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चाहिए। हम इसकी देखभाल करें। इसकी रखवाली करें। इसमें हमारा परमपिता परमात्मा विराजमान है। मेरे द्वारा किया गया भोजन उस परमपिता परमात्मा को चढ़ाया गया अर्घ्य है। इसलिए यह संकल्प रखो कि मैं कोई गलत चीज नहीं खाऊंगा। क्योंकि मैं अपने भगवान को गलत चीज का अर्घ्य नहीं चढ़ा सकता। जब मैं मन्दिर जाता हूँ तो परमात्मा के नाम पर पेड़े, नारियल चढ़ाता हूँ, फिर उस भीतर के परमात्मा को तम्बाकू कैसे खिला दूँ? उसे बाजारू भोजन कैसे करा दूं? ऐसा नहीं है कि मुनि की मर्यादा का पालन करने के लिए हम सिगरेट नहीं पीते। अगर यह मुनि की मर्यादा है, तो क्या जैनियों की मर्यादा नहीं है? लेकिन मैं सिगरेट इसलिए नहीं पीता रे क्योंकि सिगरेट पीने से भीतर के भगवान का गला जलेगा, धुएं से उसका दम घुटेगा। जब हम मन्दिर में जाकर किसी ऐसी वैसी चीज का अर्घ्य चढ़ाना नहीं चाहते, तो फिर अपने इस भीतर के भगवान को गलत चीज क्यों चढ़ा रहे हो । यदि इसे गलत चीज चढ़ाओगे तो फिर अच्छी चीज कहां भेंट करोंगे? मंदिर में तो पुजारी है। कम से कम अपने पुजारी तो तुम खुद बन जाओ।
कबीर जाति के जुलाहा थे। न तो उन्होंने कभी अशोक वृक्ष के नीचे बैठकर साधना की, न महावीर की तरह नग्न रहे, न बुद्ध की तरह चीर धारण किया और न मुनियों की तरह सफेद बाना पहना। जुलाहा थे, कपड़े बुनते-बुनते अपने आपको बुन गये। यही तो जीवन की बलिहारी है। व्यवसाय भी जिसके लिए परमात्मा की सेवा बन चुका है, वह परमात्मा के सदा करीब है। मुझे डर है कि कपड़े का धंधा करते-करते कहीं आप अपने आपको ही न बेच डालें। इसमें बड़ा खतरा है। . .
एक व्यक्ति जानवरों की भाषा जानता था। एक पशुपालक उसके पास जानवरों की भाषा सीखने गया। शिक्षक ने कहा, तू जानवरों की भाषा मत सीख । हजम नहीं कर पाएगा। लेकिन वह व्यक्ति न माना और हठ करने लगा, तो उस व्यक्ति ने उसे जानवरों की भाषा सिखा दी। पशुपालक बहुत खुश हुआ क्योंकि अब वह जानवरों की आपस की बातचीत सुन-समझ सकता था। एक दिन उसने सुना, उसका एक मुर्गा, दूसरे से कह रहा था कि अपने मालिक का घोड़ा कल मरने वाला है। मालिक यह सुनकर बहुत खुश हुआ। उसने शाम को वह घोड़ा बेच दिया। दूसरे दिन जब पता लगा कि वह घोड़ा मर गया है, तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा । आखिर वह नुकसान से जो बच गया था।
पुनः एक दिन उसने उन्हीं मुर्गों की बातचीत में सुना कि उसका तीसरे
बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ३६
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