Book Title: Agam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्क पूज्य गुरुदेव श्री.जोरावरमलजी महाराज कर स्मृति में आयोजित परळ स् युवाचार्य श्री मधुकर मुनि अनुत्तपिपातिकदशा (मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-पशिष्ट युग) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अर्ह जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क -6 [परमश्रद्धय गुरुदेव पूज्य श्रीजोरावरमलजी महाराज की पुण्यस्मृति में आयोजित ] पंचम गणधर भगवत्सुधर्म-स्वामि-प्रणीत नवम अंग अनुत्तरोपपातिकदशांग [ मूल पाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, परिशिष्ट युक्त ] सन्निधि 0 उपप्रवर्तक शासनसेवी स्वामी श्रीव्रजलालजी महाराज संयोजक तथा प्रधान सम्पादक) युवाचार्य श्रीमिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादन-विवेचन / साध्वी मुक्तिप्रभाजी, एम. ए., पी-एच. डी. [आचार्यसम्राट श्रीमानन्दऋषिजी म. की सुशिष्या और महासती श्रीउज्ज्वलकुमारीजी की अन्तेवासिनी ] प्रकाशक - श्री आगमप्रकाशन-समिति, ब्यावर, राजस्थान Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क 6 सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' श्रीदेवेन्द्र मुनि शास्त्री श्रीरतन मुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल aa प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' 1 सम्प्रेरक मुनि श्रीविनयकुमार 'भीम' श्रीमहेन्द्रमुनि 'दिनकर' / प्रकाशनतिथि वीरनिर्वाणसंवत् 2508 वि. सं. 2038 ई. सन् 1981 प्रकाशक श्री आगमप्रकाशनसमिति जैनस्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) ब्यावर–३०५६०१ मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, अजमेर 1 मूल्य : 16) रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj Fifth Ganadhara Sudharma Swami Compiled Ninth Anga ANUTTAROVAVAJA-DASAO [Original Text, Hindi Version, Notes, Annotations and Appendices etc.) Proximity Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Chief Editor Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj Madhukar' Translator & Annotator Sadhwi Muktiprabha M. A., Ph. D. Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj. ) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 6 O Board of Editors Anuyoga-pravartaka Munisri Kanhaiyalal 'Kamal* Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachadra Bharill Managing Editor Srichand Surana 'Saras' 0 Promotor Munisri Vinaykumar 'Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinkar' Date of Publication Vir-nirvana Samvat 2508 Vikram Samvat 2038, July 1981 [ Publishers Sri Agam Prakashana Samiti Jain Sthanak, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) Beawar 305901 O Printer Satish Chandra Shukla Vedic Yantralaya, Ajmer Price : Rs. 16 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण ল্প ওঠা-হাওয়ায় নিহত आगमों के अध्ययन के लिए तरसते थे, उस युग में सम्पूर्ण बत्तीसी का जिन्होंने एकाकी-असहायक रूप में अनुवाद कर के संघ और शासन का महान उपकार किया तथा अन्य विपुल साहित्य की रचना की-नूतन युग की प्रतिष्ठा की, जो अद्यतन काल में आगम-युग प्रवर्तक थे. जो सरलता, विनम्रता और विद्वत्ता के सजीव प्रतीक थे, जिनका पावन स्मरण आज भी भव्य जनों की अन्तरात्मा में श्रद्धा और भक्ति उपजाता है, उन परमपूज्य आचार्यवर्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज के कर-कमलों में - मधुकर मुनि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय पागम प्रकाशन समिति किस पावन अवसर पर किस शुभ उद्देश्य से अस्तित्व में आई और किस प्रकार उसके द्वारा जिनागम-प्रकाशन-ग्रन्थमाला आरम्भ की गई, इसका संक्षिप्त उल्लेख पूर्व प्रकाशित आगमों के प्रकाशकीय निवेदन में किया जा चुका है। पाठकों को भलीभांति विदित है कि अब तक समिति ने प्राचारांग (दो भागों में), उपासकदशांग और ज्ञाताधर्मकथांग जैसे महान् प्रागमग्रन्थों का प्रकाशन किया है। सन्तोष का विषय है कि समाज ने इन प्रकाशनों को प्रेम और श्रद्धा से अपनाया है तथा जैन-जनेतर विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से इनकी प्रशंसा की है। इससे हमारे उत्साह में वृद्धि हुई है। ज्ञाताधर्मकथा के प्रकाशन के पश्चात् स्वल्प समय में ही अन्तकृद्दशांग और अनुत्तरोपपातिकदशांग का प्रकाशन लगभग साथ-साथ ही हो रहा है। सूत्रकृतांगसूत्र का मुद्रण आगरा में तथा स्थानांगसूत्र का मुद्रण अजमेर में चल रहा है / आशा है निकट भविष्य में ही ये दोनों आगम मुद्रित और प्रकाशित होकर आगमप्रेमी पाठकों के हाथों में आ जाएँगे। समवायांग अनूदित और सम्पादित होकर तैयार है। स्थानांग के पश्चात् वह प्रेस में दिया जाएगा / व्याख्याप्रज्ञप्ति विशालकाय आगम है / वह कई भागों में प्रकाशित किया जा सकेगा। उसका प्रथम भाग, जिसमें लगभग चार शतकों का समावेश होगा, शीघ्र प्रेस में देने की स्थिति में आ रहा है / अन्य आगमों के सम्पादन और अनुवादन का कार्य भी चालू है / Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत आगम अनुत्तरोपपातिक का सम्पादन और अनुवाद विदुषी महासती श्री मुक्तिप्रभाजी म०, एम. ए., पी-एच. डी. ने अत्यन्त परिश्रम के साथ किया है / महासतीजी परमपूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यसम्राट् श्री आनन्दऋषिजी महाराज की शिष्या हैं, उत्कट विद्याव्यसनी हैं / अन्तकृद्दशांग का अनुवाद भी आपकी ही धर्म-संयम-सहचरी महासती श्री दिव्यप्रभाजी ने किया है। अतिशय हर्ष का विषय है कि हमारे संघ में साध्वीसमुदाय में नूतन विकसित प्रतिभा का निर्माण हो रहा है। साध्वियों के द्वारा आगम-अनुवाद-सम्पादन का कार्य कुछ समय से ही प्रारम्भ हुआ है। श्रमणीविद्यापीठ घाटकोपर (बम्बई) की कतिपय महासतियों ने गुजराती भाषा में प्रागमों का अनुवाद किया और वह प्रकाशित भी हुआ है। हिन्दी भाषा में, जहाँ तक हमारी जानकारी है, यह प्रयास सर्वप्रथम है / हमारे लिए यह भी गौरव का विषय है कि गुजराती और हिन्दी में महासतियों ने जो स्वागतयोग्य आगम-सेवा की है, वह इस ग्रन्थमाला के सम्पादक पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल को ही देख-रेख में हुई है / महासतियों को इस आगमिक क्षेत्र में लाने की पण्डितजी की सूझ अभिनन्दनीय है। प्रस्तुत आगम की विस्तृत प्रस्तावना सम्पादकमण्डल के अन्यतम सदस्य विख्यात विद्वान् एवं साहित्यकार श्री देवेन्द्रमुनिजी शास्त्री ने लिख कर इस संस्करण को महत्त्व प्रदान किया है। इस अमूल्य सहयोग के लिए हम मुनिश्री के प्रति प्रणत है / / ___ आगमसेवा के इस परम पुनीत अनुष्ठान में हम अपने सहयोगियों को विस्मरण नहीं कर सकते, जिनके मूल्यवान् सहयोग से ही यह सम्पन्न हो रहा है। श्रावकवर्य पद्मश्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, सेठ कंवरलालजी बैताला, श्री मूलचन्दजी सुराणा, श्री दौलतरामजी पारख, श्रीरतनचन्दजी मोदी का हार्दिक सहयोग विभिन्न रूपों में हमें प्राप्त है। समिति के कार्यालय का संचालन श्रीसुजानमलजी सेठिया आत्मीयता की भावना के साथ कर शोभाचन्द्रजी भारिल्ल तो इस योजना के महत्त्वपूर्ण केन्द्र हैं। हम इन सभी के प्रति आभारी हैं। ___ श्रमणसंघ के युवाचार्य सर्वतोभद्र विद्वद्वरिष्ठ श्रीमधुकरमुनिजी के प्रति किन शब्दों में आभार प्रकट किया जाए जिनकी शासनप्रभावना की उत्कट भावना, उद्दाम आगमभक्ति, धर्मज्ञान के प्रचारप्रसार की तीव्र उत्कंठा और अप्रतिम साहित्यानुराग की बदौलत ही हमें सेवा का यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। अन्त में गहरे दु:ख के साथ हमें यह उल्लेख करना पड़ रहा है कि अब तक प्रस्तुत प्रकाशकीय वक्तव्य जिनकी ओर से लिखा जाता था, जो आगमप्रकाशनसमिति के कार्यवाहक अध्यक्ष के रूप में समिति के प्रमुख संचालक और व्यवस्थापक थे-कर्णधार थे, वे सेठ पुखराजजी शोशोदिया अब हमारे बीच नहीं रहे। आपके आकस्मिक निधन से न केवल समिति की किन्तु समग्र समाज की अपूरणीय क्षति हुई है / हार्दिक कामना है कि स्वर्गस्थ महान् आत्मा को अखंड शान्ति लाभ हो / शुभम् / जतनराज महता / / चांदमल विनायकिया महामन्त्री मन्त्री श्रीनागमप्रकाशनसमिति, ब्यावर Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामुख जैनधर्म, दर्शन व संस्कृति का मूल आधार वीतराग सर्वज्ञ की वाणी है। सर्वज्ञ अर्थात् आत्मदृष्टा / सम्पूर्ण रूप से प्रात्मदर्शन करने वाले ही विश्व का समग्र दर्शन कर सकते हैं। जो समग्र को जानते हैं, वे ही तत्त्वज्ञान का यथार्थ निरूपण कर सकते हैं / परमहितकर निःश्रेयस का यथार्थ उपदेश कर सकते हैं। सर्वज्ञों द्वारा कथित तत्त्वज्ञान, प्रात्मज्ञान तथा प्राचार-व्यवहार का सम्यक् परिबोध पागम, शास्त्र या सूत्र के नाम से प्रसिद्ध है। तीर्थकरों की वाणी मुक्त सुमनों की वृष्टि के समान होती है। महान् प्रज्ञावान गणधर उसे सूत्र रूप में ग्रथित करके व्यवस्थित आगम का रूप दे देते हैं।' अाज जिसे हम 'पागम' नाम से अभिहित करते हैं, प्राचीन समय में वे 'गणिपिटक' कहलाते थे / 'गणिपिटक' में समग्र द्वादशांगी का समावेश हो जाता है। पश्चाद्वर्ती काल में इसके अंग, उपांग, मूल, छेद आदि अनेक भेद किये गये। जब लिखने की परम्परा नहीं थी, तब आगमों को स्मृति के आधार पर या गुरु-परम्परा से सुरक्षित रखा जाता था। भगवान् महावीर के बाद लगभग एक हजार वर्ष तक 'पागम' स्मतिपरम्परा पर ही चले आये थे। स्मृतिदुर्बलता, गुरुपरम्परा का विच्छेद तथा अन्य अनेक कारणों से धीरे-धीरे अागमज्ञान भी लुप्त होता गया। महासरोवर का जल सूखता-सूखता गोष्पद मात्र ही रह देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने श्रमणों का सम्मेलन बुलाकर, स्मृति-दोष से लुप्त होते आगमज्ञान को, जिनवाणी को सुरक्षित रखने के पवित्र उद्देश्य से लिपिबद्ध करने का ऐतिहासिक प्रयास किया और जिनवाणी को पुस्तकारूढ करके आने वाली पीढ़ी पर अवर्णनीय उपकार किया। यह जैनधर्म, 1. अत्थ भास इ परहा सुत्त मंथंति गण हरा निउणं / Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन एवं संस्कृति की धारा को प्रवहमान रखने का अद्भुत उपक्रम था। आगमों का यह प्रथम सम्पादन वीरनिर्वाण के 680 या 663 वर्ष पश्चात् सम्पन्न हुआ। पुस्तकारूढ होने के बाद जैन आगमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित होगया, किन्तु कालदोष, बाहरी आक्रमण, आन्तरिक मतभेद, विग्रह, स्मृति-दुर्बलता एवं प्रमाद आदि कारणों से प्रागम ज्ञान की शुद्ध धारा, अर्थबोध की सम्यक् गुरु-परम्परा धीरे-धीरे क्षीण होने से नहीं रुकी। आगमों के अनेक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ, पद तथा गूढ़ अर्थ छिन्न-विच्छिन्न होते चले गये। जो अागम लिखे जाते थे, वे भी पूर्ण शुद्ध नहीं होते थे। उनका सम्यक् अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही रहे / अन्य भी अनेक कारणों से आगम-ज्ञान की धारा संकुचित होती गयी। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लोकाशाह ने एक क्रान्तिकारी प्रयत्न किया। प्रागमों के शुद्ध और यथार्थ अर्थ-ज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चालू हुआ। किन्तु कुछ काल बाद पुनः उसमें भी व्यवधान आगए। साम्प्रदायिक द्वष, सैद्धान्तिक विग्रह तथा लिपिकारों की भाषाविषयक अल्पज्ञता प्रागमों की उपलब्धि तथा उनके सम्यक् अर्थबोध में बहुत बड़ा विध्न बन गए। