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एकदम लुढ़क कर गिर गया। सौदागर को बड़ा धक्का लगा। उसने सोचा कि यह अपने बन्धु की मृत्यु का सदमा बरदाश्त नहीं कर पाया, सो यह भी मर गया है। उसे उस परिंदे की मृत्यु से बहुत दुख हुआ। दुखी मन से उसने पिंजरे का दरवाजा खोलकर उस परिदे को बाहर निकाला और एक स्थान पर उसकी देह को रखा। लेकिन जैसे ही सौदागर मुड़ा, वह परिंदा एकदम आकाश में उड़ गया। हिन्दुस्तान में उसके सजातीय बन्धु के मृत्यु के अभिनय ने उसे उसकी मुक्ति का उपाय बता दिया था।
मैं भी आप लोगों को मुक्ति का ऐसा ही सन्देश देना चाहता हूँ। संसार की दृष्टि से हुई मृत्यु ही जीवन के लिए मुक्ति का महासन्देश साबित होता है। जिस व्यक्ति ने यह जान लिया, यह अहसास कर लिया कि मैं पिंजरे में बंद हूँ,
और इस पिंजरे से मुक्त होना चाहता हूं, वह मुक्ति का सन्देश पाने के लिए सद्गुरु की तलाश करेगा ही और सद्गुरु इशारे-ही-इशारे में उसे उसकी मुक्ति का मार्ग समझा देता है।
ये परिजन, मालिक, गुलाम, रिश्तेदार, ये सब पिंजरे की सलाखें है। ये तुम्हें तब-तक अपनाये रखेंगे, जकड़ रखेंगे, जब तक कि तुम जीवित हो। लेकिन यदि तुम एक बार मृत्यु का अभिनय भी कर जाओ तो ये ही रिश्तेदार, ये ही परिजन अपने ही हाथों से तुम्हें घर के पिंजरे से बाहर कर देंगे। तुम्हें सुपुर्दे खाक कर देंगे। तुम वास्तव में तो जब मरोगे, तब मरोगे लेकिन यदि हो सके तो उससे पहले एक बार मृत्यु से गुजर जाओ। एक बार यह देख लो और दिखा दो कि मृत्यु से गुजरने के बाद कौन कितना तुम्हारा होता है। कौन अपना और कौन पराया होता है। जान लो कि मृत्यु के बाद लोगों का तुम्हारे साथ क्या रवैया होने वाला है।
___ मैं चाहता हूं कि उस पिंजरे के परिदे की तरह आप लोग भी अपनी मुक्ति के बारे में कुछ सोचें, विचारें, मुक्ति की क्रान्ति घटित होनी चाहिये। संसार में कैवल्य की अनुभूति साकार होनी चाहिये। यहां से मुक्ति का सन्देश लेते जाएं। लेकिन इससे पहले यह अहसास होना जरूरी है। हम पिंजरे में कैद हैं। यह पिंजरा अपना ही बनाया हुआ है। यह सुनहरा पिंजरा, हो सकता है करोड़ों का हो। यह पिंजरा पांच सात मंजिला मकान का हो सकता है, समाज की संकीर्णताओं का हो सकता है। घर की माया का हो सकता है। इसका स्वरूप कुछ भी हो सकता है।
पिंजरा तो आखिर पिंजरा ही है। चाहे वह सोने का हो, या लोहे का
मन की चैतन्य-यात्रा / ५३
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