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– अनुभव का उत्पल )
अनुभव का उत्पल)
मुक्ति -प्रेम
जेठ का महीना था। धूप लहरी विकराल बन रही थी। पनिहारी ने जल का तपा घड़ा काठ की पट्टी पर ला रखा। नीचे गरम पवन से तप्त धूलि थी।
बन्धन असह्य होता है। बलिदान का भाव उत्कृष्ट हुआ। जल का एक बिन्दु नीचे गिरा। मैंने देखा- धूलि ने उसे सोख लिया। दूसरा गिरा पर वह भी बच नहीं सका। नीचे गिरते और सोखे जाते हुए सब बिन्दुओं का मुक्ति-प्रेम मैंने नहीं देखा और मिट्टी की सम-रस नृशंसता को भी मैंने नहीं देखा। पर मैंने देखा कि अब घड़ा खाली है।
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