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब आगम-मद्रण की परम्परा चली तो पाठकों को सूविधा हई। आगमों की प्राचीन टीकाएँ, चणि व निर्यक्ति जब प्रकाशित हई तथा उनके आधार पर आगमों का सरल व स्पष्ट भावबोध मुद्रित होकर पाठकों को सुलभ हा तो आगमज्ञान का पठनपाठन स्वभावतः बढ़ा, सैंकड़ों जिज्ञासुत्रों में आगम स्वाध्याय की प्रवृत्ति जगी व जैनेतर देशी-विदेशी विद्वान् भी आगमों का अनुशीलन करने लगे। आगमों के प्रकाशन-सम्पादन-मुद्रण के कार्य में जिन विद्वानों तथा- मनीषी श्रमणों ने ऐतिहासिक कार्य किया, पर्याप्त सामग्री के अभाव में आज उन सबका नामोल्लेख कर पाना कठिन है। फिर भी मैं स्थानकवासी परम्परा के कुछ महान् मुनियों का नाम ग्रहण अवश्य ही करूंगा। पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज स्थानकवासी परम्परा के वे महान् साहसी व दृढ़ संकल्पबलो मुनि थे, जिन्होंने अल्प साधनों के बल पर भी पूरे बत्तीस सूत्रों को हिन्दी में अनूदित करके जनजन को सुलभ बना दिया / पूरी बत्तीसी का सम्पादन-प्रकाशन एक ऐतिहासिक कार्य था, जिससे सम्पूर्ण स्थानकवासी व तेरापंथी समाज उपकृत हुआ। गुरुदेव पूज्य स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज का एक संकल्प : ___ मैं जब गुरुदेव स्व. स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज के तत्त्वावधान में आगमों का अध्ययन कर रहा था तब अागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित कुछ अागम उपलब्ध थे। उन्हीं के अाधार पर गुरुदेव मुझे अध्ययन कराते थे। उनको देखकर गुरुदेव को लगता था कि यह संस्करण यद्यपि काफी श्रम-साध्य है, एवं अब तक के उपलब्ध संस्करणों में काफी शुद्ध भी हैं, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट हैं / मूल पाठ में एवं उसकी वृत्ति में कहीं-कहीं अन्तर भी है, कहीं वृत्ति बहुत संक्षिप्त है। गुरुदेव स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज स्वयं जैन-सूत्रों के प्रकाण्ड पंडित थे / उनकी मेधा बड़ी व्युत्पन्न व तर्कणा-प्रधान थी। आगम साहित्य की यह स्थिति देखकर उन्हें बहुत पीड़ा होती और कई बार उन्होंने व्यक्त भी किया कि आगमों का शुद्ध, सुन्दर व सर्वोपयोगी प्रकाशन हो Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो बहुत लोगों का कल्याण होगा, कुछ परिस्थितियों के कारण उनका संकल्प, मात्र भावना तक सीमित रहा। इसी बीच आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज, जैनधर्मदिवाकर आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज, पूज्य श्री घासीलालजी महाराज आदि विद्वान् मुनियों ने आगमों की सुन्दर व्याख्याएँ व टीकाएँ लिखकर अथवा अपने तत्त्वावधान में लिखवाकर इस कमी को पूरा किया है / वर्तमान में तेरापंथ सम्प्रदाय के प्राचार्य श्री तुलसी ने भी यह भगीरथ प्रयत्न प्रारम्भ किया है। और अच्छे स्तर से उनका आगम-कार्य चल रहा है / मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' आगमों की वक्तव्यता को अनुयोगों में वर्गीकृत करने का मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण प्रयास कर रहे हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के विद्वान् श्रमण स्व. मुनि श्री पुण्यविजयजी ने आगमसम्पादन की दिशा में बहुत ही व्यवस्थित व उत्तमकोटि का कार्य प्रारम्भ किया था। उनके स्वर्गवास के पश्चात् मुनि श्री जम्बूविजयजी के तत्त्वावधान में यह सुन्दर प्रयत्न चल रहा है। उक्त सभी कार्यों का विहंगम अवलोकन करने के बाद मेरे मन में एक संकल्प उठा। प्राज कहीं तो आगमों का मूल मात्र प्रकाशित हो रहा है और कहीं प्रागमों को विशाल व्याख्याएँ की जा जा रही हैं। एक, पाठक के लिये दुर्बोध है तो दूसरी जटिल / मध्यम मार्ग का अनुसरण कर आगमवाणी का भावोद्घाटन करने वाला ऐसा प्रयत्न होना चाहिये जो सुबोध भी हो, सरल भी हो, संक्षिप्त हो, पर सारपूर्ण व सुगम हो। गुरुदेव ऐसा ही चाहते थे / उसी भावना को लक्ष्य में रखकर मैंने 4-5 वर्ष पूर्व इस विषय में चिन्तन प्रारम्भ किया। सुदीर्घ चिन्तन के पश्चात् वि. सं. 2036 वैशाख शुक्ला 10, महावीर कैवल्यदिवस को दृढ़ निर्णय करके आगम-बत्तीसी का सम्पादन-विवेचन कार्य प्रारम्भ कर दिया और अब पाठकों के हाथ में आगम-ग्रन्थ, क्रमश: पहुंच रहे हैं, इसकी मुझे अत्यधिक प्रसन्नता है। आगम-सम्पादन का यह ऐतिहासिक कार्य पूज्य गुरुदेव की पुण्य-स्मृति में आयोजित किया गया है। आज उनका पुण्यस्मरण मेरे मन को उल्लसित कर रहा है। साथ ही मेरे वन्दनीय गुरुभ्राता पूज्य स्वामी श्री हजारीमल जी महाराज की प्रेरणाएँ-उनको आगम-भक्ति तथा आगम सम्बन्धी तलस्पर्शी ज्ञान, प्राचीन धारणाएँ, मेरा सम्बल बनी हैं / अत: मैं उन दोनों स्वर्गीय आत्माओं की पुण्यस्मृति में विभोर हूं। शासनसेवी स्वामी जी श्री ब्रजलालजी महाराज का मार्गदर्शन, उत्साह-संवर्धन, सेवाभावी शिष्य मुनि विनयकुमार व महेन्द्रमुनि का साहचर्य-बल, सेवा-सहयोग तथा महासती श्री कानकुवरजी, महासती श्री झणकारकुवर जी, परमविदुषी साध्वी श्री उमरावकुवर जी, 'अर्चना'-की विनम्र प्रेरणा मुझे सदा प्रोत्साहित तथा कार्यनिष्ठ बनाये रखने में सहायक रही हैं। मुझे दढ़ विश्वास है कि प्रागम-वाणी के सम्पादन का यह सुदीर्घ प्रयत्न-साध्य कार्य सम्पन्न करने में मुझे सभी सहयोगियों, श्रावकों व विद्वानों का पूर्ण सहकार मिलता रहेगा और मैं अपने लक्ष्य तक पहुंचने में गतिशील बना रहूंगा। इसी आशा के साथ......... -मुनि मिश्रीमल 'मधुकर' Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ এ ওয়াস সাজান সানি ওয়ান্ত अध्यक्ष सेठ श्री मोहनमलजी सा. चोरडिया D कार्यवाहक अध्यक्ष सेठ श्री पुखराजजी सा. शीशोदिया 0 उपाध्यक्ष श्री कंवरलालजी वैताला श्री दौलतरामजी पारख श्री भंवरलालजी श्रीश्रीमाल श्री रतनचन्दजी चोरडिया 0 महामंत्री श्री जतनराजजी महता D मंत्री श्री ज्ञानराजजी मूथा श्री चाँदमलजी विनायकिया 0 कोषाध्यक्ष श्री गुमानमलजी चोरडिया (मद्रास) श्री रतनचन्दजी मोदी (ब्यावर) - सदस्यगण श्री मूलचन्दजी सुराणा थो सायरचन्दजी चोरडिया श्री जेठमलजी चोरडिया श्री मोहनसिंहजी लोढ़ा श्री बादलचन्द जी मेहता श्री मांगीलालजी सुराणा श्री माणकचन्दजी वैताला श्री भंवरलालजी गोठी श्री भंवरलालजी मूथा श्री प्रकाशचन्दजी जैन (परामर्श दाता) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय नाम अनुत्तरोपपातिकदशा सूत्र द्वादशांगी का नववा अंग है। शब्दार्थ के अनुसार 'अनुत्तर, उपपात और दशा' शब्दों से अनुत्तरोपपातिकदशा शब्द बना है। अनुत्तर अर्थात्-अनुत्तर विमान, उपपात अर्थात् उत्पन्न होना और दशा अर्थात् अवस्था या दश संख्या का सूचन। इस सूत्र के दश अध्ययन होने से दशा ऐसा शब्द प्रयुक्त होना चाहिए। इसमें ऐसे साधकों का वर्णन है जिन्होंने यहां से प्रायुष्य पूर्ण कर अनुत्तर विमानों में जन्म लिया और फिर मनुष्य जन्म पाकर मोक्ष प्राप्त करेंगे / समवायांगसूत्र में इसके दश अध्ययनों का सूचन किया गया है किन्तु दश अध्ययनों के नामों का निर्देश नहीं मिलता है। स्थानांगसूत्र के अनुसार उनके नाम इस प्रकार हैं-ऋपिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिक स्वस्थान, शालिभद्र, प्रानन्द और अतिमुक्त / ' तत्वार्थराजवार्तिक के अनुसार उनके नाम इस प्रकार हैं--ऋषिदास, वान्य, सुनक्षत्र, कार्तिक, नन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, बारिषेण, चिलातपुत्र / अंगपण्णत्ती में उनके नाम इस प्रकार हैं-ऋषिदास, शालिभद्र, सुनक्षत्र, अभय, धन्य, वारिषेण, नन्दन, नन्द, चिलातपुत्र, कार्तिक / धवला में कार्तिक के स्थान पर कार्तिकेय और नन्द के स्थान पर आनन्द नाम प्राप्त होते हैं।४ वर्तमान में प्रस्तुत प्रागम 3 वगों में विभक्त है, जिनमें क्रमशः 10, 13, और 10 अध्ययन हैं। इस प्रकार 33 अध्ययनों में 33 महान् प्रात्माओं का संक्षेप में वर्णन किया गया है / इनमें 23 राजकुमार तो श्रेणिक के पुत्र हैं। . अनुत्तरोपपातिकदशा का जो स्वरूप वर्तमान में उपलब्ध है वह स्थानांग और समवायांग को वाचना से पृथक् है। प्राचार्य अभयदेव ने स्थानांगवत्ति में इसे वाचनान्तर कहा है। विषय-वस्तु समवायांग सूत्र में, अनुत्तरोपपातिक सूत्र में वर्णित विषय का निर्देश तथा उसका श्लोक-परिमारण पदसंख्या आदि का कथन इस प्रकार है सौधर्म ईशान प्रादि नाम वाले बारह स्वर्ग माने गए हैं। बारहवें स्वर्ग के ऊपर नव वयक विमान पाते हैं और उनके ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित एवं सर्वार्थसिद्ध-ये पाँच अनुत्तर विमान पाते हैं। इन विमानों से उत्तर-उत्तम प्रधान अन्य विमान न होने के कारण इनको अनुत्तर विमान कहते हैं। जो साधक अपने उत्कृष्ट तप और संयम की साधना से इनमें उपपात (जन्म) पाते हैं, उनको 'अनुत्तरोपपातिक' कहते हैं। अनुत्तरौपपातिक में अनुत्तरोपपातिकों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, समवसरण तत्कालीन राजा, के माता-पिता, धर्मगुरु, धर्माचार्य, धर्मकथा, संसार की ऋद्धि, भोग-उपभोग का तथा तप, त्याग, प्रव्रज्या, उत्सर्ग, संलेखना, अंतिम समय के पादोपगमन (संथारा) आदि, अनुत्तरविमान में उपपात 1. स्थानांग-१०१११४ 2. तत्त्वार्थराजवातिक-१२०, पृ 73. 3. अंगपण्णत्ती 55. 4. षट्खंडागम 11112. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जन्म), वहां से श्रेष्ठ कुल में जन्म, बोधि-लाभ तथा अन्त-क्रिया आदि का वर्णन अनुत्तरोपपातिक सूत्र में किया गया है। ___ समवायांग तथा नन्दो सूत्र में, जहाँ अनुत्तरोपपातिक का परिचय दिया गया है, वहां कहा गया है कि'इस सूत्र की वाचनाएँ परिमित हैं ऐसा बताया गया है / अर्थात् अनुत्तरौपपातिक के अनुयोगद्वार संख्येय हैं, उसमें वेढ संख्येय हैं, श्लोक नाम के छन्द संख्येय हैं, उसकी नियुक्ति संख्येय है, उसकी संग्रहणी संख्येय है तथा प्रतिपत्तियाँ संख्येय हैं। इस सूत्र में एक श्रत-स्कंध है, तीन वर्ग हैं, अध्ययन दश हैं, प्रक्षर असंख्येय हैं, गम अनन्त हैं और पर्याय भी अनन्त हैं। इस सूत्र में परिमित श्रस जीवों का और अनन्त स्थावर जीवों का वर्णन है। तथा उक्त सब पदार्थ स्वरूप से कहे गये हैं, और हेतु उदाहरण द्वारा व्यवस्थित भी किये गए हैं। नाम, स्थापना आदि द्वारा भी वे सब पदार्थ उक्त सूत्र में प्रस्तुत किये गये हैं। इस प्रकार इस सूत्र को समझने वाला प्रात्मा उक्त विषयों का ज्ञाता-विज्ञाता और दृष्टा होता है / इस प्रकार इस सूत्र में चरण-करण को प्ररूपणा की गई है।' नन्दी सूत्र में भी समवायांग सूत्र के अनुरूप विषयों की प्ररूपरणा प्राप्त होती है। हाँ, नन्दी सूत्र में अध्ययनों की संख्या का निर्देश नहीं है / नन्दी सूत्र के अनुसार अनुत्तरोपपातिक का उद्देशन तीन दिन में होता है जब कि समवायांग के पाठानुसार दस दिन का समय उद्देशन के लिए होता है / नन्दी सूत्र में इस विषय में इस प्रकार उल्लेख है -“एगे सुयक्खंधे तिण्णि वग्गा, तिणि उद्दे सणकाला" / ' अर्थात्-इस नवम अंग में तीन वर्ग हैं और तीन उद्देशन काल हैं। स्पष्ट है कि यहाँ अध्ययन का नाम ही नहीं है। किन्तु समवाय में इसके दस अध्ययन बताए हैं। समवाय के वत्तिकार लिखते हैं कि इस भेद का हेतु अवगत नहीं है-"इह तु दृश्यन्ते दश-इति अत्र अभिप्रायो न ज्ञायते इति" 2 उपर्युक्त विभिन्नता से स्पष्ट है कि हमारे प्रागमशासन का क्रम या प्रवाह विशेष रूप से खंडित हो गया है। स्थानांगसूत्र में केवल दश अध्ययनों का वर्णन है। तत्वार्थ-राजवातिक के अभिमतानुसार प्रस्तुत आगम में प्रत्येक तीर्थंकर के समय में होने वाले 10-10 अनुत्तरौपपातिक श्रमणों का वर्णन है / कषायपाहुड में भी इसी का समर्थन हुआ है। वर्तमान में उपलब्ध यह सूत्र और प्राचीनकाल में उपलब्ध वह सूत्र-इन दोनों में क्या विशेषता है ? इसका उत्तर इस प्रकार है तीन वर्ग का होना-राजवातिक प्रादि चारों ग्रंथों में नहीं बताया गया है। स्थानांग और राजवातिक में जिन विशेष नामों का निर्देशन है, उनमें से कुछ नाम वर्तमान सूत्र में उपलब्ध हैं / जैसे- वारिषेण (राजवातिक) नाम प्रथम वर्ग में है / इसी भांति धन्य, सुनक्षत्र तथा ऋषिदास (स्थानांग तथा राजवार्तिक) ये तीन नाम तृतीय वर्ग में बरिणत हैं। ये चार नाम ही वर्तमान सूत्र में उपलब्ध होते हैं, अन्य किसी भी नाम का निर्देश नहीं है। जिन अन्य नामों का निर्देश वर्तमान पाठ में उपलब्ध है, वे नाम न तो स्थानांग में हैं, और न राजवातिक में हैं। स्थानांग सूत्र के वत्तिकार श्रीअभयदेवसूरि इस सम्बन्ध में सूचित करते हैं कि स्थानांग में कथित नाम प्रस्तुत सूत्र की किसी अन्य वाचना में होने संभावित हैं। वर्तमान वाचना उस बाचना से भिन्न है। 1. नन्दी सूत्र-पृ. 233, सू. 54 2. समवाय वृत्ति-पृ. 114 [2] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत सूत्र के पदों का प्रमाण समवायांग सूत्र में संख्येय लाख पद बताया है और उसकी वृत्ति में छयालीस लाख और आठ हजार (46,080,00) पद बताए हैं। नन्दी सूत्र के मूल में संख्येय हजार पद बताए हैं / वत्ति में भी संख्येय हजार पद प्राप्त होते हैं। धवला तथा जय-धवला में 92,44,000 (बानवें लाख चवालीस हजार) पदपरिमारण बतलाया गया है / राजवार्तिक में पद संख्या का कहीं उल्लेख नहीं है। प्रस्तुत अनुत्तरौपपातिक सूत्र की स्थिति प्राचीन अनुत्तरोपपातिक सूत्र से कुछ भिन्न है / प्रथम वर्ग में 10 अध्ययन हैं, द्वितीय वर्ग में 13 अध्ययन हैं, और ततीय वर्ग में 10 अध्ययन हैं। इस प्रकार तीनों वर्गो की अध्ययन संख्या 33 होती है। प्रत्येक अध्ययन में एक एक महापुरुष का जीवन परिणत है। प्रथम वर्ग प्रथम वर्ग में-जालि, मयालि, उपजालि, पुरुषसेन, वारिसेण, दीर्घदन्त, लष्टदन्त, विहल्ल, बेहायस और अभयकूमार इन दश राजकुमारों का, उनके माता-पिता. नगर. जन्म आदि का तथा वहाँ के राजा. उद्यान परिचय दिया गया है तथा उक्त दशों राजकुमार भगवान महावीर के पास संयम स्वीकार करके तथा उत्कृष्ट तप त्याग की आराधना कर अनुत्तर विमान में देव हए और वहां से चयकर मानव शरीर धारण कर सिद्ध बुद्ध और मुक्त होंगे। द्वितीय वर्ग द्वितीय वर्ग में दीर्घ सेन, महासेन, इष्टदन्त, गूढदन्त शुद्धदन्त, हल, द्रम, द्रुमसन, सिह, सहस और पुष्यसेन- इन तेरह राज कुमारों के जीवन का वर्णन भी जालिकुमार के जीवन की भांति ही संक्षेप में किया गया है। इस वर्ग में वाणित महापुरुषों का जीवन भोगमय तथा तपोमय था, और सभी राजकुमार अपनी तप:साधना के द्वारा पाँच अनुत्तर विमानों में गए हैं, तथा वहाँ से चयकर मनुष्य जन्म पाकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होगे। तृतीय वर्ग तृतीय वर्ग में-धन्यकुमार, सुनक्षत्रकुमार, ऋषिदास, पेल्लक, रामपुत्र चन्द्रिक, पृष्टिमातृक, पेढालपुत्र, पोट्टिल्ल तथा वेहल्ल-इन दश कुमारों के भोगमय जीवन के पश्चाद्वर्ती तपोमय जीवन का सुन्दर चित्रण किया गया है। उक्त दश कुमारों में धन्यकुमार का वर्णन विस्तार पूर्वक है / अनुत्तरौपपातिक सूत्र का प्रमुख पात्र धन्यकुमार काकन्दी की भद्रा सार्थवाही का पुत्र था / अपरिमित धनधान्य और सुख-उपभोग के साधनों से संपन्न था। धन्यकुमार का लालन-पालन बड़े ऊंचे स्तर पर हुआ था। वह सांसारिक सूखों में लीन था। एक दिन श्रमण भगवान महावीर के त्याग-वैराग्य संयुक्त दिव्य पावन प्रवचन सुनकर वैराग्य की भावना जागृत हो गई, और तदनुसार वह अपने विपुल वैभव को छोड़कर मुनि बन गया / मुनिजीवन प्राप्त करने के पश्चात् जो त्याग और तपोमय जीवन का प्रारम्भ हुआ वह श्रमणसमुदाय में अदभुत था / तपोमय जीवन का ऐसा अद्भुत और सर्वांगीण वर्णन श्रमण-साहित्य में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता तो इतर साहित्य में तो उपलब्ध हो ही कैसे सकता है ! अनगार बनते ही धन्य ने जीवन भर के लिए छठ-छठ के तप से पारणा करने की प्रतिज्ञा की। पारणा में प्राचाम्ल व्रत अर्थात केवल रूक्ष भोजन करते थे। इसमें भी अनेकानेक प्रतिबन्ध उन्होंने स्वेच्छया स्वीकार किए थे। इस प्रकार उत्कृष्ट तप करने से उनका शरीर केवल अस्थिपंजर रह गया था। