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अनुभव का उत्पल
अभिव्यक्ति का मोह
मैं छोड़ कर भी क्या नहीं छोड़ रहा हूं? मैं लेता रहता हूं तो क्या नहीं ले रहा हूं? यही प्रश्न आंखों के सामने घूमता है। अब मैंने छोड़ना भी सीख लिया, इसलिए छोड़ने की बात सताने लगी है। मैं छोड़ना चाहता हूं उसे भी, जिसे मैं सबसे अधिक प्यार करता हूं। किन्तु मुझे अभिव्यक्ति का मोह नहीं छोड़ रहा है। चाहे वह कैसा ही हो- सुडौल या कुडौल, गोरा या काला, लम्बा या ठिंगनामैं व्यक्त उसी से हुआ हूं। मैं उसे छोड़ दूं तो मेरा क्या होगा? यह आशंका छा जाती है। उसे नहीं छोड़ता हूं तो बहुत कुछ नहीं छोड़ पाता हूं।
आखिर बुरी बला अभिव्यक्ति का मोह है। उसे छोड़कर ही मैं सोच सकता हूं कि मैं क्या नहीं छोड़ रहा
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