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अनुभव का उत्पल
आचार्य महाप्रज्ञ
For Private & Personal User ily
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कल्पना की ऊर्मियाँ अभिनय करती हैं, मन अनन्त भविष्य को अपने बाहुपाश में जकड़ लेता है। 'बन्धन और मुक्ति एक क्रम है।
भविष्य की पकड़ से मुक्ति पाने वाली पहली कली है 'कल' और दूसरी है 'परसों'।
इस कुसुम की कलियाँ अनन्त हैं। जो खिलती हैं, वह 'आज' बन जाती हैं। सच्चाई वही है जो आज है।
आज 'कल' बनता है, कार्य कृत बन जाता है, अनुभूतियाँ बची रहती
जो चले वह वाहन नहीं होता। वाहन वह होता है, जो दूसरों को चलाये।, अनुभूति के वाहन पर जो चढ़ चलते हैं, उनका पथ प्रशस्त है।
आज की धार पतली होती है, उसे वही पा सकता है जो सूक्ष्म बन जाये। कल की लम्बाई-चौडाई अमाप्य है। अनुभूतियों से बोध पाठ ले, वर्तमान को परखकर चले और कल्पनाओं को सुनहला रूप दिये चले वह विद्वान् है, वह पारखी है, और वह है होनहार।
'अनुभव का उत्पल' मेरे कुछेक गद्य-गीतों व लघु-निबन्धों का संकलन है। संकलन के लिए ये नहीं लिखे गये पर जो लिखा जाता है उसका संकलन हो जाता है। मनुष्य चिरकाल से संग्रह का प्रेमी है। वह बिखरे को बटोर लेता है और फूलों को माला बना देता है।
-आचार्य महाप्रज्ञ
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अनुभव का उत्पल
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Roman
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प्रकाशन जैन विश्व भारती
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अनुभव का उत्पल
आचार्य महाप्रज्ञ
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प्रकाशक: जैन विश्व भारती लाडनूं-३४१३०६
© जैन विश्व भारती, लाडनूं
सौजन्य : फारवीसगंज निवासी एवं गंगाशहर कानासर प्रवासी
श्री रूपचन्द जी बैद की पुण्य स्मृति में उनकी धर्मपत्नी श्री सजनी देवी एवं उनके सुपुत्र श्री नवरतन, निर्मल व जेठमल बैद द्वारा
प्रथम संस्करण : १९९९
मूल्य : ४०.०० (चालीस रुपये मात्र)
लेजर टाईप सेटिंग : आइडियल कम्प्यूटर सेन्टर, जयपुर 0 ५६७००५
मुद्रक : अग्रवाल प्रिन्टर्स एण्ड स्टेशनर्स, जयपुर ०५७२२०१, ५७२६४३
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प्रस्तुति
कल्पना की ऊमियाँ अभिनव करती हैं, मन अनन्त भविष्य को अपने बाहुपाश में जकड़ लेता है।
बन्धन और मुक्ति एक क्रम है।
भविष्य की पकड़ से मुक्ति पाने वाली पहली कली है 'कल' और दूसरी है 'परसों ' ।
इस कुसुम की कलियां अनन्त हैं। जो खिलती हैं, वह 'आज' बन जाती हैं। सचाई वही है जो आज है।
आज 'कल' बनता है, कार्य कृत बन जाता है, अनुभूतियाँ बची रहती हैं।
जो चले वह वाहन नहीं होता। वाहन वह होता है, जो दूसरों को चलाये । अनुभूति के वाहन पर जो चढ़ चलते हैं, उनका पथ प्रशस्त है।
आज की धार पतली होती है, उसे वही पा सकता है जो सूक्ष्म बन जाये। कल की लम्बाई चौडाई अमाप्य है। अनुभूतियों से बोध पाठ ले, वर्तमान को परखकर चले और कल्पनाओं को सुनहला रूप दिये चले वह विद्वान् है, वह पारखी है और वह है होनहार ।
अनुभव का उत्पल' मेरे कुछेक गद्य-गीतों व लघु निबन्धों का संकलन है। संकलन के लिए ये नहीं लिखे गये पर जो लिखा जाता है उसका संकलन हो जाता है। मनुष्य चिरकाल से संग्रह का प्रेमी है। वह बिखरे को बढोर लेता है और फूलों को माला बना देता है।
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मालाकार को अंगुलियों में कला है और धाग में फूलों को गॅथ, वह कलाकार बन जाता है। कला तरु में नहीं होती। उसके पास कोरे फूल होते हैं। कलाकार होता है मालो। तरु संग्रह करना नहीं जानता उसे स्वार्थी लोग भला कलाकार कैसे मानें ? मालाकार संग्रह करने में पटु होता है
और वह सहज ही कलाकार बन जाता है। ____ मुनिश्री दुलहराजजी ने इन शब्द-पुष्पों को चुना और यह एक पुष्पहार बन गया। इसके सौन्दर्य की मीमांसा पहनने वाले करेंगे। मैं संग्रह से दूर रहा हूं तब भला आलोचना में क्यों फँसँगा ? मेरी वह कृति अकृति होती है जिसमें परम श्रद्धेय आचार्य तुलसी के वरदान की स्मृति न हो। गुरुदेव ने मुझे वह दिया, जिसे पाकर अतृप्ति भी होती है और परम तृप्ति भी।
- आचार्य महाप्रज्ञ
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अनुभव
चिन्तन
मनन
महान
मुक्ति-प्रेम
प्रिय शत्रु
उषा और संध्या
अनुक्रमणिका
अनुभूति
निर्वाचन का प्रश्न
बड़े और छोटे
झपट
सहज क्या है
लौ से लौ
पूर्णता की अनुभूति में
मैं और वह
अभिव्यक्ति का मोह
संघर्ष
समय के चरण
अतीत जब झांकता है
सांचा
ऊपर भी देखो
भाग्य - निर्णय
आवेग
अखण्ड व्यक्तित्व
२५ सबकुछ
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गुप्तवाद लचीलापन
स्रष्टा कौन ?
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पारखी
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२९ कसौटी ३० सुन्दर या सुखी
बालक्रीड़ा
सदाचार ३३ कम अधिक
उलझन ३५
अनुभूति का तारतम्य
चीर ३८ लघु-गुरू ३९ सच्चाई की समझ ४० एक ही लौ ४१ लघुता का प्रसाद ४२ श्रद्धा और तर्क ४३ _ पर्दे के उस ओर ४४ दिशा की खोज ४५ जीवन के नैतिक मूल्य ४६ नियन्त्रण ४७ आत्मलोचन ४८ क्षमा ४९ सिद्धान्त और अनुभूति ५० आत्मा और व्यवहार ५१ ऊंचाई की आत्मा ५२ भूल और यथार्थ ५३ श्रद्धा ५४ साध्य के लिए ५५ नियन्त्रण और शोधन ५६ अध्यात्म ५७ समदर्शन ५८ आत्मदर्शन ५९ मर्यादा ६० यहां और वहां
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एक साथ नहीं
प्रचार
भोग और त्याग
यह कैसा स्वाद
इस प्रकार ----
बहु-निष्ठा
शांति और आकांक्षा
अहिंसा, अपरिग्रह और अध्यात्म
शांति कैसे मिले
प्रेम हो, विकार नहीं
प्रिय कौन
ब्रह्मचर्य की फलश्रुति
प्रेम किससे ?
प्रेम कैसे
प्रेम के प्रतीक
भविष्य दर्शन
ब्रह्मचर्य और अहिंसा
आत्मा और परमात्मा
शेष क्या है ?
इच्छा और सुख
मैंने क्या किया ?
सुन्दर बनूं
न्याय की भीख
चाह और राह
८५ परख
८६
उन्मुखता किधर
८७ स्मृति और विस्मृति
८८ जीवन के पीछे
८९
ज्योतिर्मय
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मृत्यु महोत्सव
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मूल्यांकन
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काम्य और अकाम्य
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१०० १०१ १०२ १०३ १०४
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९३ गहरी डुबकी ९४ चमत्कार को नमस्कार ९५ कला
अनावृत ९७ नमृता ९८ द्वैत९८ ९९ अद्वैत १00 पण्डित और साधक १०१ कृतघ्ता १०२ तर्क की सीमा १०३ श्रद्धा की भाषा १०४ दो वाद १०५ श्रद्धेय १०६ विरोध का परिणाम १०७ गाली का प्रतिकार १०८ भला वही १०९ नये पुराने की समस्या ११० आलोचना १११ आलोचना और प्रशंसा ११२ एक मन्त्र ११३ भूख और भोग ११४ गठबन्धन नहीं ११५ साधना का मार्ग ११६ अर्थवाद ११७ उपेक्षा और अपेक्षा ११८ रोटी और पुरुषार्थ ११९ सम और विषम १२० समझ से परे १२१ अनुशासन की समझ १२२ उतार-चढ़ाव १२३ सत्यम् शिवम् सुन्दरम् १२४ अभिव्यक्ति
१०६ १०७ १०८ १०९ ११० १११ ११२ ११३ ११४ ११५ ११६ ११७ ११८
११९ १२०
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१२६ १२७
१२८ १२९ १३० १३१ १३२ १३३
१२५ मानो या मत मानो १२६ उपासना का मर्म १२७ आत्म-विश्वास १२८ आत्म सत्य १२९ झुकाव १३० निवृत्ति और प्रवृत्ति ५३१ समस्या और समाधान १३२ समय की कमी १३३ व्यक्ति और विलास १३४ प्रेम१३४ १३५ श्रृंखला १३६ मन्दिर के देवता १३७ स्व-दर्शन १३८ ज्योति १३९ सत्य दर्शन १४० शांति और संतुलन १४१ प्रकाश और स्वास्थ्य १४२ संतोष १४३ मर्यादा का बोध १४४ मुक्ति १४५ अज्ञात १४६ समता का क्षितिज १४७ कसौटी की कसौटी १४८ पहचान का प्रश्न १४९ प्रस्तुतिकरण १५० प्रतिकार १५१ न्याय की मांग १५२ विसर्जन १५३ भाग्यरचना १५४ विष : अमृत १५५ शक्ति-स्त्रोत १५६ परिणाम
१३५ १३६ १३७ १३८ १३९ १४० १४१ १४२
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१६४ १६५ १६६ १६७ १६८ १६९ १७०
१५७ अनुशासन १५८ आत्म-विश्वास १५९ प्रतिपक्ष १६० तर्क और प्रेम १६१ उभयतः पाश १६२ अपना अपना अस्तित्व १६३ सत्य का आवरण १६४ आश्चर्य १६५ दान : आदान १६६ धर्म और शास्त्र १६७ त्याग १६८ श्रद्धा का चमत्कार १६९ बिंदु : बिंदु १७० मन की मुक्ति १७१ नेता १७२ संतुलन १७३ बड़ी : छोटी १७४ आरती १७५ घटना और सीख १७६ मोह १७७ अकेलापन १७८ फलित १७९ प्रतिकार का अधिकार १८० विपर्यय १८१ निदान १८२ मुखर : मौन १८३ पगडंडी : राजपथ १८४ धार्मिक १८५ पथ : अपथ
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अनुभव का उत्पल
नार
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— अनुभव का उत्पल)
अनुभव का उत्पल
अनुभव
अनुभव क्या है? योग और वियोग की कहानी ही तो है। रवि की रश्मि का स्पर्श कर अब्ज हंस उठता है। रवि अस्त होता है, वह कुम्हला जाता है।
खिलना और सिकुड़ना अनुभव ही तो है। अनुभव का अर्थ है- देश, काल, क्षेत्र और परिस्थिति की दूरी की समाप्ति और अपने में बाहर की संक्रान्ति।
कांच जितना स्वच्छ होता है, प्रतिबिम्ब उतना ही स्वच्छ होता है। मन संवेदना से जितना भरा होता है, अनुभूति उतनी ही तीव्र होती है।
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- अनुभव का उत्पल
चिन्तन
चिन्तन क्या है? जीवन की गहराई का प्रतिबिम्ब। दुश्चिन्ता क्या है? जीवन-सम्पदा की अन्त्येष्टि। इस प्रश्नोत्तर की भाषा ने मन की गांठ खोल दी। फिर मैंने देखा, यह चिन्तन सहज ही स्फुरित होता है, इसके पीछे प्रकृत अनुभूति होती है। दुश्चिन्ता के मूल में विकृत मनोभाव होता है। विकृत से प्रकृत की ओर होने वाली स्फुरणा ही चिन्तन है।
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अनुभव का उत्पल)
मनन
अनुभूति में विवेचन नहीं होता, चिन्तन में गति नहीं होती।
अनुभूति का परिपाक विवेक में होता है और विवेक का परिपाक होता है मनन में।
मनन क्या है? ज्ञान और आचरण की रेखाओं का समीकरण ही तो मनन है।
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अनुभव का उत्पल,
महान्
मन लोभ से भरा था तब मुझे वे लोग बड़े लगते थे, जिनके पास बहुत था। मन जब खाली हुआ तो लगा कि महान् वे हैं, जिनके पास अपना कुछ भी नहीं है।
जो व्यक्ति केवल व्यक्ति ही रहकर महान् होता है वही महान् है। जो व्यक्ति शक्ति के सहारे महान् कहलाता है वह महान् होता भी होगा या नहीं, यह निश्चित नहीं कहा जा सकता।
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– अनुभव का उत्पल )
अनुभव का उत्पल)
मुक्ति -प्रेम
जेठ का महीना था। धूप लहरी विकराल बन रही थी। पनिहारी ने जल का तपा घड़ा काठ की पट्टी पर ला रखा। नीचे गरम पवन से तप्त धूलि थी।
बन्धन असह्य होता है। बलिदान का भाव उत्कृष्ट हुआ। जल का एक बिन्दु नीचे गिरा। मैंने देखा- धूलि ने उसे सोख लिया। दूसरा गिरा पर वह भी बच नहीं सका। नीचे गिरते और सोखे जाते हुए सब बिन्दुओं का मुक्ति-प्रेम मैंने नहीं देखा और मिट्टी की सम-रस नृशंसता को भी मैंने नहीं देखा। पर मैंने देखा कि अब घड़ा खाली है।
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अनुभव का उत्पल
प्रिय- शत्रु
भौक्तिक बन्धन से दूर होना चाहता हूं, फिर क्या वरदान मांगूं । अभिलाषा के उस पार जाना चाहता हूं, फिर क्या प्रार्थना करूं? पर, यह बन्धन है। आखिर देव-दर्शन की मर्यादा को कैसे तोडूं ?