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार अनुत्तरौपपातिक सूत्र में भगवान महावीरकालीन उग्र तपस्वियों में महादुष्करकारक और महानिर्जराकारक धन्य अनगार ही थे। स्वयं भगवान महावीर ने सम्राट श्रेणिक को बताया था कि चौदह हजार श्रमरणों में धन्य अनगार उत्कृष्ट तपोमूर्ति हैं। इस प्रकार धन्य अनगार नव मास की स्वल्पावधि में उत्कृष्ट साधना कर सर्वार्थ सिद्ध विमान में देव रूप से उत्पन्न हुए। वहाँ से च्यवनकर बे मनुष्यजन्म पाकर तपःसाधना के द्वारा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे। काकन्दी की भद्रा सार्थवाही का द्वितीय पुत्र सुनक्षत्रकुमार था। उसका वर्णन भी धन्यकुमार की तरह ही समझना चाहिए। शेष आठ कुमारों का वर्णन प्रायः भोग-विलास में तथा तप-त्याग में सुनक्षत्र के समान ही समझना चाहिए। इस प्रकार प्रस्तुत अनुत्तरोपपातिक सूत्र में तेतीस महापुरुषों का परिचय दिया गया है। यह वर्णन संपूर्ण प्रकार से प्राचीन समय की परिस्थिति का द्योतक है अतएव ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यद्यपि श्रमसंघ के युवाचार्य विद्वद्वरेण्य पं. र. मुनिश्री मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर' ने, जिनके नेतृत्व में प्रागमबत्तीसी का प्रकाशन हो रहा है, इसे अक्षरशः अवलोकन कर लिया है और भारिल्लजी ने संशोधन कर दिया है, अतएव मैं निश्चित हूँ। प्रस्तुत सूत्र में मूल आगम-वारणी का एवं उसके व्याख्या-साहित्य का संक्षेप में परिचय दिया गया है, जिससे प्रबुद्ध पाठकों को आगम की महत्ता का परिज्ञान हो सके। कई वर्षों से आगमसेवा के प्रति मेरे मन के कण-कण में, अणु-अणु में, गहरी निष्ठा रही है / कर्मवर्गरणा से पृथक होने के लिए प्रागम का स्वाध्याय एक रामबाण औषध है। सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा की पावनी वाणी में जो तात्त्विक रहस्य प्राप्त होता है वह अल्पज्ञों की वाणी में कदापि नहीं मिल सकता / वास्तविक तथ्यों को जानने के लिए तत्त्वज्ञ गुरु का अनुग्रह परम आवश्यक है। ज्ञानी गुरु के बिना आगमों के गहन रहस्यों को समझना अल्पज्ञों के लिए अशक्य है। ___ गुरु का संयोग प्राप्त होने पर भी जब तक छद्मस्थदशा है तब तक त्रुटियों की संभावना बनी ही रहती है / अतएव गहन रहस्यों से अनभिज्ञ होने से प्रस्तुत अनुवाद में कहीं अर्थ की त्रुटियां रही हों तो पाठक क्षमा करें। इस प्रकार पूरी तरह समर्थ न होने पर भी परम श्रद्धय सद्गुरुवर्य, अनुयोग-प्रवर्तक श्री कन्हैयालालजी म. (कमल) एवं परमोपकारी पूजनीया मातेश्वरी महासती श्री माणेककुवरजी म. की पावनी कृपा शोभाचन्द्रजी भारिल्ल की अनन्य प्रेरणा से, तथा परमादरणीय पू. प्रात्मारामजी म. सा. एवं श्री विजयमूनिजी म की धत-सहायता से एवं मेरे सहयोगी अन्य साध्वी-समवाय के परम सहयोग से यह कार्य सम्पन्न करने में समर्थ हुई हूँ। आशा है इन सभी का सहयोग निरंतर मिलता रहे और भविष्य में भी भागम-सेवा का अलभ्य लाभ मुझे मिलता रहे, यही हार्दिक कामना। मुझे आशा ही नहीं संपूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत प्रागम जन-जन के अन्तर्मानस में वीतराग परमात्मा के प्रति गहरी निष्ठा उत्पन्न करेगा। अज्ञान अंधकार को नष्ट करके ज्ञानप्रकाश फैलाएगा। इसी प्राशा और उल्लास के साथ प्रस्तुत प्रागम प्रबुद्ध पाठकों को समर्पित कर अत्यंत आनंद का अनुभव करती है साध्यसाधिका আগুনী সুজিনস Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अनुत्तरोपपातिकदशा : एक अनुचिन्तन जैन आगम साहित्य भारतीय साहित्य की विराट् निधि का एक अनमोल भाग है। वह अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य के रूप में उपलब्ध है। अंगप्रविष्ट साहित्य के सूत्र रूप में रचयिता गणधर हैं और अर्थ के प्ररूपक साक्षात तीर्थकर होने के वह कारण मौलिक व प्रामाणिक माना जाता है। द्वादशांगी-अंगप्रविष्ट है। तीर्थकरों के द्वारा प्ररूपित अर्थ के आधार पर स्थविर जिस साहित्य की रचना करते हैं वह अनंग-प्रविष्ट है। द्वादशांगी के अतिरिक्त जितना भी पागम साहित्य है वह अनंगप्रविष्ट है. उसे अंगबाह्य भी कहते हैं। जिनभद्रगरणी क्षमाश्रमण ने यह भी उल्लेख किया है कि गणधरों की प्रबल जिज्ञासानों के समाधान हेतु तीर्थंकर त्रिपदी-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का उपदेश प्रदान करते हैं। उस त्रिपदी के आधार पर जो साहित्य-निर्माण किया जाता है वह अंगप्रविष्ट है और भगवान् के मुक्त व्याकरण के आधार पर जिस साहित्य का सृजन हुअा है वह अनंग-प्रविष्ट है।' स्थानाङ्ग, नंदी 2 आदि श्वेताम्बर साहित्य में यही विभाग प्राचीनतम है। दिगम्बर साहित्य में भी आगमों के यही दो विभाग उपलब्ध होते हैं--अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य | अंगबाह्य के नामों में कुछ अन्तर है। 1. गणहर थेरकयं बा, पाएसा मुक्त-बागरणग्रो वा धुव-चल विसेसो वा अंगाणं गेसु नाणत्त // -विशेषावश्यक भाष्य, गा. 552, 2. नंदीसूत्र-४३. 3. (क) षट्खण्डागम भाग, 9, पृ. 96, (ख) सर्वार्थसिद्धि पूज्यपाद 1-20, (ग) राजवातिक-अकलंक 1-20 (घ) गोम्मटसार जीवकाण्ड, नेमिचन्द्र, पृ. 134. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगप्रविष्ट का स्वरूप सदा सर्वदा सभी तीर्थंकरों के समय नियत होता है। वह ध्र व है, नियत है, शाश्वत है / उसे द्वादशांगी या गणिपिटक भी कहते हैं। अंग-साहित्य बारह विभागों में विभक्त है।' (1) प्राचार (2) सूत्रकृत (3) स्थान (4) समवाय (5) भगवती (6) ज्ञाताधर्मकथा (7) उपासकदशा (E) अन्तकृद्दशा (9) अनुत्तरोपपातिक दशा (10) प्रश्नव्याकरण (11) विपाक (12) दृष्टिवाद / दृष्टिवाद वर्तमान में अनुपलब्ध है। अनुत्तरोपपातिकदशा यह नौवां अंग है। प्रस्तुत प्रागम में ऐसे महान तपोनिधि साधकों का उल्लेख है जिन्होंने उत्कृष्टतम तप की साधना-आराधना कर प्रायु पूर्ण होने पर अनुत्तर विमानों में जन्म ग्रहण किया / विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध ये पांच अनुत्तर विमान हैं। अन्य सभी विमानों में श्रेष्ठ होने से इन्हें 'अनुत्तर' विमान कहा है। अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने वाले अनुत्तरीपपातिक कहे जाते हैं। प्रथम वर्ग में दस अध्ययन हैं, इसलिए इसे अनुत्तरौपपातिकदशा कहा है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि ऐसे मानवों की दशा यानी अवस्था का वर्णन होने से भी इसे अनुत्तरोपपातिक दशा कहा है। अनुत्तर विमानवासी देवों की एक विशेषता यह है कि वे परीत संसारी होते हैं। वहां से च्युत होकर एक या दो बार मानव-रूप में जन्म लेकर निर्वाण प्राप्त करते हैं। प्राचीन आगम व प्रागमेतर ग्रन्थों में प्रस्तुत आगम के सम्बन्ध में जो उल्लेख सम्प्राप्त होते हैं, उनके अनसार वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरोपपातिक दशा में न वर्णन है और न वे चरित्र ही हैं। यह परिवर्तन कब हुआ, यह अन्वेषनीय है। नवांगी टीकाकार प्राचार्य अभयदेव ने इसे वाचनान्तर कहा है। मैंने अपने जैन श्रागम साहित्य मनन और मीमांसा" ग्रन्थ में इस सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन किया है, अत: विशेष जिज्ञासु उसे देखें / वर्तमान में प्रस्तुत आगम तीन वर्गों में विभक्त है, जिनमें क्रमशः दस, तेरह और दस अध्ययन हैं। इस प्रकार तेतीस अध्ययनों में तेतीस महान् आत्मानों का बहुत ही संक्षेप में वर्णन है / जो घटनाएं और पाख्यान इसमें आये हैं. वे पल्लवित नहीं हैं, केवल संकेतमात्र हैं। प्रथम वर्ग में जालीकुमार का और तृतीय वर्ग में धन्य कुमार का 4. (क) समवायांग समवाय 148, मुनि कन्हैयालाल जी म. सम्पादित, प 138. (ख) नन्दी सूत्र, 57. 5. समवायांग प्रकीर्णक समवाय सूत्र 88. 6. 'तत्रानुत्तरेषु विमानविशेषेषूपपातो-जन्म अनुतरोपपातः स विद्यते येषां तेऽनुत्तरौपपातिकास्तप्रतिपादिका दशा: -दशाध्ययनप्रतिबद्धप्रथमवर्गयोगाद्दशा: ग्रन्थ-विशेषोऽनुत्तरोपपातिकदशास्तासां च सम्बन्धसूत्रम् -- अनुत्तरोपपातिकदशा अभयदेववत्ति 7. (क) नन्दीसूत्र 89 (ख) स्थानाङ्ग 10 / 114 ) समवायांग प्रकीर्णक समवाय 97 8. (क) तत्वार्थराजवार्तिक 1120, पृ. 73 (ख) कषायपाहुड भाग 1, पृ. 130 (ग) अंगपण्णत्ती 55 (घ) षट्खण्डागम शश२ 9.. तदेवमिहापि बाचनान्तरापेक्षयाऽध्ययनविभाग उक्तो न पुनरुपलभ्य मानवाचनापेक्षयेति - स्थानाङ्गवत्ति पत्र 483 [6] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र ही कुछ विस्तार से आया है। शेष चरित्रों में तो केवल सूचन ही है। पर इस पागम में जो भी पात्र पाये हैं उनका ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है, जो इतिहास के अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं / प्रस्तुत प्रागम में सम्राट् श्रेणिक के जालि, मयालि, उपजालि, पुरुषसेन, वारिसेन, दीर्घदन्त, लष्ट दन्त, विहल्ल, वेहायस, अभयकुमार, दीर्घसेन, महासेन, लष्टदन्त, गूढदन्त, शुद्धदन्त, हल्ल, द्रुम, द्रमसेन, महाद्र मसेन, सिंह, सिंहसेन, महासिंहसेन, पुष्पसेन, इन तेवीस राजकुमारों के साधनामय जीवन का वर्णन है। सम्राट श्रेणिक मगध साम्राज्य का अधिपति था। जैन-बौद्ध-और वैदिक, इन तीनों परम्परामों में श्रेणिक के सम्बन्ध में पर्याप्त चर्चाएं प्राप्त होती हैं। भागवत महापुराण 11 के अनुसार वह शिशूनागवंशीय कूल में उत्पन्न हुआ था। महाकवि अश्वघोष ने उस का कुल हर्यङ्ग लिखा है।१२ प्राचार्य हरिभद्र ने उनका कुल याहिक माना है। 3 रायचौधरी का मन्तव्य है 14 कि बौद्ध-साहित्य में जो हर्यङ्ग कुल का उल्लेख है, वह नागवंश का ही द्योतक है। कोविल्ल ने हर्यङ्ग का अर्थ सिंह किया है। पर उसका अर्थ नाग भी है / प्रोफेसर भाण्डारकर ने नाम दशक में बिम्बिसार की भी गणना की है और उन सभी राजानों का वंश भी नागवंश माना है। बौद्ध-साहित्य में इस कूल का नाम शिशूनागवंश लिखा है।१५ जैन ग्रन्थों में वरिणत वाहिक कुल भी नागवंश हो है / वाहिकजनपद नाग जाति का मुख्य केन्द्र रहा है। उस का कार्य-क्षेत्र प्रमुख रूप से तक्षशिला था, जो वाहिक जनपद में था। इसलिये श्रेणिक को शिशुनागवंशीय मानना असंगत नहीं है। पण्डित गेगर और भाण्डारकर ने सिलोन के पाली वंशानुक्रम के अनुसार बिम्बसार और शिशुनाग वंश को पृथक् बताया है। बिम्बसार शिशुनाग के पूर्व थे।१६ डाक्टर काशीप्रसाद का मन्तव्य है कि श्रेणिक के पूर्वजों का काशी के राजवंश के साथ पैत्रिक सम्बन्ध था, जहाँ पर तीर्थकर पार्श्वनाथ ने जन्म ग्रहण किया था। इसलिये श्रेणिक का कुलधर्म निग्रन्थ (जैन) धर्म था। प्राचार्य हेमचन्द्र ने भी राजा श्रेणिक के पिता प्रसेनजित को भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का श्रावक लिखा है।१७ श्रेणिक का जन्म-नाम क्या था? इस सम्बन्ध में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा के ग्रन्थ मौन हैं। जैन प्रागमों में श्रेणिक के भंभसार, भिभसार, भिंभीसार ये नाम मिलते हैं।१६ श्रेणिक बालक था, उस समय राजमहल में आग लगी। सभी राजकुमार विविध बहुमूल्य वस्तुएं लेकर भागे। किन्तु श्रेणिक ने भंभा को ही 11. भागवतपुराण, द्वि. ख. 1-903 12. जातस्य हयंगकुले विशाले-बुद्धचरित्र, सर्ग 11, श्लोक 2 13. अावश्यक हरिभद्रीया वृत्तिपत्र 677 14. स्टडीज इन इण्डिया एन्डिक्वीटीज पृ-२१६ 15. महावंश गाथा 27-32 16. स्टडीज इन इण्डियन एन्टिक्वीटीज, पृ. 215-216 / 17. त्रिषष्ठि-१०॥६१८ / 18. क-सेणिए भंभसारे—ज्ञाताधर्मकथा, श्रत. 1 अ. 13 / ख-दशाश्रु तस्कन्ध दशा 10, सूत्र-१ ग--सेरिगए भंभसारे, सेरिणए भिभसारे --उववाई सूत्र, सू ७-पृ. 23, सू ६-पृ. 29 घ--सेणिए भिभसारे~-ठाणांग सूत्र, स्था. 9, पत्र 458 [7] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजचिह्न के रूप में सारभूत समझकर ग्रहण किया। एतदर्थ उस का नाम भंभसार पड़ा।