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अनुभव का उत्पल
प्रेम हो, विकार नहीं
प्रेम भले हो, विकार नहीं चाहिए। प्रेम का अर्थ है- आत्मा के प्रति आत्मा का आकर्षण। वह देहगामी होते ही विकार बन जाता है। जो विकार से आपस में बंधते हैं, वे एक दूसरे का अनिष्ट करते हैं। विकारी को वियोग सताता है। उससे पल-पल शरीर, मन और आत्मा की शक्ति क्षीण होती है। शक्ति को क्षीण बनाकर कोई भी सम्मानपूर्ण जीवन नहीं जी सकता। प्रेम का मार्ग इससे भिन्न है। उसमें क्षेत्र और काल का अलगाव नहीं होता। वह व्यापक है। प्रेम करने वाला आत्मौपम्य की दृष्टि से सबको सब जगह देखता है।
विकार विष का घड़ा है। उस पर अमृत का ढक्कन लगा है। विकार का आरम्भ मधु-भाव से होता है
और उसका अन्त कटु-भाव में। .. प्रेम अमृत से ढका अमृत का घड़ा है। उसके आरम्भ और अन्त दोनों मधुर हैं।
दूसरों के सौन्दर्य (चैतन्य-विकास) पर झूम उठो पर किसी की चमड़ी या बनावट में आनन्द मत लो। दैहिक सौन्दर्य एक दिन मिट जायेगा। विकारी दिल फट जायेंगे। फिर एक दूसरे के दोष का रहस्य खुलेगा।
_ आत्मा का सौन्दर्य अमिट है। उसका प्रेम जागने पर फिर नहीं सोता। जिसे सब प्रिय है, वह किसी को विकार की ओर नहीं ले जाता। प्रिय वह नहीं जो दूसरों को विकार की ओर खींचे। प्रिय वही है जो दूसरों के विवेक को जगाये, आनन्द की सीख दे।
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