देव! तुम वरदान देना चाहो तो यही दो कि मुझसे किसी को उन्मार्ग पर जाने का प्रोत्साहन न मिले।
देव ! तुम प्रार्थना स्वीकार करो तो यही करो कि मैं किसी का प्रिय शत्रु न बनूं।
अप्रिय शत्रु से कोई हानि नहीं होती। प्रिय शत्रु अस्तित्व मिटा डालते हैं। जो प्रियता के बहाने अपने प्रियाभास को अप्रिय परिणाम की ओर ले जाये, वह प्रिय शत्रु होता है।
देव! मैं तुम्हारी उपासना का प्रतिफल चाहूं तो यही चाहूं कि मैं किसी का प्रिय शत्रु न बनूं और कभी न बनूं।
देव! मुझे शक्ति दो, बल दो, प्राण दो।
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अनुभव का उत्पल
उषा और संध्या
नया आलोक लिए उषा जाती है, हम प्रकाश से भर जाते हैं।
सन्ध्या आती है और हमारी जीवन की एक गांठ को खोलकर चली जाती है। एक दिन आता है, जीवन की गांठ शेष नहीं रहती ।
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( अनुभव का उत्पल,
अनुभूति
मरते समय जो अनुभूति होती है वह पहले हो जाए तो कोई किसी को मार ही नहीं सकता।
वह मुझे देख रहा है- इस कल्पना में मेरी दुर्बलता आकार पा रही है। उसकी दुर्बलता उसी में है कि वह मुझे सन्देह की दृष्टि से देखता है।
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— अनुभव का उत्पल)
( अनुभव का उत्पल)
निर्वाचन का प्रश्न
मैं दो पत्नियों का पति नहीं हूं। फिर भी मेरी स्थिति इसलिए विचित्र है कि मैं दो नेताओं के आकर्षण में हूं। इन्द्रियां मुझे उस ओर ले जाना चाहती हैं, जहां आदि में थोड़ा सुख है और अन्त में दुःख ही दुःख। विवेक मुझे उस ओर ले जाना चाहता है, जहां आदि में थोड़ा दुःख है और अन्त में सुख ही सुख।
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अनुभव का उत्पल
बड़े और छोटे
कोई भी व्यक्ति मानसिक झुकाव से बच सकता है- यह सम्भव नहीं है । छोटों की चीखब- पुकार अपने होठों तक ही होती है, वह बड़ों के दिल नहीं पिघाल सकती । जीवन का सबसे बड़ा मंत्र है शक्ति । शक्तिधर ही सम्मान का जीवन जी सकता है। बड़ों के सामने दीन गाथाएं गाना तब तक बेकार है जब तक छोटों की शक्ति आगे न बढ़ जाए। इसलिए रोने की बात भूल जाओ। दीन बनने का नाम न लो। मन की व्यथा बड़ों के सामने मत रखो। वहां तुम्हारा कोई भला न होगा। उनके पास सुनने को कान होते हैं, विचारने को मस्तिष्क किन्तु सहानुभूति के लिए हृदय नहीं होता ।
व्यथा व्यथा को पकड़ सकती है। छोटे फिर भी तुम्हें सहानुभूति दे सकते हैं किन्तु वे कुछ कर नहीं सकते । करुणा रुला सकती है पर सबको नहीं । उत्तम बात यह है कि करुणा की वृत्ति बने ही नहीं । हीनता आए और मुँह पर झलक पड़े, यह मध्यम भाव है। वह मुंह से निकल पड़े, इससे अधिक अधम भाव और क्या होगा ?
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-( अनुभव का उत्पल )
झपट
सम्भवत: वह कबूतर था। वह आया होगा रात के बाद मंगल प्रभात का स्वप्न लिए। किन्तु उसने पाया कुछ
और। आला खाली था। केवल अंडे थे। उनका पोषण करने वाली नहीं थी। वह कमरे के चारों ओर घूमा। पर उसे पा नहीं सका।
____ मैं शवासन करने को सो रहा था। वह मेरी ओर देखने लगा। मैंने उसकी करुण आंखों में मूक वेदना की गाथा को पढ़ा और पढ़ा उसकी अन्तर आत्मा को। मुझे स्मरण हो आया उस भगवद् पाणी का- 'जहां संयोग है, वहां वियोग होगा। जो संयोग में सुखी है, वह वियोग में दुःखी होगा। सुखी वह है जो संयोग-वियोग की अनुभूति से ऊपर उठ जाए।'
वियोगी कबूतर का दिल रो रहा था। अब अण्डे भी उसके लिए भार थे। पालन मां ही कर सकती है। पिता में उतना प्रेम नहीं होता, जितना कि पालन में होना चाहिए। कबूतर भार के दायित्व से झुक सा रहा था। किन्तु यह भार उस बिल्ली को नहीं लगा, जिसने कबूतर की स्वप्न सृष्टि को एक ही झपट में उठा लिया था।
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- अनुभव का उत्पल
अनुभव का उत्पल
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सहज क्या है?
जो मन को भाता है, वही सुख है, या कुछ और? जो सहज लगता है, वही सुख है या कुछ और।
इन्द्रियों की सहज गति विषय की ओर है। मन भी निरन्तर पदार्थों की ओर दौड़ता है। आराम करने में सुख है, काम करने में नहीं।
असत्य बोलने में जो रस है, वह सच बोलने में नही।
अहिंसा की साधना करनी पड़ती है, हिंसा सहज है। ईंट का जवाब पत्थर से देने में जो पौरुष की कल्पना है, वह सह लेने में नहीं है।
इन्द्रिय और मन वासना से सहसा भर जाते हैं और उससे मुक्ति प्रयत्न करते-करते भी नहीं मिलती।
अपरिग्रह की बात सुनते-सुनते कान बहरे हो गए पर हृदय ने उसे कभी नहीं पकड़ा। परिग्रह के लिए हजार कष्ट झेलने की तैयारी रहती है।
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-( अनुभव का उत्पल
लौ से लौ
मैं जो कुछ करूं वह लोकैषणा से मुक्त होकर करूं, ऐसी प्रेरणा मिलती है। श्रद्धा जागती है, समय-समय पर दृढ़ निश्चय भी करता हूं। किन्तु कार्यकाल में जो मानसिक स्थिति बनती है उसके बारे में कुछ नहीं बनता। इसकी गहराई में क्या छिपा हुआ है- यह ढूँढ़ निकालना असम्भव जैसा हो रहा है। फिर भी मेरे निरन्तर चिन्तन के बाद मुझे जो कुछ सूझा, वह यही है- हमारा जीवन परावलम्बी है। हम अपने आपमें ऊँचे- नीचे, छोटे-बड़े कुछ भी नहीं हैं। जो मैं लिख रहा हूं, वह मानसिक जगत् की बात है, बाहरी जगत् में हमारे लिए चाहें जैसी कल्पनाएं की जाती हों।
___ बाहरी जगत् का मानसिक जगत् पर असर हुए बिना नहीं रहता। मेरा स्वयं को बड़ा समझने का मानदण्ड वही है, जिससे दुनियां दूसरों को बड़ा समझती है। मैं दुनियां के पीछे चलना नहीं चाहता हूं, किन्तु मुझे बड़ा बनने की भूख है। इसलिए मुझे अनिच्छा से भी उसके पीछे चलना होता है। कोई भी आदमी पद के लिए उम्मीदवार न बने, प्रतिष्ठा की भूख न रखे- यह ठीक है, नीति की पुकार है। किन्तु जब सत्ता के प्रांगण में सत्ताधीश के साथियों और सगे-सम्बन्धियों का लालन-पालन देखता है, तब दर्शक के मुँह में सत्ता की लार टपक पड़ती है और उसके साथी-संगी भी उसे सत्ता की ओर झुकने के लिए बाध्य किए बिना नहीं रहते। मुझे विश्वास है कि मैं इस प्रसंग में भूल नहीं रहा हूं।
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है |
अनुभव का उत्पल
पूर्णता की अनुभूति में
आन्तरिक रिक्तता से बाहरी भार का चाप बढ़ता
आत्मानुशासन की रिक्तता होती है, बाहरी नियन्त्रण बढ़ता है।
सहज आनन्द की रिक्तता होती है, मनोरंजन के साधनों का विकास होता है।
प्राकृतिक सौन्दर्य की रिक्तता होती है, कृत्रिम साधनों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग होने लगता है।
दृष्टि शक्ति की कमी होती है, उपनेत्र चक्षु के परिपार्श्व को आवृत कर लेता है।
वह
जिसे प्रिय, सुन्दर और स्वादु कहा जाता है, रिक्तता की अनुभूति में है। पूर्णता की अनुभूति में वह और स्वादु नहीं है।
प्रिय, सुन्दर
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— ( अनुभव का उत्पल -
अनुभव का उत्पल
मैं और वह
मैं चाहता हूं कि जो मैं देखता हूं, वह दूसरे भी देखें और जो मैं नहीं देख सकता, वह भी देखें।
मैं अपनी अच्छाइयों को अच्छी तरह देख लेता हूं। अपनी दुर्बलताओं को भी पैनी दृष्टि से देखता हूं। फिर भी बहुत सम्भव है- मुझमें जो विशेषताएं विकास पा सकती हैं, उन्हें में न जानता होऊ| जो कमजोरियां तर्क की ओट में छिपी पड़ी हैं, उन्हें न समझता होऊ।
__ मैं खुली पुस्तक की भांति स्पष्ट रहना चाहता हूं। जिस दिन अपनी अच्छाइयों की अभिव्यक्ति का साहस
और बुराइयों को न छिपाने का मनोभाव मुझमें प्रकट हो जाएगा, उस दिन जो मैं देखूगा, वही दूसरे देखेंगे। फिर मेरे और दूसरों के दर्शन में कोई भेद नहीं होगा।
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अनुभव का उत्पल
अभिव्यक्ति का मोह
मैं छोड़ कर भी क्या नहीं छोड़ रहा हूं? मैं लेता रहता हूं तो क्या नहीं ले रहा हूं? यही प्रश्न आंखों के सामने घूमता है। अब मैंने छोड़ना भी सीख लिया, इसलिए छोड़ने की बात सताने लगी है। मैं छोड़ना चाहता हूं उसे भी, जिसे मैं सबसे अधिक प्यार करता हूं। किन्तु मुझे अभिव्यक्ति का मोह नहीं छोड़ रहा है। चाहे वह कैसा ही हो- सुडौल या कुडौल, गोरा या काला, लम्बा या ठिंगनामैं व्यक्त उसी से हुआ हूं। मैं उसे छोड़ दूं तो मेरा क्या होगा? यह आशंका छा जाती है। उसे नहीं छोड़ता हूं तो बहुत कुछ नहीं छोड़ पाता हूं।
आखिर बुरी बला अभिव्यक्ति का मोह है। उसे छोड़कर ही मैं सोच सकता हूं कि मैं क्या नहीं छोड़ रहा
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अनुभव का उत्पल
संघर्ष
___ संघर्ष सामुदायिक जीवन का परिणाम है। जहां द्वन्द्व हैं, वहां संघर्ष है। अकेले में संघर्ष होता ही नहीं। अकेला स्वेच्छा से खाए, पीए, रहे, कोई प्रश्न नहीं करता। वहां संघर्ष कैसे हो? संघर्ष वहां होता है:* जहां एक दूसरे के स्वार्थ आपस में टकराते हैं। - जहां विचारों का सुदूर-विभेद होता है।
जहां स्व का ही पोषण होता है। जहां सामान्य जनता की उपेक्षा होती है। जहां अधिकार अयोग्य व्यक्ति के हाथ में होते हैं। जहां पक्षपात होता है।
जहां कार्य पद्धति अव्यवस्थित और विश्रृंखलित होती है। * संक्षेप में संघर्ष वहां होता है, जहां असाधुता है।
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अनुभव का उत्पल
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समय के चरण
स्मृति के लिए तुम्हारे पास विशाल अतीत है, कल्पना के लिए असीम भविष्य, पर करने के लिए वर्तमान है, जो बहुत ही सीमित और बहुत ही स्वल्प।
अतीत को तुम क्या देखोगे? वह तुम्हारी ओर देख रहा है और देख रहा है तुम्हारी कृतियों को। तुम वर्तमान को देखो, जिससे वह फिर तुम्हारी ओर आंख उठाकर न देख सके।
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( अनुभव का उत्पल)
अतीत जब झांकता है
मुझे चरण-चरण पर चलने में कठिनाई का अनुभव हो रहा था। यदि वर्तमान पर अतीत का प्रभाव न होता, यदि प्रवृत्ति अपना परिणाम न छोड़ जाती, यदि मैं दस मील न चला होता तो मुझे कठिनाई का अनुभव नहीं होता। मेरी कठिनाई मुझे सिखा रही थी कि अतीत वर्तमान को प्रभावित करता है और मनुष्य की प्रत्येक प्रवृत्ति अपना परिणाम छोड़ जाती है।
___
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記
अनुभव का उत्पल
सांचा
प्रशंसा की भट्टी में गलाकर तुम व्यक्ति को चाहो जैसे ढाल सकते हो, पर याद रखो - अभिमान पर चोट की तो वह अकड़ जायेगा। फिर वह टूट सकता है किन्तु ढल नहीं सकता ।
२०
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अनुभव का उत्पल
ऊपर भी देखो
मैं जितना नीचे देखता हूं, अपने-आप में उतना ही विशाल लगता हूं। जब थोड़ा ऊपर देखता हूं तो मेरी विशालता इस असीम गगन में विलीन हो जाती है।
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२१
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訊
अनुभव का उत्पल
भाग्य - निर्णय
ओ ज्योतिषि !
मेरे भाग्य का निर्णय तुम मुझे ही करने दो।
तुम मेरे भविष्य को शब्दों के कठघरे में जकड़ने का यत्न मत करो।
तुम अतीत के व्याख्याता हो सकते हो पर भविष्य की व्याख्या का अधिकार मेरे ही हाथों में रहने दो।
तुम विश्वास रखो कि वर्तमान पर अधिकार रखने वाला ही भविष्य की व्याख्या कर सकता है।
२२
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( अनुभव का उत्पल
आवेग
अपनी सम्पति में धैर्य होता है, पर-सम्पत्ति में आवेग। पानी का पूर आता है, तटवर्ती वृक्षों को धराशायी करता चला जाता है। पर्वत के पानी का उसमें क्या बिगड़ा? शोभा नदी की घटी, तट नदी का टूटा।
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家
अनुभव का उत्पल
अखण्ड व्यक्तित्व
वहां सारी भाषाएं मूक बन जाती हैं, जहां हृदय का विश्वास बोलता है।
जहां हृदय मूक होता है वहां भाषा मनुष्य का साथ नहीं देती।
जहां भाषा हृदय को ठगने का यत्न करती है वहां व्यक्तित्व विभक्त हो जाता है।
अखण्ड व्यक्तित्व वहां होता है जहां भाषा और हृदय में द्वैध नहीं होता ।
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(( अनुभव का उत्पल)
सब कुछ
दूसरों पर अधिक भरोसा वही करता है जिसे अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं होता।
मनुष्य जागकर भी सोता है, इसका मतलब है कि उसे अपने आप पर भरोसा नहीं है।
मनुष्य सोकर भी जागता है, इसका अर्थ है कि उसे अपने-आप पर भरोसा है।
जिसे अपने पर भरोसा है, वह सब कुछ है।
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अनुभव का उत्पल
गुप्तवाद
प्रेम प्रदर्शन की वस्तु नहीं है।
सरसों के पीत में सौन्दर्य का दर्शन हो सकता है, उनमें सौरभ की अनुभूति हो सकती है, पर स्नेह की कल्पना नहीं हो सकती। वह तब प्रकट होता है, जब उसके प्राण लिए जाते हैं।
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नार
२६
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— अनुभव का उत्पल
- अनुभव का उत्पल
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लचीलापन
आग्रह में मुझे रस है, पर आग्रही कहलाऊं, यह मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं आग्रह पर अनाग्रह का झोल चढ़ा देता हूं।
रूढ़ि से मैं मुक्त नहीं हूं, पर रूढ़िवादी कहलाऊं, यह मुझे अच्छा नहीं लगता, इसलिए मैं रूढ़ि पर परिवर्तन का झोल चढ़ा देता हूं।
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अनुभव का उत्पल
स्रष्टा कौन ?
