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है, वह पहले ही अपनी ही त्रासदियों से घिरा हुआ है और वह तो स्वयं आपसे अपनी रामकहानी कहकर हल्का हो जाना चाहता है। आप अपना दुख किसी और को सुनाते हो, कोई और अपना दुख आपको सुनाता है। दुख कम किसी का नहीं होता, बस इधर से उधर स्थानान्तरित होकर रह जाता है।
व्यक्ति स्वयं कभी अपने आपको नहीं देखता, हमेशा दूसरों को देखता है। दूसरे में गुण है या नहीं। वह व्यक्ति बुरा है या उसमें ये अवगुण है। वह दूसरों को देखेगा और निंदा शुरु कर देगा। ईर्ष्या से जलेगा। दूसरों की निंदा करने में बड़ा रस आता है लेकिन जब कोई व्यक्ति दूसरों की निंदा करने में रस पाता है, तो इस रस का नाम ही हिंसा है, इस रस का नाम ही मिथ्यात्व है। हिंसानन्दी और मिथ्यात्वी है वह। मनुष्य आइने के सामने जाता है, देखता है कि मैं कैसा हूँ लेकिन 'वास्तव में मैं कैसा हूं' यह भाव ही नहीं पनपता।
किसी बड़े शहर में एक अनोखी दुकान खुली - वधुओं की दुकान, मनपसन्द वधुओं की दुकान । आइए और मनपसन्द वधु बिना दाम ले जाइए। अब ऐसी दुकान पर भीड़ होना तो स्वाभाविक है। एक इच्छुक मैनेजर के पास पहुंचा और उसने अपने लिए वधु प्राप्त करने की इच्छा जाहिर की। मैनेजर ने उससे पूछा - आपको गोरी वधू चाहिए या काली। बिना किसी हिचक के उस व्यक्ति ने गोरी पत्नी की इच्छा जताई। स्वयं चाहे कितने भी काले हों पर जब बिना दाम मनपसन्द पत्नी मिल रही हो तो काली वधू को कौन चाहे। मैनेजर ने कहा - गोरी पत्नी चाहिए तो उस कमरे में जाओ। वह व्यक्ति जब कमरे में पहुंचा तो उसे वहां दो दरवाजे दिखे और दोनों पर तख्ती लटकी हुई थी। एक पर लिखा था - पैसे वाली गोरी लड़की, दूसरे पर - फटेहाल गोरी लड़की। स्वाभाविक रूप से उस व्यक्ति ने पैसे वाली गोरी लड़की का दरवाजा खोलकर बड़ी उमंग से कमरे में प्रवेश किया। वहां उसे फिर दो दरवाजे मिले। एक पर लिखा था - संगीत जानने वाली, दूसरे पर लिखा था - साधारण घरेलू महिला । उस गुण ग्राहक ने संगीत जानने वाली को पसन्द किया और अगले कमरे में प्रवेश किया, तो अपने को फिर दोराहे पर खड़ा पाया। एक दरवाजे पर लिखा था - खाना पकाने वाली, दूसरे पर लिखा था - खाना न पकाने वाली। उसने खाना पकाने वाली का दरवाजा खोला तो पुनः दो दरवाजे उसके सामने थे। पहले पर लिखा था - सरकारी नौकरी करने वाली, दसरे पर लिखा था - हाउस वाइफ। उस व्यक्ति ने सोचा - चलो कमाने की चिन्ता से भी मुक्ति मिल जाएगी। सो उसने नौकरी करने वाली महिला का दरवाजा खोलकर बड़ी आतुरता से प्रवेश किया। अब उसे दो
बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ५८
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