१६ अभिधानचिन्तामणि,२० उपदेशमाला,२१ ऋषिमण्डल प्रकरण,२२ भरतेश्वरबाहबली वत्ति२३ आवश्यकरिण२४ प्रति प्राकृत और संस्कृत के ग्रन्थों में भंभासार शब्द मुख्य रूप से प्रयुक्त हुआ है। भंभा, भिंभा और भिभि ये सभी शब्द भेरी के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं।२५ बौद्धपरम्परा में श्रेणिक का नाम बिम्बिसार प्रचलित है।२६ विम्बि का अर्थ "सुवर्ण" है। स्वर्ण के सदृश वर्ण होने के कारण उनका नाम "बिम्बिसार" पड़ा हो।७ तिब्बती परम्परा मानती है कि श्रेणिक की माता का नाम बिम्बि था अतः बह बिम्बसार कहा जाता है। जैन परम्परा का मन्तव्य है की सैनिक श्रेणियों की स्थापना करने से उसका नाम श्रेणिक पड़ा / बौद्ध परम्परा का अभिमत है कि पिता के द्वारा अठारह श्रेणियों के स्वामी बनाये जाने के कारण वह श्रेणिक बिम्बसार कहलाया / 30 जैन बौद्ध और वैदिक वाङमय में श्रेणी और प्रश्रेणीको यत्र-तत्र चर्चाएं पाई हैं। जम्बूद्वीपष्णत्ति' जातक मूगपक्खजातक 32 में श्रेणी की संख्या अठारह मानी है। महावस्तु में 33 तीस श्रेणियों का उल्लेख है / यजुर्वेद में 3 4 श्रेपन का उल्लेख है। किसी-किसी का अभिमत है कि महती सेना होने से या सेनिय मोत्र होने 19. क-सेणियकुमारेण पुणो जयढक्का कड्ढिया पविसिऊणं पिउणा तुठेण तो भणियो सो भंभासारो। ---उपदेशमाला सटीकपत्र 334-1 ख-स्थानांग वृत्ति, पत्र 461-1 ग-त्रिषष्ठिशलाका-१०१६।१०९-११२ 20. अभिधानचिन्तामणि-काण्ड 3, श्लोक 376. 21. उपदेशमाला, सटोकपत्र 324. 22. ऋषि मण्डलप्रकरण–पत्र 143. 23. भरतेश्वरबाहुबली वृत्ति-पत्र विभाग 122. 24. अावश्यकरिण-उत्तरार्ध पत्र-१५८. 25. पाइयसहमहण्ण वो-पृष्ठ 794-807. 26. इण्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टर्ली, भाग 14, अंक 2, जून-१९३८, पृ. 415. 27. (क) उदान अट्ठकथा 104. (ख) पाली इग्लिश डिक्शनरी पृ. 110. 28. इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटर्ली, भाग-१४, अंक 2, जून 1938 पृ. 413. 29. श्रेणी: कायति श्रेणिको मगधेश्वरः ---अभिधान चिन्तामणि स्वोपजवत्ति, मयंकाण्ड श्लो. 376 30. स पित्राष्टादशसु श्रेणिष्वस्तारित: अतोऽस्य श्रेण्यो बिम्बिसार इति ख्यातः (?) -विनय पिटक, गिलगित मांस्कृष्ट 31. जम्बूद्वीपपण्णत्ति, वक्षस्कार 3, पत्र 193. 32. जातक, मूगपक्खजातक, भाग 6. 33. (क) महावस्तु भाग 3, (ख) ऋषभदेव: एक परिशीलन, ले. देवेन्द्र मुनि (परिशिष्ट 3, पृ. 15) द्वि. सं. श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर (राज.) 34. (क) यजर्वेद 30 वा अध्याय (ख) वैज्ञानिक विकास की भारतीय परम्परा, प्र. 27-30 [8] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से उसका नाम श्रेणिक पड़ा / 35 श्रीमद्भागवत पुराण में श्रेणिक के अजातशत्रु३६ विधिसार 37 नाम भी पाये हैं। दूसरे स्थलों में विन्ध्यसेन और सूविन्द्र नाम के भी उल्लेख हए हैं / 38 आवश्यक हरिभद्रीयावत्ति और त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्र४० के अनुसार श्रेणिक के पिता प्रसेनजित थे। दिगम्बर ग्राचार्य हरिधरण ने थे रिणक के पिता का नाम उपश्रेणिक लिखा है।४१ प्राचार्य गुणभद्र ने उत्तरपुराण४२ में श्रेरिणक के पिता का नाम कुणिक लिखा है जो अन्यान्य अागम और अागमेतर ग्रन्थों से संगत नहीं है। वह धेणिक का पिता नहीं किन्तु पुत्र है।४3 अन्यत्र ग्रन्थों में श्रेणिक के पिता का नाम महापद्म, हेमजित्, क्षेत्रोजा, क्षेत्प्रोजा भी मिलते हैं / 44 जैन साहित्य में श्रेणिक की छब्बीस रानियों के नाम उपलब्ध होते हैं। उनके 35 पुत्रों का भी वर्णन मिलता है / 45 ज्ञातासूत्र४६ अन्तकृद्दशा 7 निरयावलिका 8, अावश्यकचूणि, निशीथ चूरिण, त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित्र, उपदेशमाला दोघली टीका, श्रेणिकचरित्र प्रभति में उनके अधिकांश पुत्र, पौत्र, और महारानियों के भगवान महावीर के पास प्रवज्या लेने के उल्लेख हैं। वे सभी ज्ञान, ध्यान व उत्कृष्ट तप-जप की साधना कर स्वर्गवासी होते हैं। विस्तारभय से हम उन सभी का उल्लेख नहीं कर रहे हैं। उत्तराध्ययन के अनुसार श्रेणिक सम्राट ने अनाथी मुनि से नाथ और अनाथ के गुरु-गंभीर रहस्य को समझकर जैन धर्म स्वीकार किया था।४६ सम्राट् श्रेणिक क्षायिक-सम्यक्त्व-धारी थे। उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति का भी बंध किया था, यद्यपि वे न तो बहुश्र त थे, और न प्रज्ञप्ति जैसे आगमों के वेत्ता ही थे, तथापि सम्यक्त्व के कारण ही वे तीर्थंकर जैसे गौरवपूर्ण पद को प्राप्त करेंगे। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार श्रेणिक की पांच सौ रानियाँ थीं। उसे उन्होंने तथागत बुद्ध का भक्त माना है। कितने ही विद्वानों की यह धारणा है कि जीवन के पूर्वार्ध में वह जैन था और उत्तरार्ध में वौद्ध बन गया था, इसलिये जैन ग्रन्थों में उसके नरक जाने का उल्लेख है। पर उन विद्वानों की यह धारणा उचित नहीं है। सच में वोट बन गया 35. धम्मपाल-उदान टीका, पृ. 140 36. श्रीमद्भागवत, द्वितीय काण्ड, पृ. 903. 37. श्रीमद्भागवत 12 / 1 / / 38. भारतवर्ष का इतिहास-पृ. 252, भगवदत्त 39. आवश्यक हरिभद्रीयावृत्ति, पत्र 671. 40. त्रिषष्ठि, 101631 41. वृहद्कथाकोष, कथाएं 55, श्लो. 1-2. 42. उत्तरपुराण 74 / 4 / 8, पृ. 471. 43. प्रौपपातिक सूत्र 44. पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ एन्शिएन्ट इण्डिया, पृ. 205. 45. देखिये भगवान महावीर-एक अनुशीलन, पृ. 473-474. देवेन्द्रमनि शास्त्री 46. ज्ञातासूत्र 1.1. 47. अन्तकृद्दशा, वर्ग-७, अ-१ से 13, 48. निरयावलिया-प्रथम श्र तस्कन्ध ! प्रथम वर्ग, दूसरा वर्ग / 49. उत्तराध्ययन सूत्र-अ. 20. 50. न सेणियो प्रासि तया वहस्सयो, न यावि पन्नत्तिधरो न वायगो। सो ग्रागमिस्साइ जिणो भविस्सइ; समिक्ख पनाई वरं खुदंसणं // 51. विनयपिटक महावग्ग 9 / 1115. [9] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम पूर्व ही लिख चुके हैं कि आगामी चौबीसी में वे पद्मनाभ नामक प्रथम तीर्थकर होंगे।५२ हमारी दृष्टि से यह हो सकता है जब राजा प्रसेनजित ने श्रेणिक को निर्वासित किया था, उस समय उन्होंने प्रथम विश्राम नन्दीग्राम में लिया था। वहाँ के प्रमुख ब्राह्मणों ने राजकोप के भय से न उन्हें भोजन दिया और न विश्रान्ति के लिये आवास ही प्रदान किया। विवश होकर नन्दीग्राम के बाहर बौद्ध-विहार में उन्हें रुकना पड़ा और वहाँ के बौद्ध भिक्षत्रों ने उन्हें स्नेह प्रदान किया हो, जिससे उनके अन्तर्मानस में बौद्ध धर्म के प्रति सहज अनुराग जाग्रत हुआ हो / इसलिये निग्रंथ धर्म (जैन धर्म) का परम उपासक होने पर भी तथागत बुद्ध के प्रति भी उसमें स्नेह रहा हो और उस स्नेह के कारण ही उन्होंने बद्ध से धार्मिक चर्चाएं भी की हों। उपयूक्त पंक्तियों में हमने देखा है कि श्रेणिक एक बहुत तेजस्वी शासक था। वह जिन शासन को महान् प्रभावना करने वाला था। देवों के द्वारा की गई परीक्षा में भी वह समुत्तीर्ण हुअा था / 53 उसका अनठा कृतित्व जैनधर्म की गौरव-गरिमा में चार चाँद लगाने वाला था। प्रस्तुत प्रामम में श्रेणिक सम्राट् के राजकुमारों का वर्णन है, उनके जीवन-प्रसंगों के सम्बन्ध में भी यत्र-तत्र चर्चाएं आई हैं / विहल्ल कुमार का सम्बन्ध हार हाथी के प्रसंग को लेकर उस युग के महान संग्राम महाशिला से है किन्तु विस्तारभय से हम उन सभी का उल्लेख न कर अभयकुमार के सम्बन्ध में ही यहाँ कुछ चिन्तन प्रस्तुत कर रहे हैं। अभयकुमार प्रबल प्रतिभा का धनी था। जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराएँ उसे अपना अनुयायी मानती हैं / जैन आगम साहित्य के अनुसार वह भगवान महावीर के पास आहती दीक्षा स्वीकार करता है और त्रिपिटक साहित्य के अनुसार वह बुद्ध के पास प्रवजित होता है। जैन साहित्य की दृष्टि से वह श्रेणिक की नन्दा नामक रानी का पुत्र था।५3 नन्दा वेन्नातटपूर५४ के श्रेष्ठी धनावह को पुत्री थी / कुमारावस्था में श्रेणिक वहाँ पहुँचे थे और उन्होंने नन्दा के साथ पारिणग्रहण किया था। पाठ वर्ष तक अभयकुमार अपनी माँ के साथ ननिहाल में रहे थे और उस के पश्चात् वे राजगृह प्रा गये।५५ अभय का रूप अत्यधिक सुन्दर था। वे साम, दाम, दण्ड, भेद, प्रदान, व्यापार नीति में निष्णात थे। ईहा, अपोह, मार्गरणा गवेषणा और अर्थशास्त्र में कुशल थे। चारों प्रकार की बद्धियों के धनी थे। वे श्रेणिक सम्राट के प्रत्येक कार्य के लिये सच्चे परामर्शक थे। वे राज्यधुरा को धारण करने वाले थे। वे राज्य (शासन) राष्ट्र (देश) कोष, कोठार (अन्नभण्डार) सेना वाहन नगर और अन्तःपुर की अच्छी तरह देखभाल करते थे।५६ अभयकुमार राजा श्रेणिक के मनोनीत मन्त्री थे। 57 वे जटिल से जटिल समस्यायों को अपनी कुशाग्न 52. जो खाइगसम्मदिट्ठी तुमं आगमिस्साए य उस्सप्पिणीए तत्तो उवट्टित्ता पउमनाभनामो पढमतित्थयरो भविस्ससि -महावीर चरित्र (गुणचन्द्र) 53. (क) त्रिषष्ठि. 1019, (ख) निरयावलिया टीका पत्र-५-१ 53 (क) ज्ञाताधर्मकथा 1111 ख-निरयावलिया-२३ / ग-अनुत्तरोपपातिक 11 // 54. यह नगर दक्षिण को कृष्णानदी जहाँ पूर्व के समुद्र से मिलती है वहाँ होना चाहिये, देखिये-भगवान महावीर : एक अनुशीलन : देवेन्द्रमुनि शास्त्री। 55. भरतेश्वर बाहुबली, वत्ति पत्र-३६ / 56. ज्ञाताधर्मकथा-१॥१ 57. भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति पत्र-३८ / [10] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धि से एक क्षण में सुलझा देते थे। उन्होंने मेधकुमार की माता धारिणी और कुरिणक की माता चेलना का दोहद अपनी कुशाग्र बुद्धि से सम्पन्न किया था। अपनी लघुभाता चेलगा और श्रेणिक का विवाह सम्बन्ध भी सानन्द सम्पन्न कराया था। उनके बद्धि के चमत्कार की अनेक घटनाएं जैन साहित्य में अंकित हैं। उज्जयिनी के राजा चण्डप्रद्योत के विकट राजनैतिक संकट से श्रेणिक को मुक्त किया था / श्रमणधर्म को ग्रहण करना अत्यधिक कठिन है यह अभयकुमार अच्छी तरह से जानते थे। एकबार एक द्रमक (लकड़हारे) ने गणधर सुधर्मा के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। लोगों ने उसका परिहास किया / अभयकुमार को ज्ञात होने पर उन्होंने सार्वजनिक स्थान पर एक-एक करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का अम्बार लगाया। और यह उदघोषणा करवायी कि ये तीन-कोटि स्वर्णमुद्राएं वह व्यक्ति ले सकता है जो जीवन भर के लिये स्त्री, अग्नि और सचित्त पानी का परित्याग करे / स्वर्ण मुद्राओं को निहार कर सभी का मन ललचाया, किन्तु शर्त को सुनकर कोई भी आगे नहीं बढ़ सका / अभय कुमार ने उन सभी पालोचकों के सामने कहा-द्रमक मुनि कितना महान है, जिस ने जीवन भर के लिये स्त्री, अग्नि और सचित्त पानी का परित्याग किया है। आप उस का उपहास करते हैं। सभी द्रमक मुनि के महान् त्याग से प्रभावित हुये और उन्हें श्रमण धर्म का महत्त्व ज्ञात हुआ।६१ सूत्रकृतांग-नियुक्ति,६२ तथा त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित्र के अनुसार अभयकुमार ने प्रार्द्र कुमार को धोपकरण उपहार के रूप में प्रेषित किये थे, जिससे वह प्रतिबद्ध होकर श्रमण बना था। अभयकुमार के संसर्म में आकर ही राजगृह का क्रूर कसायी काल शौकरिक का पुत्र सुलसकुमार भगवान् महावीर का परमभक्त बना था / 64 अभयकुमार की धार्मिक भावना के अनेक उदाहरण जैन साहित्य में उङ्कित हैं। कथाकार कहते हैंएक बार अभय ने भगवान् महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की कि अन्तिम मोक्षगामी राजा कौन होगा? भगवान ने कहा - बीतभय का राजा उदायन जो मेरे निकट संयम स्वीकार कर चुका है। भगवान को यह बात सुनकर अभय मन ही मन सोचने लगा-यदि मैं राजा बन गया तो मोक्ष नहीं जा सकूगा। अत: कुमारावस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर लू / उस ने सम्राट् श्रेणिक से अनुमति प्रदान करने के हेतु नम्र निवेदन किया। श्रेणिक ने कहा—अभी तुम्हारी उम्र दीक्षा लेने की नहीं है। दीक्षा लेने की उम्र मेरी है। तुम राजा बनकर प्रानन्द का उपभोग करो / अभयकुमार के अत्यधिक प्राग्रह पर श्रेणिक ने कहा—जिस दिन रुष्ट होकर मैं तुम्हें कह दूँदूर हट जा, मुझे अपना मुह न दिखा; उसी दिन तू श्रमण बन जाना। कुछ समय के पश्चात् भगवान महावीर राजगह में पधारे। भगवान के दर्शन कर महारानी चेलना के साथ राजा लौट रहा था / सरिता के किनारे राजा श्रेणिक ने एक मुनि को ध्यानस्थ देखा। सर्दी बहुत ही तेज थी। महारानी का हाथ नींद में प्रोढ़ने के वस्त्र से बाहर रह गया था और हाथ ठिठुर गया था। उस की नींद उचट गई और मुनि का स्मरण आने पर अचानक मुह से निकल पड़ा-'वे क्या करते होंगे !' रानी के शब्दों ने राजा के मन में अविश्वास पैदा कर दिया। प्रात:काल वह भगवान के दर्शन को चल दिया। चलते समय अभय कुमार को यह आदेश दिया कि चेलना के महल को जला दो, यहाँ पर दुराचार पनपता है / अभयकुमार ने राज 58. ज्ञाताधर्मकथा 13 59. निरयावलिया--१ 60. क-प्रावश्यकचरिण-उत्तरार्ध पत्र–१५९, 163 ख-त्रिषष्ठि--१०-११-१२४ से 293 / 61. धर्मरत्नप्रकरण--अभयकुमार कथा 1 // 30 // 62. सूत्रकृतांगनियुक्ति टीका सहित 2 / 6 / 136 / 63. क-त्रिषष्टि 1017 / 177-179, भारतीय इतिहास : एक दृष्टि पृष्ठ 67, 67 / 64, योगशास्त्र-स्वोपज्ञवृत्ति-१/३०, पृष्ठ 91 से ९५---प्राचार्य हेमचन्द्र / [11] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महल में से रानियों को और बहमुल वस्तुओं को निकाल कर उसमें आग लगादी। राजा श्रेणिक ने महावीर से प्रश्न किया। महावीर ने कहा--चेलना आदि सभी रानियां पूर्ण पतिव्रता और शीलवती है। राजा श्रेणिक मन ही मन पश्चात्ताप करने लगा। वह पुनः समवसरण से शीघ्र लौटकर राजभवन की ओर चल दिया। मार्ग में अभयकुमार मिल गया / राजा के पूछने पर अभयकुमार ने महल को जला देने की बात कही। राजा ने कहा--- तुम ने अपनी बुद्धि से काम नहीं लिया ? अभय बोला-राजन ! राजाज्ञा को भंग करना कितना भयंकर है यह मुझे अच्छी तरह से ज्ञात था। राजा को अपने अविवेकपूर्ण कृत्य पर क्रोध आ रहा था। वे अपने क्रोध को वश में न रख सके और उनके मुह से सहसा शब्द निकल पड़े–'यहाँ से चला जा / भूलकर भी मुझे मुह न दिखाना / ' अभयकुमार तो इन शब्दों की ही प्रतीक्षा कर रहा था। उस ने राजा को नमस्कार किया और भगवान के चरणों में पहुंचकर दीक्षा ग्रहण करलो। राजा धणिक महलों में पहुँचा। सभी रानियाँ और बहुमूल्य वस्तुएं सुरक्षित देखकर उसे अपने वचनों के लिए अपार दुःख हुआ। वह भगवान के पास पहुंचा / पर अभय राजा श्रेणिक के पहुंचने के पूर्व ही दीक्षित हो चुका था।