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उतरा। उसने घोड़े की पीठ थपथपाई और कहा, उस्ताद! आज तूने मुझे मौत से बचाया है। मैं तेरा शुक्रगुजार हूँ। उसने घोड़े को थपथपाया ही था कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। वह चौंका, क्योंकि वो हाथ कल जैसा ही था। उसने पूछा, कौन? जवाब मिला - 'मैं ..... तुम्हारी मौत ।' लेकिन तुम यहाँ कैसे आ गई? मैं तो तुम्हें पचासों मील दूर छोड़कर आया था। मौत ने कहा, जिस घोड़े पर तुम सवार होकर आए हो, उसी घोड़े पर मैं भी आई हूँ। धन्यवाद है सम्राट को, जिसने तुम्हें दमिश्क का सबसे महान घोड़ा दिया। धन्यवाद है इस घोड़े को जिसने तुम्हें ठेठ वहां पहुंचा दिया जहां तुम्हारी मृत्यु होनी थी। मैं कल से इस चिन्ता में थी कि तुम्हारी मौत तो इस जगह तालाब के किनारे पेड़ के नीचे लिखी हुई है, पर मैं तुम्हें यहां तक कैसे लेकर आ पाऊंगी। लेकिन कृतज्ञ हूँ, दमिश्क के इस द्रुतगामी घोड़े की, जिसने तुम्हें यहां तक पहुँचा दिया।
मृत्यु जीवन का आखिरी पड़ाव है और मृत्यु से बचा भी नहीं जा सकता। जीवन के द्वार पर मृत्यु की दस्तक तो अनिवार्यतः होती है। कोई कितना भी प्रयास करे, लेकिन मृत्यु से बचा नहीं जा सकता। मृत्यु तो जीवन का समापन है। जीवन के उपन्यास का उपसंहार है। आदमी चाहे कितना भी मृत्यु से बच-बचकर भागता हो, पर मौत से आज तक कोई बच पाया है? न राम रहे, न भीम रहे, न अर्जुन महाबली, एक वह बचे जो कर्म को मारे चले गये। यदि कोई तीर्थंकर हुए तब भी गए, कोई बुद्ध पुरुष हुए तब भी गए, मर्यादा पुरुषोत्तम हुए, तब भी गये। इस धरती पर जो भी आता है, उसे जाना ही पड़ता है। मनुष्य की मूढ़ता यही है कि वह सोचता है कि कोई और जाता होगा, कोई और मरता होगा, मैं थोड़े ही मरूंगा। मैं तो ऐसा ही रहूँगा, कल जैसा ही। जिस दिन जीवन में पहली बार इस बात का अहसास होता है कि मुझे भी उसी तरीके से जाना है, जिस तरीके से हिटलर या गांधी को जाना पड़ा, गोशालक और गौतम को जाना पड़ा, राम और रावण को जाना पड़ा, कंस और कृष्ण को जाना पड़ा। यह बात अलग है कि कंस की तरह मरोगे या कृष्ण की तरह, राम की तरह मरोगे या रावण की तरह, हिटलर की तरह मरोगे या गांधी की तरह, लेकिन मौत से बचा नहीं जा सकेगा। मरना तो निश्चित तौर पर है।
व्यक्ति अपने जीवन में आत्मा या परमात्मा को देख पाता है या नहीं, लेकिन अपनी जिंदगी में कई लोगों को मरते हुए जरूर देखता है। इसलिए मृत्यु जीवन का परम सत्य है। जन्म पहला सत्य है, तो मृत्यु आखिरी । जो आदमी किसी और की मृत्यु देखकर भी नहीं जागता, उसका तो भगवान ही मालिक है।
मृत नहीं मृत्युंजय हों | १५
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