कोलाहल होता है, हम जग जाते हैं। शान्ति होती हैं, हम सो जाते हैं।
यह हमारी आरोप की भाषा है।
सच तो यह है हम जगते हैं तभी कोलाहल होता है और हम सोते हैं तभी शान्ति ।
कोलाहल और शान्ति हमारी ही परिधियां हैं।
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( अनुभव का उत्पल )
कसौटी
एक व्यक्ति अच्छा है इसलिए उसे अच्छा मानूं, यह मेरा स्वार्थ है।
जिस घटनाओं की स्मृतिमात्र से सिहरन पैदा होती है, आँखें गीली हो जाती हैं, उनमें या तो उन्माद छिपा होता है या आशीर्वाद।
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सुन्दर या सुखी ?
मैं सुन्दर लगता हूं औरों को और दुःखी बनता हूं अपने आप में। बाहरी उपकरणों से सौन्दर्य बढ़ता है और सुखी बनता हूं उन्हें छोड़कर।
सुखी ?
अनुभव का उत्पल
मैं दूसरों के लिए सुन्दर बनूं या अपने लिए
३०
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(अनुभव का उत्पल
बालक्रीड़ा
देव! मैं तुम्हें ढूंढ़ने को बाहर गया, तब तुम नहीं दीखे।
मैं थककर अपने घर में चला आया। मैंने विस्मय के साथ देखा कि तुम वहां बैठे हो।
मैं स्थूल हुआ, तुम सूक्ष्म हो गये। मैं सूक्ष्म हुआ, तुम स्थूल हो गये। देव! तुम मेरे साथ बाल- क्रीड़ा कर रहे हो। इस प्रकार तुम्हारा बड़प्पन कैसे सुरक्षित रहेगा?
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家
अनुभव का उत्त्पल
सदाचार
सदाचार उसी के पीछे चलता है, जो देश,
काल और परिस्थिति के सामने नहीं झुकता ।
देश काल और परिस्थिति से प्रभावित और पराभूत होने वाला कभी सदाचार की प्राण-प्रतिष्ठा नहीं कर
सकता।
३२
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家
अनुभव का उत्पल
कम अधिक
अन्तर की शुद्धि का महत्व अपने लिए अधिक होता है, दूसरों के लिए कम ।
व्यवहार की शुद्धि का महत्व अपने लिए कम होता है, दूसरों के लिए अधिक ।
३३
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( अनुभव का उत्पल)
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उलझन
तुम दूसरों को अपनी दृष्टि से देखते हो और अपने को दूसरों की दृष्टि से।
... तुम दूसरों को अपनी गज से नापते हो और अपने को दूसरों की गज से।
यही तो वह उलझन है जिससे सारी उलझनें जन्म पाती हैं।
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- अनुभव का उत्पल)
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पारखी
अपने रूप में सब वस्तुएं शुद्ध होती हैं। अशुद्ध वह होती है, जिसका अपना स्व कुछ दूसरा हो और दीखे वह दूसरे रूप में। यह अन्तर और बाहर का भेद जनता को भुलावे में डालता है। इसीलिए मनुष्य को पारखी बनने की आवश्यकता हुई।
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अनुभव का उत्पल
नार
अनुभूति का तारतम्य
जहां साध्य की पूर्ति के लिए कष्ट सहा जाता है, वहां आनन्द की अनुभूति होती है। कष्ट की अनुभूति वहां होती है, जहां वह साध्य की पूर्ति के लिए नहीं सहा जाता।
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-(अनुभव का उत्पल)
चीर
कल्पना का चीर पतला है, उसमें से तुम देख सकते हो पर उसे ओढ़कर चल नहीं सकते।
पुरुषार्थ का चीर इतना सघन है कि उसमें से तुम देख नहीं सकते, पर उसे ओढ़कर चल सकते हो।
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( अनुभव का उत्पल )
लघु-गुरु
गुरुत्व ने अन्तः करण को छुआ कि मनुष्य लघु बन गया और लघुत्व ने अन्तःकरण का स्पर्श किया कि वह गुरु बन गया।
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( अनुभव का उत्पल
सचाई की समझ
जो सामने है वह सचाई कहां है ? सचाई वह है जो सामने नहीं है।
__ जो तरुण है, वह सचाई को नग्न रूप में कैसे रख सकता है? और जो तरुण है, उसके सामने सचाई नग्न रूप में कैसे उपस्थित होगी?
एक शिशु ही सचाई का निरावरण कर सकता है और एक शिशु ही उसका नग्न रूप देख सकता है।
भय से अधिक तरुण कौन होगा, जिसके सामने सचाई अपना धूंघट कभी नहीं खोलती?
अभय से बढ़कर शिशु कौन होगा, जिसके सामने सचाई कभी अपना रूप नहीं छिपाती।
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अनुभव का उत्पल
एक ही लौ
मनुष्य
शत्रु वह नहीं है, जो हमारे ही जैसा है। मनुष्य जैसा है ! मनुष्य मनुष्य का शत्रु नहीं हो सकता । दीप आलोक देता है, भले फिर वह पूरब का हो या पश्चिम का। आलोक आलोक का शत्रु नहीं है।
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उठता।
अनुभव का उत्पल
लघुता का प्रसाद
यह सच है लघु बने बिना कोई भी ऊँचा नहीं
जल स्वतन्त्रता से घूमता-फिरता नीचे चला आया । वह पात्र में पड़ा और तपा कि लघु हो गया । वाष्प बन अनन्त में लीन हो गया।
तपे बिना कौन लघु हो सकता है ? और बिना कौन अनन्त को छू सकता है ?
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- अनुभव का उत्पल)
अनुभव का उत्पल
श्रद्धा और तर्क
तर्क अपने आप में शून्य है। श्रद्धा का उत्कर्ष ही तर्क है।
जिस वस्तु में श्रद्धा रम जाती है, उसका समर्थन सूत्र ही तर्क है।
आज कसौटी है, सोना नहीं। तर्क है, अनुभूति नहीं। अनुभूतिहीन तर्क का उतना ही मूल्य है, जितना सोने के बिना कसौटी का।
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(अनुभव का उत्पल)
पर्दे के उस ओर
।
मैं ढूंढ रहा था भगवान् को। भगवान् ढूंढ रहे थे मुझे। अकस्मात् हम दोनों मिल गए।
न तो वे झुके और न मैं भी झुका। वे मुझसे बड़े नहीं थे, मैं उनसे छोटा नहीं था।
पर्दा मुझे उनसे विभक्त किए हुए था। वह हटा और मैं भगवान् हो गया।
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- अनुभव का उत्पल )
अनुभव का उत्पल
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दिशा की खोज
जहां बनने और बिगड़ने का सर्वोपरि माध्यम किसी दूसरे व्यक्ति की इच्छा ही होती है, वहां बनते बहुत कम हैं, बिगड़ते अधिक हैं।
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__
— अनुभव का अन्यत
अनुभव का उत्पल
जीवन के नैतिक-मूल्य
अकिंचन हूं, इसीलिए मैं महान् हूं। कामनाएं सीमित हैं, इसीलिए मैं सुखी हूं।
इन्द्रियों पर नियंत्रण रखता हूं, इसीलिए मैं स्वतन्त्र हूं।
कथनी और करनी में भेद नहीं जानता, इसीलिए मैं ज्ञानी हूं।
___ बाहरी वस्तुएं मुझे खींच नहीं सकती, इसीलिए मैं सरस हूं।
अपनी कमजोरियों को देखता हूं, इसीलिए मैं पवित्र हूं।
सबको आत्म-तुल्य मानता हूं, इसीलिए मैं अभय
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氣
अनुभव का उत्पल
नियन्त्रण
आय और व्यय अर्थ के सहज रूप हैं। आय के अनुपात से व्यय करने में अधिक खतरा नहीं । व्यय के अनुपात से आय बढ़ाने की बात में गंभीर खतरा है। आय के साधनों को दोषपूर्ण किए बिना व्यय बढ़ाने की बात संभव नहीं होती। अनैतिकता से वही बच सकता है, जो आय के स्रोतों पर नियन्त्रण करने के साथ-साथ व्यय पर भी नियन्त्रण रखे।
अधिक खाना, अधिक मात्रा में खाना, अधिक वस्तुएं खाना आवश्यकता की पूर्ति नहीं, भोग-वृत्ति का उग्र भाव है।
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अनभव का उत्पल
आत्मलोचन
आत्मलोचन वह है, जो परलोचन की वृत्ति को निर्मूल कर दे।
आत्म-निरीक्षण वह है, जो परदोष-दर्शन की दृष्टि को मिटा दे।
दूसरों की आलोचना वही कर सकता है, जिसमें आत्मविस्मृति का भाव प्रबल होता है।
दूसरों को वही देख सकता है, जिसे आत्म-दर्शन की अच्छाइयों का ज्ञान नहीं होता।
अनन्त दीपमालाएं भी वह आलोक नहीं दे सकती, जो आलोक आत्मलोचन और आत्म-निरीक्षण से मिलता
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अनुभव का उत्पल)
क्षमा
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क्षमा का अर्थ है- सहना। सहना पड़े, वह सामर्थ्यहीनता है। सहने को अपना धर्म मानकर, विरोधी भाव को सहना क्षमा है। क्षमा शक्तिशाली का अस्त्र है।
अपनी शक्ति के उन्माद पर नियन्त्रण रखना क्षमा है।
परिस्थितियों की प्रतिकूलता में उत्तेजित न होना क्षमा है।
दूसरों को क्षमा देना नहीं जानता, वह तुच्छ है। दूसरों से क्षमा लेना नहीं जानता, वह उद्दण्ड है।
शान्ति उसे मिलती है, जिसके हृदय में क्षमा का सागर लहराए।
दूसरों की कमजोरियों, अपराधों और भूलों को भुला सके, वही आनन्द का स्रोत बन सकता है।
अपने अपराधों के लिए क्षमा मांगने में जो न सकुचाए, वह महान है।
शान्तिदूत वही है, जो अपनी भूलों से उत्पन्न वेदना को भुला देने का नम्र अनुरोध करे।
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अनुभव का उत्पल
सिद्धान्त और अनुभूति
आज आलोचकों की भरमार है। मौलिक स्रष्टा कम हैं और बहुत कम। कारण सैद्धान्तिकता अधिक है, अनुभूति कम ।
सिद्धान्तवादिता से आलोचना प्रतिफलित होती है और अनुभूति से मौलिकता ।
सिद्धान्त से मौलिकता नहीं आती, मौलिकता के आधार पर सिद्धान्त स्थिर होते हैं।
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- अनुभव का उत्पल)
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आत्मा और व्यवहार
।
आत्मा के साथ व्यवहार की टक्कर होती है तब मनुष्य जितना कर्तव्यमूढ़ बनता है, उतना और कहीं नहीं बनता।
आत्मा की बात मानने पर व्यवहार टूटता है और व्यवहार साधने में आत्मा को गंवाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में पूर्ण विवेक से काम लेना चाहिए।
व्यवहार को कटु न बनाते हुए आत्मा की रक्षा ही सर्वश्रेष्ठ है।
आत्मा के साथ खिलवाड़ करने वाला व्यवहार को भी भली भांति नहीं निभा सकता।
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-(५०)
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अनुभव का उत्पल
ऊंचाई की आत्मा
सफलता के साथ-साथ बढ़ने वाली लघुता दायित्व को और गंभीर बना डालती है। साधना से मिली ऊंचाई परम्परा से पाई हुई ऊंचाई को और भी ऊंचाई प्रदान करती है। सौंपी हुई ऊंचाई नापी जा सकती है। वह ऊँचाई का शरीर है। साधना की ऊंचाई, ऊंचाई की आत्मा है। वह अमाप्य होती है।
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- अनुभव का उत्पल
भूल और यथार्थ
भूल क्या है? साध्य के प्रतिकूल जो है, वह भूल है। साध्य का निर्णय किए बिना, भूल या यथार्थ का निर्णय नहीं होता।
साध्य के निश्चित होने पर जो साध्य के अनुकूल होता है, उसे हम यथार्थ और साध्य के प्रतिकूल होता है, उसे भूल कहते हैं।
-(५२)
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अनुभव का उत्पल
श्रद्धा
श्रद्धा का इतिहास आंसुओं की स्याही से लिखा गया है। जहां भक्त का हृदय भक्ति के उद्रेक से पिघल जाता है, वहां वह भगवान् को भी पिघाल देता है।
जहां तर्कों की कर्कशता होती है, वहां आपसी सम्बन्ध सरस हो नहीं पाते। एकात्मकता का उदय विश्वास की भूमिका में ही होता है और वहां सारा द्वैध विलीन हो जाता है। आसानी से या कठिनाई से मिलने वाले सब स्वादों का अनुभव करने पर भी जिसने श्रद्धा का स्वाद नहीं चखा, उसका जन्म बेकार है ।
श्रद्धे ! तेरा प्राणकोश अत्यन्त सुकुमार होने पर भी तू उन्हीं व्यक्तियों से अनुराग करती है जो भयंकर कष्टों के तूफान में अडोल रहते हों- यह बड़ा आश्चर्य है ।
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अनुभव का उत्पल
साध्य के लिए
साध्य की प्राप्ति के लिए अपना समर्पण ही अनुशासन है। साध्यहीन के लिए कोई अनुशासन नहीं होता। आप जिसे अनुशासित करना चाहें, उसके लिए पहले साध्य निश्चित कीजिए। - मनुष्य साध्य के लिए जीता है और उसी के लिए मरता है।
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- अनुभव का उत्पल,
नियन्त्रण और शोधन
समाज का नियन्त्रण हो सकता है, शोधन नहीं। शोधन व्यक्ति-व्यक्ति का होता है।
सत्ता से सामूहिक परिवर्तन हो सकता है, किन्तु वह केवल बाहरी आकार का होता है।
उपदेश या समझाने से वैयक्तिक परिवर्तन होता है, किन्तु वह हृदय का होता है।
सत्ता का आदेश होता है। उसे कोई चाहे या न चाहे, टाल नहीं सकता।
धर्म का उपदेश होता है, उसे न चाहे, वह टाल सकता है।
एक में विवशता है, दूसरे में हृदय की स्वतन्त्रता। स्वतन्त्रता के लिए उपदेश चाहिए।
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— अनुभव का उत्पन)
अनुभव का उत्पल
अध्यात्म
आकांक्षा का अभाव अध्यात्म है। विकार का अभाव अध्यात्म है। चारित्रिक-कर्मण्यता अध्यात्म है।
अकर्मण्यता अलसता नहीं किन्तु निवृत्ति है अध्यात्म।
अध्यात्म का चरम या परम रूप है- अकर्मण्यता यानि दूसरे पदार्थ के सहयोग का अस्वीकार। सर्वथा आत्म-निर्भरता, यह मुक्त-स्थिति है। जीवन काल में कर्मण्यता में अकर्मण्यता का जो अंश है, वह अध्यात्म है अथवा कर्मण्यता में असत् कर्मण्यता का जो अभाव है, वह अध्यात्म है।
अध्यात्मवाद से आकांक्षा की तृप्ति नहीं, उसका अभाव हो सकता है। .
