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दरवाजों का सामना नहीं करना पड़ा। बल्कि अब कमरे की एक दीवार पर परदा पड़ा था और तख्ती पर लिखा था - परदा हटाइए। सर्वगुण सम्पन्न पत्नी के दीदार की आकांक्षा से पुलकित होकर उसने धड़कते हृदय से परदा हटाया, तो सामने एक आदमकद आइना लगा था, जिस पर लिखा था - कृपया! अपना चेहरा इस आइने में देखो ताकि आपको पता चल जाए कि आप किस योग्य हैं।
____ हम सबकी दशा ऐसी ही है। हम स्वयं कैसे हैं, क्या हैं इसे जांचे बिना सदा दूसरों के गुण-दोष देखा करते हैं। अपने अवगुण तो हम कभी देखते नहीं, दूसरों से सर्वगुण सम्पन्नता की अपेक्षा रखते हैं, पर कभी तो अपने आपको पड़तालने का प्रयास करो, कभी तो स्वयं को जांचने की, परखने की कोशिश करो। मन जो निरन्तर बाहर बहता जा रहा है, बाहर विस्तार पा रहा है, कभी तो उसे समेटने का प्रयत्न करो, अन्यथा मन की दूसरी परिणति घुटन ही होगी। तब मन में एक चिन्ता जन्म लेगी। मनुष्य की चिंता अगर संस्कारित हो जाए तो चिन्तन बन जाती है और विकृत हो जाए तो चिंता हमारा चिन्तन जो चेतना की यात्रा के लिए होना चाहिए, नहीं हुआ। नतीजतन वह चिंता में बदल गया और हम दिन-रात घुटते चले जा रहे हैं। उस तनाव से, चिंता से, त्रासदी से मुक्त होने के लिए ही आज का पद है --
ज्ञान ध्यान वैराग्यमय, उत्तम जहां विचार ।
जो भावे शुभ भावना, ते उतरे भव पार।. जहाँ मनुष्य के भीतर सदविचार हैं, जहां ज्ञान की संभावना है, ध्यान की मौलिकता है, वैराग्य की परिणति है, वहां कोई बंधन, बंधन नहीं रहता। वहां वैचारिकता में एक चैतन्यता होती है। कर्तृत्व में सहजता होती है। जो व्यक्ति शुभ भावों से पूर्ण होता है, वहीं तो पार उतरता है। ‘आतम भावना भावतां, जीव लहे केवल ज्ञान रे।' स्वयं की आत्म-दशा में रमण करते हुए व्यक्ति भव-सागर पार कर जाता है। आत्मज्ञान और कैवल्य-ज्ञान उपलब्ध कर लेता है।
दो पहलू हैं - एक तो है विचार दूसरा है भाव। ये दोनों एक नहीं हैं। इनमें कुछ फर्क है। विचार हमेशा मन में उठते हैं और भाव हमेशा हृदय में पनपते हैं। भाव का सम्बन्ध मन से नहीं होता, विचार का संबंध हृदय से नहीं होता। इसलिए जो व्यक्ति भावों में जीता है, सद्भावों से पूर्ण रहता है, वह हृदय में जीता है वह हार्दिक है और जो विचारों में जीता है, वह अपने मन में जीता है। मुक्ति का मार्ग कभी मन से नहीं मिलता, वह हमेशा हृदय से मिलता है। मनुष्य की आत्मा कभी भी मन में नहीं रहती, उसका सारा संबंध हृदय से होता है।
मन की चैतन्य-यात्रा / ५६
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