनाओं को दर्शाने वाला एक ज्योतिर्मय चिंतन । पृष्ठ ६४, मल्य६/ For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३) अमृत-संदेश: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर सद्गुरु श्री चन्द्रप्रभ के अमृत-संदेशों का सार-संकलन। पृष्ठ ५६, मूल्य ३/प्याले में तूफान: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर इन्सानियत एवं समाज में आई कमियों की ओर इशारा, आम आदमी से लेकर सम्पूर्ण विश्व के दिल में भड़कते तूफान का बेबाक आकलन; सभी लेख स्तरीय और अनिवार्यत: पठनीय। पृष्ठ ९०, मूल्य १०/मयुर्वण-प्रवचन : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर पर्युषण-महापर्व के प्रवचनों को घर-घर पहुंचाने के लिए एक प्यारा प्रकाशन; भाषा सरल, प्रस्तुति मनोवैज्ञानिक । पढ़ें कल्पसूत्र को अपनी भाषा में। - पृष्ठ १२०, मूल्य १०/ध्यान: प्रयोग और परिणाम: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर ध्यान के विभिन्न पहलुओं पर जीवन्त विवेचन । भगवान महावीर की निजी साधना-पद्धति का स्पष्टीकरण। पृष्ठ ११२, मूल्य १०/लाईट-टू-लाइट: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर ध्यान में अभिरुचिशील लोगों के लिए 'माइल-स्टॉन'। विश्व के दूर-दराज तक फैली ध्यान-पुस्तिका। पृष्ठ ९२, मूल्य १०/द प्रिजविंग ऑफ लाइफ: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर मानव-चेतना के विकास के हर संभव पहलू पर प्रकाश । पृष्ठ १००, मूल्य १०/मेडिटेशन एण्ड एनलाइटमेंट: चन्द्रप्रभ मन एवं मस्तिष्क के संतुलन से लेकर ध्यान और समाधि के विभिन्न पहलुओं पर मनन और विश्लेषण; विदेशों में भी अत्यधिक प्रसारित/स्वीकृत। पृष्ठ १०८, मूल्य १५/आगम/शोध/कोश आयार-सुत्तं : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर एक आदर्श धर्म-ग्रन्थ का मूल एवं हिन्दी अनुवाद के साथ अभिनव प्रकाशन जो सद्विचार के सूत्रों में सदाचार का प्रवर्तन करता है। शुद्ध मूलानुगामी अनुवाद छात्रों के लिए विशेष उपयोगी । ग्रन्थ का फैलाव सीमित, किन्तु प्रस्तुतिकरण सर्वोच्च । विज्ञान एवं चिन्तन के क्षेत्र में एक खोज । पृष्ठ २६०, मूल्य ३०/सूयगड-सुत्तं : महोपाध्याय ललितप्रभसागर प्रसिद्ध धार्मिक-दार्शनिक आगम-ग्रन्थ सूत्रकृतांग का मूल एवं सशक्त अनुवाद । साथ ही प्रत्येक अध्ययन का चिन्तनपरक प्रास्ताविक। पृष्ठ १७६, मूल्य २०/ For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) समवाय-सुत्तं : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर विश्वविद्यालय-पाठ्यक्रम के स्तर पर तैयार किया गया जैन-आगम समवायांग का सीधा-सपाट मूलानुगामी अनुवाद। पृष्ठ ३१८, मूल्य ३०/उत्तराध्ययन के सूक्त वचन : महोपाध्याय ललितप्रभसागर आगम-ग्रन्थ उत्तराध्ययन की सार्वभौम एवं सार्वकालिक सूक्तियों का चयन। अनुवाद की भाषा आकर्षक एवं प्रांजल। पृष्ठ ५२, मूल्य ४/चन्द्रप्रभः जीवन और साहित्य : डॉ. नागेन्द्र महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागरजी की साहित्यिक सेवाओं का विस्तृत लेखा-जोखा। एक समीक्षात्मक अध्ययन। पृष्ठ १६०, मूल्य १५/उपाध्याय देवचन्द्रः जीवन, साहित्य और विचार : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर महान् तत्त्वविद् उपाध्याय श्री मद् देवचन्द्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विभिन्न पहलुओं पर प्रशस्त प्रकाश डालने वाला एक शोधपूर्ण प्रबन्ध ।. - पृष्ठ ३२०, मूल्य ५०/विश्व-संस्कृत-सूक्ति-कोशःमहोपाध्याय ललितप्रभसागर संस्कृत की विराट सम्पदा