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— अनुभव का उत्पल )
अनुभव का उत्पल
समदर्शन
असंयम में बाह्य नियन्त्रण रहता है, इसीलिए असंयमी दूसरों के सामने अन्याय करने में झिझकता है।
संयम में अपना नियन्त्रण होता है, इसीलिए संयमी एकान्त में भी अन्याय नहीं करता।
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- अनुभव का उत्पल )
आत्म-दर्शन
पर-नियन्त्रण की अपेक्षा आत्म-नियन्त्रण अधिक उत्तम है।
दूसरों को अनावश्यक कहने में अपनी मानसिक विडम्बना होती है।
आत्म-दोष-दर्शन की वृत्ति सबसे अधिक जटिल
है।
अपनी भूल सुधार के लिए सबसे सरल और अच्छा मार्ग आत्म-दोष-दर्शन है।
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(( अनुभव का उत्पल)
मर्यादा
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श्रद्धा के युग में प्रत्येक मर्यादा की सुरक्षा अपने आप में थी। युग काफी बदल चुका। तर्क के युग में वे सहज कार्यकर नहीं रहीं। जिस स्थिति को जब बदलना चाहिए, वह ठीक समय में बदल जाये तो परिणाम अच्छा आता है। उसे आगे सरकाने का यत्न होता है तो वह बदलती अवश्य है, किन्तु प्रतिक्रिया के साथ। कार्यकर मर्यादा वही है, जिसे पालने वालों की श्रद्धा प्राप्त हो।
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— अनुभव का उत्पल)
अनुभव का उत्पल
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यहां और वहां
धर्म परलोक सुधारने के लिए है- यह सच है, किन्तु अधूरा। धर्म से वर्तमान जीवन भी सुधरना चाहिए! वह शान्त और पवित्र होना चाहिए।
अपवित्र आत्मा में धर्म कहां से ठहरेगा? उसका आलय पवित्र जीवन ही है। जिसे धर्म-आराधना के द्वारा यहां शान्ति नहीं मिली, उसे आगे कैसे मिलेगी?
जिसने धर्म को आराधा, उसने दोनों लोक आराध लिए। वर्तमान जीवन में अंधेरा ही अंधेरा देखने वाले केवल भावी जीवन के लिए धर्म करते हैं, वे भूले हुए हैं।
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— अनुष्य का अल)
- अनुभव का उत्पल)
एक साथ नहीं
विलासी जीवन में धन चमकता है। सादगीपूर्ण जीवन में व्रत चमकते हैं।
धन और व्रत दोनों एक साथ नहीं चमक सकते। न्याय साधनों द्वारा जीवन-निर्वाह योग्य धन मिल जाता है किन्तु आडम्बर और विलास योग्य धन नहीं मिलता। विलास के लिए धन का अतिरेक और उसके लिए अन्यायपूर्ण तरीकों का अवलम्बन होता है, व्रत टूट जाते हैं।
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- अनुभव का उत्पल )
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प्रचार
विकास का वास्तविक क्रम यही है- जो सोए हुए हैं, उन्हें जगाओ, जो जागे हुए हैं, उन्हें प्रगति की ओर ले जाओ।
प्रचार अपने आप में न गुण है और न दोष! शुद्ध साध्य की उपलब्धि के लिए शुद्ध साधनों द्वारा साधना के क्रम को प्रकाश में लाना प्रचार है और वह बुरा तो किसी प्रकार नहीं है।
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भोग और त्याग
भोग समाज की संघातक या संघटक - शक्ति है और त्याग विघातक या विघटक शक्ति ।
अनुभव का उत्पल
भोग समाज की अपेक्षा है और त्याग उसकी 'अति' का नियन्त्रण ।
भोग आत्मा का विकार है और त्याग आत्मा का
स्वरूप !
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अनुभव का उत्पल
यह कैसा स्वाद ?
मेरे या मेरे प्रिय व्यक्ति के बारे में कोई शिकायत करे, वह मुझे प्रिय नहीं लगता। दूसरों की शिकायत में मुझे स्वयं रुचि है, पता नहीं, यह कैसा स्वाद है ?
प्रत्येक प्रवृत्ति बहुत ही चिन्तनपूर्वक होनी चाहिए । तात्कालिक प्रवृत्ति में आवेश होता है, इसलिए उसका परिणाम प्रायः इष्ट नहीं होता ।
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記
अनुभव का उत्पल
इस प्रकार
डोरी को इस प्रकार खींचो कि गांठ न पड़े। अपने को इस प्रकार चलाओ कि लड़ाई न हो। बालों को इस प्रकार संवारों कि उलझन न बने। विचारों को इस प्रकार ढालो कि भिड़न्त न हो।
तात्पर्य की भाषा में आक्षेप और आक्रमण की नीति मत बरतो । उससे गांठ घुलती है, युद्ध छिड़ते हैं, बाल उलझते हैं और चिनगारियां उछलती हैं।
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泉
अनुभव का उत्पल
बहु-निष्ठा
मैंने सोचा- यह बहुनिष्ठा फिर क्या बला है ?
उत्तर की अपेक्षा थी पर दे कौन ? भगवान् ने कह
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दिया- “ अणेगचित्ते खलु अयं - पुरिसे" । अब एक-निष्ठा
की बात कैसे की जाए ?
एक-निष्ठ आखिर है कौन? रानी ने राजा को धोखा दिया, महावत ने रानी को और वेश्या ने महावत को । कामना का क्षेत्र ही ऐसा है। पहले लगाव होता है, फिर सन्देह और निराशा ।
निराशा से परे जो है, वह ब्रह्मचर्य है। जहां आशा ही नहीं, वहां निराशा कैसी ? यही है एक निष्ठा। यहां पहुंच कर ही मैंने समझा, उत्तर पाया, बहु-निष्ठा क्या है ?
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氣
अनुभव का उत्पल
शांति और आकांक्षा
भौतक जीवन का स्तर ऊँचा होगा, आवश्यकताएं बढ़ेंगी, शान्ति कम होगी। अध्यात्मिक जीवन उन्नत होगा, आवश्यकताएं कम होंगी, शान्ति बढ़ेंगी ।
आवश्यकता है वहां श्रम होगा, अशान्ति नहीं ।
आवश्यकता की पूर्ति सम्भव है, आकांक्षा की पूर्ति असम्भव ।
पदार्थ के अभाव में अशान्ति और भाव में शान्ति ऐसी व्याप्ति नहीं बनती। मानसिक नियन्त्रण से मानसिक साम्य होता है और वही शान्ति है । मानसिक अनियन्त्रण से मानसिक वैषम्य बढ़ता है, वही अशान्ति है।
जहां आकांक्षा है, वहां अशान्ति है और जहां आकांक्षा नहीं है, वहां शान्ति है।
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- अनुभव का उत्पल )
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अनुभव का उत्पल
अहिंसा, अपरिग्रह और अध्यात्म
शोषण का मूल जीवन की आवश्यकताएं नहीं, मानसिक अतृप्ति है।
अहिंसा का आधार कायरता नहीं, अभय, समता और संयम है।
अपरिग्रही वह नहीं है, जो दरिद्र है। अपरिग्रही वह है, जो त्यागी है।
अध्यात्मवाद से आवश्यकता की पूर्ति नहीं, उसकी पूर्ति के साधनों का विकार मिट सकता है।
__ अध्यात्म से पदार्थ की प्राप्ति नहीं होती, प्राप्त पदार्थ पर होने वाला ममकार या बन्धन छूट सकता है।
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अनुभव का उत्पल
शान्ति कैसे मिले?
शान्ति कैसे मिले? यह एक प्रश्न है, जो सबसे बड़ा और पहला प्रश्न है। एक छोर समृद्धि का है, दूसरा गरीबी का। दोनों ओर ध्वनि होती है- शान्ति कैसे मिले?
गरीबों के पास धन नहीं है, उन्हें धन के भीतरी रूप का परिचय नहीं है। वे उसके बाहरी रूप पर झूमते हैं। उनके लिए अभी सर्वोपरि आकर्षण धन है। वे कहते हैं- शान्ति कैसे मिले? इसका अर्थ है कि धन कैसे मिले?
__ धनी लोग धन का भीतरी रूप देख चुके हैं। वे जानते हैं, धन और सब कुछ देता है, अच्छी रोटी, अच्छा कपड़ा, अच्छा मकान पर विश्वास को निगल जाता है
और चट कर जाता है प्रेम को। धनी को अपने बेटे का भी विश्वास नहीं होता और प्रेम नहीं होता अपनी पत्नी से भी। विश्वास और प्रेम की गरीबी में उनकी अन्तरात्मा पुकार उठती है- शान्ति कैसे मिले?
इसका अर्थ है कि विश्वास और प्रेम कैसे मिले? गरीब धन के लिए तड़प रहे हैं और धनी तड़प रहे हैं विश्वास और प्रेम के लिए। शान्ति मिली उसको जो न गरीब था और न अमीर, किन्तु जिसके पास था- विश्वास और प्रेम।
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अनुभव का उत्पल
प्रेम हो, विकार नहीं
प्रेम भले हो, विकार नहीं चाहिए। प्रेम का अर्थ है- आत्मा के प्रति आत्मा का आकर्षण। वह देहगामी होते ही विकार बन जाता है। जो विकार से आपस में बंधते हैं, वे एक दूसरे का अनिष्ट करते हैं। विकारी को वियोग सताता है। उससे पल-पल शरीर, मन और आत्मा की शक्ति क्षीण होती है। शक्ति को क्षीण बनाकर कोई भी सम्मानपूर्ण जीवन नहीं जी सकता। प्रेम का मार्ग इससे भिन्न है। उसमें क्षेत्र और काल का अलगाव नहीं होता। वह व्यापक है। प्रेम करने वाला आत्मौपम्य की दृष्टि से सबको सब जगह देखता है।
विकार विष का घड़ा है। उस पर अमृत का ढक्कन लगा है। विकार का आरम्भ मधु-भाव से होता है
और उसका अन्त कटु-भाव में। .. प्रेम अमृत से ढका अमृत का घड़ा है। उसके आरम्भ और अन्त दोनों मधुर हैं।
दूसरों के सौन्दर्य (चैतन्य-विकास) पर झूम उठो पर किसी की चमड़ी या बनावट में आनन्द मत लो। दैहिक सौन्दर्य एक दिन मिट जायेगा। विकारी दिल फट जायेंगे। फिर एक दूसरे के दोष का रहस्य खुलेगा।
_ आत्मा का सौन्दर्य अमिट है। उसका प्रेम जागने पर फिर नहीं सोता। जिसे सब प्रिय है, वह किसी को विकार की ओर नहीं ले जाता। प्रिय वह नहीं जो दूसरों को विकार की ओर खींचे। प्रिय वही है जो दूसरों के विवेक को जगाये, आनन्द की सीख दे।
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( अनुभव का उत्पल )
प्रिय कौन?
ब्रह्मचर्य मुझे प्रिय है। इसलिए मुझे वही व्यक्ति प्रिय होगा जिसे ब्रह्मचर्य प्रिय हो। प्रियता रुचि की समता से फलती है। अप्रियता किसी से भी नहीं होनी चाहिए। किन्तु अप्रियता का अभाव और प्रियता आदि से अन्त तक एक ही नहीं है। अप्रियता के अभाव से आगे की एक विशेष मनोदशा सात्विक अनुरागात्मक है- प्रियता है।
प्रिय वह नहीं जो आपात-भद्र मार्ग में ले जाए। हो सकता है वह मोहवश प्रिय लगे, किन्तु बुरी आदत जो डाले, वह परिणाम विरसता के क्षणों में प्रिय बना रहे, यह सम्भव नहीं लगता।
आखिर श्रद्धा वहां पनपती है जो असत् से सत् की ओर ले जाए। पहले क्षण में हेय का मार्ग भले अप्रिय लगे किन्तु प्रियता का स्थिर-पद वही है। वासना का आकर्षण मनुष्य में रिक्तता पैदा करता है और वह वासना से कभी भरती नहीं। वह रिक्तता मनुष्य को बैचेन बना देती है। वही बैचेनी उसे वासना-हीन मार्ग की ओर जाने को प्रेरित करती है। श्रद्धा और वासना के मार्ग भिन्न हैंयह स्पष्ट हो जाता है।
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- अनुभव का उत्पल )
ब्रह्मचर्य की फलश्रुति
काम वासना एक तीव्र मनोविकार है। क्रोध, भय और शोक का जैसे बुरा असर होता है, वैसे ही वासना-वेग से शरीर रोग- ग्रस्त और विकारमय बन जाता है। यह विकार पहले मन में उत्पन्न होता है। इसीलिए वह “मनोज" या “संकल्प-योनि" कहलाता है। साधक ने कहा
काम! जानामि ते रूपं, संकल्पात् किल जायसे। न त्वां संकल्पयिष्यामि, अतो मे न भविष्यसि ॥
काम! मैं जान गया, तू संकल्प से पैदा होता है। मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा, फिर तू मेरे मन में कैसे पैदा होगा?
किन्तु यह सच है- सारे स्थूलिभद्र और सुदर्शन नहीं होते। साधारण लोग भोग का संकल्प करते हैं। उसका अनिष्ट परिणाम भोगते हैं। काम-वासना का अनिष्ट-परिणाम प्रधानतया वात-वह-मण्डल और अन्तःस्रावक पिण्डों पर होता है। काम वासना तीव्र होती है तो उसका परिणाम बहुत भयंकर होता है। कामी लोग बाहर से स्थूल लगते हैं, उनकी अन्तर की शक्तियां क्षीण हो जाती हैं।
ब्रह्मचारी की विशेषता है-आत्म-बल, प्रतिभा और दृढ़ संकल्प।
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अनुभव का उत्पल
प्रेम किससे?
वाग्देवते!
