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________________ वह उनमें नहीं मिलेगी । इसलिए राजचन्द्र कोई शंकराचार्य नहीं हैं । वे कोई आचार्य हेमचन्द्र नहीं हैं । राजचन्द्र सिर्फ राजचन्द्र है। यहां पंडिताई नहीं मिलेगी । राजचन्द्र कवि नहीं है। उनके अनुयायी जो उन्हें कवि कहते हैं, उनके साथ न्याय नहीं कर रहे हैं । कविता तो एक दस साल का छोटा बच्चा भी घड़ सकता है। राजचन्द्र कवि नहीं, अनुभवी हैं। अगर उनके पदों को सुनते समय यह लगे कि कहीं कोई शब्द टूट रहा है, शब्द - संयोजना ठीक नहीं है, ह्रस्व-दीर्घ का तालमेल नहीं है, छन्द - दोष है, तो चिन्ता मत कीजिएगा क्योंकि वह कवि की आत्मा नहीं है । यह तो सिर्फ एक आत्मा है, और आत्मा में जो संगीत उमड़ा है, वह दे रहे हैं। अनुभव संगीत है, इसलिए उसमें मजा है, उसमें जादू है, आनन्द है, आकर्षण है । वह परमात्मा का मन्दिर जो भीतर के समुन्दर में डूबा हुआ है, उसकी घंटियाँ निरन्तर बज रही है और आप लोगों को अपनी ओर बुलाना चाहती है। उन्हीं घंटियों की आवाज में से एक आवाज बता रहा हूं। एक स्वर झंकृत कर रहा हूं। इस स्वर को अपने भीतर तक जाने दीजिए - बहु पुण्य केरा, पुंज थी शुभ, देह मानव नो मळ्यो तो भी अरे भव-चक्र नो, आंटों नहीं एके टळ्यो । सुख प्राप्त करता, सुख टळे छे, लेश ए लक्षे लहो, क्षण-क्षण भयंकर भाव मरणे, कां अहो राची रहो । एक गहन निष्पत्ति है यह । मैंने जान बूझकर आज यह पद लिया है। इससे शुरुआत होनी चाहिए । इसलिए भी लिया है कि यह पद मुझसे कुछ जुड़ा हुआ है। मैं पद ही लूंगा, जो मेरी मान्यताओं के साथ फबता है । जो मुझे सही नहीं जंचता, वह फिर चाहे किसी का भी क्यों न हो, मैं उस पर चर्चा करना नहीं चाहता। इसलिए मैं वहीं कहूँगा, जो मैं वास्तव में कहना चाहता हूँ । राजचन्द्र को अपना माध्यम बना रहा हूं और उसमें से आपको वहीं दे रहा हूं जो मैं देना चाहता हूं । यह पद जुड़ा हुआ है हम से, मानववाद से । मैं चाहे जो होऊं, पर मेरे हर होने में मैं पहले इन्सान हूं, उसके बाद और कुछ । मेरे लिए पहले इन्सान होने का मूल्य है उसके बाद कुछ और होने का । राजचन्द्र कहते हैं कि तुमने इतने सारे महान पुण्य किये और उन पुण्यों को करने के बाद यह मानव काया मिली, पर इतना तो सोचो कि क्या फिर भी तुम्हारा भ्रमण टला ? सिर्फ यही सोचने की बात है । मनुष्य परम है, मनुष्य चरम है । मनुष्य आखिरी मापदंड है। दुनिया में जितने भी सिद्धान्त बने हैं, मानव मात्र के लिए बने हैं । धर्म मनुष्य के लिए होता Jain Education International बी घंटियां मन-मन्दिर की / ६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003965
Book TitleBina Nayan ki Bat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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