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________________ यह अरिहन्त होने की बात कहता है, क्रोध पर क्रोध करने की। वे कहते हैं क्रोध प्रत्ये तो वर्ते क्रोध स्वभावता, मान प्रत्ये तो दीनपणा नुं मानजो। माया प्रत्ये माया साक्षी भाव नी, लोभ प्रत्ये नाहीं लोभ समान जो। क्रोधं किस पर करना है? अपने आप पर? यह तो हमेशा करो। दूसरों पर क्रोध करना तो पागलपन है, स्वयं की समझ का दिवालियापन है। - अगर तुम्हें क्रोध करना ही है, तो अपने क्रोध पर ही क्रोध करो। तुम सोचते हो कि दूसरों पर क्रोध करके तुम उसे नुकसान पहुंचा सकते हो, पर यह सोच वैज्ञानिक नहीं है। इस संबंध में अभी तक का सारा वैज्ञानिक अन्वेषण यही कहता है कि क्रोध करके मनुष्य दूसरे के साथ-साथ स्वयं को भी हानि पहुंचाता है। सच तो यह है कि स्वयं को ही अधिक हानि पहुँचाता है। प्रसन्न रहने में, मुस्कुराने में, हंसने में हमारी ऊर्जा बढ़ती है। क्रोध करने में खर्च होती है। हम यदि क्रोध करते वक्त थोड़ा-सा स्वयं का विश्लेषण करते रहने का बोध कायम रख सकें तो इस बात की सचाई को अच्छी तरह जान सकते हैं। एकदिन भोजन करके चौबीस घन्टे में हम जितनी ऊर्जा एकत्रित करते हैं, एक बार क्रोध करने में उतनी ऊर्जा नष्ट हो जाती है। आप देखियेगा, जो व्यक्ति ज्यादा क्रोध करते हैं, वे रातभर या तो सो नहीं पाते या रातभर सोकर भी प्रफुल्लित नहीं दिखाई पड़ते। उनकी थकान नहीं मिटती। उनकी ऊर्जा क्रोध करने में ही नष्ट हो जाती है। क्रोध ऊर्जा का अपव्यय कर देता है, लेकिन जो लोग क्रोध नहीं करते उनकी ऊर्जा सृजनात्मक हो जाती है। अपनी मानवीय ऊर्जा को सृजनात्मक, रचनात्मक रूप देना ही उसका सार्थक उपयोग है। क्रोध करने वाला व्यक्ति स्वयं का भी खून जलाता है और दूसरे का भी। दूसरे का खून जलाना, उसकी आत्मा को कष्ट देना, शोषण का कार्य है। इसलिए सबसे अच्छा तो यही है कि क्रोध को मात्र एक संयोग मानो और भूल जाओ। फिर भी यदि कभी क्रोध आ भी जाए तो अपने क्रोध पर ही क्रोध करने का प्रयास करो। पूछो अपने आप से कि तुझे इतना क्रोध क्यों आता है? __यह अपने आप से संघर्ष करने का युद्ध करने का, मार्ग है। इस पर वीर योद्धा बनकर आगे बढ़ो। अरिहन्त-भाव से कदम बढ़ाओ। जिन वह है, जिसने स्वयं को जीता है और जैन वे हैं जो इन जीते हुओं के पीछे-पीछे चले । युद्ध में सेनापति हजारों लोगों को जीतता है लेकिन इस जीत बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ७४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003965
Book TitleBina Nayan ki Bat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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