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________________ प्रतिक्रिया के दस्यु डाल दें, कहीं न उसमें पानी ।। क्रिया, क्रिया तक सीमित रहनी चाहिए। क्रिया के प्रति होने वाली प्रतिक्रिया ही वैर - वैमनस्य को, द्वेष-द्रोह को बढ़ावा देती है । क्रिया प्रतिक्रिया तभी बनेगी, जब उसे हम स्वीकार करेंगे, महत्व देंगे । अगर गाली का जवाब गाली से दिया जाता रहा, तो गालियों की एक शृंखला बनती चली जाएगी। लड़ाई से लड़ाई बढ़ती चली जाएगी। आक्रमण पर प्रति- आक्रमण होता चला जायेगा । इस तरह प्रारम्भ में एक गाली जो मात्र एक कटु शब्द थी, वह एक से अनेक में परिवर्तित होती चली जाएगी। देते गाली एक हैं, उल्टे गाली अनेक जो तू गाली दे नहीं, रहे एक की एक । गाली से गाली बढ़ती है। आग से आग भड़कती है, गाली का गणित कुछ विचित्र है, आम गणित से। अंक गणित में एक और एक दो होते हैं लेकिन गालियों के हिसाब में एक और एक ग्यारह होते हैं, दो और दो बाईस, तीन और तीन तैंतीस होते है और यह शृंखला अंततः एक + एक अनेक में परिणत होती जाती है । गालियां देना भले लोगों की पहचान नहीं है । व्यक्ति कैसा है, इसकी जानकारी उसके मुंह से निकलने वाले वचनों से हो जाती है । जो व्यक्ति अन्दर से जैसा होता है, वैसे ही वचन उसके मुंह से निकलते हैं। भला व्यक्ति दूसरे को भी भला ही समझता है, भला ही कहता है । वह सबसे आदर पूर्वक मिलता है और इसीलिए आदर पाता भी है । लेकिन एक बुरा व्यक्ति जैसा है, वैसा ही दूसरों को भी समझता है। उसके शब्द कोष में दूसरे के लिए अपशब्द ही भरे पड़े हैं और बदले में वह अपने लिए भी अपशब्द और अपमान ही पाता है । = प्रतिकार या प्रतिवाद किसी क्रिया का सामना करने का सही तरीका नहीं है । चाहे गाली हो या प्रशंसा, रूप हो या कुरूपता, उसे स्वीकार न करना ही, उसका सामना करने का सबसे अच्छा तरीका है। यदि आप स्वीकार करते हैं तो आपके मन में प्रतिक्रिया होगी, जिसकी अभिव्यक्ति भी अवश्य ही होगी और यह अभिव्यक्ति ही सारे झगड़ों की जड़ है। यदि आप किसी क्रिया को स्वीकार ही न करें, तो उसकी कोई प्रतिक्रिया आपके मन में नहीं होगी। यदि किसी व्यक्ति आपकी प्रशंसा की और आपके मन ने उसे स्वीकार नहीं किया, तो उस प्रशंसा से आपके मन का अहंकार पुष्ट और फलीभूत नहीं होगा । बिना नयन की बात : श्री चन्द्रप्रभ / ६८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003965
Book TitleBina Nayan ki Bat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1994
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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