के सूक्त-रत्नों की विश्व-चयनिका, जो सूक्ति-कोश भी है और सन्दर्भ-कोश भी। हिन्दी अनुवाद की शालीनता कोश की अतिरिक्त विशेषता । तीन खंडों में ग्रन्थ का आकलन। पृष्ठ १०००, मूल्य ३००/जैन पारिभाषिक शब्द-कोश: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर जैन-परम्परा में प्रचलित दुरूह एवं पारिभाषिक शब्दों पर टिप्पणी एवं परिचर्चा करने वाला एक उच्चस्तरीय कोश। पृष्ठ १५२, मूल्य १०/हिन्दी सक्ति-सन्दर्भ कोश: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर हिन्दी के सुविस्तृत साहित्य से सूक्तियों का ससन्दर्भ संकलन; भारतीय सन्तों एवं मनीषियों के चिन्तन एवं वक्तव्यों का सारगर्भित सम्पादन; आम पाठकों के अलावा लेखकों के लिए खास कारगर; एक आवश्यकता की वैज्ञानिक आपूर्ति । दो भागों में। पृष्ठ ७००, मूल्य १००/पंच संदेश: महोपाध्याय ललितप्रभसागर पुस्तक में है अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर कालजयी सूक्तियों का अनूठा सम्पादन। पृष्ठ ३२, मूल्य २/ सन्त-वाणी महाजीवन की खोज: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर आचार्य कुन्दकुन्द, योगीराज आनंदघन एवं श्रीमद् राजचन्द्र जैसे अमृत-पुरुषों के चुने हुए अध्यात्म-पदों पर बेबाक खुलासा । घर-घर पठनीय प्रवचन-संग्रह । हर मुमक्ष एवं साधक के लिए उपयोगी। पृष्ठ १४८, मूल्य १०/ For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) ब्रझो नाम हमारा: महोपाध्याय ललितप्रभसागर योगीराज आनंदघन के पदों पर किया गया मनोवैज्ञानिक विवेचन, जो पाठक को मौलिक व्यक्तित्व से परिचय करवाता है। पृष्ठ ६८, मूल्य ५/मैं कौन हूं: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर अध्यात्म-पुरुष राजचन्द्र के अनुभव-गीतों की गहराइयों को उजागर करने वाले प्रवचनों का संकलन। पृष्ठ ६८, मूल्य ३/देह में देहातीत: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर प्रसिद्ध अध्यात्मवेत्ता आचार्य कुन्दकुन्द की टेढ़ी गाथाओं पर सीधा संवाद। विशिष्ट प्रवचन। पृष्ठ ७२, मूल्य ५/भगवत्ता फैली सब ओर : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर आचार्य कुन्दकुन्द के अष्टपाहुड़ ग्रन्थ से ली गई आठ गाथाओं पर बड़ी मार्मिक उद्भावना । इसे तन्मयतापूर्वक पढ़ने से जीवन-क्रान्ति और चैतन्य-आरोहण बहुत कुछ सम्भव। पृष्ठ १००, मूल्य १०/सहज मिले अविनाशी : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर पतंजलि के प्रमुख योग-सूत्रों के आधार पर परमात्मा से सहज साक्षात्कार। , पृष्ठ ९२, मूल्य १०/अंतर के पट खोल: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर पतंजलि के दस सूत्रों पर पुनर्प्रकाश; योग की एक अनूठी पुस्तक। पृष्ठ ११२, मूल्य १०/हंसा तो मोती चुगै: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर भगवान महावीर के कुछ अध्यात्म-सूत्रों पर सामयिक प्रवचन । पृष्ठ ८८, मूल्य १०/ कथा-कहानी सिलसिला: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर कहानी-जगत की अनेक आजाद वारदातें, पशोपेश में पड़े इंसान के विकल्प को तलाशती दास्तान । बालमन, युवापीढ़ी, प्रौढ़ बुजुर्गों के अन्तर्मन को समान रूप से छूने वाली कहानियों का संकलन। पृष्ठ ११०, मूल्य १०/संसार में समाधिः महोपाध्याय ललितप्रभसागर समाधि के फूल संसार में कैसे खिल सकते हैं, सच्चे घटनाक्रमों के द्वारा उसी का सहज विन्यास । हर कौम के लिए शान्ति और समाधि का संदेश। _ पृष्ठ १२०, मूल्य १०/लोकप्रिय कहानियाँ : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर