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जिस संगीत की तलाश में, जिस आवाज के आकर्षण में, मैं इतनी दूर चला आया था, वहां तो बिल्कुल घुप्प अंधकार छा गया है। न कोई आवाज है, न कोई टापू है, न अब कोई संगीत है, लेकिन इतना दूर चला गया था कि वापस आने का कोई रास्ता न बचा। सात समुन्दर के बीच आदमी चला जाये, फिर कैसे पता चल पाए कि वह कहां से आया था और उसे कहां जाना है।
जीवन के द्वार पर भटकाव शुरु हुआ । भटकता चला गया किन्तु वापस लौटने का नाम न लिया। निश्चय किया कि वापस जाएंगे तो उस संगीत को आत्मसात करके ही जाएंगे। खाली हाथ नहीं लौटेंगे।
___ अचानक एक दिन एक टापू मिल गया। उस टापू पर अपने कदम रखे। उस टापू पर रहना ही जीवन में शान्ति और समाधि का कारण बन गया। उस टापू पर रहते-रहते अचानक एक दिन देखा कि घंटियों की आवाज धीरे-धीरे, धीरे-धीरे फिर आने लगी। संगीत की ओर आकर्षित हुआ। कुछ दिनों के बाद देखा कि परमात्मा का मन्दिर भी धीरे-धीरे ऊपर उठता चला आ रहा है और एक दिन ऐसा आया जब परमात्मा का मन्दिर पूरा का पूरा साक्षात हो गया । तब एक अलख आनन्द जगा। तब जीवन में अनुभव के द्वार पर परमात्मा के साथ साक्षात्कार हुआ। व्यक्तिगत चेतन में परमात्म-चेतन का अनुभव हुआ।
परमात्मा के मन्दिरों की घन्टियां मुझे आज भी सुनाई देती हैं। क्या आप लोगों तक भी उन घंटियों की आवाज पहुंच रही है? मैं साफ-साफ सुन रहा हूं कि वह परमात्मा के मंदिरों की घंटियों की आवाज अब भी आ रही है, अब भी आनन्द दे रही है, प्रेरित/झंकृत कर रही है। अब भी सदाबहार ऋतु की तरह जीवन में एक अलख आनन्द की लौ जगा रही है। जरा अपने कानों पर से अपने बालों को हटाइये, पर्दे और दीवारें हटाइये, ताकि इन आवरणों को हटाने के बाद परमात्मा के मन्दिरों का संगीत आप लोगों तक पहुंच सके।
__ ये परमात्मा का मन्दिर किसी और समुन्दर में नहीं है, यह तो स्वयं के ही भीतर छिपे हुए सागर में डूबा हुआ है। मनुष्य के भीतर एक जो महासागर फैला हुआ है, उसी महासागर के भीतर वो परमात्मा का मन्दिर डूबा हुआ है।
संगीत आ रहा है, घंटियां बज रही हैं, सुनने वाले सुन रहे हैं, लेकिन समुद्र के किनारे जाकर सब ठिठक गये हैं। कहीं डूब गये तो? कहीं भटक गये तो? जिनके जीवन में परमात्मा की एक अलख प्यास है, स्वयं के आत्म-साक्षात्कार की एक अलख जिज्ञासा है, स्वयं में छिपे हुए परमात्मा को पाने की एक अलख पिपासा है, वही व्यक्ति इस महामार्ग का अनुयायी हो सकता है। वही व्यक्ति
विना नयन की वात : श्री चन्द्रप्रभ / २
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