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________________ अगर अपनी अंतरात्मा का निरीक्षण करो, अगर अपने चित्त की वृत्तियों की विपश्यना करो, तो जानोगे कि तुम्हारे भीतर सोया हुआ इंसान जग गया है या अभी भी भीतर कोई जानवर या शैतान बैठा हुआ है। आज भी हमारे भीतर क्रोध है, वासना है, अहंकार है। लोभ और प्रपंच, छल और ईर्ष्या की भावना है। क्या करोगे ज्यादा शास्त्रों की तोता-रटन से यदि भीतर का इंसान नहीं जगा पाते हो। जैसे तुम कल थे, वैसे ही यदि आज भी करते चले जाओगे, तो ये शास्त्र कैसे कल्याण करेंगे। शास्त्रों में जो सच है, वह शाब्दिक है। अगर जीवन में शास्त्र उतर जावे तो शास्त्र सार्थक है, अन्यथा पंडितों के वाद-विवाद का साधन, तर्कजाल की व्यवस्था। ये शास्त्र कहीं हमारे लिए शस्त्र न बन जाएं, लड़ाई के माध्यम न बन जाएं। इस दुनिया में जितने अहित हुए हैं, धार्मिक और शास्त्रीय कट्टरता के कारण । संसार में अब तक करीब साढ़े पांच हजार युद्ध हुए हैं, उनमें से चार हजार युद्ध तो केवल धर्म और शास्त्रों के नाम पर हुए हैं। ये शास्त्र कहीं हमारे लिए संघर्ष के, युद्ध के एक-दूसरे को काटने, पछाड़ने और कट्टरता के माध्यम तो नहीं बन रहे हैं? जीवन का पहला मूल्य, जीवन की पहली साधना यही है कि अपने भीतर के इंसान को जगा लो। अन्यथा कभी तो हमारा मन बंदर की तरह डोलेगा, तो कभी कीड़े की तरह कीचड़ में धंसता चला जाएगा। माया, लोभ और परिग्रह के कारण हमारा मन क्रोध के साथ बहता हुआ 'चंडकौशिक' बन जाएगा, सर्पराज । ___ मैंने सुना है एक व्यक्ति बड़ा उदास था, रोने लगा। उसके मित्र ने पूछा, भाई! क्या बात है? रोते क्यों हो तो वह बोला , क्या बताऊं पिछले महीने मेरा चाचा मर गया। दोस्त ने कहा, चाचा मर गया तो क्या हुआ? जाते-जाते तुम्हारे लिये बहुत सारी जायदाद भी तो छोड़कर गया है । उसने कहा, दो महीने पहले मेरे दादा भी मर गये। दोस्त बोला, यह भी अच्छा हुआ। दादाजी के बहुत सारे खेत-खलिहान थे। सब तुम्हें मिल गये। इतना माल मिल गया फिर भी तुम रोते हो। बोला, रोता इसलिए हूं क्योंकि इस महीने अभी तक कोई नहीं मरा । (ठहाका) कहीं यही दुर्दशा तो हमारी नहीं है। सामान इकट्ठा हो रहा है, धन-दौलत बटोरते चले जा रहे हैं और बटोरने वाला निरन्तर खंडहर हो रहा है। जीवन के गलाघोंट संघर्ष में जीवन के मूल्य चुकते चले जा रहे हैं। मुखौटा कैसा है? गोरा है या काला है? बंदर जैसा है, कीड़े-मकोड़े जैसा है, हाथी, गधे जैसा है, या खच्चर, घोड़े जैसा है? कैसा है हमारे भीतर का चेहरा बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / १२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003965
Book TitleBina Nayan ki Bat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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