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________________ हूं, न ही अपने दोषों को देख पा रहा हूँ तो कौन-सा रास्ता है, जो संसार-सागर के पार जा पाऊँ? कोई रास्ता नहीं है। अगर लौ लग चुकी है, तल्लीनता आ चकी है, तो फिर तो कुछ भी करते रहो। यदि एक बार नौका के लंगर खोल कर सागर में उतार दिया गया है तो नौका अपने आप बढ़ती चली जाएगी। लेकिन लंगर ही न खुले तो कोई रास्ता नहीं है। महरवा ए जज्ब-ए-खुद एतबादी महरवा । वो हिला तूफां का दिल, होने लगी कश्ती रवां। एक बार कश्ती रवाना हो गयी तो तूफान का जो दिल धड़का है, वो अपने आप नौका को इस पार से उस पार पहुँचा देगा। यह तो जुआरियों का खेल खेलना है। याने इस पार या उस पार। या तो पार लग जाओगे या बीच में उठने वाले भंवर में डूब जाओगे। डूबना तो है ही, मरना तो है ही, चाहे भंवर में डूब कर मरो, चाहे किनारे पर खड़े-खड़े मरो। मरना तो सुनिश्चित है। पर खड़े-खड़े मरने से बेहतर है, कुछ करते-करते मरो। कम से कम यह तो तसल्ली रहेगी कि मैंने पुरुषार्थ तो किया। मंजिल पर नहीं पहुँचे, कोई बात नहीं। किसी ने पूछा, शादी करने वाला भी पछताता है और न करने वाला भी पछताता है। तो दोनों में कौन-सा पछतावा सही है। मैंने कहा जब दोनों में ही पछताना है, तो कम से कम शादी करके ही पछताओ ना, कम से कम शादी की मृगतृष्णा तो नहीं रहेगी। जो डूबने से, पानी में उतरने से डर गया, वह कभी सागर पार नहीं जा सकता। उसके अन्तर के सागर में परमात्मा का मन्दिर साकार नहीं हो सकता। प्रभु की लय अगर लग जाती है, तो सोते, उठते, बैठते, खाते-पीते, बाजार में धंधा करते, हर जगह प्रभु का स्मरण चलता रहता है। सुबह एक सज्जन कह रहे थे कि जब घर से फैक्ट्री जाता और वापस आता हूँ, कार में अकेला रहता हूँ, तो उस एकाकीपन में निरन्तर परमात्मा का स्मरण करता चला जाता हूँ। सच है एक बार लय लग जाती है, तो कार में चलते हुए भी परमात्मा का स्मरण बना रहता है। लेकिन अगर लय नहीं लगी, तो परमात्मा के मन्दिर में भी चले जाओ, तो भी प्रार्थना नहीं होगी। वहां भी धन-दौलत, जमीन-जायदाद, पति-पत्नी, मकान-दुकान, घर-परिवार की ही प्रार्थना होगी। इसी भाव में आनन्दघन ने एक पद कहा है - ऐसे प्रभु चरणे चित लाऊं रे, गुण गाऊँ रे मना उदर भरण के कारणे रे गौआ वन मां जाय । एक बार प्रभु हाथ थाम लो / ३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003965
Book TitleBina Nayan ki Bat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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