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का निर्माण होता गया और अन्दर के मन्दिर इसी तरह खंडहर होते चले गये तो जीवन में एक दुराव रहेगा। बाहर के मन्दिर क्या अर्थ रखेंगे अगर भीतर के मन्दिर खंडहर होते चले जायें। मन्दिरों की आबादी बढ़ाने की बजाय सुरक्षित लोगों के हाथों में मन्दिरों का रहना ज्यादा जरूरी है। बाह्य निर्माण से पहले जरूरी है अन्तर निर्माण की। इन मन्दिरों के निर्माण के लिए तो तुम चन्दा मांगोगे। गांव-गांव जाकर चिट्ठा-टीप करोगे, तब अपने गांव का मन्दिर बनाओगे लेकिन अपने जीवन के मन्दिर का क्या होगा। मन्दिर तो होना ही चाहिए। हर घर में एक छोटा-सा मन्दिर होना चाहिए पर वह अपनी कमाई का होना चाहिए। अपने मन का मन्दिर होना चाहिए। मैं चाहता हूँ जैसे घर-घर में दीप जलते हैं वैसे ही जीवन-जीवन में मन्दिर का निर्माण होता चला जाए। घर-घर दीप जलें, जीवन-जीवन मन्दिर बनें। कोई भी मकान यदि सौ साल से ज्यादा रहा हो तो वह पुराना कहलाता है। उसे गिर जाना चाहिए। धर्म भी हजार साल में पुराना हो जाता है। हजार साल में धर्म, धर्म नहीं रहता, सम्प्रदाय का रूप धारण कर लेता है। मनुष्य का कल्याण धर्म से सम्भावित है, सम्प्रदाय और साम्प्रदायिक कट्टरता से नहीं। साम्प्रदायिक धर्म को समाप्त हो जाना चाहिये, ताकि हर इन्सान अपने नये धर्म को जन्म दे सके, स्वभावमूलक धर्म पनप सके, जमाने के हिसाब से धर्म का रूपान्तरण हो सके। वह धर्म मूल्यवान नहीं है, जो अरबों-खरबों वर्षों से चला आ रहा है बल्कि वह धर्म मूल्यवान है, जो मनुष्य को सही अर्थों में मनुष्य बनाए।
ज्यों-ज्यों धर्म पुराने होते जाएंगे, वे गच्छ, सम्प्रदाय, गण और समुदायों में बंटते चले जाएंगे। जरा सोचिए कि एक शरीर से कोई व्यक्ति हाथ काट ले, . कोई पैर और कोई गला काट ले तो एक-एक अंग भी मुर्दा होंगे और मूल शरीर भी बेजान होगा। क्योंकि उनमें से आत्मा किसी के भी पास नहीं होगी। सब के पास मरे हुए अंग रह जाएंगे, मुर्दो के टुकड़े रह जाएंगे। तो आप को मुर्दे चाहिए या जीवन्त साधना, मनुष्य की आत्मा चाहिए। अगर आत्मा चाहिए तो जरा अपने भीतर तलाशो कि भीतर मकान बना हुआ है, या मन्दिर बना हुआ है। भीतर कोई शहर आबाद है या श्मशान की वीरानी बसी है। भीतर में कौन क्या है? इसकी तलाश करनी है। स्वयं की ज्योतिर्मयता प्रगट करनी है।
___औरंगजेब ने हिन्दुस्तान में भले ही कितने ही मंदिरों को तहस नहस कर दिया हो लेकिन जब तक मनुष्य के भीतर का मन्दिर सलामत है, तब तक बाहर के हजार-हजार मंदिर बन जाएंगे, टूट-टूट कर बनते जाएंगे लेकिन भीतर का
बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ५६
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