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सके। ऐसा कोई भी दर्शन नहीं है, जो अपने आपको पूरी तरह अकाट्य कह सके। जिसका तर्क वजनदार उसका पलड़ा भारी । इसलिए यह तो दृष्टा होना है, आंखों से देखने की बात है ।
मैं जब जब भी बोलता हूं, यह नहीं कहता कि तुम मेरी बात पर विश्वास करना, श्रद्धा करना। मैं हमेशा यह चाहूंगा कि मेरी बात को हमेशा देखने का प्रयास करना। मानने की बात मैं नहीं कहूंगा, जानने की बात कहूंगा । दृष्टा हमेशा जानता है, दार्शनिक हमेशा मानता है । दार्शनिक ने जो लिखा है, वह उससे अलग रास्ते पर चल सकता है लेकिन दृष्टा ने जो जाना है, वह उससे अलग नहीं चल सकता । दार्शनिक विपरीतकाल में अपने सिद्धान्त से विचलित हो सकता है । दृष्टा हर हाल में उसी बात को दुहराएगा, जिसे उसने देखा है, जाना है । इसलिए मैं अगर कुछ बोलता हूं, तो यह मत सोचिएगा कि मैं कोई विचारक हूं, कोई दार्शनिक हूं। मैं देखने में विश्वास रखता हूं, जानने में विश्वास रखता हूं । साक्षित्व ही मैं हूं, यही मेरी अन्तरात्मा है ।
दूसरी बात श्रीमद् के बारे में, यह भी ध्यान में लीजिए कि राजचन्द्र कोई पारम्परिक नहीं है । वह आध्यात्मिक व्यक्ति है, मौलिक हैं । उनके पद अपने आप से निष्पन्न हुए हैं। इसलिए वे अध्यात्म - पुरुष हैं। अगर वे पारम्परिक होते तो आपकी तरह सुबह-शाम अड़तालीस मिनट सामायिक लेकर बैठ जाते। अगर वे पारम्परिक होते, तो नहीं समझे जाने वाले प्राकृत सूत्रों के प्रतिक्रमण के पाठ दोहराते रहते। अगर वे पारम्परिक होते, तो रोजाना मन्दिरों और स्थानकों में जाकर, देव गुरु और धर्म की वन्दना - विरूदावली, गाते रहते। वे पारम्परिक नहीं, वे आध्यात्मिक हैं । इसलिए वे विधिवादी नहीं, वे जीवन्त पुरुष हैं । जीवन्तता में विश्वास करने रखने वाले अनुशास्ता हैं। यहां तत्व पर विश्वास नहीं है। यहां अपने आप पर विश्वास है । इसलिए राजचन्द्र रूढ़िवादी धार्मिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक हैं, अध्यात्म के धनी हैं ।
धर्म व्यवहारों के साथ जुड़ा रहता है, पर अध्यात्म अपने आप से जुड़ा रहता है। धार्मिक वह है, जो यह जानता है कि समयसार में क्या लिखा है, या कि सुबह-शाम प्रतिक्रमण करना चाहिए लेकिन आध्यात्मिक आदमी वह है, जिसे स्वयं का बोध है, अपना ज्ञान है, अस्तित्व की पहचान है । स्वयं की सच्चाई का पता है ।
श्रीमद् राजचन्द्र के बारे में तीसरी बात जो बहुत महत्वपूर्ण है, कि राजचन्द्र कोई पंडित नहीं हैं, वे अनुभवी हैं। अगर पंडिताई देखने जाओगे तो
बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ८
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