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________________ का क्या फायदा अगर खुद से हारे ही रह गये। दूसरों पर पायी जाने वाली हर जीत में अहंकार की विजय होती है और अहंकार की हर विजय अन्ततः हार में ही बदल जाती है। असली विजय तो वह है, जब आदमी स्वयं को जीतता है । एगप्पा अजिए सत्तु, कसाया इन्दियाणी य । ते जिणित्तु जहानायं, विहरामी अहं मुणि । एक मात्र मैं ही तो अपना दुश्मन हूँ, जिसे मुझे जीतना है। यह मैं ही हूं जो अपने आप से अविजित हूं, परास्त हूं। मैं अपनी आत्मा से हार गया हूं, अपनी इन्द्रियों से, अपने कषायों से मैं हार गया हूं। मुझे इनका स्वामी होना चाहिए था, पर मैं इनका गुलाम हो गया हूं। क्रोध मेरा दुश्मन है, अहंकार मेरा दुश्मन है, मुझे इनको परास्त करना था पर मैं उल्टे इनसे परास्त हो गया हूं। क्रोध, लोभ ये सब मेरे दुश्मन हैं और मैं दुश्मन के घर में जाकर बस गया हूँ । कोई प्रशंसा करता है, अहंकार को सहारा मिलता है, मजा आता है । ये जो मजा है यही अपने को हराने का हथियार है । प्रशंसा हो या क्रोध, अलिप्त रहकर ही उन्हें जीता जा सकता है । मानलो किसी ने फोन पर कोई नम्बर डायल किया और रिसीवर उठाकर गालियां बकनी शुरू कर दीं। काफी देर तक गालियां देने के बाद जब वह रुका तो सामने वाले ने पूछा- महाशय ! आपको कौन सा नम्बर चाहिए? जवाब मिला, ३५१३६७ ! उधर से आवाज आयी - रांग नम्बर । और रिसीवर रख दिया गया । फोन करने वाले की दशा ऐसे में दयनीय होती है लेकिन फोन सुनने वाले पर उसकी गालियों का कोई असर नहीं होता। फोन करने वाले का क्रोध ऐसे में दुगुना हो जाता है । झल्ला उठता है वह तो । दांत किटकिटाता उठता है। यह तो अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है । अपनी ही नाक पर बैठी मक्खी को मारने के प्रयास में स्वयं को चोट पहुंचाना है । अगर स्वयं को चोट पहुंचाना चाहते हो तो बेशक क्रोध करो अन्यथा क्रोध का विसर्जन करो। हमें अपने भावों की अभिव्यक्ति को जरा परिष्कृत करने की जरूरत है । हमारे पास दिमाग है, बुद्धि है, विवेक है, आवश्यकता है उसके उपयोग की, क्रोध के रूपान्तरण की । क्रोध अगर संस्कारित हो जाये, तो श्रद्धा में घटित हो सकता है। श्रद्धा में आदमी दूसरे के पांवों में अपना सिर नवाता है । क्रोध में दूसरे के सिर पर अपने पांव । क्रोध की मृत्यु हो जानी चाहिये । जीभ पर मिठास होनी चाहिये। आंखों में मुस्कान होनी चाहिए । यदि तुम किसी से मिठास भरी भाषा Jain Education International करें क्रोध पर क्रोध / ७५ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003965
Book TitleBina Nayan ki Bat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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