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प्रवेश से पूर्व
युगान्तर परिवर्तन के बावजूद शास्त्र और शास्त्रकार हमेशा से रहे हैं। शास्त्रों और शास्त्रकारों की व्याख्या भी विविध प्रकार से की जा रही है। उनमें से ज्यादातर व्याख्याएँ तो स्वाध्याय की परम्परा के निर्वाह मात्र से अधिक उपयोगी सिद्ध नहीं हो पातीं। आज का मनुष्य वैज्ञानिक मनीषा से संपन्न है। वह न तो कोरे सिद्धान्तों से संतुष्ट होता है, न ही परम्परा से बंध जाने मात्र से अपनी स्वस्ति-मुक्ति मान लेता है। वह हर सिद्धान्त और परम्परा को बौद्धिक, व्यावहारिक
और वैज्ञानिक कसौटी पर कस-परख लेना चाहता है। सौ टंच सिद्ध । प्रमाणित होने पर ही उसे हृदयंगम कर पाता है। धर्म का वही स्वरूप उसे प्रभावित करता है जो सहज हो, व्यावहारिक हो और मनुष्य को भीतर-बाहर दोनों दृष्टि से सुखद, उन्नत और ज्योतिर्मय बनाए।
धार्मिक सिद्धान्त अपनी जगह सत्य है। हमारे शास्त्र ज्ञान के अखूट खजाने हैं, लेकिन उनकी उपादेयता तभी है जब उनका युगानुरूप और सर्वानुकूल प्रस्तुतीकरण हो। महोपाध्याय श्री चन्द्रप्रभ सागर जी युग की वह महामनीषा हैं, जो धर्म, सिद्धान्त और दर्शन को जीवन-मूल्यों की दृष्टि से देखते हैं। प्रयोगधर्मी, प्रत्यक्ष परिणाम उपलब्ध करने में विश्वास रखते हैं। उनकी व्याख्याओं से संभव है, पारम्परिक पंडितों के अहं को आघात पहुँचे, पर गुणधर्मी लोगों के लिए शीघ्र बोधगम्य और चैतन्यमय हैं।
प्रज्ञामूर्ति श्री चन्द्रप्रभ की दृष्टि में श्रीमद् राजचन्द्र बीसवीं सदी की महान अध्यात्म-विभूति हैं। उनके पद अतीत के अध्यात्म को वर्तमान के धरातल पर पुनरुज्जीवित करते हैं। उनकी बात में काफी दम है, सच्चाई है। श्री चन्द्रप्रभ जैसी मनीषा द्वारा राजचन्द्र के पदों पर इतना विस्तृत प्रकाश डालना, सचमुच इससे राजचन्द्र की महत्ता बढ़ी है, लोगों की उनके प्रति दृष्टि विराट् हुई है।
___ चैतन्य-प्रभु श्री चन्द्रप्रभ में भगवत्ता और वैज्ञानिक बुद्धि का ऐसा अनूठा समावेश है कि आगम, योगसूत्र या अन्य किसी आदर्श सूत्र-ग्रन्थ की व्याख्या
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