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अगर तुम्हारे हृदय में परमात्मा के प्रति इतनी गहरी प्रीति है तो परमात्मा तुम्हारा हाथ पकड़ने के लिए तैयार है बशर्ते तुम भी अपना हाथ परमात्मा की
ओर बढ़ाओ। परमात्मा की ओर हाथ बढ़ाओ, तो पूरी तैयार के साथ। हाथ भी बढ़ा दो, और फिर पछताओ, तो कोई मतलब नहीं है। क्योंकि परमात्मा का हाथ कोई हाथ नहीं है वह तो पारस है। पारस के पास जाने के लिए लोहे को मिटने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। लोहा पारस के पास जाए और लोहा ही रह जाए, तो फिर क्या गये पारस के पास । आज राजचन्द्र का जो पद मैंने लिया है, वह भी इसी हाथ पकड़ने की ओर संकेत करता है। राजचन्द्र हम लोगों के हृदय के तारों को छेड़ना चाहते हैं। उस इकतारे को छेड़ना चाहते हैं ताकि भीतर सोया हुआ कान्ह-कन्हैया एक चरवाहा बनकर, हम नीचे गिरे हुए लोगों को गड्ढे में से निकाल ले। तुम गड्ढे में गिरे हुए हो। भगवान चरवाहा बनकर खड़ा है, मदद को। अब तो जरूरत सिर्फ उसे पुकारने की है। अपने हृदय की वीणा के तारों को झंकृत करने की जरूरत है। उसी झंकार को पैदा करने के लिए दो तीन प्रेरणा-सूत्र हैं -
हे प्रभु, हे प्रभु शृं कहूँ, दीनानाथ दयाल । हूँ तो दोष अनन्तनो, भाजन छू करुणाल । केवल करुणा-मूर्ति छो, दीन बन्धु दीनानाथ । पापी परम अनाथ , ग्रहो प्रभु जी हाथ। प्रभु-प्रभु लय लागी नहीं पड्यो न सद्गुरु पाय ।
दीठा नहीं निज दोष तो, तरिए कौण उपाय । राजचन्द्र कहते हैं कि मैं तो अनन्त दोषों का स्वामी हूँ। मेरे भीतर अवगुण भरे पड़े हैं। मैं तो पापी हूं, अनाथ हूँ, पर आप तो नाथ हो । प्रभु एक बार बस मेरा हाथ पकड़लो। एक बार प्रभु हाथ थाम लो, एक बार प्रभु हाथ ।
चहुँ ओर मेरे घोर अंधेरा, भूल न जाऊं द्वार तेरा एक बार प्रभु हाथ पकड़ लो
मन का दीप जलाऊँ मैं।
क्या तुम भी राजचन्द्र की तरह हाथ थमाने के लिए तैयार हो? यदि एक बार भी तुमने अपना हाथ परमात्मा की ओर बढ़ा दिया और परमात्मा ने एक बार भी तुम्हारा हाथ थाम लिया, तो तुम वह न रहोगे जो तुम आज हो। तुम्हारे जीवन में एक क्रान्ति घटित हो जाएगी, तुम्हारा कायाकल्प हो जाएगा। लोहे की बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ३०
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