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________________ चारो चरे, चहुँ दिशि फिरे वाको मनवो बछरुआ रे मांह । ऐसे प्रभु चरणे चित्त लाऊं रे, गुण गाऊं रे मना । जैसे गाय जंगल में जाती है, घास चरती है, इधर-उधर डोलती है लेकिन सब कुछ करने के बावजूद, उसका मन तो बछड़े में ही लगा रहता है। आनन्दघन कहते हैं, ठीक उसी तरह मैं भी बाहर के सारे कामकाज करता हूँ, लेकिन मेरा मन तो ठीक वैसे ही परमात्मा में लगा हुआ है, जैसे जंगल में डोलती गाय का ध्यान अपने बछड़े में रहता है। चार-पांच सहेलियां रे हिलमिल पाणी भरवा जाय । ताली दिये, खड़-खड़ हंसे रे, वा को मनड़ो गगरुवा रे माह । गांव में महिलाएं जब एक साथ पानी भरने जाती हैं, तो उनके सिर पर चार-चार घड़े रहते हैं। वे जब लौटती हैं, भरे हुए घड़े लेकर, तो हंसती भी हैं, बोलती भी हैं, तालियां भी बजाती हैं, लेकिन उनका ध्यान पानी के घड़ों पर ही रहता है। ऐसे ही तो केन्द्रित रहना पड़ता है परमात्मा के प्रति । जब झाडू लगाते हुए भी हृदय राम-राम करता रहे, प्रभु-प्रभु करता रहे, तो वह घर में झाडू लगाना भी मन्दिर में झाडू लगाने जैसा है। आनन्दघन कहते हैं नटवो नाचे चौक में रे लोक करे लख शोर । बांस ग्रही वर्ते चढ़े रे, वा को चित्त न चले, कहूँ ठौर । रस्सी पर नृत्य करते नर्तक का ध्यान केवल रस्सी पर केन्द्रित रहता है, . चाहे लोग कितनी ही वाह-वाही करें, कितना ही शोर करें। इतनी वाह-वाही के बीच भी ध्यान तो नृत्य में, रस्सी में। ऐसे ही ध्यान जीवन्त रखना पड़ता है अन्तर में विराजमान परमात्मा के लिए। आनन्दघन फिर कहते हैं - जुआरी मन जुओ बसे रे कामी रे मन काम आनन्दघन हम विनवे रे, तमे लेलो प्रभु रो नाम । जैसे जुआरी के मन में जुआ, शराबी के मन में शराब, कामी के मन में काम ही हर समय छाया रहता है, इसी तरह जब कोई व्यक्ति स्वयं को परमात्मा के सुपुर्द कर देता है, जब स्वयं को इतना तल्लीन, लयलीन कर देता है, तो फिर परमात्मा हमसे दूर कैसे रहेगा? परमात्मा की तो सतत स्मृति रहनी चाहिये, सुरति बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ३४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003965
Book TitleBina Nayan ki Bat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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