६५ अन्तकृदृशांग सूत्र में अभय की माता नन्दा के भी दीक्षित होकर मोक्ष जाने का उल्लेख६ है। अभय कुमार मुनि ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, गुणरत्नतप को आराधना की। उनका शरीर अत्यन्त कुश हो गया।६७ तथापि साधना का अपूर्व तेज उनके मुख पर चमक रहा था। अभय कुमार में प्रबल प्रतिभा थी। कुशाग्र बुद्धि के वे धनी थे। बुद्धि की सार्थकता इसोमें है कि प्रात्म-तत्त्व की विचारणा की जाय / "बुद्ध फलं तत्त्वविचारणं च"। आज भी व्यापारीवर्ग अभय की बुद्धि को स्मरण करता है। नतन वर्ष के अवसर पर बही खातों में लिखित रूप से अभय की सी बद्धि प्राप्त करने की कामना की जाती है। बौद्ध साहित्य में अभयकुमार का नाम अभयराजकुमार मिलता है। उसकी माता उज्जयिनी की गणिका पद्मावती थी।६८ जब श्रेणिक बिम्बिसार ने उस के अद्भुत रूप की बात सुनी तो वह उसके प्रति आकृष्ट हो गया। उसने अपने मन की बात राजपुरोहित से कही। पुरोहित ने कम्पिर नामक यक्ष की आराधना की। वह यक्ष श्रेणिक बिम्बिसार को लेकर उज्जयिनी गया। वहाँ पद्मावती वेश्या के साथ संपर्क हुना। अभयराजकुमार अपनी माता के पास सात वर्ष तक रहा, और उसके पश्चात वह अपने पिता के पास राजगह पा गया। अभय राजकूमार होने पर भी रथविद्या में निपुण था। एक बार उस ने प्रकृष्ट प्रतिभा से सीमाविवाद के जटिल प्रश्न को सुलझाया था, जिससे प्रसन्न होकर बिम्बिसार ने एक अत्यन्त सुन्दरी नर्तकी उसे उपहार के रूप में प्रदान की। 65. भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति पत्र-३८ से 40 / 66. अन्तकृतदशांगसूत्र वर्ग-७ / 67. अनुत्तरौपपातिक सूत्र 1 / 10 / 68 गिल्गिट मांस्कृट के अभिमतानुसार वह वैशाली की गरिएका आम्रपाली से उत्पन्न बिम्बिसार का पुत्र था / (खंड 3, 2 प. 22) थेरगाथा-अट्ठकथा 64 में श्रेणिक से उत्पन्न आम्रपाली के पुत्र का नाम मूल पाली साहित्य में "विमल कोडज" आता है जो आगे चलकर बौद्ध भिक्ष बना। 69. थेरीगाथा--- अट्ठकथा-३१-३२ 70. मज्झिमनिकाय अभयराजकुमार सुत्त / 71. धम्मपद अट्ठकथा 13-4 / [12] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मज्झिमनिकाय७२ के अभयकुमार सूत्त में एक प्रसंग है-एक बार तथागत बुद्ध राजगही के वेणवन कल दक निवास में विचरण कर रहे थे। उस समय राजकुमार अभय निगण्ठनायपुत के पास पहुंचा। निगण्ट नायपुत्त ने अभय से कहा--'राजकुमार ! श्रमण गौतम के साथ तुम शास्त्रार्थ करो तो तुम्हारी काति-कौमुदी दिदिगन्त में फैल जायेगी और जनता में यह चर्चा होगी, कि अभय ने इतने महद्धिक श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ किया है।' अभय ने पूछा-'भन्ते ! मैं शास्त्रार्थ का प्रारम्भ कैसे करूं? निगण्ठ नायपुत्त ने कहा—'तुम बुद्ध से पूछना कि क्या तथागत ऐसे वचन बोल सकते हैं जो दुसरों को अप्रिय हों? यदि वे स्वीकार करें तो पूछना कि फिर प्रथग-जन (संसारी जीव) और तथागत में क्या अन्तर है ? यदि वे नकारात्मक उत्तर दें तो पूछना कि आपने देवदत्त के लिये दुर्गतिगामी, नरयिक कल्पभर-नरकवासी, अचिकित्सक की भविष्यवाणी क्यों की? वह आप की प्रस्तुत भविष्यवाणी से कुपित हुया है। इस तरह दोनों ओर से प्रश्न पूछने पर श्रमण गौतम न उगल सकेगा और न निगल सकेगा। जैसे किसी पुरुष के गले में लोहे की वंशी फंस जाये तो वह न उगल सकता है और न निगल सकता है, यही स्थिति बुद्ध की होगी।' अभय राजकुमार निगाठ नातपुत्त को अभिवादन कर बद्ध के पास पहंचा। अभिवादन कर एक ओर बैठ गया, पर शास्त्रार्थ का समय नहीं था। अतः अभय ने सोचा-कल तथागत बुद्ध को घर पर बुलवाकर ही शास्त्रार्थ करूंगा! उसने बद्ध को भोजन का निमन्त्रण दिया और अपने राजप्रासाद में चला पाया। दूसरे दिन मध्याह्न में चोवर पहन कर और पात्र लेकर बुद्ध अभय के राजप्रासाद में पहुंचे। बुद्ध को अपने हाथों मे उसने श्रेष्ठ भोजन समपित किया। जब बुद्ध पूर्ण रूप से तप्त हो गये तो राजकुमार अभय नीचे ग्रासन पर बैठ गये और उन्होंने वाद प्रारम्भ किया—भन्ते ! क्या तथागत ऐसे वचन बोल सकते हैं जो दूसरों को अप्रिय हों? बुद्ध -एकान्त रूप से ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह सुनते ही अभय राजकुमार बोल उठा-भन्ते ! निगण्ठ नष्ट हो गया। बुद्ध के पूछने पर उसने स्पष्टीकरण करते हुए कहा—भन्ते ! मैं निगण्ठ नायपुत्त के पास गया था / उन्होंने ही मुझे प्राप से यह दुधारा प्रश्न पूछने के लिये उत्प्रेरित किया था। उनका यह मत था कि इस प्रकार प्रश्न पूछने पर गौतम न उगल सकेगा और न निगल सकेगा। अभय राजकुमार की गोद में एक नन्हा-मुन्ना बैठा हुआ क्रीडा कर रहा था। उसे लक्ष्य में लेकर बुद्ध ने कहा-'राजकुमार, तुम्हारे (या धाय के) प्रमाद से यह शिशु कदाचित् मुह में काष्ठ का टुकड़ा या ढेला डाल ले तो तुम क्या करोगे ?' मैं उसे निकालगा भन्ते ! यदि वह सीधी तरह से निकालने नहीं देगा तो बायें हाथ से उस का सिर पकड़ कर दाहिने हाथ से अंगुली टेढ़ी करके रक्त सहित भी निकाल दूंगा ! क्योकि उस पर मेरा स्नेह है। बुद्ध-राजकुमार ! तथागत अतथ्य, अनर्थयुक्त और अप्रिय वचन नहीं बोलते / तथ्य सहित होने पर भी यदि अनर्थ करने वाला वचन हो तो उसे भी नहीं बोलते। जो वचन तथ्ययुक्त सार्थक होता है, फिर भले ही प्रिय हो या अप्रिय, कालज्ञ तथागत उसे बोलते हैं। क्योंकि उनकी प्राणियों पर दया है। अभय राजकुमार-भन्ते ! क्या आप पहले से ही मन में यह विचार कर रखते हैं कि इस प्रकार का प्रश्न करने पर मैं ऐसा उत्तर दूंगा? बुद्ध-तुम रथ-विद्या के निष्णात हो। रथ का यह कौन सा अंग-प्रत्यंग है, यदि कोई तुम से यह पूछे तो क्या तुम उसका पहले से ही उत्तर सोच-समझ कर रखते हो? या समय पर ही तुम्हें भासित हो जाता है ? 72. मज्झिमनिकाय अभयकुमार सुत्त प्रकरण-७६ / [13] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमराजकुमार-भन्ते ! मैं रथ का विशेषज्ञ हूं। इसलिये मुझे उसी समय ज्ञात हो जाता है / बुद्ध-राजकुमार ! तथागत को भी उसी क्षण भासित हो जाता है, क्योंकि उनका मन अच्छी तरह से सधा हुया है। अभय-प्राश्चर्य भन्ते ! अदभुत भन्ते / आपने अनेक पर्याय से धर्म को प्रकाशित किया है। मैं आपकी शरण में प्राता हूं / धर्म और भिक्षु संघ मुझे अंजलिबद्ध शरणागत स्वीकार करें / संयुक्त निकाय में भी अभयकुमार का बुद्ध से साक्षात्कार होने का उल्लेख है। वह बद्ध से पूर्ण-काश्यप की मान्यता से सम्बन्धित एक प्रश्न करता है।७3 धम्मपद अट्ठकथा के अनुसार अभयकुमार को श्रोतापत्ति फल७४ उस समय प्राप्त होता है जब वह नर्तकी की मृत्यु से खिन्न होकर बुद्ध के पास गया और बुद्ध ने धर्मोपदेश दिया।७५ थेरगाथा अट्ठकथा के अनुसार अभय को श्रोतापत्तिफल उस समय प्राप्त हुया जब तथागत बद्ध ने तालच्छिगुलुपम सुत्त का उपदेश दिया था / 76 वह श्रेणिक बिम्बिसार की मृत्यु से अत्यन्त उदास होकर बद्ध के पास पहुंचा, प्रव्रज्या ग्रहण की और अहत पद प्राप्त किया / 77 भिक्ष बनने के पश्चात् उसने अपनी माता पद्मावती को भी उद्बोधन दिया और उसने भिक्षणी बनकर अर्हत पद प्राप्त किया।७८ जैन और बौद्ध साक्ष्यों के पालोक में यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि अभयकुमार और अभयराजकुमार ये दोनों पृथक-पृथक व्यक्ति रहे होगे क्योंकि जैन दृष्टि से उसकी माता वणिक कन्या है, वह राजा श्रेणिक का प्रधानमंत्री है और महावीर के पास दीक्षा ग्रहण करता है जबकि बौद्ध दृष्टि से वह एक गणिका का पुत्र है, सफल रथिक है, निगण्ठ धर्म का परित्याग कर बौद्ध धर्म को स्वीकार करता है और अन्त में बद्ध के पास भिक्ष बनता है। यदि अभय एक ही व्यक्ति होता तो महावीर और बुद्ध इन दोनों के पास वह किस प्रकार दीक्षा ले सकता था? भव है कि राजा श्रणिक के अनक पुत्र थ उनमें एक का नाम अभय रहा हो और दूसरे का नाम अभयराजकुमार रहा हो। जैन दीक्षा का उल्लेख प्रस्तुत प्रागम में है जिसका रचनाकाल पण्डितप्रवर दलसुख मालवरिगया प्रभति विज्ञों ने विक्रम पूर्व दूसरी शताब्दी माना है।६१ बौद्ध दीक्षा का उल्लेख 'थेरानपदान'८२ व अटठकथा में है। 73. संयुक्तनिकाय, अभय सुत्त 44 / 6 / 6 74. स्रोतापत्ति-धारा में आजाना / निर्वाग के मार्ग में प्रारूढ हो जाना, जहां से गिरने की कोई संभावना न हो। योग-साधना करने वाला भिक्षु जब सत्कायदृष्टि विचिकित्सा और शीलवत परामर्शक, इन तीन बंधनों को तोड़ देता है तब वह स्रोतापन्न कहा जाता है। स्रोतापन्न व्यक्ति अधिक से अधिक सात बार जन्म लेता है, फिर अवश्य ही निर्वाण प्राप्त करता है। 75. धम्मपद-अट्ठकथा 13 / 4 76. थेरगाथा-अट्ठकथा-११५८ 77. (क) थेरगाथा-२६ (ख) थेरगाथा-अट्ठकथा खण्ड 1, पृ. 83-84 78. थेरगाथा-अट्ठकथा 31-32 79. (क) प्रागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन, पृ. 359 (ख) भगवान महावीर : एक अनुशीलन 8... मनापारिक-१.१० 81. मागमयुग का जैनदान-पृ. 28, प्रकाशक-सासि मानपीट, मागरा 82. थेराप्रपदान : भदियवगो, अभयस्थरप्रपदानं [ ] [ 14 ] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिटक साहित्य में थे राप्रपदान को रचना सबसे बाद की मानी जाती है और अट्ठकथा तो उससे भी बाद की रचना है। अत: अभय का जैनधर्मी होना ही अधिक तर्कसंगत व प्रमाण पुरस्सर है। प्रस्तुत आगम के प्रथम वर्ग के दश अध्ययनों में से सातवां अध्ययन लप्ट दन्त राजकुमार का है और द्वितीय वर्ग में भी तीसरा अध्ययन ल टदन्त राजकुमार का है। दोनों की माता धारिणी और पिता श्रेणिक सम्राट है / इसकी संगति क्या है ? यह अन्वेषणीय है। संभव है लष्टदन्त नाम के दो राजकुमार रहे हों एक प्रथम और एक द्वितीय / महासती मुक्तिप्रभाजो ने टिप्पण में इस सम्बन्ध में विचार किया है। तृतीय वर्ग में धन्यकुमार, सुनक्षत्रकुमार, ऋषिदास, पेल्लक, रामपुत्र, चन्द्रिक, पृष्टिमात्रिक, पेढालपुत्र, पोटिल्ल, और वेहल्ल इन दश कुमारों का वर्णन है। धन्यकुमार काकन्दी की भद्रा सार्थवाही के पुत्र थे। चारों ओर वैभव अठखेलियाँ कर रहा था। किन्तु भगवान् महावीर के त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए पावन प्रवचनों को श्रवण कर संयम के कठोर-मार्ग पर एक वीर सेनानी की भाँति बढ़ते हैं। उनके तपोमय जीवन का अद्भुत वर्णन इसमें किया गया है। धन्य अनगार के तपवर्णन को पढ़कर किस का सिर श्रद्धा से नत नहीं होगा ! मज्झिमनिकाय के महासिंहनाद सुत्त 4 में तथागत बुद्ध ने अपने किसी एक पूर्वभव में इस प्रकार की उत्कृष्ट तपः साधना की थी। बुद्ध ने छह वर्ष तक जो तप तपा था वह भी कुछ इसी तरह से मिलता-जुलता है। कविकुलगुरु कालिदास ने भी कूमारसम्भव में पार्वती के उग्र तप का सजीव वर्णन किया है। उन सभी वर्णनों को पढ़ने के पश्चात जब हम धन्य कुमार के वर्णन को पढ़ते हैं तो ऐसा स्पष्ट लगता है कि धन्य कुमार का वर्णन अधिक सजीव है। उन्होंने जीवन भर छ8-छ8 तप करने की प्रतिज्ञा की थी। पारणे में केवल प्राचाम्ल व्रत के रूप में रूक्ष भोजन ग्रहण करते थे। कोई गृहस्थ जिस अन्न को बाहर फेंकने के लिये प्रस्तुत होता उसे लेकर 21 बार पानी से धोकर वे उसे ग्रहण करते और उसी पानी का उपयोग करते। तप से उन का शरीर अस्थिपंजर हो गया था। देखिये उन के तप का पालंकारिक वर्णन-जिसमें व्यावहारिक उपमानों का प्रयोग हया है और वर्ण्य विषय में सजीवता पा गई है। उनके प्रस्तुत कथन में पर्याप्त यथार्थता के दर्शन होते हैं। 