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पता नहीं किस क्षण ये तार टूट जाएं, भरोसा नहीं है। इसी तरह ये सांसों का संगीत चल रहा है लेकिन भीतर और बाहर आती-जाती ये सांसें किस क्षण हमेशा के लिए शान्त हो जाएं, पता नहीं, लेकिन अभी यह वीणा झंकृत है। अभी आप लोग जी रहे हैं। जी इसलिए रहे हैं क्योंकि मरे नहीं है। और मरे नहीं हैं, इसलिए जीना है। जब तक मरे नहीं हैं, तब तक जीना है और जब तक जीते हैं, तब तक मरे नहीं हैं। जब तक जीते हैं, बड़ी सच्चाई और सरसता के साथ जीना है ताकि जीवन में जन्म-मरण का चक्र मिट जाए। अगर जन्म टल गया, तो भी ठीक और मृत्यु टल गई, तो भी ठीक। अगर जन्म टल गया तो मृत्यु के बाद जन्म न होगा और मृत्यु टल गई तो वह आपके हाथ पर अमरता की मेंहदी रचजाएगी, अमरता की मेंहदी केसरिया रंग लगा जाएगी।
तो जन्म या मृत्यु में से कोई भी एक नीचे गिर जाए। जीवन की गाड़ी हमेशा दो पहियों के सहारे चलती है। दो में से कोई भी एक पहिया गिर गया तो दूसरा पहिया अपने-आप अर्थहीन बेमतलब हो जाएगा। इसको बिल्कुल ऐसे समझिए कि जैसे आप दाएं और बाएं पैर के सहारे चलते हैं, वैसे ही जीवन भी जन्म और मृत्यु, इन दो पांवों के सहारे-सहारे चलता है। जैसे आसमान में पंछी दो डैनों के सहारे उड़ता है। कितना भी क्यों न ऊंचा उड़ता हो, दो में एक पंख भी टूट जाए, तो पंछी धड़ाम से नीचे आ गिरेगा और जो एक बार नीचे गिर पड़ा, तो फिर लोग क्या करेंगे, रोएंगे उनके पीछे? नहीं!
जब तक व्यक्ति जीवित है, कोई उसके काम नहीं आता, मरने के बाद सब काम आते हैं। कोई भूखा मरता हो और दूसरे से कहे कि मुझे थोड़ा सहयोग दे दो, तो वह कहेगा कि कमा कर नहीं खा सकता? पर अगर वह भूखा मर जाए, तो हर कोई उसकी लकड़ियों का बन्दोबस्त अवश्य कर देगा। जीवित था, तो कोई व्यवस्था नहीं की, मर गया तो व्यवस्था करने की सोचते हो। मरने के बाद अगर नदी में बहा दो या जमीन में दफना दो, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जीते जी किसी के काम आना ही इंसानियत के मन्दिर के निर्माण का तरीका है।
अगर तुम किसी व्यक्ति की मृत्यु पर रोते भी हो, तो कोई मृत व्यक्ति के लिए थोड़े ही रोते हो। सब अपने स्वार्थ के लिए रोते हैं। उसके लिए रोना होता तो पहले ही नहीं रो लेते, जब वह जीवित था। मरने के बाद तो अपने स्वार्थ के लिए रोते हो। सम्भव है, उसके कारण शायद तुम्हारी कुछ कमाई थी, तुम्हारी प्रतिष्ठा थी, समाज में तुम्हारा रुतबा था। उसके कारण तुम्हें कोई सहारा, कोई आलंबन होगा, इसलिए मरने के बाद उसे याद करते हो। स्वार्थ के कारण
मृत नहीं मृत्युंजय हों / १६
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