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है। यह एक गहरा मनोविज्ञान है। रात को नींद में भी व्यक्ति दुश्मन को खत्म करने के उपाय सोचता रहता है। दोस्तों की खुशी होती है, दुश्मनों का गम; पर दोस्तों ने इतने कष्ट पहुंचाये हैं कि दिल से दुश्मनों की शिकायत करने की इच्छी ही चली गयी।
दोस्तों के इस कदर सदमें उठाए जाने पर,
दिल से दुश्मनों की शिकायत का गिला जाता रहा।
दुश्मनों की शिकायत क्या की जाए, यहां तो हर कोई अपनों का ही सताया हुआ है। बेटा बाप से, बाप बेटे से सताया हुआ है। सास बहु से, बहु सास से सतायी हुई है। घर वालों ने ही इतनी बेड़ियां बांध रखी हैं कि औरों की बेड़ियां तो बेड़ियां लग ही नहीं रही हैं। दुश्मन ने मेरा अहित किया है, यह कहने वाले कम मिलेंगे, ज्यादातर लोग तो अपनों की ही शिकायत करते मिलेंगे।
दुश्मनी की जंजीरें तो एक बार खुल भी जाए, मगर दोस्ती की जंजीरें खुलना कठिन है। दुश्मन को छोड़ना सरल लेकिन दोस्त को छोड़ना मुश्किल है। यदि तुमसे तुम्हारे परिवार, पद, प्रतिष्ठा, धन को छोड़ने के लिए कहा जाए तो तुम कहोगे कैसे छोड़ दूं? आखिर वह मेरा पुत्र है, उसे कैसे छोड़ दूं? धन मैंने अपने पुरुषार्थ से कमाया है, उसे कैसे छोड़ दूँ? और अगर मैंने ये सब छोड़ दिया तो मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? मेरे मकान, धन-दौलत, जमीन-जायदाद का क्या होगा?
तुम छोड़ो या मत छोड़ो, पर यह सब तो आखिर एक दिन छूटना ही है। मौत आएगी और सब छुड़ा ले जाएगी। तुम्हें मजबूरन छोड़ना पड़ेगा। पर मजबूरी से छोड़ना भी कोई छोड़ना है? जब तक व्यक्ति अपने हाथों से नहीं छोड़ता, जंजीरें स्वयं नहीं खोलता, तब तक पतवारें तो खूब चलेंगी, लेकिन कहीं पहुंचना न हो पायेगा, किनारे नहीं लग पाओगे। पहुँचने के लिए पहले जंजीरें खोलनी जरूरी है, फिर पतवारें न भी चलाई तो भी कोई चिन्ता नहीं। सम्भव है फिर तो तुम्हारी प्रकृति, नियति हवा के झोंकों के साथ अपने आप तुम्हारी नौका को आगे बढ़ाती ले जाए। मेरे इशारे लंगर खोलने के लिए है। यह लंगर का खुलना ही-आंख के भीतर आंख का उघड़ना है। अभ्यन्तर की आंख से ही जीवन को जाना-पहचाना जा सकता है। आज का जो पद है, वह बिना नयन की बातें कर रहा है। आंख के भीतर की बातों को भीतर की आंख के बिना पाया नहीं जा सकता। सद्गुरु के प्रति समर्पण कर दिया है जिसने स्वयं को, साहस के साथ पा जाता है वह प्रत्यक्ष उन बातों को, तथ्यों को। राजचन्द्र कहते हैं --
बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ४२
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