जैन संस्कृति को उजागर करने वाली सुप्रसिद्ध कथा-कहानियों का सार-संक्षेप। सहज भाषा में जैनत्व की धड़कन। पृष्ठ ४८, मूल्य ३/ For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) पंचामृत: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर चेतना-जगत में इंकलाब की क्रान्ति का नारा देने वाली गुजराती भाषा में निबद्ध पुस्तक । आगम-पत्रों की नये ढंग से कथा- शैली में पुन: प्रतिष्ठा । पृष्ठ ९६, मूल्य ७/ संत हरिकेशबल: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर अस्पृश्यता निवारण के लिए बोलती एक रंगीन कहानी । बच्चों के लिए सौ फीसदी उपयोगी । पृष्ठ २४, मूल्य ४/ दादा दत्त गुरु : महोपाध्याय ललितप्रभसागर पहले दादा गुरुदेव आचार्य जिनदत्तसूरि की सर्वप्रथम प्रकाशित चित्र - कथा; ज्ञानवर्धक, रोचक भी । पृष्ठ २४, मूल्य ४/ सत्य, सौन्दर्य और हम : महोपाध्याय ललितप्रभसागर सुन्दर, सरस प्रसंग, जिनमें सच्चाई भी है और युग की पहचान भी । घट-घट दीप जले : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित चन्द्रप्रभ जी की उन कहानियों का संकलन, जिनमें जीवन-दीप की आत्मा हर शब्द में फैल रही है। पृष्ठ ३२, मूल्य २/ पृष्ठ ३२, मूल्य २/ कुछ कलियों, कुछ फूल: महोपाध्याय ललितप्रभसागर संसार के विभिन्न कोनों में हुए सद्गुरुओं की उन घटनाओं का लेखन, जिनमें छिपे हैं जीवनक्रान्ति और विश्व शान्ति के सन्देश । पृष्ठ ३२, मूल्य २/ काव्यं - कविता बिम्ब- प्रतिबिम्ब: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर जीवन की उधेड़बुन को प्रस्तुत करने वाली एक सशक्त प्रौढ़ काव्य-कृति । सत्य के संगान का अभिनव प्रयत्न । पृष्ठ ८४, मूल्य ७/ छायातप: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर अदृश्य प्रियतम की कल्पना की रंगीन बारीकियों का मनोज्ञ चित्रण | रहस्यमयी छायावादी कविताओं का एक और अभिनव प्रस्तुतिकरण । पृष्ठ१०८, मूल्य १०/जिन - शासन : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर. एक अनूठी काव्यकृति, जिसमें है सम्पूर्ण जैन शासन का मार्ग-दर्शन । काव्य- शैली में जैनत्व को समग्रता से प्रस्तुत करने वाला एक मात्र सम्पूर्ण प्रयास । पृष्ठ ८०, मूल्य ३/ अधर में लटका अध्यात्म : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर दिल की गहराइयों को छू जाने वाली एक विशिष्ट काव्यकृति । पढ़िए, मस्तिष्क के परिमार्जन एवं जीवन के सम्यक् संस्कार के लिए । पृष्ठ १५२, मूल्य ७/ For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीत-भजन-स्तोत्र प्रार्थना: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर चौबीस तीर्थकरों की भक्ति-वन्दना ; नई तयों में रस-भावों की अभिव्यक्ति । प्रत्येक तीर्थकर के नाम स्वतंत्र प्रार्थना और भजन। पृष्ठ ५२, मूल्य ५/दादा गुरु-भजनावली : महोपाध्याय विनयसागर 'दादा-गुरुदेव' के नाम से विश्व-विख्यात आचार्य जिनदत्तसूरि, जिनकुशलसूरि आदि चार दादा गुरुओं की स्तुति/प्रार्थना से संबंधित मंत्र-तंत्र बिखरे स्तोत्रों/भजनों का सर्वांगीण विराट-अपूर्व संकलन। पृष्ठ ६००, मूल्य ५०/महान् जैन स्तोत्र : महोपाध्याय ललितप्रभसागर अत्यन्त प्रभावशाली एवं चमत्कारी जैन स्तोत्रों का विशाल संग्रह। पृष्ठ १२०, मूल्य १०/श्रद्धांजलि: महोपाध्याय ललितप्रभसागर भजनों और गीतों का सम्पूर्ण संग्रह । प्रभात-वन्दना एवं भजन-संध्या में नित्य उपयोगी। पृष्ठ ३२, मूल्य २/भक्तामर : आचार्य मानतुंगसरि सुप्रसिद्ध भक्तामर स्तोत्र का शुद्ध-परिमार्जित प्रकाशन; मूलपाठ के साथ है हिन्दी अनुवाद गद्य-पद्य दोनों में। पृष्ठ ४८, मूल्य ३/जैन भजन: महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर लोकप्रिय तों पर निर्मित भावपूर्ण गीत-भजन । छोटी, किन्तु प्यारी पुस्तक'। पृष्ठ ४८, मूल्य २/रजिस्ट्री चार्ज एक पुस्तक पर ८/-, संपूर्ण सेंट डाक-व्यय से मुक्त धनराशि श्री जितयशाश्री फाउंडेशन (SRIJIT-YASHA SHREE FOUNDATION) कलकत्ता के नाम पर बैंक-ड्राफ्ट या मनिआर्डर द्वारा भेजें।