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________________ परमात्मा हमारे मन में नहीं रहता, वह हमारे हृदय में विराजमान है। ___ इसलिए मैं थोड़ी उल्टी यात्रा शुरू करूंगा। मैं चाहूँगा कि आपका मन हृदय में परिणत हो जाए, हृदय में विसर्जित हो जाए। आपके विचार, विचार न रहें बल्कि भाव बन जाएं। क्योंकि जब तक विचार रहेंगे, मनुष्य तर्कों से, विकल्पों से, लेश्याओं से घिरा रहेगा, मिथ्यात्व और संशय की स्थिति से घिरा रहेगा। इसलिए मन का विसर्जन आवश्यक है। तब मन, मन नहीं रहेगा, वरन् वह भी अन्तरात्मा का एक स्पन्दन, एक धड़कन हो जाएगा। यह जीवन का एक धन्य भाग होगा। कृत पुण्य होगा। वह दिन सौभाग्य का दिन होगा जिस दिन हमारा मन शान्त होकर हमारा हृदय जग जाएगा। इस हृदय में ही हमारा मोक्ष है। ___ स्वर्ग-नरक मन में रहते हैं, मोक्ष हृदय में रहता है। जब तक मन में जिओगे, निरन्तर स्वर्ग-नरक का भव-भ्रमण करते रहोगे। मरने के बाद जो भवभ्रमण होगा वह तो अलग बात है पर इस समय भी भव-भ्रमण चालू है। हमारा मन जो रात-दिन उमड़ता-घुमड़ता रहता है, इधर-उधर झख मारता रहता है यही तो भव भ्रमण है। कभी मन यहां, तो कभी मन वहां। कभी मन प्रेम में जाता है, तो कभी क्रोध में। कभी हमें वह स्वर्ग में ले जाता है तो कभी नरक में। मन बड़ी तरकीबें निकालता है। स्वर्ग की, नरक की, मोक्ष की - हजारों तरकीबें। जगह-जगह मन्दिर-मस्जिदों में उपाश्रय, गुरुद्वारों में नक्शे टांग रखे हैं। वे नक्शे, जो हजारों साल पहले खोज लिए गए थे। जब धरती का नक्शा भी नहीं बना था, तभी हमने स्वर्ग और नरक के नक्शे बना लिए थे। यहां तक कि मोक्ष का नक्शा भी बना लिया था, जहां कि बिना निर्वाण जाया ही नहीं जा सकता। इन तक पहुंचने के रास्ते खोज लिए गये, सीढ़ियां बना दी गई, प्रवेश-द्वार बना दिये गये। धरती के इन्सान बना नहीं पाये और स्वर्ग-नरक का चित्रांकन कर लिया। स्वर्ग और नरक कहीं बाहर नहीं है। स्वर्ग-नरक, जन्नत-जहन्नुम, और बाहर दिखाई देने वाले ये सब चित्र मन की तरकीबें हैं। ये मन के द्वारा खोजे गये बहाने हैं, बचाव के रास्ते हैं। निजात की सम्भावना तुम्हारे भीतर है। तुम्हारे अन्दर इस समय भी स्वर्ग हो सकता है या नरक हो सकता है। जो व्यक्ति क्रोध करता है, व्यसनों में लिप्त है, अहंकार से ग्रस्त है, छल, प्रपंच और ईर्ष्या से घिरा हुआ है, वह इस समय भी नरक में है, भीतर के नरक में। अगर सुधार लो, अगर बदल डालो अपने आपको, तो यही नरक स्वर्ग हो सकता है। जिन-जिन पर क्रोध करते हो, उन-उन से प्रेम करो, जिन्हें धोखा देते हो, उन्हें गले गलाओ, जिनसे वैमनस्य है, उनसे क्षमायाचना करो तो यह भीतर का नरक अपने आप ही बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003965
Book TitleBina Nayan ki Bat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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