'अक्खसुत्तमाला विव-गणेज्जमाणेहिं पिठि करंडगसंधीहि, गंगात रंगभूएणं उरकड़गदेसभाएणं, सुक्कसप्पसमाणेहिं बाहाहिं, सिढिलकडाली-विव लंनंतेहि य प्रग्नहत्थेहि, कंपमाणवाइए विव वेबमाणीए सीसघडीए''प्रर्थात् तपस्वी धन्य मुनि की पीठ की हडडिया अक्षमाला की भांति एक-एक कर गिनी जा सकती थीं, वक्षःस्थल की हड्डियाँ गंगा की लहरों के समान अलग-अलग दिखलाई पड़ती थीं। भुजायें सूखे हुए सांप की तरह कृश हो गई थीं। हाथ घोड़े के मूह बांधने के तोबरे के समान शिथिल होकर लटक गये थे और सिर वात रोगी के सिर की भांति कांपता रहता था।' इस तरह इसमें अनेक उपमाएं और दृष्टान्त भरे पड़े हैं। कितने ही लोगों का मानना है कि आगम-साहित्य नीरस है। प्रागमों की कथाएं एक सी शैली, वर्ण्यविषय की समानता तथा कल्पना और कलात्मकता के अभाव में पाठकों को मुग्ध नहीं करती हैं। उनमें अतिप्राकृतिक तत्त्वों की भरमार है। पर उनका यह मानना पूर्ण रूप से उचित नहीं है। उसमें प्रांशिक सच्चाई हो सकती है। ऊपर-ऊपर से पागम को पढ़ने के कारण ही उनमें यह धारणा पैदा हुई हो, पर जब हम गहराई में अवगाहन करते हैं तो उन कथाओं से नूतन-नतन तथ्य उद्घाटित होते हैं। भारतीय संस्कृति की संरचना और 'भारतीय प्राच्य विधानों के विकसन में उनका अपूर्व योगदान रहा। आधुनिक कहानियों व उपन्यासों की भांति 83. खुद्दकनिकाय-खण्ड 7, नालन्दा, भिक्ष जगदीश काश्यप 84. बोधिराजकुमार सुत्त, दीघनिकाय कस्सपसिंहनाद सुत्त / 85. कुमारसम्भव सर्ग-पार्वतीप्रकरण / [15] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भले ही वे दिलचस्प न हों पाठकों के मन को भले ही पकड़कर न रखते हों किन्तु उनमें जीवनोत्थान की प्रशस्त प्रेरणाएं रही हुई हैं, वे सांस्कृतिक दृष्टि से अपूर्व धरोहर के रूप में हैं। प्रस्तुत प्रागम विषय-विभाग की दृष्टि से धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत आता है। यों चरणकरणानुयोग का भी प्रतिनिधित्व करता है / प्रस्तुत प्रागम में जैन-परम्परा के अनुसार तप का विश्लेषण किया गया है। जैन संस्कृति में तप की उत्कष्ट-साधना प्रधान रही है। जितने भी तीर्थकर हए हैं वे तप के साथ ही प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं,८६ तप के साथ ही केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करते हैं और तप के साथ ही अपना प्रथम उपदेश प्रारम्भ करते हैं ! भगवान् महावीर तपोविज्ञानी अद्वितीय महापुरुष थे। उन्होंने अपने समय में प्रचलित कोई देहदमन रूप बहिर्मुख तप का ग्रान्तरिक साधना के साथ सामजस्य स्थापित किया था। महावीर ने स्वयं भी और उनके शिष्यों-शिष्याओं ने भी उत्कृष्ट तप की पाराधना की थी। उसका उल्लेख हम इस पागम में पाते हैं और अन्य प्रागमों में भी। यही कारण है कि महावीर के शिष्यों के लिये बौद्ध वाङमय में तपस्वी और दीर्घतपस्वी विशेषण मिलते हैं। आवश्यकनियुक्ति में८७ अनगार को तप में शूर कहा है। सुप्रसिद्ध टीकाकार मलयगिरि ने तप की परिभाषा करते हुए लिखा है-जो पाठ प्रकार के कर्म को तपाता है-उसे नष्ट करने में समर्थ होता है वह तप है। तप से कर्म नष्ट होते हैं और प्राच्छन्न शक्तियाँ प्रगट हो जाती हैं। दाक्षिणात्य पवन चलते ही अनन्त गगन में मण्डाराती हुई काली कजराली घटाएं, एक क्षण में छिन्न-भिन्न हो जाती हैं वैसे ही तप रूपी पवन से कर्म रूपी बादल छंटने लगते हैं। प्रस्तुत आगम में अनशन तप का उत्कृष्ट क्रियात्मक चित्रण हुआ है। अनशन तप वही साधक कर सकता है जिसकी शरीर पर प्रासक्ति कम हो। अनशन में अशन का त्याग तो किया ही जाता है, साथ ही इच्छायों, कषायों और विषय-वासनाओं का त्याग भी किया जाता है। प्रारम्भ में साधक कुछ समय के लिये आहार आदि का परित्याग करता है जो इत्वरिक तप के नाम से विश्र त है। जीवन के अन्तिमकाल में वह जीवन पर्यन्त के लिये आहार आदि का परित्याग कर देता है जो यावत्कथित तप कहलाता है। धन्य अनगार और अन्य अनगारों ने इन दोनों ही प्रकार के तपों की आराधना की थी। संलेखना जैन-साधना-विधि की एक प्रक्रिया है / जिस साधक ने अध्यात्म की गहन साधना की है, भेदविज्ञान की बारीकियों को अच्छी तरह से समझा है, वही संलेखना और समाधि के द्वारा मरण को वरण कर सकता है / मरण के समय जो आहार आदि का त्याग किया जाता है, उस परित्याग में मृत्यु की चाह नहीं होती। संयमी साधक की सभी क्रियाएँ संयम के लिए होती हैं। जो शरीर साधना में सहायक न रह कर बाधक बन गया हो, जिसको वहन करने से प्राध्यात्मिक गुणों की शुद्धि और वृद्धि न होती हो वह त्याज्य बन जाता है / उस समय स्वेच्छा से मरण को वरण किया जाता है। एक भ्रान्त धारणा है कि संथारा आत्महत्या है पर यह सत्य नहीं है। प्रात्महत्या वह व्यक्ति करता है जो परिस्थितियों से उत्पीडित है, जिसकी मनोकामना पूर्ण नहीं होती हो, जिसका घोर अपमान हृया हो, या कलह हा हो और जो तीव्र क्रोध के कारण विक्षिप्त-सा हो गया हो। 86, क-समवायांग-१, 9-8. __ ख-आवश्यक नियुक्ति गाथा-१५०. ग---उत्तरापुराण-५१/७० पृष्ठ-३० 87. तवसूरा अरणगारा-पावश्यकनियुक्ति गा. 450. 58. पावश्यक मलयगिरि वत्ति, खण्ड-२ अध्याय-१. [16] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह व्यक्ति विविध प्रकार के प्रयोग कर जीवन का अन्त करता है। वह आत्महत्या करता है। उसके अन्तर्मानस में भय, कामनाएं, वासनाएं, उत्त जनाएं और कषाय रहा हुआ होता है। किन्तु संथारे में इन सभी का प्रभाव होता है, आत्मा के निज-गुणों को प्रकट करने की तीव्रतर भावना होती है। इसीलिये यदि पूर्व काल में किसी / दुर्भावनाएं या बैमनस्य हुया हो तो वह स्वयं क्षमा-याचना करता है और अपनी ओर से क्षमा प्रदान भी करता है। संथारे में न किसी प्रकार की कीति की कामना ही होती है और न कोई चाहना ही होती है. इसलिये वह प्रात्महत्या नहीं है। अपितु साधना का मंगलमय पावन पथ है।६६ प्रस्तुत आगम की भाषा और विषय अत्यधिक सरल होने के कारण उस पर न नियुक्तियाँ लिखी गयीं, न भाष्य लिखा गया और न चणियाँ ही। सर्वप्रथम प्राचार्य अभयदेव ने ही इस पर संस्कृत भाषा में वत्ति लिखी है, जो शब्दार्थप्रधान और सूत्रस्पर्शी है, वृत्ति का ग्रन्थमान 192 श्लोक प्रमाण है। वह वत्ति सन 1920 में पागमोदय समिति सूरत से प्रकाशित हुई और उसके पूर्व सन् 1875 में कलकत्ता से धनपतसिंह ने प्रकाशित की थी। इस पागम का अंग्रेजी अनुवाद 1907, L.D. BarNett से प्रकाशित हया है। पी. एल. बैद्य ने प्रस्तावना के साथ सन् 1932 में इस का प्रकाशन करवाया। सन् 1921 में इस का केवल मूलपाठ आत्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित हुआ है। विक्रम संवत् 1990 में भावनगर से ही अभयदेववृत्ति के साथ गुजराती अनुवाद का एक संस्करण निकला / वीर संवत-२४४६ में प्राचार्य अमोलक ऋषि ने हिन्दी में बत्तीस प्रागमों के प्रकाशन के साथ इसका भी प्रकाशन करवाया था। 1940 में गोपालदास जीवाभाई पटेल ने जैन साहित्य प्रकाशन समिति अहमदाबाद से और श्रमणी विद्यापीठ घाटकोपर, बम्बई से इस के मूल के साथ प्रकाशित हुए हैं। प्राचार्य श्री घासीलालजी म. ने संस्कृत टीका के साथ हिन्दी और गुजराती अनुवाद सन् 1959 में जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट (सौराष्ट्र) से प्रकाशित करवाया / प्राचार्य श्री आत्माराम जी म. ने विवेचन युक्त एक शानदार संस्करण 'जैन शास्त्रमाला कार्यालय लाहोर,' से सन् 1936 में प्रकाशित किया है। श्री विजयमुनिशास्त्री ने मूल हिन्दी टिप्पण व वृत्ति के साथ सम्पादित कर एक मनमोहक संस्करण प्रकाशित किया है। इस प्रकार आज तक अनुत्तरोषपातिकदशा के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं जिनको अपनी महत्ता है। प्रस्तुत संस्करण अनुत्तरोपपातिकदशा का एक अभिनव संस्करण है / इसमें शुद्ध मूलपाठ है; अर्थ तथा संक्षेप में विवेचन भी है, जो अागम के मूलभाव को स्पष्ट करता है। परिशिष्ट में टिप्पण दिये गये हैं जो बहुत ही सम्पूर्ण हैं / पारिभाषिक-शब्दकोष, अव्ययपद, क्रियापद, शब्दार्थ देने से आगम के गुरुगंभीर रहस्य सहज रूप से समझे जा सकते हैं। परमविदुषी साध्वीरत्न स्वर्गीया महासती श्री उज्ज्वलकुमारीजी के नाम से जैन समाज भलीभांति परिचित है। उन्हीं को सुशिष्या हैं धर्मभगिनी साध्वी मुक्तिप्रभाजी। मुरुगी की तरह उनमें भी प्रतिभा है। उनके द्वारा सम्पादित प्रस्तुत प्रागम में उनकी प्रतिभा यत्र-तत्र प्रस्फुटित हुई है। इस संस्करण की अपनी एक विशिष्टता है / इसमें परमादरणीय युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी की मधुर परिकल्पना को मूर्तरूप देने का सफल प्रयास किया गया है। बहिन मुक्तिप्रभा जी का यह प्रथम प्रयास प्रशंसनीय है। इसमें विदवद्वरेण्य कलमकलाधर श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल का प्रकाण्ड पाण्डित्य भी स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित हया है। श्रमरण-संघ के मनीषी मूर्धन्य मुनिगणों की वर्षों से यह परिकल्पना थी कि आगम के गुरुगंभीर रहस्यों को युगानुकूल सरस-सरल भाषा में प्रस्तुत किया जाय / प्रागम-बत्तीसी को शानदार रूप से प्रकाशित किया 89. देखिए लेखक का जनप्राचार-ग्रन्थ में संलेखना लेख (अप्रकाशित)। [ 17 ] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाए जिससे शोधार्थियों को और प्रात्माथियों को लाभ हो। मेरे परम श्रद्धय गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्करमनिजी म., जो युवाचार्थ श्री मधुकरमुनिजी के अभिन्न साथी हैं, समय-समय पर मुझे प्रेरणा प्रदान करते रहे हैं। जब युवाचार्यश्री ने इस भगीरथ कार्य को सम्पन्न करने का दृढ़ संकल्प किया तो गुरुदेवश्री को हार्दिक पाहाद हुग्रा / श्रमणसंघ के सन्त व सतीवृन्द तथा विज्ञों के अपूर्व सहयोग से यह कार्य युवाचार्यश्री के कुशल निर्देश से आगे बढ़ रहा है। मुझे आशा ही नहीं अपितु दृढ़ विश्वास है कि युवाचार्यश्री का यह प्रशस्त श्रुत सेवा का कार्य युग-युग तक उन्हें यशस्वी बनाएगा। प्रस्तुत अनुत्तरौपातिक दशा आगम-माला की एक सुन्दर बहुमूल्य मरिग है जो भूलेभटके मानवों को दिव्य प्रालोक प्रदान करेगी। भौतिकवाद के स्थान पर अध्यात्मवाद की प्रतिष्ठा करेगी। पूर्व प्रकाशित प्राचारांग, उपासकदशा और जाताधर्मकथा की भांति यह प्रागम भी जन-जन के मन को लुभायेगा, विद्वानों एवं सर्वसाधारण जिज्ञासुजनों में समुचित प्रतिष्ठा प्राप्त करेगा, यही मंगल कामना है। 0 देवेन्द्रमुनि शास्त्री जैन स्थानक नीमच सिटी (मध्यप्रदेश) दि. 20-3-1981 [18] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम प्रथम वर्ग प्रथम अध्ययन उत्क्षेप जाली कुमार 2.10 अध्ययन मयाली आदि कुमार 10 द्वितीय वर्ग 1-13 अध्ययन उत्क्षेप दीर्घसेन आदि कुमार तृतीय वर्ग प्रथम अध्ययन धन्य कुमार बहत्तर कलाएँ दाय (दहेज) धन्य कुमार का प्रव्रज्या-प्रस्ताव धन्य मुनि की तपश्चर्या धन्य मुनि की शारीरिक दशा पैर और अंगुलियों का वर्णन धन्य मुनि की जंघाएँ, जानु और ऊरु कटि, उदर एवं पसुलियों का वर्णन धन्य मुनि के बाहु, हाथ, उंगली, ग्रीवा, दाढी, होठ एवं जिह्वा धन्य मुनि के नासिका, नेत्र एवं शीर्ष धन्य मुनि की आन्तरिक तेजस्विता भगवान् महावीर द्वारा प्रशंसा श्रेणिक द्वारा धन्य मुनि की स्तुति धन्य मुनि का सर्वार्थसिद्धगमन द्वितीय अध्ययन सुनक्षत्र 3-10 अध्ययन इसिदास आदि WW.WWW.WWWW 43 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट टिप्पण, राजगृह, सुधर्मा, जंबू, अंग, अन्तकृद्-दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, गुणशील चैत्य, श्रेणिक राजा, धारिणी देवी, सिंहस्वप्न, मेधकुमार, स्कन्दक, गौतम इन्द्रभूति, चेल्लणा, नन्दा, विपुलगिरि, उक्कमेणं सेसा, लट्ठदन्त, गुणशिलक, काकन्दी, सहस्संबवण, जितशत्रु राजा, भद्रा सार्थवाही, पंचधात्री, महाबल, कोणिक, जमाली, थावच्चापुत्र, कृष्ण, महावीर, सिलेस गुलिया. धन्य अनगार, चाउरन्त, वाणिज्यग्राम, हस्तिनापुर, षष्ठ भक्त, आयंबिल, संसृष्ट, उज्झित धर्मिक, उच्च नीच मध्यम कुल, विलमिव पन्नगभूएणं, सामाइयमाइयाइं / तपः कोष्ठक शब्द कोष अव्ययपदसंकलना क्रियापदसंकलना शब्दार्थ 72 995 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमगणहर-सिरिसुहम्मसामिविरइयं नवमं अंगं अनुत्तरोववाइयदसाओ पञ्चमगणधर-श्रीसुधर्म-स्वामिविरचितं नवमम् अङ्गम् अनुत्तरौपपातिकदशा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अहं * पढमो वग्गो प्रथम अध्ययन जाली उत्क्षेप १-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे / अज्जसुहम्मस्स समोसरणं। परिसा निग्गया जाव [धम्म सोच्चा, निसम्म जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया।] जम्बू पज्जुवासइ, जाव [जम्बू णामं अणगारे कासवगोत्तेणं सत्तुस्सेहे, समच उरंस-संठाण-संठिए, वज्जरिसह-नारायसंचयणे कणगपुलग-निघस-पम्हगोरे, उम्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे ओराले, घोरे, घोरगुणे, घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छूढसरोरे संखित्त-विउल-तेउलेसे, चोद्दसपुन्वी, च उणाणोवगए, सव्वक्खर-सन्निवाई अज्जसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामन्ते उड्ढंजाणू अहोसिरे झाण-कोट्टोवगए, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / तए णं प्रज्ज-जम्बू णामं अणगारे जायस जायसंसए, जायकोउहल्ले, संजायसव संजायसंसए संजायकोउहल्ले, उत्पन्नसड्ने उप्पन्नसंसए उप्पन्नकोउहल्ले, समुप्पन्नसड्डे, समुप्पन्न-संसए समुप्पन्नकोउहल्ले उट्टाए उट्ठति, उदृत्ता जेणामेव प्रज्जसुहम्मे थेरे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अज्जसुहम्मे थेरे तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेति, करित्ता वन्दति, नमंसति, बंदित्ता नमंसित्ता अज्जसुहम्मस्स थे रस्स नच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे पंजलि उडे विणएणं] पज्जुवासमाणे एवं वयासी जइ गं भंते ! समणेणं जाव [भगवया महावीरेणं प्राइगरेणं, तित्थयरेणं सयंसंबुद्धणं, पुरिसुत्तमेणं. पुरिससोहेणं, पुरिसवरपुंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणः लोगुत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहिएणं, लोगपईवेणं, लोगपज्जोयगरेणं, अभयदएणं, सरणदएणं चक्खुदएणं मम्गदएणं बोहिदएणं, धम्मदएणं, धम्मदेसएणं, धम्मनायगेणं धम्मसारहिणा, धम्मवरचाउरंत-चक्कट्टिणा, अप्पडिहयवर-नाण-दसणधरेणं, वियदृछउमेणं, जिणेणं, जावएणं, तिन्नेणं, तारएणं, बद्धणं, बोहएणं मुत्तणं मोअगेणं, सम्वन्नेणं, सम्वदरिसणेणं सिवमयलमरुपमणंत-मक्खयमव्वाबाहमपुणरावित्तिअं सासयं ठाणं] संपत्तणं' अटुमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अयम? पण्णत्त, नवमस्त णं भंते ! अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं जाव' संपत्तणं के अट्ठ पणत्त ? उस काल और उस समय में राजगृह नामका एक नगर था। आर्य सुधर्मा का वहां प्रागमन हुआ। धर्म-देशना सुनने के लिए परिषद् आई और धर्मदेशना सुन कर [हृदय में धारण कर जिस दिशा (ओर) से आई थी, उसी दिशा में] लौट गई। आर्य जम्बू अनगार आर्यसुधर्मा स्वामी के पास 1. ज्ञाता. श्रत. 1, अ. 1 में संपत्तण के स्थान पर 'उवगएण' शब्द दिया गया है। 