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________________ मन्दिर अगर टूट गया तो फिर ..... । राजचन्द्र का आज का पद इसी बात के लिए है ताकि आदमी अपने भीतर के बन्धनों को पहचान सके और उनसे मुक्त हो सके। दिन-रात भीतरही-भीतर, भावों-ही-भावों में जीवन को एक सार्थक दिशा प्रदान कर सकें। . ज्ञान ध्यान वैराग्यमय, उत्तम जहाँ विचार, जो भावे शुभ भावना, ते उतरे भव पार। इसे हम समझें। मनुष्य आन्तरिक चेतना का एक बाहर की ओर बहता हुआ प्रवाह है। इस प्रवाह के तीन स्वरूप हो सकते हैं। पहला तो यह कि मनुष्य के मन की ऊर्जा बाहर की ओर बहकर अपना समस्त विस्तार पा लेती है। मनुष्य की आन्तरिक चेतना के प्रवाह का दूसरा परिणाम यह हो सकता है कि मन की ऊर्जा का प्रवाह बाहर की ओर न हो, बल्कि मन की ऊर्जा मन में ही उलझ कर रह जाये। ऐसे में अन्दर एक उथल-पुथल मची रहती है। जो मन ऐसा होता है, उसी के जीवन में घुटन और तनाव होता है। जब हमारा मन, अपने ही विकारों में, अपने ही विकल्पों में जाकर उलझ जाता है, तब व्यक्ति के मस्तिष्क में एक घुटन, एक तनाव, एक त्रासदी, एक भीतर का प्रलय पैदा होता है। मन की जो तीसरी परिणति होती है, उसमें मन न बाहर बहता है और न मस्तिष्क में जाकर उलझता है। तब मन चेतना की एक यात्रा करता रहता है। जब हमारा मन भीतर की ओर मुड़ता है और हमारी ऊर्जा जब हमारी चेतना में प्रवेश करने लगती है, तो जीवन में एक पूर्णता की किरण उभरने लगती है। पहली स्थिति में मन अपनी ऊर्जा को बाहर फैलाता है। ऐसे में मनुष्य अपने सारे सुख, अपनी हर महत्वाकांक्षा की आपूर्ति, सब कुछ बाहर ढूंढने लगता है। बाहर पाने की इच्छा रखता है और सोचता है कि बाहर सब कुछ मिल जाएगा। ___मन चेतना की यात्रा तो बहुत मुश्किल से करता है। मन या तो ज्यादातर बाहर बहेगा या फिर अपनी ही उलझनों में अपने ही विचारों में घटता चला जाएगा। जब मन बाहर की ओर बहता है तब परिणाम यह निकलता है कि मनुष्य अपने दुखड़े दूसरों को दे देता है और दूसरों के दुखड़े स्वयं ले लेता है। इसलिए जब कोई व्यक्ति तनाव में होता है तो सोचता है कि कुछ देर के लिए घर से बाहर निकलूं, तो मन हल्का हो जाएगा। वह किसी और के घर जाता है और अपने मन का शिकवा/शिकायत, जो भी त्रासदी अन्दर भरी हुई है, वह कह देना चाहता है। लेकिन होता यह है कि जिसको वह अपनी व्यथा सुनाना चाहता __मन की चैतन्य-यात्रा | ५७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003965
Book TitleBina Nayan ki Bat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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