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कन्हैया हो। सूरदास ने हाथ छुड़ाना न चाहा, हाथ छोड़ना न चाहा, पर चरवाहे ने एक झटका दिया और दौड़ पड़ा। सूरदास ने कहा।
हाथ छुड़ाकर जात हो, निबल जानके मोहे ।
हृदय से जब जाओगे, सबल मैं जानू तोहे । ऐ कन्हैया! तुम मेरा हाथ छुड़ाकर जाते हो तो जाओ, लेकिन बलराम तो मैं तुम्हें तब समझूगा, जब तुम मेरे हृदय से निकल जाओगे।
यह तय है कि हाथ छुड़ाकर जाया जा सकता है लेकिन जिस व्यक्ति ने अपने हृदय में किसी को बसा लिया है, उसको हृदय से नहीं निकाला जा सकता। यह तो बाहर की आंख मिचौली है। यह तो भगवान की रासलीला है । वस्तुतः किसी के हृदय से नहीं जाया जा सकता। प्रेम की इससे बेहतरीन अभिव्यंजना और कोई नहीं हो सकती। वह प्रेम धन्य है, जो स्वयं परमात्मा बन जाता है, एक प्रार्थना बन जाता है। प्रेम स्वयं परमात्मा का प्रसाद हो जाता है। प्रेम में जहां माँ बेटे का वात्सल्य है, पति-पत्नी का राग है, भाई-बहन का प्यार है, वहीं हृदय में रहने वाले हृदयेश्वर की पुकार भी है। प्रेम में राधा की पीड़ा है तो राजुल की विरह व्यथा और मीरा की थिरकन भी है और वहीं हीर-रांझा, लैला-मजनूं और शीरी-फरहाद की विरह-वेदना भी है।
लेकिन प्रेम अलंघनीय है। उसे कभी भी लांघा नहीं जा सकता। फिर चाहे वह केवट की अरदास हो या सूर का हृदय हो, चाहे मीरा की करताल हो पर प्रेम को लांघा नहीं जा सकता। किसी का किसी से सम्बन्ध विच्छेद हो सकता है, व्यक्ति एक देश से दूसरे देश में जाकर बस सकता है, लेकिन प्रेम से अपने आप को अलग नहीं कर सकता। जिस दिन किसी इन्सान ने स्वयं को प्रेम से अलग रखने का प्रयास किया, उस दिन वह इन्सान नहीं, पत्थरों और चट्टानों से सजा पहाड़ हो जाएगा।
संत हृदय नवनीत समाना, कहा कवित्त पे कहा न आना ।
निज परिताप द्रवे नवनीता पर दुख द्रवे सो संत पुनीता। तुलसी कहते हैं यदि कोई कवि सन्त के हृदय की कोमलता की तुलना मक्खन से करता है, तो इसका मतलब है कि उसे कविता करना ही नहीं आया। क्योंकि मक्खन तो अपने नीचे की आग से ही पिघलता है लेकिन सन्त का हृदय तो पराई पीड़ा से ही द्रवित हो उठता है। जब जब भी इस धरती पर किसी प्रेमी के मन में कोई पीड़ा जागी, कोई क्रीड़ा इठलायी, विरह की वेदना निष्पन्न हुई, तब-तब परमात्मा चाहे जितनी दूर रहता हो, उसे आना पड़ता है। कभी वो
एक बार प्रभु हाथ थाम लो | २७
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