मैं विद्या प्रधान हूं- यह लोक-पक्ष है। मेरा निजी पक्ष यह नहीं है। मेरी मान्यतानुसार मैं चरित्र प्रधान हूं। मैं चरित्र को जीवन का सर्वोपरि सर्वस्व मानता रहा हूं।
विद्या मुझे कम प्रिय नहीं है किन्तु उसे मैं चरित्र से अभिन्न ही मानता हूं।
एक शब्द में चरित्र का अर्थ है- ब्रह्मचर्य।
भगवान् ने आचार को ब्रह्मचर्य कहा है। जिसने ब्रह्मचर्य को खो दिया, वह आचार को नहीं निभा सकता। इस माने में वह सही है। मेरे लिए ब्रह्मचर्य का प्रश्न महत्वपूर्ण है। मेरा भला इसी में है कि मैं किसी से प्रेम न करूं या उन्हीं से करूं जो स्वयं ब्रह्मनिष्ठ हों और मुझे अपने साध्य की ओर आगे ले जाएं।
(७३)
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नहीं है।
अनुभव का उत्पल
प्रेम कैसे ?
वाग्देवते !
तू मुझे बहुत प्रिय है किन्तु यह कलेवर मुझे प्रिय
प्रिय है तेरी आत्मा । कलेवर को छूने वाले बहुत हैं। उनसे तेरी शोभा आज तक नहीं बढ़ी है। मैं तेरी आत्मा का इष्ट बनूं, यह मेरी साध है।
यह जीवन अमृत का घड़ा है। सारी शक्तियां इसमें स्वयं संचित हैं। अब्रह्मचर्य का छेद उन्हें क्षरणशील बना देता है। फिर मनुष्य कोरा ढांचा रह जाता है । प्रतिभा की सूक्ष्मता, आत्मा का बल, सैद्धान्तिक स्थिरता और आत्म-विश्वास- ये सारे चले जाते हैं।
वाग्देवते !
नहीं ।
तेरी महिमा इसी में है कि तू मुझे अपने प्रिय साध्य की ओर ले जाए। मेरी गरिमा इसी में है कि मैं तेरी विशद - ख्याति का हेतु बनूं। मैं तुझे अपने में निष्ठ हुआ देखना चाहता हूं। मैं जानता हूं निष्ठा में विनिमय नहीं होता ।
दूसरे को स्वनिष्ठ बनाने वाल तन्निष्ठ न बने, वह वंचना है - इसे मैं अस्वीकार नहीं करता ।
मैं चाहता हूं- तेरी और मेरी निष्ठा समदेशीय हो ।
मैं तुझे पाऊं तो ब्रह्म के साथ-साथ पाऊं, नहीं तो
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— अनुभव का उत्पल)
अनुभव का उत्पल
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प्रेम के प्रतीक
मेरे साध्य हैं वे स्थूलभद्र , जो कोशा के कमनीय हाव-भाव और शृंगार से लव भर भी विचलित नहीं हुए।
मेरे साध्य हैं वे स्थूलभद्र, जिन्होंने कोशा की बांकी चितवन की अवहेलना कर डाली। “अच्छि पिच्छियाई कोसा न जेण गणियाई।"
मेरे साध्य हैं वे विजय, जिनकी काम-विजय आज भी हमें विजय के लिए अभियान की प्रेरणा दे सकती है।
मेरे साध्य हैं वे विजय, जिनका भेद-चिन्तन अभेद को देख ही नहीं पाया। वह अपवाद ही रहा।
मेरे साध्य हैं वे सुदर्शन, जिनके चैतन्य दीप को प्रलय-पवन न बुझा सका और जिन्हें मौत न डरा सकी।
मेरे साध्य हैं वे सुदर्शन, जो काजल की कोठरी में बैठकर भी कालिख से बचे और जिन पर कजरारी आंखें कालिख नहीं पोत सकीं।
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अनुभव का उत्पल
भविष्य-दर्शन
भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहे, उसे ब्रह्मचारी रहना ही होगा। ब्रह्मचर्य तब आता है जब संयम हो। संयम का आधार दया है। दया लज्जा से टिकती है।
अब्रह्मचर्य आपात-प्रिय भले लगे, परिणाम-प्रिय नहीं है। विशुद्ध प्रेम वही है, जहां दैहिक विकार न हो। स्थायी प्रेम वही होता है, जो विशुद्ध हो।
हमारा भला इसी में है कि हम इन्द्रिय और मन को जीतें। बलात् ब्रह्मचर्य की भावना पैदा नहीं की जा सकती। इन्द्रिय पर क्वचित् नियन्त्रण किया जा सकता है। मन को नहीं बांधा जा सकता।
ब्रह्मचर्य हृदय बदलने पर ही आ सकता है। मैं अपना हृदय कैसे बदलूं? यह मेरा अपना प्रश्न है। दूसरे का हृदय कैसे बदलूं? यह समस्या है। कमी मेरी अपनी है। मेरा संयम इतना परिपक्क नहीं, समस्या यही है। मेरा संयम सुदृढ हो तो दूसरे पर उसका असर हुए बिना नहीं रह सकता। जो दूसरों को संयत बनाना चाहे, उसे स्वयं अधिक संयत बनना चाहिए।
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( अनुभव का उत्पल)
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ब्रह्मचर्य और अहिंसा
मैं अहिंसक हूं, अहिंसा मेरा साधन है, अभेद मेरा साध्य है।
मैं सत्य-निष्ठ हूं, सत्य मेरा साधन है, पवित्रता मेरा साध्य है।
मैं ब्रह्मचारी हूं, ब्रह्मचर्य मेरा साधन है, ब्रह्म-रमण मेरा साध्य है।
अहिंसा सत्य से व्याप्त है, सत्य अहिंसा से। ब्रह्मचर्य दोनों से व्याप्त है। ब्रह्मचर्य में मेरी श्रद्धा दृढ़ होती है तो अहिंसा और सत्य का विकास होता है। ब्रह्मचर्य में शिथिलता आती है तो सत्य टूटता है और अहिंसा भी। ब्रह्मचर्य को ठीक रखे बिना मैं न सत्य-निष्ठ बन सकता हूं और न अहिंसक भी।
हिंसा और असत्य दोनों की जड़ वासना है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है- वासना का उच्छेद। कार्य व्यक्त होता है, वासना छिपी रहती है। कार्य-निरोध संयम से होता है, वासना धुलती है अहिंसा से। अहिंसा यानी समता। समता यानी आत्म-दर्शन। जो अपने में, दूसरे में, सब में आत्मा को देखता है, आत्मा में परमात्मा को देखता है, वह ब्रह्मचारी बन जाता है। ब्रह्मचर्य से. अहिंसा आती है और अहिंसा से ब्रह्मचर्य। दोनों एक ही साध्य के दो पार्श्व हैं। इनमें पौर्वापर्य नहीं है।
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अनुभव का उत्पल
CIRCH
आत्मा और परमात्मा
"यः परमात्मा स एवाहं"- जो परमात्मा है, वह मैं हूं और जो मैं हूं, वही परमात्मा है। हमारा विश्वास हैआत्मा ही परमात्मा है।
आत्मा और परमात्मा के बीच भय, घृणा, आसक्ति और विकार- ये दीवारें हैं। इसका निर्माण आवरण की ईंटों से होता है। हर मनुष्य ही नहीं, हर जीवित वस्तु आत्मा है। उस पर शरीर का आवरण है। जो आवरण को ही देखता है, वह भय, घृणा, आसक्ति और विकार से भर जाता है।
हम अभय बनना चाहें, स्वस्थ और निर्विकार बनना चाहें तो आत्म-दर्शन का अभ्यास बढ़ाएं। जिससे हमें घृणा है, डर है, आसक्ति है और विकार है, उसमें आत्मा विराजमान है। उस आत्मा में हमारा इष्ट देव परमात्मा विराजमान है।
परमात्मा का भक्त क्या परमात्मा से डरेगा? क्या वह परमात्मा से घृणा करेगा? क्या वह उसे आसक्ति और विकार का हेतु बनाएगा?
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अनुभव का उत्पल
शेष क्या है ?
वह क्या है, जो अभी बाकी है ? यह सोचूं या यह सोचूं कि वह क्या नहीं है जो अभी बाकी है। जो करना चाहिए, वह लगभग सारा का सारा बाकी है। जो नहीं करना चाहिए, वह कितना बाकी है या नहीं है, यह कौन जाने ?
साधना में आया, कुछ करने लगा। उसमें मन रमा, कुछ आगे बढ़ा। सफलता के क्षणों में देखता हूं करना अभी बहुत बाकी है। अशेष दुर्बलता मिट जाए, तब कुछ भी करना शेष नहीं रहेगा। जब तक दुर्बलता शेष है, तब तक कृत्य भी शेष रहेगा।
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____(अनुभव का उत्पल)
अनुभव का उत्पल
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इच्छा और सुख
जिसकी सारी कामनाएं मिट चुकीं, वह कितना सुखी होगा? यह अनुभव की वाणी है। तर्क से इसका कोई लगाव नहीं।
जो अपने को अकिंचन मानता है वह तीन लोक का अधिपति है।
जो सब पर ममत्व रखता है वही सबसे बड़ा दरिद्र है।
तर्क की भाषा में जो अधिक सम्पन्न है, वह अधिक सुखी है। किन्तु वस्तु सत्य ऐसा नहीं है।
__बहुत सारे लोग साधन सम्पन्न होते हुए भी तिलमिला कर जीते हैं। बहुत सारे साधनहीन होते हुए भी आनन्द का जीवन जीते हैं। जो पूरा सुखी होता है उसमें इच्छा नहीं होती। जिसमें इच्छा होती है, वह पूरा सुख नहीं होता। इच्छा सुख की कमी का चिह्न है।
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- अनुभव का अपना
अनुभव का उत्पल
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मैंने क्या किया?
आंख खुली होती है, तब अपने को धन्य मानता हूं। जिसे देखना चाहिए, उसे नहीं भी देखता। किन्तु जो नहीं देखना चाहिए, उसे बड़े प्यार से देखता हूं। आंख मूंदने पर वर्तमान भूत से पूछ बैठता है- मैंने क्या किया?
जीभ चलती है, तब अनिर्वचनीय सुख की अनुभूति होती है। किसलिए खाना चाहिए? यह सिद्धान्त उसकी तहों में छिप जाता है। स्वादपूर्ण वस्तु खाना मानों जीवन का साध्य हो, वैसे खा जाता हूं| आमाशय पर कितना बोझ डाला, यह भी ख्याल नहीं रहता। पानी पीने के समय, फूली हुई आंतें मुझे चौंका देती है- यह मैंने क्या किया?
___ मन में हिलोर उठती है। कल्पना की पीठ पर सवार हो अनन्त की ओर उड़ जाता हूं। आनन्द की धार बह चलती है। इस छोर से उस छोर पल में घूम आता हूं। समझने लगता हूं- मैं सफल हो गया। मन शान्त होता है और यथार्थ की नुकीली धार मुझे खरोंचने लग जाती है। मोह का छिलका हटते ही दिल रो उठता है- हाय! यह मैंने क्या किया?
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— अनुभव का उत्पल)
अनुभव का उत्पल
सुन्दर बनूं
वह क्या है, जो मैं नहीं कर सकता। सब कुछ कर सकता हूं। पर करता उतना ही हूं जितना कि प्रकाश मिलता है।
वह क्या है, जो मैं कर सकता हूं पर नहीं कर रहा हूं।
___ मैं भली भांति जानता हूं कि यह अच्छा है, यह बुरा। हित और अहित का विवेक मुझे मिला है। मेरे आचार्य ने दो अक्षर का बोध देने का मुझ पर अनुग्रह भी किया है, पर शेष है अभी सुन्दर बनना।
___ मैं सुन्दर नहीं हूं, इसका मुझे गौरव है। वह इसलिए है कि मेरे लिए बहुत जाल नहीं बिछाए जाते। शरीर का सौन्दर्य असत्य है। मेरा संकल्प है- सत्य बनूं, शिव बनूं। ऐसा नहीं बनता हूं, तब तक सब कुछ नहीं दे सकता। मैं सुन्दर बनकर ही कुछ दे सकता हूं। किया न किया सब समान है- जब तक मैं सुन्दर न बनूं। शेष यही है- मैं सुन्दर बनूं।
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( अनुभव का उत्पल
न्याय की भीख
न्याय और अन्याय के गीत गाना छोड़ो। अपनी दुर्बलता के अतिरिक्त और अन्याय है भी क्या?
_ न्याय है शक्ति, न्याय है सत्ता और न्याय है अधिकार। जिनके पास शक्ति, सत्ता और अधिकार नहीं हैं, वे न्याय की भीख मांगते ही रहेंगे।
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अनुभव का उत्पल
चाह और राह
मनुष्य में परिणाम के प्रति जो अभिलाषा होती है, वह कारण के प्रति नहीं होती। वह स्वर्ग चाहता है, स्वर्ग की साधना नहीं चाहता ।
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( अनुभव का उत्पल
परख
परीक्षा के लिए शरीर बल अपेक्षित नहीं है। वह बुद्धि बल से होती है। शरीर-बल जहां काम नहीं देता वहां बुद्धि-बल सफल हो जाता है।
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उन्मुखता किधर
विमुखता से दूरी बढ़ती है और उन्मुखता से सामीप्य होता है। कलकत्ता से हम चले और घुसड़ी आये । कलकत्ता चार मील दूर था और दिल्ली आठ सौ इक्यासी मील | किन्तु हम दिल्ली के उन्मुख थे और कलकत्ता की ओर पीठ किये हुए चल रहे थे। हमने देखा, एक दिन दिल्ली चार मील दूर है और कलकत्ता आठ सौ इक्यासी मील ।
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अनुभव का उत्पल
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- अनुभव का उत्पल)
स्मृति और विस्मृति
कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें सदा याद रखना चाहिए।
कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिन्हें तत्काल भुला देना चाहिए।
याद रखने की बातें वे ही नहीं होती, जो प्रिय हैं।
और भुला देने की भी वे ही नहीं होतीं, जो अप्रिय हैं।
वे प्रिय और अप्रिय दोनों प्रकार की बातें याद रखने की होती हैं, जो जीवन पर अपना असर छोड़ जायें। वे प्रिय और अप्रिय बातें भुला देने की होती हैं, जिनका जीवन पर कोई प्रभावोत्पादक परिणाम नहीं होता।
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— अनुभव का उत्पल )
( अनुभव का उत्पल
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जीवन के पीछे
जीवन और क्या है? देह और प्राणों की चेतना के साथ जो समन्विति है, वही तो है।
जो जीया जाता है, वही जीवन नहीं है। जिससे जिया जाता है, वह भी जीवन है। खाये बिना कोई नहीं जीता, यह जितना सच है, उतना ही नहीं। उससे कहीं अधिक सच यह है कि खाने में संयम रखे बिना कोई नहीं जीता।
संयम जीवन ही नहीं किन्तु जीवन का भी जीवन
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अनुभव का उत्पल
ज्योतिर्मय
ज्योतिहीन जीवन भी श्रेय नहीं है और ज्योतिहीन मृत्यु भी श्रेय नहीं है। ज्योतिर्मय जीवन भी श्रेय है और ज्योतिर्मय मृत्यु भी श्रेय है।
वीर पत्नी विदुला ने अपने पुत्र से कहा - " बिछौने पर पड़े-पड़े सड़ने की अपेक्षा यदि तू एक क्षण भी अपने पराक्रम की ज्योति प्रकट करके मर जायेगा तो अच्छा होगा । "
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अनुभव का उत्पल
मृत्यु महोत्सव
सफलता जीवन में होती है पर मृत्यु सबसे बड़ी सफलता है।
जिसकी मृत्यु उत्कर्ष में न हो, आनन्द की अनुभूति में न हो, उसके जीवन की सफलता विफलता में परिणत हो जाती है।
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— अनुभव का उत्पल )
( अनुभव का उत्पल)
मूल्यांकन
जो कुछ अच्छा कार्य होता है उसका अपने-आप में मूल्य होता है किन्तु जनता के द्वारा उसका मूल्यांकन तभी होता है जब वह उस तक पहुंच पाये।
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। अनुभव का उत्पल.
