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शिलालेख खोदे जाएंगे। पर उन शिलालेखों को पढ़ता कौन है ? आपका बेटा तक नहीं पढ़ेगा, दुनियां कहां पढ़ने जाएगी ? फिर मिलापचन्द नाम के ही न जाने कितने सारे आदमी यहां भरे हुए पड़े हैं। यह एक मिथ्या आसक्ति है । किसी और के द्वारा आरोपित नाम के प्रति आसक्ति रखना, जड़ के भाव में चेतना को बेचना है। लोकेषणा मनःद्वार से छूटनी बहुत कठिन है । यश के प्रलोभन गिराने हैं। जो आदमी प्रलोभन से छूट जाता है वही कहीं पहुंचता है ।
और तो और, अब तो प्रवचनों में भी प्रलोभन का मार्ग खुलने लगा है । प्रवचन में अगर पंछी कम आते हों, तो सीधे प्रलोभन का दामन थामा जाता है और लड्डू की प्रभावना सिक्के की प्रभावना शुरु हो जाती है। जब मुझसे भी यह कहा गया, तो मैंने कहा, धर्म के द्वार पर क्यों लोभ - प्रलोभन की बातें चलाते हो। जिन्हें जरूरत होगी, वे आएंगे। जिन्हें जरूरत नहीं उन्हें बुलाना भी क्यों ? जिन्हें आवश्यकता होगी, वे खुद आएंगे। अगर लड्डू खाने हैं, कहीं और चले जाओ । हां ! अगर लोहार का हथौड़ा खाना है, तो आइए, ताकि भीतर की जंग उतारी जा सके । सुनार की हथौड़ी सौ बार खा ली तो क्या हुआ ? अब तो लोहार की हथौड़ी खानी है । भले ही मैं सुनार लगूं, लेकिन हाथ में हमेशा लोहार का थौड़ा है।
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श्रीमद् राजचन्द्र के पदों में हम प्रवेश करें, इसके पहले मैं चाहूंगा कि उनके बारे में हम कुछ बातें समझ लें। पहली बात तो यह है कि राजचन्द्र कोई दार्शनिक नहीं हैं। उनकी अपनी कोई फिलॉसाफी नहीं है। राजचन्द्र तो दृष्टापुरुष हैं। दार्शनिक और दृष्टा में फर्क है। दार्शनिक तो हर कोई हो सकता है, पर दृष्टा हर आदमी नहीं हो सकता । दृष्टा, दृष्टि से निष्पन्न होता है । दार्शनिक वह होता है जो सोचता ज्यादा है । दृष्टा वह होता है, जो देखता ज्यादा है। सोचने और देखने में फर्क है । सोच-सोच कर तुम विचारक बन जाओगे, देख-देख कर वीतराग। अज्ञात के बारे में सोचा तो बहुत जा सकता है, लेकिन अज्ञात को देखा नहीं जा सकता। एक अंधा आदमी भी प्रकाश के बारे में सोच तो बहुत सकता है, लेकिन वह प्रकाश को देख नहीं सकता। जीवन में 'साधुवादता, धन्यभाग्यता, दार्शनिक होने से नहीं आती । वह तो दृष्टा होने से उपलब्ध होती है। एक अंधा आदमी प्रकाश के बारे में अपना भाषण देता फिरे, इससे बड़ा व्यंग्य और क्या होगा? यह तो स्वयं पर ही व्यंग्य है। दार्शनिक होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। इस समय दुनिया में हजारों दार्शनिक हैं और धर्म भी सैकड़ों, तीन सौ सड़सठ । लेकिन कोई धर्म ऐसा नहीं है, जो एक दूसरे को परास्त कर
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बजी घंटियां मन-मन्दिर की / ७
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