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________________ नहीं है। अनुभव का उत्पल प्रेम कैसे ? वाग्देवते ! तू मुझे बहुत प्रिय है किन्तु यह कलेवर मुझे प्रिय प्रिय है तेरी आत्मा । कलेवर को छूने वाले बहुत हैं। उनसे तेरी शोभा आज तक नहीं बढ़ी है। मैं तेरी आत्मा का इष्ट बनूं, यह मेरी साध है। यह जीवन अमृत का घड़ा है। सारी शक्तियां इसमें स्वयं संचित हैं। अब्रह्मचर्य का छेद उन्हें क्षरणशील बना देता है। फिर मनुष्य कोरा ढांचा रह जाता है । प्रतिभा की सूक्ष्मता, आत्मा का बल, सैद्धान्तिक स्थिरता और आत्म-विश्वास- ये सारे चले जाते हैं। वाग्देवते ! नहीं । तेरी महिमा इसी में है कि तू मुझे अपने प्रिय साध्य की ओर ले जाए। मेरी गरिमा इसी में है कि मैं तेरी विशद - ख्याति का हेतु बनूं। मैं तुझे अपने में निष्ठ हुआ देखना चाहता हूं। मैं जानता हूं निष्ठा में विनिमय नहीं होता । दूसरे को स्वनिष्ठ बनाने वाल तन्निष्ठ न बने, वह वंचना है - इसे मैं अस्वीकार नहीं करता । Jain Education International मैं चाहता हूं- तेरी और मेरी निष्ठा समदेशीय हो । मैं तुझे पाऊं तो ब्रह्म के साथ-साथ पाऊं, नहीं तो ७४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003138
Book TitleAnubhav ka Utpal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size5 MB
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