काम्य और अकाम्य
रुचि की अपेक्षा सच यह है कि जीवन काम्य है, मृत्यु अकाम्य।
आचरण की अपेक्षा सच यह है जिसे जीवन काम्य है, उसे मृत्यु भी काम्य है और जिसे मृत्यु अकाम्य है, उसे जीवन भी अकाम्य है।
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— अनुभव का अपन)
-अनुभव का उत्पल
गहरी डुबकी
जितना प्रयत्न पढ़ने का होता है, उतना उसके आशय को समझने का नहीं होता।
जितना प्रयत्न लिखने का होता है, उतना तथ्यों के यथार्थ संकलन का नहीं होता।
___ अपने प्रति अन्याय हो, इसका जितना प्रयत्न होता है, उतना दूसरों के प्रति न्याय करने का नहीं होता।
गहरी डुबकी लगाने वाला गोताखोर जो पा सकता है, वह समुद्र की झांकी पाने वाला नहीं पा सकता।
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अनुभव का उत्पल)
चमत्कार को नमस्कार
दुनिया चमत्कार को नमस्कार करती है। व्यक्ति नहीं पूजा जाता, शक्ति पूजी जाती है। पूर्णिमा के चाँद की पूजा नहीं होती, दूज का चाँद पूजा जाता है।
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अनुभव का उत्पल
कला
कला आखिर वस्तु क्या है? आकर्षक शक्ति का जो अंश है, वही तो कला है। प्रकृति में कला है, चैतन्य में भी | आचार में कला है, विचारों में भी । सत् के कण-कण में कला की अभिव्यक्ति है।
सबसे बड़ी कला है दूसरों के हृदय का स्पर्श करना। उस कला का मूल्य कैसे आंका जाये जो दूसरों के हृदय तक पहुंच ही नहीं सकती ।
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- अनुभव का उत्पल
अनावृत
मन की शुद्धि और दिल की भलाई न मिले तो साफ-सुथरा शरीर और मृदु मुस्कान केवल धोखा है। फटे-चिथड़े और रूखा व्यवहार महत्ता को ढक नहीं सकते।
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- अनुभव का उत्पल
नम्रता
दूसरों के गुणों के प्रति जो अनुराग और अपनी वृत्तियों में जो मृदुता होती है, वही नम्रता है।
बुराई या अन्याय के सामने झुकना नम्रता नहीं, कायरता है।
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– अनुभव का उत्पन्न ।
- अनुभव का उत्पल
द्वैत
जहां द्वैत है वहां परस्पर सापेक्षता आवश्यक है।एक को समझने के लिए दूसरों को समझना ही होगा। जहां एक ही होता है, वहां समझने की स्थिति नहीं बनती। एक अनेक-सापेक्ष होता है और अनेक एक-सापेक्ष।
-९८
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— अनुभव का उत्पल
अनुभव का उत्पल )
-
अद्वैत
अभेद एकता नहीं, समता है। समता का ही दूसरा रूप है- एकता। इसका फलित होता है कि द्वैत में समता की भावना ही अद्वैत की परिभाषा है।
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- अनुभव का उत्पल
पण्डित और साधक
पशु और पण्डित में जितना भेद है, उतना ही भेद पण्डित और साधक में है। पशु अहिंसा की भाषा नहीं जानता जबकि पण्डित जानता है। साधक वह है, जो उसकी भाषा जानने तक ही न रहे, उसकी साधना करे।
आर्य! तू ब्रह्मचारी होना चाहता है तो तू सब कुछ उसी के लिए कर। आस्वाद के लिए मत सूंघ, आस्वाद के लिए मत देख, आस्वाद के लिए मत चख, आस्वाद के लिए मत सुन और आस्वाद के लिए मत चिन्तन कर।
-(900)
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( अनुभव का उत्पल
कृतज्ञता
कृतज्ञता के दो शब्दों का मूल्य वह नहीं आंक सकता, जो केवल लेना ही जाने। जिसके पास कृतज्ञता के दो शब्द भी देने को न हो, उससे दरिद्र कौन होगा?
एक पुष्प अपने उपादानों से उतना भिन्न हो ही नहीं पाता कि वह उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करे।
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अनुभव का उत्पल )
तर्क की सीमा
प्रत्यक्ष या सीधी बात के लिए तर्क आवश्यक नहीं होता। तर्क का क्षेत्र है-अस्पष्टता। स्पष्टता का तात्पर्य है प्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष का अर्थ है तर्क का अविषय।
तर्क की अपेक्षा प्रेम और विश्वास अधिक सफल होते हैं। जहां तर्क होता है वहां जाने-अनजाने दिल सन्देह से भर जाता है। जहां प्रेम होता है वहां सहज विश्वास बढ़ता है।
श्रद्धा के आलोक में जो सत्य उपलब्ध होता है, वह बुद्धि या तर्कवाद के आलोक में नहीं होता।
-(१०२)
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अनुभव का उत्पल
श्रद्धा की भाषा
श्रद्धा ज्ञान की परिपक्व दशा का नाम है। ज्ञान के अभाव में जो श्रद्धा होती है वह यथार्थ में श्रद्धा नहीं होती, किन्तु एक संस्कारगत रूढ़ि होती है।
व्यक्ति में सबसे बड़ा बल श्रद्धा का है। श्रद्धा टूटती है, तब पैर थम जाते हैं, वाणी रुक जाती है और शरीर जड़ हो जाता है। श्रद्धा बनती है तब ये सब गतिशील बन जाते हैं।
समस्या के समाधान का सबसे बड़ा सूत्र है श्रद्धा । किसी भी विवाद का अन्त तर्क से नहीं होता, किन्तु श्रद्धा से होता है। श्रद्धा जीवन की सबसे बड़ी सफलता है।
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— अनुभव का उत्पल)
अनुभव का उत्पल
दो वाद
कहीं श्रद्धा होती है, बुद्धि नहीं होती। कहीं बुद्धि होती है, श्रद्धा नहीं होती।
कहते हैं, श्रद्धा अन्धी होती है, बुद्धि लंगड़ी। श्रद्धालु चलता है और बुद्धिमान् देखता है। ये दोनों अधूरे हैं। पूर्णता इनके समन्वय से आती है।
प्रतिभा का सम्बन्ध मस्तिष्क से है और वैराग्य का हृदय से। विश्वास हृदय से जुड़ता है तभी उसका सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है।
-(१०४
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— अनुभव का उत्पल
अनुभव का उत्पल
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श्रद्धेय
समान श्रेणी के लोगों पर सहज श्रद्धा नहीं होती। उसके लिए आवश्यक है कि एक पहले का हो, दूसरा बाद का। एक ऊपर हो, दूसरा उससे नीचे, और श्रद्धा करने वाले को श्रद्धेय की उदारता, समवृत्ति और विशेष योग्यता में विश्वास हो।
-१०५)
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— अनुभव का उत्पल)
अनुभव का उत्पल
विरोध का परिणाम
विरोध से अप्रिय वातावरण ही नहीं बनता, उससे प्रिय परिस्थिति का निर्माण भी होता है। विरोध के समय जो संगठन होता है, वह साधारण स्थिति में नहीं होता।
अप्रिय परिस्थिति को एक बार सहना ही कठिन होता है। जो एक बार उसे सह लेता है उसके लिए वह अप्रिय नहीं होती।
विरोध मानसिक सन्तुलन की कसौटी है। विरोधी वातावरण को देख जो घबरा जाता है वह पराजित हो जाता है और जो उससे घबराता नहीं, वह उसे पराजित कर देता है।
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अनुभव का उत्पल
गाली का प्रतिकार
गाली वही देता है जो दुर्बल होता है, जो मानसिक सन्तुलन नहीं रख पाता और जिसका स्नायु संस्थान विकृत होता है।
गाली से गाली का प्रतिकार करने में वही समर्थ हो सकता है, जो दुर्बल बने, मानसिक सन्तुलन को खोये और स्नायु संस्थान को विकृत बनाये ।
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भला वही
बुराई करने वाला अवश्य ही बुरा होता है पर बहुत अच्छा तो वह भी नहीं होता जो बुराई के भार से दब जाये ।
बुराई को पैरों से रौंदकर चलने वला ही अपने मन को मजबूती से पकड़ सकता है।
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-( अनुभव का उत्पल -
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नये पुराने की समस्या
___ लोग दो प्रकार की रुचि वाले होते हैं। कुछ लोग पुराने में ही रुचि रखते हैं, परिवर्तन नहीं चाहते। कुछ लोग नये को ही चाहते हैं, परिवर्तन चाहते हैं। यह नये और पुराने का प्रश्न उन्हीं के सामने होता है, जो चिन्तनशील नहीं होते।
परिवर्तन के साथ आलोचना आती है, उसे असफलता नहीं माना जा सकता।
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आलोचना
आलोचना जहां लोचन है वहां निमेष भी है। आलोच्य के लिए वह लोचन है क्योंकि उसके द्वारा आत्मालोकन-विवेक चक्षु के उन्मेष का अवसर मिलता है। आलोचक के लिए आलोचना निमेष है, क्योंकि उसकी दृष्टि आलोचना में ही गड़ जाती है, फिर वह पारिपार्श्विक सत्य को भी नहीं निहार सकता।
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अनुभव का उत्पल )
आलोचना और प्रशंसा
आलोचना दोष की होनी चाहिए और प्रशंसा गुण की। किसी व्यक्ति की आलोचना करने वाला अपने लिए खतरा उत्पन्न करता है, आलोच्य के लिए वह न भी हो। प्रशंसा करने वाला प्रशस्य व्यक्ति के लिए खतरा उत्पन्न करता है, अपने लिए वह न भी हो। .
कुछ लोगों का सिद्धान्त से लगाव नहीं होता, उन्हें आलोचना प्रिय होती है। वे हर किसी विषय को उसकी सामग्री बना लेते हैं। कुछ लोग बेकार हैं। बेकारी में मनुष्य आलोचना के सिवाय और क्या करे ?
विरोध का मूल संस्थाओं में नहीं खोजा जा सकता। वह व्यक्तियों में मिलता है।
-(१११
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— अनुभव का उत्पल
( अनुभव का उत्पल
एक मन्त्र
संसार में सब एक रूप नहीं होते। कुछ लेने का होता है, कुछ छोड़ने का। जानने का सब होता है। जो छोड़ने का हो उसी को छोड़ा जाये, शेष को नहीं। जीवन की सफलता का यह एक मन्त्र है।
जहां लक्ष्य एक होता है वहां प्रेम और एकता होनी चाहिए, कदम एक साथ आगे बढ़ने चाहिए किन्तु ऐसा होता नहीं। सामने कोई कार्य नहीं होता तब तक एकता का विरोध या परिचय नहीं मिलता।
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- अनुभव का उत्पत्त
: अनुभव का उत्पल
भूख और भोग
भूख न आत्मा को लगती है और न शरीर को। भोग की इच्छा न आत्मा में होती है और न शरीर में।
आत्मा और शरीर का योग ही जीवन है। जीवन में भूख भी है और भोग भी।
(११३)
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-( अनुभव का उत्पल )
गठबन्धन नहीं
अवस्था गणित का सवाल है। संस्कार का उद्बोध अन्तर की वृत्तियों का सवाल है। इन दोनों में कोई गठबन्धन नहीं।
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अनुभव का उत्पल
साधना का मार्ग
निग्रह और अनुग्रह ये दोनों एक ही वस्तु के दो पार्श्व हैं। किसी पर अनुग्रह करने वाला किसी का निग्रह भी कर सकता है और किसी का निग्रह करने वाला किसी पर अनुग्रह भी कर सकता है। साधना का मार्ग निग्रह और अनुग्रह से परे है।
११५
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— अनुभव का उत्पल
अनुभव का उत्पल
अर्थवाद
जिस दिन यह समझ में आ जायेगा कि संग्रह की वृत्ति ने मानवता की जड़ खोखली कर दी, उस दिन सिर्फ अर्थ रहेगा, उसका वाद नहीं। अपरिग्रह फैलेगा उसका अनुवाद नहीं।
यह सही कि सब अपरिग्रही नहीं बन सकते पर अपरिग्रह के पथिक बन सकते हैं।
परिग्रह पीठ के पीछे रहे, मुँह के सामने नहीं। लोग उसको न देखें, वह उनको देखे।
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- अनुभव का उत्पल
( अनुभव का उत्पल
उपेक्षा और अपेक्षा
उपेक्षा से अपेक्षा ठीक चलती है। अपेक्षा से अपेक्षा पूरी नहीं होती। अपेक्षा सुख की होनी चाहिए। वह परिग्रह में नहीं, अपने-आप में है।
११७
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अनुभव का उत्पल
श
अनुभव का उत्पल )
रोटी और पुरुषार्थ
आचरण के लिए रोटी को ठुकराने में पुरुषार्थ है। रोटी के लिए आचार को ठुकराने में पुरुषार्थ नहीं, उसका अभाव है।
११८
-(११८)
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अनुभव का उत्पल
सम और विषम
जब आवश्यकता पूरी नहीं होती, तब मनुष्य क्रूर बनता है।
जब आवश्यकता पूर्ति के साधन अधिक होते हैं, तब मनुष्य विलासी बनता है। यह विषम स्थिति है।
सम स्थिति यह है कि श्रम करने वाला आवश्यकता पूरी किये बिना न रहे और श्रम न करने वाला अधिक न पाये।
-(११९
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氣
अनुभव का उत्पल
समझ से परे
अवसर को समझकर बरतना एक बात है और अवसरवादिता दूसरी बात । अवसर को जानना बुरा नहीं, उसे जानकर बरतना बुरा नहीं। बुरा है उसका वाद । वाद ज्ञान और समझ से परे होता है।
१२०
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— अनुभव का उत्पत)
( अनुभव का उत्पल
अनुशासन की समझ
अनुशासन आत्मा के गुरुत्व की कसौटी है। उससे लाघव नहीं आता। लघुता लाने को अनुशासन आये, वह बलात्कार है।
-(१२१)
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— अनुभव का उत्पल)
अनभव का उत्पल
उतार-चढ़ाव
उतार-चढ़ाव किसने नहीं देखे। अन्तर है अनुभूति
चढ़ाव की अनुभूति गर्वपूर्ण होती है। उतार की अनुभूति में वापसी का भाव होता है। चढ़ाव में फिर भी सन्तुलन रहता है, उतार में उसे रखना कठिन होता है।
१२२
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( अनुभव का उत्पल
-
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
जो रमणीय होता है वह शिव भी होता है। जो शिव न हो, कल्याणकारी न हो, वह पल भर रमणीय भले लगे पर वास्तव में रमणीय नहीं होता।
जहां सत्य भी हो, कल्याण भी हो और रमणीय भी हो, वहां आनन्द होगा ही, भले फिर कष्ट हो या आराम।
(१२३)
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अनुभव का उत्पल
अभिव्यक्ति
विफलता से शून्य सफलता है भी कहां ? विद्युत् की पूर्ण अभिव्यक्ति में बल्ब सफल नहीं होता पर प्रकाश की व्यंजना में जो क्षमता उसे प्राप्त है, वह उसकी विफलता नहीं है । यदि कवि नहीं होता तो विद्युत् शक्ति ही रहती, प्रकाश-रूप में अभिव्यक्ति नहीं कर पाती । शक्ति का स्वयं में मूल्य है। व्यवहार जगत् में मूल्य अभिव्यक्ति का ही है।
१२४
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- अनुभव का उत्पल -
मानो या मत मानो
मैं धार्मिक हूं- यह तुम मानो या मत मानो किन्तु यह तो मानो कि मैं अधार्मिक हूं।
मैं आस्तिक हूं- यह तुम मानो या न मानो किन्तु यह तो मानो कि मैं नास्तिक हूं।
मैं प्रकाश हूं- यह तुम मानो या न मानो किन्तु यह तो मानो कि मैं अन्धकार हूं
तुम नहीं जानते- प्रकाश वही होता है, जो अंधेरे में से निकलता है। धर्म वही होता है, जो अधर्म में से निकलता है। आस्था वही होती है, जो अनास्था में उपजती
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( अनुभव का उत्पल )
।
उपासना का मर्म
सम्प्रदाय छोटा होता है और सत्य बड़ा। बड़े की उपासना करने वाला छोटे को स्वयं पा जाता है। छोटे की उपासना करने वाला बड़े से दूर रह जाता है।
सत्य का ठेका तुम्हारे पास भी नहीं है और मेरे पास भी नहीं है। तुम जो कहते हो, वही सत्य है और वह सत्य नहीं है, जो मैं कहता हूं। इसका तुम्हारे पास क्या प्रमाण है ?
