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-( अनुभव का उत्पल
लौ से लौ
मैं जो कुछ करूं वह लोकैषणा से मुक्त होकर करूं, ऐसी प्रेरणा मिलती है। श्रद्धा जागती है, समय-समय पर दृढ़ निश्चय भी करता हूं। किन्तु कार्यकाल में जो मानसिक स्थिति बनती है उसके बारे में कुछ नहीं बनता। इसकी गहराई में क्या छिपा हुआ है- यह ढूँढ़ निकालना असम्भव जैसा हो रहा है। फिर भी मेरे निरन्तर चिन्तन के बाद मुझे जो कुछ सूझा, वह यही है- हमारा जीवन परावलम्बी है। हम अपने आपमें ऊँचे- नीचे, छोटे-बड़े कुछ भी नहीं हैं। जो मैं लिख रहा हूं, वह मानसिक जगत् की बात है, बाहरी जगत् में हमारे लिए चाहें जैसी कल्पनाएं की जाती हों।
___ बाहरी जगत् का मानसिक जगत् पर असर हुए बिना नहीं रहता। मेरा स्वयं को बड़ा समझने का मानदण्ड वही है, जिससे दुनियां दूसरों को बड़ा समझती है। मैं दुनियां के पीछे चलना नहीं चाहता हूं, किन्तु मुझे बड़ा बनने की भूख है। इसलिए मुझे अनिच्छा से भी उसके पीछे चलना होता है। कोई भी आदमी पद के लिए उम्मीदवार न बने, प्रतिष्ठा की भूख न रखे- यह ठीक है, नीति की पुकार है। किन्तु जब सत्ता के प्रांगण में सत्ताधीश के साथियों और सगे-सम्बन्धियों का लालन-पालन देखता है, तब दर्शक के मुँह में सत्ता की लार टपक पड़ती है और उसके साथी-संगी भी उसे सत्ता की ओर झुकने के लिए बाध्य किए बिना नहीं रहते। मुझे विश्वास है कि मैं इस प्रसंग में भूल नहीं रहा हूं।
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