2. पूर्ववत् सू. 1. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 // [ अनुत्तरौपपातिकदशा संयम और तप से आत्मा को भावित (वासित) करते हुए विहरण कर रहे थे। आर्य जम्बू काश्यप गोत्रवाले थे। उनका शरीर सात हाथ प्रमाण ऊंचा था, पालथी मार कर बैठने पर शरीर की ऊंचाई और चौड़ाई बराबर हो, ऐसे समचतुरस्र संस्थान वाले थे, उनका वजऋषभनाराच' संहनन था, सुवर्ण की रेखा के समान और पद्मराग (कमल-रज) के समान गौर वर्ण वाले थे, उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, तप्ततपस्वी, महातपस्वी, उदार, आत्म-शत्रुओं को विनष्ट करने में निर्भीक, घोर तपस्वी, दारुण-भीषण ब्रह्मचर्य व्रत के पालक, प्राप्त विपुल तेजोलेश्या को अपने ही शरीर में समा लेने वाले, चौदह पूर्वो के ज्ञाता, मतिज्ञानादि चार ज्ञानों के धारक, समस्त अक्षरसंयोग के ज्ञाता, उत्कुटुक प्रासन से स्थित, अधोमुखी, धर्म एवं शुक्ल ध्यान रूप कोष्ठक में प्रवेश किए हुए, संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। तत्पश्चात् आर्य जम्बू स्वामी, जातथद्ध जातसंशय जातकौतुहल, संजातश्रद्ध संजातसंशय संजातकौतूहल, उत्पन्नश्रद्ध, उत्पन्नसंशय, उत्पन्नकौतूहल, समुत्पन्नश्रद्ध समुत्पन्नसंशय और समुत्पन्नकौतूहल होकर अपने स्थान से उठकर खड़े होते हैं, खड़े होकर जहां सुधर्मास्वामी स्थविर विराजमान थे, वहां पर आते हैं, आकर उन्होंने श्रीसुधर्मास्वामी को दक्षिण ओर से तीन बार प्रदक्षिणा (परिक्रमा) को, प्रदक्षिणा करके स्तुति और नमस्कार किया, स्तुति-नमस्कार करके वे प्रार्य सुधर्मा स्वामी के न अधिक दूर, न अधिक समीप शुश्रूषा और नमस्कार करते हुए सामने बैठे और हाथ जोड़ कर विनय-पूर्वक उनकी उपासना करते हुए इस प्रकार बोले भगवन ! यदि श्र तधर्म की आदि करने वाले, गुरूपदेश के बिना स्वयं ही बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, कर्म-शत्रुओं का विनाश करने में पराक्रमी होने के कारण पुरुषों में सिंह के समान, पुरुषों में पुंडरीक-श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान, पुरुषों में गंधहस्ती के समान, अर्थात जैसे गंधहस्ती की गंध से ही अन्य हस्ती भाग जाते हैं, उसी प्रकार जिनके पुण्य प्रभाव से ही ईति, भीति आदि का विनाश हो जाता है, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, लोक में प्रदीप के समान, लोक में विशेष उद्योत करने वाले, अभय देने वाले, शरणदाता, श्रद्वारूप नेत्र के दाता, धर्म के उपदेशक, धर्म के नायक, धर्म के सारथि, चारों गतियों का अन्त करने वाले धर्म के चक्रवर्ती, कहीं भी प्रतिहत न होने वाले केवलज्ञान-दर्शन के धारक, घातिकर्म रूप छद्म के नाशक, रोगादि को जीतने वाले और उपदेश द्वारा अन्य प्राणियों को जिताने वाले, संसार-सागर से स्वयं तिरे हुए और दूसरों को तारने वाले, स्वयं बोधप्राप्त और दूसरों को वोध देने वाले, स्वयं कर्मबन्धन से मुक्त और उपदेश द्वारा दूसरों को मुक्त करने वाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव-उपद्रवरहित, अचल-चलन आदि क्रिया से रहित, अरुज-शारीरिक मानसिक व्याधि की वेदना से रहित, अनन्त, अक्षय, अव्यावाध और अपुनरावत्ति-पुनरागमन से रहित सिद्धि गति नामक शाश्वत स्थान को प्राप्त, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने आठवें अंग अन्तकृत्दशा का यह अर्थ कहा है, तो भन्ते ! नवमे अङ्ग अनुत्तरौपपातिकदशा का भगवान् ने क्या अर्थ कहा है ? विवेचन-ग्यारह अंगों में अन्तकृत् सूत्र पाठवाँ और अनुत्तरौपपातिकदशासूत्र नौवां अंग है। अंतकृतसूत्र के पश्चात् अनुत्तरौपपातिक सूत्र का क्रम इसलिए है कि दोनों सूत्रों में महापुरुषों के जीवन का, उनके वैभव-विलास, भोग और तप-त्याग का सुन्दर वर्णन किया गया है। अन्तर इतना ही है 1. संहनन छ. होते हैं / यह संहनन सबसे अधिक बलवान् होता है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वर्ग ] कि-अंतकृत् सूत्र में 60 महापुरुषों का वर्णन है और वे अपनी तप-साधना के द्वारा मुक्त हुए हैं, जबकि अनुत्तरौपपातिक सूत्र में वर्णित 33 महापुरुष अपनी तपसाधना के द्वारा अनुत्तर विमानों में गए हैं / अतः अन्तकृत् के अनन्तर ही इस अंग का पाना उचित है। इस सूत्र को उत्थानिका श्रीजम्बू स्वामी के प्रश्न से की गई है। जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी मोक्ष को प्राप्त हो चुके तब जम्बूस्वामी के चित्त में जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि श्रमण भगवान् महावीर ने नौवें अंग में क्या अर्थ वर्णन किया है ? उनकी इस जिज्ञासा को देखकर श्री सुधर्मा स्वामो इस सूत्र का विषय-वर्णन करते हैं। वर्तमान ग्यारह अंग सुधर्मा स्वामी की देन हैं। क्योंकि अङ्गसूत्रों में ऐसे भी पाठ प्राप्त होते हैं कि धन्ना अनगार ने एकादश अङ्गों का अध्ययन किया था और प्रस्तुत सूत्र में मुख्य रूप से धन्ना अनगार का ही विशद विवरण प्राप्त होता है। अत: प्रश्न समाधान चाहता है कि उन्होंने नौवे कौन से अङ्ग का अध्ययन किया होगा? इस समय जो अनुत्तरोपपातिक-अंग है उसमें तो धन्ना अनगार का पादपोपगमन अनशन से निधन पर्यन्त और अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने तक का संपूर्ण वर्णन मिलता है / अतः निर्विवाद सिद्ध होता है कि यह सुधर्मास्वामी की ही वाचना है और वह भी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाणपद-प्राप्ति के अनंतर ही की गई है। इस सूत्र की हस्त-लिखित प्रतियों में भी पाठ-भेद मिलते हैं जैसे-- "तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे होत्था / तस्स णं रायगिहे नाम नयरस्स सेणिए नाम राया होत्था वण्णो / चेलणाए देवी। तत्थ ण रायगिहे नामं नयरे बहिया उत्तर-पुरथिमे दिसीभाए ए नाम चेइए होत्था / तेण कालेण तेण समएण रायगिहे नामं नयरे अज्ज-सुहम्मे नाम थेरे जाव गुणसेलए नाम चेइए तेणेव समोसढे, परिसा निग्गया, धम्मो कहियो, परिसा पडिगया?" "तेणं कालेणं तेण समएण जंबू जाव पज्जुवासमाण एवं वयासी"--- यहाँ प्रथम पाठ भाषादृष्टि से भी और अर्थदृष्टि से भी असंगत प्रतीत होता है। क्योंकि इस सत्र की रचना श्रमण भगवान महावीर के निर्वाण के अनन्तर ही हई है और श्रणिक महाराज तो भगवान् के विद्यमान होते हुए ही मृत्यु को प्राप्त हो चुके थे। अत: शास्त्रोद्धार-समिति द्वारा प्राप्त शुद्ध प्रति में जो मूल सूत्र है वह ठीक प्रतीत होता है / सूत्र में विशेष विवरण धन्ना अनगार की उपमाओं से अलंकृत हुआ है। शेष सूत्रों को सरल जानकर बिना विवरण के छोड़ दिया गया है। ये आगम अर्थ की दृष्टि से सुगम होने पर भी ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्व के हैं। प्रस्तुत आगम में राजगृह नगर का केवल नाम ही दिया गया है। नगर का विशेष वर्णन औपपातिक-सूत्र में आता है। अत: जानने की इच्छा वाले जिज्ञासु के लिए औपपातिक-सूत्र ही देखना चाहिए। ____२-तए णं से सुहम्मे अणगारे जम्बू अणगारं एवं वयासी---एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव' संपत्तणं नवमस्स अंगस्स अणसरोववाइयदसाणं तिण्णि वग्गा पण्णत्ता। 1. देखिए सू. 1. . .-... -. " - ..--. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अनुत्तरौपपातिकदशा जइ णं भंते ! समणेणं जाव' संपत्तणं नवमस्स अंगस्स अणुतरोववाइयदसाणं तमो वग्गा पण्णता पढमस्स णं भंते ! वागस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं समणेणं जावर संपत्तणं कइ अझयणा पण्णत्ता? एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव' संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं पढमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता / तं जहा जालि-मयालि-उवयालो पुरिससेणे य वारिसेणे य / दीहदंते य लठ्ठदंते य वेहल्ले वेहायसे अभए इ य कुमारे / / जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तणं पढमस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स गं भंते ! अज्झयणस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं समणेणं जाव संपत्तणं के अट्ठ पण्णत ? अनन्तर सुधर्मा अनगार जम्बू अनगार से इस प्रकार कहने लगे--'जम्बू ! श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर ने नवमे अंग अनुत्तरोपपातिक दशा के तीन वर्ग कहे हैं, तो भन्ते ! अनुत्तरौपपातिकदशा के प्रथम वर्ग के श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर ने कितने अध्ययन कहे हैं ?' जम्बू ! श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान महावीर ने अणुत्तरोपपातिकदशा के प्रथम वर्ग के दश अध्ययन कहे हैं, जो इस प्रकार हैं--- 1. जालि कुमार, 2. मयालि कुमार, 3. उपजालि कुमार, 4. पुरुषसेन कुमार, 5. वारिषेण कुमार, 6. दीर्घदन्त कुमार, 7. लष्टदन्त कुमार, (लट्ठराष्ट्रदान्त), 8. वेहल्ल कुमार, 6. वेहायस कुमार, 10. अभय कुमार। भन्ते ! यदि श्रमण यावत निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर ने प्रथम वर्ग के दश अध्ययन कहे हैं, तो भन्ते ! श्रमण यावत निर्वाणसंप्राप्त भगवान महावीर ने अनुत्तरौपपातिकदशा के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में विषय अत्यंत संक्षिप्त है। जम्बू स्वामी ने अत्यंत उत्कृष्ट भाव से प्रार्य सुधर्मा स्वामी के समक्ष अनुत्तरौपपातिक सूत्र के कितने वर्ग प्रतिपादित किये हैं, इस विषय में जिज्ञासा प्रकट की है। आर्य सुधर्मा अनगार ने उक्त सूत्र को तीन वर्ग में प्रतिपादित किया है और प्रथम वर्ग के दस अध्ययनों के नाम गिनाये हैं। नाम क्रम से निम्नलिखित हैं १-जालि कुमार २–मयालि कुमार ३-उपजालि कुमार ४–पुरुषसेन कुमार 5 --- वारिषेण कुमार ६-दीर्घदन्त कुमार ७-लष्टदन्त कुमार -वेहल्ल कुमार 8-वेहायस कुमार और १०-अभयकुमार। प्रस्तुत सूत्र की सार्थकता या सप्रयोजनता किस प्रकार सिद्ध होती है, इस विषय में दृष्टिपात करें तो प्रतीत होता है कि जो भव्य जीव अपने वर्तमान जन्म में कर्मों का सम्पूर्ण रूप से क्षय करने में असमर्थ हों, वे इस जन्म के अनन्तर पांच अनुत्तरविमानों के परम-साता-वेदनीय-जनित सुखों का अनुभव करके आगामी भव में निर्वाण-पद की प्राप्ति कर सकते हैं। 1. 2. 3. 4. 5. देखिए सू. 1 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वर्ग / इन सूत्रों से यह भी फलित होता है कि विनयपूर्वक अध्ययन किया हुआ जान ही सफल हो सकता है। जो शिष्य विनय-पूर्वक गुरु से ज्ञान प्राप्त करना चाहता है उस को गुरु सम्यक्-ज्ञान से परिपूर्ण कर देते हैं। तथा जिसका आत्मा ज्ञान से परिपूर्ण होता है, वह सहज ही अन्य आत्माओं का उद्धार करने में समर्थ हो सकता है। अत: इस सूत्र से सिद्ध है कि-गुरुभक्ति से ही श्रुत-ज्ञान की प्राप्ति होती है। जाली कुमार ३-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे, रिद्धस्थिमियसमिद्ध। गुणसिलए चेइए / सेभिए राया, धारिणी देवी / सोहो सुमिणे / जाली कुमारो। जहा मेहो अलुट्ठो दानो जाव ["अहिरण्णकोडोप्रो, अट्ठ सुवण्णकोडोलो, गाहानुसारेण भाणियब्वं जाव पेसणकारियानो, अन्नं च विपुलं धण-कणग-रयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवाल-रत्तरयण-संतसार-सावतेज्ज अलाहि जाव प्रासत्तमाअो कुलवंसानो पकामं दाउं पकामं भोत्त पकामं परिभाए। ___तए णं से जालीकुमारे एगमेगाए भारियाए एगमेगं हिरण्णकोडि दलयति, एगमेगं सुवन्नकोडि दलयति, जाव एगमेगं पेसणकारि दलयति, अन्नं च विपुलं धणकणग जाव परिभाएउ दलयति"] / तए णं से जाली कुमारे उप्पि पासाय जाव ["वरगए फुट्टमाहिं मुइंगमस्थएहि वरतरुणिसंपउत्तहिं बत्तीसइबद्धएहि नाडएहि उवगिज्जमाणे उवगिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधविउले माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विहरति"] / "जम्बू ! इस प्रकार उस काल और उस समय में राजगह नामका नगर था। वह: स्तिमित (स्थिर) और समृद्ध था। वहां गुणशीलक चैत्य था। वहाँ का राजा श्रेणिक था और उसकी धारिणी नामकी रानी थी। धारिणी रानी ने स्वप्न में सिंह को देखा। कुछ काल के पश्चात रानी ने मेघकुमार के समान जाली कुमार को जन्म दिया। जाली कुमार का मेघकुमार के समान आठ कन्याओं के साथ विवाह हुआ और पाठ-पाठ वस्तुओं का दहेज दिया; यावत आठ करोड़ हिरण्य (चांदी) आठ करोड़ सुवर्ण, आदि गाथाओं के अनुसार समझ लेना चाहिए यावत आठ-आठ प्रेक्षणकारिणी (नाटक करने वाली) अथवा पेषणकारिणी (पीसनेवाली) तथा और भी विपुल धन, कनक रत्न, मणि मोती शंख, मूगा रक्त रत्न (लाल) आदि उत्तम सारभूत द्रव्य दिया जो सात पीढ़ी तक दान देने के लिए, उपभोग करने के लिए और बँटवारा करने के लिए पर्याप्त था। तत्पश्चात् उस जाली कुमार ने प्रत्येक पत्नी को एक-एक करोड़ हिरण्य दिया, एक-एक सूवर्ण दिया। यावत एक-एक प्रेक्षणकारिणी या पेषणकारिणी दी। इसके अतिरिक्त अन्य विपुल धन कनक आदि दिया, जो यावत् दान देने, भोगोपभोग करने और बँटवारा करने के लिए सात पीढ़ियों तक पर्याप्त था। तत्पश्चात् जालीकुमार श्रेष्ठ प्रासाद के ऊपर रहा हुअा, मानों मृदंगों के मुख फूट रहे हों, इस प्रकार उत्तम स्त्रियों द्वारा किये हुए बत्तीसबद्ध नाटकों द्वारा गायन किया जाता हुया तथा क्रीडा . करता हुअा मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस. रूप और गंध की विपुलता वाले मनुष्य संबन्धी कामभोगों को भोगता हुअा रहने लगा। 