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हम भीतर-बाहर के बन्धन । श्रीमद राजचन्द्र द्वारा बताए गये किसी भी मार्ग को समझने से पूर्व, आप लोगों को यह बोध होना जरूरी है कि आपको उपाय की आवश्यकता है, मार्ग की जरूरत है। आप बन्धन में हैं, आप पिंजरे में हैं, आप जकड़े हुए हैं, आप कैदी हैं। यदि आपको अपने बन्धनों का बोध हो गया हो, तो मैं आप लोगों को वह सन्देश देना चाहता हूं, जिससे आप अपने बन्धनों को नीचे गिरा सकें। मैं आपको उस मार्ग का स्वामी और सम्राट बनाना चाहता हूँ, जिसका अनुसरण कर आप अपनी जंजीरों को तोड़ सकें।
ये कौन से बन्धन हैं, इन्हें समझना जरूरी है। ये बन्धन अगर बाहर के बन्धन होते तो हर व्यक्ति इन्हें समझ लेता, लेकिन ये तो भीतर के बन्धन हैं, जिन्हें जानने के लिए आपको किसी चैतन्य-मित्र की जरूरत है। मेरी अन्तर्दृष्टि एक-एक व्यक्ति पर केन्द्रित है, जो देख रही है कि मनुष्य किस कदर भीतर से जकड़ा हुआ है। वह बाहर से तो मुक्ति के शास्त्र पढ़ रहा है, मोक्ष का स्वाध्याय कर रहा है लेकिन भीतर बन्धनों की जड़ इतनी गहरी है, बेड़ियां इतनी मजबूत हैं कि मुक्ति-मार्ग के कोई शास्त्र कारगर और कामयाब नहीं हो पा रहे हैं।
___कायाकल्प बाहर का नहीं, कायाकल्प भीतर का करने की जरूरत है। बाहर में कितना भी पढ़ रहे हो, लेकिन भीतर में मुक्ति की महत्वाकांक्षा नहीं है। बाहर में तो मोक्ष के भाषण हैं, लेकिन भीतर में वासना की गहरी तरंग है। मनुष्य के भीतर जितनी गहरी वासना है, जब उतनी ही गहरी मोक्ष की महत्वाकांक्षा होगी, तभी व्यक्ति के जीवन में मुक्ति का कोई बोध, मुक्ति का कोई विचार, मुक्ति की क्रांति सम्भावित हो सकेगी। स्वाध्याय करते हुए भी मनुष्य के अन्तरंग में जाने कब वासना की तरंग खड़ी हो जाती है। इसी तरह क्रोध और भोग करते हुए कभी क्षणभर के लिए भी मोक्ष की भावना पनपे तो समझिए कि आपके मन में मुक्ति की कोई अभीप्सा, मुक्ति की कहीं कोई कामना है, नहीं तो सब ऊपर की लीपापोती है।
बाहर में निर्माण होते चले जा रहे हैं, बाहर में मन्दिर बनते चले जा रहे हैं लेकिन अन्दर के मन्दिर का क्या हो रहा है? बाहर के भवन को सजा रहे हो, लेकिन हृदय की सजावट का, अन्दर के शृंगार का कहीं कोई ध्यान नहीं है। बाहर का मकान तो बन रहा है, मगर भीतर का मकान खंडहर हो रहा है। अगर बाहर कोई मकान बने या न बने लेकिन भीतर का मन्दिर तो नहीं ही गिरना चाहिए। तरस तो इसी बात पर आती है कि भीतर के मन्दिर ध्वस्त हो रहे हैं, मगर उसकी किसी को खबर ही नहीं है। बाहर यदि इसी तरह आलीशान भवनों
मन की चैतन्य-यात्रा / ५५
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