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—(अनुभव का उत्पल -
अनुभव का उत्पल)
आत्म-विश्वास
जिसे अपने-आप पर भरोसा नहीं, उसके लिए यह दुनिया भयंकर होगी और भरा होगा उसके लिए इस दुनिया में जहर का समन्दर। पर मेरे लिए तो यह दुनिया बहुत ही मधुर है, बहुत ही सुखद और बहुत ही प्यारी। वह इसीलिए है कि मेरा प्यारा प्रभु परिस्थिति की खिड़की से कभी नहीं झांकता।
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अनुभव का उत्पल
आत्म सत्य
-
रस्सी का एक ही सिरा होता तो गांठ नहीं होती। मनुष्य अकेला ही होता तो द्वन्द्व नहीं होता। सिर पर एक ही बाल होता तो जटिलता नहीं होती। एक ही मस्तिष्क होता तो संघर्ष नहीं होते।
ये अलगाव, लड़ाइयां, उलझनें और चिनगारियां बहुता के परिणाम हैं। यह विश्वाकाश बहुता और एकता के चाँद सूरज से रुका हुआ है। यह हमारा सूर्य बहुता की अनभिव्यक्ति से एकता की स्पष्ट व्यंजना है। अमावस की रात एकता की अनभिव्यक्ति से बहुता की स्पष्ट व्यंजना
-
है।
समय
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- अनुभव का उत्पल -
अनुभव का उत्पल
झुकाव
अपने सम्प्रदाय के विचार जो बुद्धिगम्य हैं, वे मेरी दृष्टि से सत्य हैं और जो बुद्धि से परे हैं, वे मेरे लिए चिंतनीय हैं। दूसरे सम्प्रदायों के विचारों के प्रति मेरा यही दृष्टिकोण होना चाहिए। यह आग्रह नहीं, सत्य की शोध का भाव है। इयत्ता नहीं, अनन्त की ओर झुकाव है।
-(१२९)
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पडेगा ।
अनुभव का उत्पल
निवृत्ति और प्रवृत्ति
तुम निवृत्ति की ओर चलो, प्रवृत्ति का स्रोत फूट
तुम निष्क्रिय बनो, सक्रियता प्रबल हो उठेगी। अरूप बनो, तुम विश्व को रूप दे सकोगे !
गहराई में डूबो तुम स्तूप खड़े कर सकोगे ।
"
मन्थर गति से चलो, तुम वेग दे सकोगे।
आंखें मूंद कर देखो, फिर मार्ग दूर नहीं होगा ।
१३०
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NI
— अनुभव का उत्पल)
अनुभव का उत्पल
समस्या और समाधान
मोह से तर्क उत्पन्न होता है! तर्क से सत्याभास की उपलब्धि होती है। उससे उलझने बढ़ती हैं।
जो निर्मोह होता है, उसमें श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा से सत्य की उपलब्धि होती है। सत्य की उपलब्धि से मन को समाधान मिलता है।
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-( अनुभव का उत्पल)
-
समय की कमी
समय उन्हें नहीं मिलता, जो कुछ भी नहीं करते। जो व्यक्ति कुछ करते हैं, उनके लिए समय की कोई कमी नहीं।
(१३२)
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- अनुभव का उत्पल
व्यक्ति और विराट
जो अपने बारे में सोचता है, वह समूचे विश्व के बारे में सोचता है। अपना विश्व उतना ही विराट है, जितना यह विश्व है। अपनी समस्या उतनी ही जटिल है, जितनी विश्व की है।
(१३३ -
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- अनुभव का उत्पल -
प्रेम
द्वेष के प्रति द्वेष- इसका अर्थ है तुम द्वेष को पुष्ट करना चाहते हो। उसे मिटाने का मार्ग है द्वेष के प्रति प्रेम।
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- अनुभव का उत्पल
श्रृंखला
समूचे संसार को कष्ट दिए बिना एक व्यक्ति को कष्ट नहीं दिया जा सकता। आत्मा का अहित किये बिना दूसरों का अहित नहीं किया जा सकता।
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-(१३५)
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( अनुभव का उत्पल
मंदिर के देवता
तुम भाग्य को कोसने में जितना समय लगाते हो उतना यदि भाग्य के निर्माण में लगाओ तो तुम मंदिर के देवता हो जाओगे और भाग्य तुम्हारा पुजारी।
खिड़कियां खोलो। सूर्य की रश्मियां तुम्हारे लिए प्रकाश का उपहार लिए खड़ी है। तुम्हारे भाग्य की लिपि में अंधकार का लेख नहीं है। खिड़कियों को बंद कर तुमने ही उसे पाला पोसा है।
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अनुभव का उत्पल
अनुभव का उत्पल
-
स्व-दर्शन
मैं अब तक नहीं समझ पाया कि शब्द-शास्त्रियों ने दर्पण को आदर्श कैसे माना? क्या प्रतिबिम्बों को लेने वाला कोई आदर्श हो सकता है?
काँच उसे दो, जो अपना प्रतिबिम्ब देखना चाहे। मुझे विश्वास दो, मैं अपने आप को देखना चाहता हूं।
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- अनुभव का उत्पल -
ज्योति
विरोध ज्योति से पूर्व होने वाला धुआं है। वह क्षण-भर के लिए भले ही लोगों की आँखों को धूमिल बना दे, पर अन्त में ज्योति जगमगा उठती है।
वे व्यक्ति धुएं से कभी निराश नहीं होते, जिन्हें ज्योति की आशा है।
-(१३८)
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अनुभव का उत्पल
सत्य दर्शन
तुम्हे देखने का अर्थ है अपने आप को देखना । काँच को कोई इसलिए नहीं देखता कि वह काँच को देखे । उसे देखने का अर्थ है अपने आप को देखना ।
प्रकाश भी आवरण है और तिमिर भी आवरण है। तुम्हारी आँखे धुंधली है। इसलिए सूरज के आवरण में तारे छिपे हुए हैं।
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अनुभव का उत्पल
शांति और संतुलन
हम आपसे शांति की आशा नहीं कर सकते, मानसिक सन्तुलन की आशा कर सकते हैं। वह होगा तो शांति अपने आप हो जाएगी। शांति मानसिक सन्तुलन का परिणाम है, उसका स्वतन्त्र मूल्य नहीं है ।
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( अनुभव का उत्पल
प्रकाश और स्वास्थ्य
जो धन का संग्रह करते हैं, उसका त्याग नहीं करते, वे प्रकाश की उपेक्षा कर धुएँ को अपने भीतर संचित कर रहे हैं।
जो सत्ता का संग्रह करते हैं, उसका त्याग नहीं करते, वे स्वास्थ्य की उपेक्षा कर दूषित वायु को अपने भीतर संचित कर रहे हैं।
जीवन का सूत्र है- ग्रहण करो, काम में लो और त्याग दो।
जो इस सूत्र से परिचित हैं, उनके जीवन में प्रकाश है, सुख और स्वास्थ्य है।
जो केवल लेना जानते हैं, देना नहीं जानते, भोग करना जानते हैं, किन्तु त्याग करना नहीं जानते, उन्हें न प्रकाश प्राप्त है और न स्वास्थ्य।
भोग से शौर्य का दीप बुझता है और त्याग से वह प्रज्वलित होता है। भोग से जीवन का फूल मुरझा जाता है और त्याग से खिलता है।
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अनुभव का उत्पल
सन्तोष
तारे ऊपर हैं वे नीचे आना चाहते हैं और पेड़ जो नीचे हैं वे ऊपर जाना चाहते हैं सन्तोष ऊपर भी नहीं है नीचे भी नहीं है।
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( अनुभव का उत्पल
मर्यादा का बोध
मर्यादा का बोध वही दे सकता है, जो अपनी मर्यादा को समझता है।
मैं विशाल जलराशि के तट से सटकर खड़ा था, पर मेरे मन में कोई कम्पन नहीं था। यदि वह नदी का तट होता तो मैं कांप उठता, क्योंकि उसकी मर्यादा विश्वसनीय नहीं है।
भय का अर्थ है- मर्यादा का अतिक्रमण
(१४३
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- अनुभव का उत्पल)
मुक्ति
वह दिन मेरे जीवन में अपूर्व होगा, जिस दिन मैं अहंकार से मुक्त हो पाऊंगा
वह दिन मेरे जीवन में अपूर्व होगा, जिस दिन मैं ममकार के नागपाश से अपने को मुक्त कर पाऊंगा।
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अनुभव का उत्पल)
अज्ञात
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मैं जो भी हूं, वह स्वयं के लिए भी ज्ञात नहीं हूं। दूसरों के लिए ज्ञात नहीं हूं, इसमें मुझे आश्चर्य नहीं है। मन के चित्रपट का फीता इतनी जल्दी घूमता है कि जो दृश्य होता है वह क्षण भर के लिए होता है।
नार
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- अनुभव का उत्पल)
समता का क्षितिज
।
वह दिन मेरे जीवन में अपूर्व होगा जिस दिन किसी भी व्यक्ति पर मेरी अधीनता नहीं होगी, दबाव नहीं होगा और उसकी दुर्बलता या विवशता का मेरी क्षमता के द्वारा शोषण नहीं होगा। स्वतंत्रता जितनी मुझे प्रिय है, उतनी ही दूसरों को प्रिय है। दूसरों की स्वतंत्रता को सीमित कर क्या मैं अपनी स्वतंत्रता को असीम रख सकता
-(१४६)
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अनुभव का उत्पल
कसौटी की कसौटी
मैं दूसरों को चार आना उसके शब्दों से पहचानता हूं। दस आना अपनी कल्पना से पहचानता हूं। एक आना जन मान्यता के आधार पर पहचानता हूं और मुश्किल से एक आना वह जैसे है, वैसे पहचानता हूं और कभी कभी वह भी नहीं। फिर मैं दूसरों के प्रति न्याय करने की कल्पना करूं, क्या यह मेरा मतिभ्रम नहीं है?
-
-
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अनुभव का उत्पल
पहचान का प्रश्न
मैं तुम्हारा सही अंकन नहीं कर पाता, इससे केवल तुम्हें व्यावहारिक हानि और कठिनाइयां झेलनी पड़ती है । किन्तु तुम्हारा आत्म-विश्वास हीन होता है, उससे तो तुम्हारी सारी आस्थाएं हिल जाती हैं।
तुम्हे इससे कष्ट होता है कि मैं तुम्हारे सही रूप को नहीं पहचानता । इस विषय में मैं यदि अज्ञान का दोषी हूं तो तुम आत्म-विश्वास की हीनता के दोषी हो ।
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अनुभव का उत्पल
प्रस्तुतीकरण
तुम्हारा प्रश्न है कि तुम जिस रूप में नहीं हो, उस रूप में मैं तुम्हे प्रस्तुत कर रहा हूं। क्या यह अन्याय नहीं है?
न्याय और अन्याय की चर्चा यथार्थ के स्तर पर कभी नहीं होती। वह मान्यता के स्तर पर होती है।
तुम्हारे यथार्थ रूप को जानने के लिए मेरे पास साधन ही क्या हैं ? मैं तुम्हारे उसी रूप को जानता हूं जो मेरी कल्पना द्वारा गृहीत है और मैं तुम्हारे उसी रूप को प्रस्तुत करता हूं जो मेरी मान्यता में प्रतिबिम्बित है। मेरे मित्र! तुम मुझसे इससे अधिक आशा क्यों रखते हो?
(१४९
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— अनुभव का उत्पात )
अनुभव का उत्पल
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प्रतिकार
मैं उस व्यक्ति को महान् मानता हूं जो घृणा का प्रतिकार प्रेम से करता है। हमें जिनके साथ रहना है और जिनका भाग्य परस्पर जुड़ा हुआ है उनके साथ समस्या का समाधान प्रेम से ढूंढना चाहिए। घृणा और तिरस्कार के द्वारा किया जाने वाला समाधान हृदय को जोड़ता नहीं, किन्तु तोड़ता है।
(१५०
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अनुभव का उत्पल
न्याय की मांग
मैं मानता हूं कि उस व्यक्ति ने मेरे साथ न्याय नहीं किया । किन्तु यह मानना क्या सचमुच सही है ? यदि मेरा अन्तःकरण निर्मल नहीं है, उसमें घृणा, वैमनस्य, ईर्ष्या, द्वेष आदि की अग्नि प्रज्वलित है और उसकी धूमकलिकाएं इतस्ततः विकीर्ण है तो मुझे मेरे जैसे ही दूसरे व्यक्ति से न्याय की मांग करने का अधिकार है ?