आज ही लिखें और अपना ऑर्डर भेजें। सम्पर्क सूत्रः श्री जितयशाश्री फाउंडेशन ९सी, एस्लानेड रो ईस्ट (रूम नं. २८) कलकत्ता-७०००६९ दूरभाष : २०८७२५/५००४१४ For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जितयशाश्री फाउंडेशन द्वारा साहित्य-विस्तार की अभिनव योजना + अपने घर में अपना पुस्तकालय + श्री जितयशाश्री फाउंडेशन, लाभ-निरपेक्ष एवं विश्व-श्रेय के लिए समर्पित संस्थान है। साहित्य-विस्तार एवं कला-प्रस्तुति के क्षेत्र में इसके अपने कीर्तिमान हैं। सदाचार एवं सद्-विचार की गंगा-यमुना को घर-घर ले जाने के लिए यह संस्थान निरन्तर प्रयत्नशील है। जैन-धर्म के उन सिद्धान्तों एवं आदर्शों को हर घर पहुँचाना हमारा उद्देश्य है, जिनकी जरूरत हर समय, हर व्यक्ति और हर समाज को रही है। फाउंडेशन के विविध विषयों से जुड़े हुए साहित्य को भारत के प्रमुख पत्रों एवं विद्वानों ने न केवल सराहा है, अपितु उसकी सेवाओं को अनिवार्य भी माना है। फाउंडेशन द्वारा प्रसारित साहित्य युग-युग की सम्पदा है और आधुनिक चिन्तन-जगत् की बेहतरीन प्रस्तुति है। आम आदमी से लेकर विद्यार्थियों और प्रबुद्ध लोगों की ज्ञान-क्षेत्र की हर जिज्ञासा को समाधान देने में यह साहित्य लाजवाब अपना पुस्तकालय अपने घर में बनाने के लिए फाउंडेशन ने एक अभिनव योजना बनाई है। इसके अन्तर्गत आपको सिर्फ एक बार ही फाउंडेशन को एक हजार रुपये का अनुदान देना होगा, जिसके बदले में फाउंडेशन अपने यहाँ से प्रकाशित होने वाले प्रत्येक साहित्य को आपके पास आपके घर पहँचाएगा और वह भी आजीवन । इस योजना के तहत एक और विशेष सुविधा आपको दी जा रही है कि इस योजना के सदस्य बनते ही आपको रजिस्टर्ड डाक से फाउंडेशन का अब तक प्रकाशित सम्पूर्ण साहित्य नि:शुल्क प्राप्त होगा। लीजिए ! आप हमारी इस साहित्य-योजना के आजीवन सदस्य बनकर अपने घर में अपना पुस्तकालय बनाइये और व्यावहारिक जीवन की बातों से लेकर ध्यान, साधना, समाधि, चिन्तन, प्रवचन, कहानी, आगम, इतिहास एवं दर्शनक्षेत्र की अनमोल पुस्तकें अपने घर में बसाइये। श्री जितयशाश्री फाउंडेशन, ९-सी, एस्प्लानेड रो (ईस्ट, कलकत्ता-७०००६९ For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कोऽहं' महावीर का यह जो प्रश्न है, शायद यह उनकी परंपरा के किसी भी जैन ने अपने आपसे नहीं किया होगा। इसलिए पिछले पच्चीस सौ साल में इस परंपरा में दूसरा कोई महावीर पैदा नहीं हुआ। यदि किसी ने यह प्रश्न किया, तो निश्चित तौर पर वह अध्यात्म-पुरुष बना, अध्यात्म का अमृत उसने उपलब्ध किया। आनंदघन जैसे योगसिद्ध साधक तो बहुतेरे हुए, किन्तु महावीर की इस ध्यान-पद्धति से गुजरने वाला एक इंसान हुआ, भाई श्री राजचन्द्र/नहीं त्यागी इस व्यक्ति ने धोती-कमीज, नहीं। पहना सन्त का वेश, लेकिन एक बात तय है कि इस प्रश्न को उन्होंने बैतरह-बखूबी जिया। मात्र तैतीस वर्ष की उम्र में यह महात्मा चल बसा, लेकिन जाने से पहले जीवन, जगत का जवाब ले गया। - श्री चन्द्रप्रभ, 'शिवोऽहम से For Personal & Private Use Only