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अनुभव का उत्पल
भविष्य-दर्शन
भविष्य को उज्ज्वल बनाना चाहे, उसे ब्रह्मचारी रहना ही होगा। ब्रह्मचर्य तब आता है जब संयम हो। संयम का आधार दया है। दया लज्जा से टिकती है।
अब्रह्मचर्य आपात-प्रिय भले लगे, परिणाम-प्रिय नहीं है। विशुद्ध प्रेम वही है, जहां दैहिक विकार न हो। स्थायी प्रेम वही होता है, जो विशुद्ध हो।
हमारा भला इसी में है कि हम इन्द्रिय और मन को जीतें। बलात् ब्रह्मचर्य की भावना पैदा नहीं की जा सकती। इन्द्रिय पर क्वचित् नियन्त्रण किया जा सकता है। मन को नहीं बांधा जा सकता।
ब्रह्मचर्य हृदय बदलने पर ही आ सकता है। मैं अपना हृदय कैसे बदलूं? यह मेरा अपना प्रश्न है। दूसरे का हृदय कैसे बदलूं? यह समस्या है। कमी मेरी अपनी है। मेरा संयम इतना परिपक्क नहीं, समस्या यही है। मेरा संयम सुदृढ हो तो दूसरे पर उसका असर हुए बिना नहीं रह सकता। जो दूसरों को संयत बनाना चाहे, उसे स्वयं अधिक संयत बनना चाहिए।
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