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अनुभव का उत्पल
विसर्जन
मैं हूं इतना- सा बस "मैं हूं", शेष सब मैं नहीं हूं। उस पर मेरा अहं नहीं हो सकता। वह सब उसी का है, जिसने उसे निर्मित किया है।
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अनुभव का उत्पल
भाग्य रचना
हर आदमी विष या अमृत खाने में जितना स्वतंत्र है, उतना उनके परिणाम भुगतने में स्वतंत्र नहीं है।
तुम्हारा वर्तमान समर्थ और पवित्र होगा तो अतीत और भविष्य कभी अन्धकारमय नहीं होगा ।
झांको उस
तुम भाग्य की ओर मत झांको, तुम पुरुषार्थ की ओर, जो तुम्हारे भाग्य की रचना करता है।
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विष : अमृत
जिसमें विष नहीं होता उसे कोई नहीं सताता । सताया वही जाता है, जो जहर उगलता है। इस सत्य को समझ लेने पर जहर अमृत बन जाता है।
अमृत को जहर बनाने वाले विरले ही होते हैं। जहर को अमृत वही बना सकता है, जिसमें जहर
न हो।
अनुभव का उत्पल
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अनुभव का उत्पल..
शक्ति-स्रोत
तुम विकास चाहते हो तो निश्चित मानो कि दूसरे के विनाश का विचार मन में भरकर तुम विकास नहीं कर सकते। विकास ही विकास का विचार मन में भरो। वह स्वयं खिंचा खिंचा आएगा।
तुम शान्ति चाहते हो तो निश्चित मानो कि जलन का विचार मन में प्रज्वलित कर तुम शान्ति नहीं पा सकते। शान्ति ही शान्ति के विचार से मन को भरो, वह स्वयं तुम्हारा वरण करेगी।
मन को जलाओ, उसके आलोक में अपने आप को ढूंढो। तुम स्वयं देख पाओगे कि तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो।
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अनुभव का उत्पल
परिणाम
यह मनुष्य की मानसिक दुर्बलता है कि वह दूसरों की प्रगति को अवरुद्ध करने के लिए गलत तत्वों को प्रोत्साहित करता है पर वह इस सत्य को भुला देता है कि बुराई को प्रोत्साहन देने का परिणाम कभी उसके लिए भी खतरनाक हो सकता है।
बुराई की सीख देने वाला स्वयं उसके परिणामों से बच नहीं सकता।
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— अनुभव का उत्पल
अनुभव का उत्पल )
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अनुशासन
अनुशासन एक कला है। उसका शिल्पी यह जानता है कि कब कहा जाए और कब सहा जाए। सर्वत्र कहा ही जाए तो धागा टूट जाता है और सर्वत्र सहा ही जाए तो वह हाथ से छूट जाता है।
हर आदमी चाहता है मेरा अनुशासन चले पर यह नहीं चाहता कि मैं अनुशासन में चलूं। उसे अनुशासन करने का कोई अधिकार नहीं है, जो अनुशासन में नहीं रह चुका है।
अनुशासन जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि है। उसमें रहना कठिन है तो उसमें दूसरों को रखना कठिनतर है।
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-(अनुभव का उत्पल)
आत्म-विश्वास
मनुष्य जागकर सोता है, इसका यह मतलब है कि उसे अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं है।
मनुष्य सोकर भी जागता है, इसका यह मतलब है कि उसे अपने आप पर भरोसा है।
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प्रतिपक्ष
प्रेम को पुष्ट करो, क्रोध नष्ट हो जाएगा। मृदुता को पुष्ट करो, अभिमान क्षीण हो जाएगा। ऋजुता को पुष्ट करो, कपट नष्ट हो जाएगा । सन्तोष को पुष्ट करो, लोभ नष्ट हो जाएगा ।
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अनुभव का उत्पल
तर्क और प्रेम
तुम्हारा मन तर्क से भरा है, इसका अर्थ मैं समझता हूं वह प्रेम से खाली है।
मैंने देखा- अप्रियता में तर्क वैसे उभरते हैं, जैसे पित्त-प्रकोप में शरीर में चकत्ते।
प्रियता में वे वैसे ही विलीन हो जाते हैं, जैसे प्रकाश में अंधकार।
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अनुभव का उत्पल
उभयतः पाश
आकाश के सामने प्रस्तुत होता हूं तब अपने को एक परमाणु जैसा पाता हूं। सागर के सामने प्रस्तुत होता हूं तब अपने को एक बिन्दु जैसा पाता हूं। मैं चेतन हूं, आकाश अचेतन है। मैं विचारशील हूं, सागर विचारशून्य है, फिर भी आकाश और सागर की तुलना में मैं छोटा हूं।
क्या यह चैतन्य को चुनौती नहीं है? क्या चैतन्य असीम और अपार नहीं है ? यदि है तो वह साढ़े तीन हाथ की सीमा में सीमित क्यों? यदि वह असीम और अपार नहीं है तो आकाश और सागर को अपनी बांह में भरने का प्रयत्न क्यों ?
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अपना-अपना अस्तित्व
मैं अभी यह निर्णय नहीं कर पाया हूं कि दुनिया मेरे लिए है या मैं दुनिया के लिए हूं? जिस दिन यह निर्णय कर लूंगा उस दिन या तो दुनिया मेरे सिर पर होगी या मैं दुनिया के सिर पर होऊंगा।
मैं अन्न खाता हूं और जल पीता हूं, पर मैं अन्न और जल के लिए नहीं हूं। क्या अन्न और जल मेरे लिए हैं ?
मैं सूरज से आलोक पाता हूं, लिए नहीं हूं। क्या सूरज मेरे लिए है ?
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सत्य का आवरण
जिसने अपनी धारणा की खिड़की से सत्य को देखा है, वह सत्य से दूर भागा है। जिसने तथ्यों की खिड़की से सत्य को देखा है, देखने का प्रयत्न किया है, वह सत्य के निकट पहुंचा है।
यदि इस संसार में अपनेपन का आग्रह नहीं होता तो सत्य का मुंह आवरणों से ढका नहीं होता।
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आश्चर्य
यह पेड़ वाली दुनियां है। तुम धूप से क्यों घबराते हो? जहां धूप है वहां छांह अवश्य होगी।
दुनियां में अनेक आश्चर्य माने जाते हैं पर सबसे बड़ा आश्चर्य है- असफलता के द्वारा पौरुष की पराजय।
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- अनुभव का उत्पल)
दान : आदान
जो दे ही दे, वह खाली हो जाता है। जो ले ही ले, वह अजीर्ण हो जाता है। निरापद मार्ग यह है कि अपना दें और दूसरों का लें।
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अनुभव का उत्पल
धर्म और शास्त्र
चिन्तनशील व्यक्ति यह मानने को तैयार नहीं होता कि सत्य जो है, वह सब शास्त्र की भाषा में बंध जाता है। फिर भी जो सम्प्रदाय और परम्परा को साथ लिए चलता है और शास्त्रों में विश्वास करता है, उसे फूल के साथ कांटे की चुभन भी सहनी होती है।
जब-जब शास्त्रीय वाक्यों की दुहाई बढ़ती है और आत्मानुभूति घटती है, तब-तब शास्त्र तेजस्वी और धर्म निस्तेज हो जाता है।
जब-जब आत्मानुभूति बढ़ती है और शास्त्रीय वाक्यों की दुहाई घटती है, तब-तब धर्म तेजस्वी और शास्त्र निस्तेज हो जाता है।
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त्याग
विषय दुनिया के अंचल में है और वासना हमारे मन के कोने में है। विषय को त्याग कर हम वासना की जड़ को उखाड़ने के लिए आगे बढ़ें, वह त्याग है। विषय को त्यागकर यदि हम वासना को उद्दीप्त कर डालें तो वह त्याग नहीं, त्याग का आभास है।
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अनुभव का उत्पल
श्रद्धा का चमत्कार
श्रद्धालु श्रद्धा करना जानता है, पर वह कैसे टिके, यह नहीं जानता। यह श्रद्धेय को जानना होता है कि वह कैसे टिके ? यह श्रद्धा का ही चमत्कार है कि एक आदेश देता है और लाखों उसे मानते हैं।
आस्था अपने हृदय का पुण्य देवता है । उसमें देवों की शक्ति अर्जित है। जो उसकी आराधना कर पाता है वह सब कुछ कर पाता है।
श्रद्धालु के लिए श्रद्धा सुधा होती है और श्रद्धेय के लिए विष । श्रद्धेय वही होता है, जो विष को पचा सके।
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(( अनुभव का उत्पल
बिंदु : बिंदु
दूसरों को वही डराता है, जो स्वयं डरता है। प्रसन्नता अन्तःकरण की सहज स्वच्छता है। मुक्त वही है जो अपने धागों से बंधा हुआ है। भित्ति तैयार हो तो चित्र अपने आप बन जाता है।
अन्धकार को मिटाने का एक ही उपाय है और वह है जलना।
स्वार्थ सिद्धि का रहस्य है, स्वार्थ का विसर्जन।
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अनुभव का उत्पल)
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मन की मुक्ति
बन्धन बन्धन को जन्म देता है और मुक्ति-मुक्ति को। बन्धन से मुक्ति पाने की अनिवार्य शर्त है मन की मुक्ति।
जिसका मन सरल होता है, वह दूसरों से ठगा नहीं जाता। ठगा वही जाता है, जिसके अपने मन में गरल होता है।
-१७0
१७०)
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वाला ।
अनुभव का उत्पल
नेता
नेता का अर्थ होता है दूसरों को लेकर चलने
जो व्यक्ति नेता होकर भी दूसरों के मन को नहीं पढ़ सकता, वह दूसरों को साथ लिए नहीं चल सकता ।
दूसरों के मन को वही पढ़ सकता है, जिसके मन की स्वच्छता में दूसरों के मन अपना प्रतिबिम्ब डाल सकें । इस संसार में सबसे बड़ी कला है दूसरों के हृदय को स्पर्श करना।
१७१
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( अनुभव का उत्पल )
सन्तुलन
काम के बाद आराम और आराम के बाद काम जो करता है, वह उस व्यक्ति की अपेक्षा अधिक काम कर सकता है, जो निरन्तर काम ही काम करता है।
(१७२
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(अनुभव का उत्पल
बड़ी : छोटी
उद्देश्यहीन प्रवृत्ति बड़ी होकर भी अकिंचित्कर हो जाती है और उद्देश्य प्रधान प्रवृत्ति छोटी होकर भी बहुत बड़ी हो जाती है।
___सफलता का मार्ग यही है कि कार्य के अनुरूप प्रयत्न हो। अल्प अनुष्ठान के लिए अल्प प्रयत्न और महान् अनुष्ठान के लिए प्रयत्न भी महान् हो।
-(१७३)
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अनुभव का उत्पल
आरती
प्राण-प्रतिष्ठा की कमी इस दुनिया में नहीं है।
कमी है चित्र बनाने वालों की । चित्र बनता है तो प्राण अपने आप भर जाता है।
अपने परमात्मा को जगाओ, ऐश्वर्य तुम्हारी आरती उतारने की प्रतीक्षा में खड़ा रहेगा।
१७४
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— अनुभव का उत्पल )
( अनुभव का उत्पल
घटना और सीख
व्यक्ति के जीवन में हर घटना सीख देने के लिए आती है। चिन्तनशील मनुष्य सीख को पकड़ लेता है और घटना को भुला देता है। चिन्तन-शून्य मनुष्य घटना को पकड़ लेता है और उसके द्वारा मिलने वाली सीख को भुला देता है।
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-(१७५)
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अनुभव का उत्पल
मोह
बुराई को बुराई न मानने वाला उसे न छोड़े, यह अज्ञान है पर बुराई को बुाई मानने वाला उसे न छोड़े, कुछ और है।
वह
१७६
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अनुभव का उत्पल.
अकेलापन
सहानुभूति के अभाव में कठिनाई की अनुभूति प्रखर हो जाती है और सहानुभूमि मिलने पर वह कम न भी हो पर उसकी अनुभूति अवश्य ही कम हो जाती है।
4:१७७.
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अनुभव का उत्पल
___
— अनुभव का उत्पल ) -
फलित
प्रामाणिकता का अर्थ है अपने प्रति सच्चा रहना।
जो दूसरों का बुरा करने में अपना बुरा देखता है, वह बुराई से बच सकता है।
जो अपने प्रति सच्चा नहीं होता, वह किसी के प्रति सच्चा नहीं होता।
--
-(१७८)
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- अनुभव का उत्पल
( अनुभव का उत्पल
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प्रतिकार का अधिकार
अन्याय असत् है। उसे स्वीकार मत करो, किन्तु अन्याय की भांति घृणा भी असत् है, उसे भी स्वीकार मत करो। जिस व्यक्ति के मन में दूसरों के प्रति घृणा है, उसे अन्याय का प्रतिकार करने का कोई अधिकार नही है।
(१७९
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氣
अनुभव का उत्पल
विपर्यय
इस दुनिया में सम्यक् कम है, विपर्यय अधिक । रोग कहीं है और चिकित्सा कहीं । भूख कहीं है और भोजन कहीं । चाह कहीं है और राह कहीं ।
१८०
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अनुभव का उत्पल )
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निदान
भोजन की भूमिका से जीभ की तुष्टि को निकाल दिया जाए तो अन्न का उतना अभाव नहीं रहेगा, जितना आज है।
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(१८१
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- अनुभव का उत्पल
( अनुभव का उत्पल
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मुखर : मौन
आदमी जिन सीढ़ियों से चढ़ता है, उन्हीं से उतरता है और जिनसे उतरता है, उन्हीं से चढ़ता है। यहां कर्तृत्व मुखर है, माध्यम मौन।
जो सर्दी से जमता है, वह ताप से पिघल जाता
___ जो सर्दी पर विजय पा लेता है, उसे गर्मी नहीं पिघाल सकती।
(१८२
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氣
अनुभव का उत्पल
पगडंडी : राजपथ
मैंने जान-बूझकर पगडंडियों का पथ चुना है।
राजपथ इतने संकीर्ण हो गए हैं कि अब उनमें चलने को अवकाश नहीं है।
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— अनुभव का उत्पल
( अनुभव का उत्पल)
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धार्मिक
जो आत्म-केन्द्रित होकर बाहर फैलता है, वह धार्मिक है। जो आत्म-केन्द्रित हुए बिना बाहर फैलता है, वह कैसा धार्मिक?
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अनुभव का उत्पल
पथ : अपथ
पैरों के नीचे धरती है, इसलिए पथ का निर्माण करता हूं। सिर पर आकाश है, इसलिए अपथ का आह्वान करता हूं। मेरा पथ से अपथ बाधित नहीं है।
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आचार्य महाप्रज्ञ की
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