1. देखिए इसी समिति द्वारा प्रकाशित अन्तगड पृ. 27 तथा प्रस्तुत सूत्र पृ. 19. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { अनुत्तरौपपातिकदशा ४-सामी समोसढे / सेणिओ निग्गओ। जहा मेहो तहा जाली वि निग्गयो। तहेव निक्खंतो जहा मेहो / एक्कारस अंगाई अहिज्जइ / गण-रयणं तवोकम्मं जहा खंदगस्स। एवं जा चेव खंदगस्स वत्तव्वया, सा चेव चितणा, प्रापुच्छणा। थेरेहिं सद्धि विउलं तहेव दुरूहइ / नवरं सोलस वासाइं सामण्ण-परियागं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा उड्ढं चन्दिमसोहम्मीसाण जाव ["सणंकुमार-माहिद-बंभ-लंतग-महासुक्कसहस्साराणय-पाणयारणच्चुए] कप्पे नवगेवेज्जयविमाणपत्थडें उड्ढं दूरं वोईवइत्ता विजय-विमाणे देवत्ताए उववण्णे।" तए णं थे। भगवंता जालि अणगारं कालगयं जाणित्ता परिणिब्वाणवत्तियं काउस्सग्गं करेंति / करित्ता पत्तचीवराइं गेण्हति / तहेव उत्तरंति जाव [जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, समणं भगवं महावीर वंदति नमसंति, वंदित्ता नमसइत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी जालो नामं अणगारे पगइ-भद्दए पगइविणीए पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाण-माया-लोने मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे भद्दए विणीए / से णं देवाणुप्पिएहि अब्मणुण्णाए समाणे सयमेव पंच महन्वयाणि प्रारोवित्ता, समणा य समणीयो य खामेत्ता, अम्हेहि सद्धि विपुलं पव्वयं तं चेव निरवसेसं जाव प्राणुपुवीए कालगए] इमे य से प्रायारभंडए"। "भंते" ! त्ति भगवं गोयमे जाव ["समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता"] एवं वयासी-- भगवान् महावीर राजगृह नगरो में पधारे / राजा श्रेणिक यह जानकर भगवान के दर्शन करने के लिए चला। जालीकुमार ने भी मेधकुमार की तरह भगवान् के दर्शन करने के लिए प्रस्थान किया / दर्शन करने के पश्चात् मेघकुमार की तरह जालीकुमार ने भी माता-पिता की अनुमति लेकर प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। स्थविरों की सेवा में रह कर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया / ___ उसने स्कन्दक मुनि की तरह गुणरत्नसंवत्सर नामक तप किया। इस प्रकार चिन्तना तथा आपृच्छना के संबन्ध में जो वक्तव्यता (वर्णन) भगवतीसूत्र में है, वही वक्तव्यता जालीकुमार के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए / वह स्थविरों के साथ विपुलगिरि पर गया / विशेष यह है कि सोलह वर्षों तक जालीकुमार ने श्रमण पर्याय का पालन किया। आयुष्य के अन्त में मरण प्राप्त करके वह ऊर्ध्वगमन करके सौधर्म ईशान सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोक लान्तक महाशुक्र सहस्रार पानत प्राणत पारण और अच्यत कल्पों को और नवनवेयक विमानों को लांघकर विजय नामक अनत्तर विमान में देवरूप से उत्पन्न हुआ। उस समय भगवन्त स्थविरों ने जाली अनगार को दिवंगत जानकर उनका परिनिर्वाणनिमित्तक कायोत्सर्ग किया। इसके पश्चात् उन्होंने (स्थविरों ने) जाली अनगार के पात्र एवं चीवरों को ग्रहण किया और फिर विपुलगिरि से नीचे उतर आये। उतरकर जहां श्रमण भगवान् महावीर विराजे हुए थे वहां आये / भगवान् को वन्दना-नमस्कार करके उन स्थविर भगवन्तों ने इस प्रकार कहा-भगवन् ! आपके शिष्य जाली अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र, विनयी, शान्त, अल्प क्रोध मान, माया लोभवाले, कोमलता और नम्रता के गुणों से युक्त, इन्द्रियों को वश में रखनेवाले, भद्र और विनीत थे, वे आपकी आज्ञा लेकर स्वयमेव पांच महाव्रतों का प्रारोपण करके साधु-साध्वियों को . Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वर्ग खमा कर हमारे साथ विपुल पर्वत पर गये थे यावत् वे संथारा करके कालधर्म को प्राप्त हो गये हैं। ये उनके उपकरण (वस्त्र, पात्र) हैं। इसके बाद गौतमस्वामी ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा ५–“एवं खलु देवाणुप्पियाणं अन्तेवासी जाली नाम अणगारे पगइभद्दए / से णं जाली अणगारे कालगए कहि गए, कहि उववणे ?" एवं खलु गोयमा ! ममं अन्तेवासी तहेव जहा खंदयस्स जाव [“अब्भगुण्णाए समाणे सयमेव पंच महत्वयाई प्रारहेता, तं चेव सव्वं अवसेसियं नेयव्वं, जाव जाली अणगारे"] कालगए उड्ढं चंदिम जाव [सूर-गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं बहूई जोयणाई, बहूइं जोयणसयाई, बहूई जोयणसहस्साई, बहूई जोयणसयसहस्साई, बहूई जोयणकोडोओ, बहूई जोयणकोडाकोडीयो उड्ढे दूर उप्पइत्ता सोहम्मोसाण सणंकुमारमाहिदबंभलंतगमहासुक्कसहस्साराणयपाणयारणच्चुए तिन्नि य अट्ठारसुत्तरे गेवेज्जविमाणावाससए वोईवइत्ता] विजए महाविमाणे देवत्ताए उववण्णे / "जालिस्स णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?" "गोयमा ! बत्तीसं सागरोपमाइं ठिई पण्णत्ता।" "से णं भंते ! तानो देव-लोयानो पाउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं कहि गच्छिहिइ, कहिं उववज्जिहिइ ?' "गोयमा ! महाविदेहे वासे सिझिहिइ।" निक्षेप "एवं खलु जंबू समणेणं जाव संपत्तणं अणतरोवाइयदसाणं पढमस्स वग्गस्स पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्त / " गौतम स्वामी ने पूछा--"भन्ते ! प्रापका अन्तेवासी जालो अनगार, जो प्रकृति से भद्र था, वह अपना आयुष्य पूर्ण करके कहाँ गया है ? और कहाँ उत्पन्न हुआ है ?" भगवान ने उत्तर दिया--गौतम ! मेरा अन्तेवासी जाली अनगार, इत्यादि कथन स्कंदक के समान जानना यावत् मेरी अनुमति लेकर, स्वयमेव पांच महाव्रतों का प्रारोपण करके यावत् संलेखनासंथारा करके, समाधि को प्राप्त होकर काल के समय में काल करके ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिषचक्र से बहुत योजन, बहुत सैकड़ों योजन, बहुत हजारों योजन, बहुत लाखों योजन, बहुत करोड़ों योजन और बहुत कोडाकोड़ी योजन लांघकर, ऊपर जाकर सौधर्म ईशान सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोक लान्तक महाशुक्र सहस्रार आनत प्राणत पारण और अच्युत देवलोकों को तथा तीन सौ अठारह नववेयक विमानावासों को लांघ कर, विजयनामक महाविमान में देव के रूप में उत्पन्न हुआ है।। प्रश्न-“भन्ते ! जालोदेव को वहाँ काल-स्थिति (आयुमर्यादा) कितनी है ?" "गौतम ! उसको कालस्थिति बत्तोस सागरोपम की है।" Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ] [ अनुत्तरौपपातिकदशा प्रश्न-"भन्ते देव-लोक से आयु-क्षय होने पर भव-क्षय होने पर और स्थिति-क्षय होने पर वह जालीदेव कहाँ जायगा ? कहाँ उत्पन्न होगा ?" उत्तर—“गौतम ! वहाँ से वह महाविदेह वास से सिद्धि प्राप्त करेगा।" निक्षेप ___जम्बू ! इस प्रकार श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान महावीर ने अनुत्तरौपपातिक दशा के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है। विवेचन-यहाँ जाली कुमार का वर्णन प्रतिपादित किया गया है। वह वर्णन यहां संक्षेप में किया गया है, क्योंकि इस सूत्र में कथित विषय 'ज्ञातासूत्र' के प्रथम अध्ययन के --जिसमें मेघकुमार के विषय में कहा गया है—विषय के समान ही है / अर्थात् 'ज्ञातासूत्र' के प्रथम अध्ययन में जिस प्रकार मेघकुमार के विषय में प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार इस सूत्र के प्रथम अध्ययन में जालीकुमार के विषय में भी प्रतिपादन समझ लेना चाहिए। यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि-मेघकुमार जाली अनगार के समान अनुत्तर विमान में ही उत्पन्न हुअा था तथापि मेघकुमार का वर्णन अनुत्तरौपपातिक सूत्र में नहीं है और ज्ञातासूत्र में है, ऐसा क्यों ? उत्तर यह है कि मेघकुमार का वर्णन छठे अंग में इसलिए किया गया है कि उसमें धर्मयुक्त पुरुषों की शिक्षा-प्रद जीवन-घटनाओं का वर्णन है। मेघकुमार के जीवन में कितनी ही ऐसी घटनाएं वर्णन की गई हैं, जिनके पढ़ने से प्रत्येक व्यक्ति को अत्यंत लाभ हो सकता है। किन्तु अनुत्तरौपपातिक सूत्र में केवल सम्यक्चारित्र पालन करने का फल बताया गया है। अत: मेघकुमार के चरित्र में विशेषता दिखाने के लिए उसका चरित्र नवें अङ्ग में न देकर छठे ही अङ्ग में दे दिया गया है। 2-10 अध्ययन मयाली आदि कुमार 6 एवं सेसाणं वि नवण्हं भाणियव्वं / नवरं सत्त धारिणिसुप्रा / वेहल्लवेहायसा चेल्लणाए / अभप्रो नन्दाए। पाइल्लाणं पंचण्हं सोलस वासाई सामण्णपरियायो / तिण्हं बारस-बारस वासाइं। दोण्हं पंच बासाइं। पाइल्लाणं पंचण्हं आणुपुटवीए उववायो विजए वेजयंते जयंते अपराजिए सब्वटुसिद्ध / दोहदंते सव्वदसिद्ध / उक्कमेणं सेसा / अभनो विजए / सेसं जहा पढमे / अभयस्स नाणत्तं, रायगिहे नयरे, सेणिए राया, नंदा देवी सेसं तहेव / "एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव' संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं पढमस्स वग्गस्स अयम? पण्णत्त / " 1. देखिए सू. 1 पृ. 1. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 11 प्रथम वर्ग ] शेष नौ अध्ययनों का वर्णन भी इसी प्रकार का है। विशेषता इतनी है कि धारिणी रानी के सात पुत्र हैं / वेहल्ल और वेहायस चेलना के पुत्र हैं / अभय नन्दा का पुत्र है / आदि के पाँच कुमारों का थमण-पर्याय सोलह-सोलह वर्ष का है, तीन का श्रमण-पर्याय बारह वर्ष का है, तथा दो का श्रमण-पर्याय पाँच वर्ष का है। आदि के पाँच अनगारों का उपपात-जन्म अनुक्रम से विजय, वैजयन्त जयन्त अपराजित और सर्वार्थसिद्ध विमान में हुआ है / दीर्घदन्त सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न हुआ / शेष उत्क्रम से अपराजित आदि में उत्पन्न हुए तथा अभय विजय विमान में उत्पन्न हुअा / शेष वर्णन प्रथम अध्ययन के समान समझ लेना चाहिए। अभय की विशेषता यह है कि राजगृह नगर, पिता राजा श्रेणिक और माता नन्दादेवी है। शेष वर्णन उक्त प्रकार से ही है / "जम्वू ! इस प्रकार श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर ने अनुत्तरौपपातिकदशा के प्रथम वर्ग का यह अर्थ कहा है।" प्रथम वर्ग समाप्त / विवेचन-इस सूत्र में प्रथम वर्ग के शेष नौ अध्ययनों का वर्णन किया गया है / इनका विषय भी प्रायः पहले अध्ययन के साथ मिलता-जुलता है / विशेषता केवल इतनी है कि इनमें से सात तो धारिणी देवी के पुत्र थे और वेहल्ल कुमार और वेहायस कुमार चेलणा देवी के तथा अभय कुमार नन्दा देवी के उदर से उत्पन्न हुआ था। पहले के पाँचों ने सोलह वर्ष संयम-पर्याय का पालन किया था, तीन ने बारह वर्ष तक और शेष दो ने पाँच वर्ष तक / पहले पांच अनुक्रम से पाँच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए और पिछले उत्क्रम से पाँच अनुत्तर विमानों में / यह इन दश मुनियों के उत्कट संयमपालन का फल है कि वे एकावतारी होकर उक्त विमानों में उत्पन्न हुए। सिद्ध यह हुआ कि सम्यक्चारित्र पालन करने का सदैव उत्तम फल होता है। उस फल का ही यहां सुचारु-रूप से वर्णन किया गया है। जो भी व्यक्ति सम्यक्चारित्र का अाराधन करेगा वह शुभ फल से वञ्चित नहीं रह सकता। अतः सम्यक्चारित्र प्रत्येक व्यक्ति के लिये उपादेय है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोच्चो वग्गो 1-13 अध्ययन उत्क्षेप जइ णं भंते ! समजेणं जाव' संपत्तणं अणुत्तरोववाइयदसाणं पढमस्स वग्गस्स अयम? पण्णते, दोच्चस्स णं भंते ! वग्गस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं समजेणं जाव' संपत्तणं के अ? पण्णत्त ?" एवं खलु जंबू ! समणेणं जाब' संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं दोच्चस्स वग्गस तेरस प्रज्झयणा पण्णत्ता / तं जहा :--- "दोहसेणे महासेणे लढदंते य गूढदंते य सुद्धवंते य हल्ले दुमे दुमसेणे महादुमसेणे य पाहिए। सीहे य सोहसेणे य महासीहसेणे य ाहिए पुण्णसेणे य बोधव्वे तेरसमे होइ अझयणे // " "जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं दोच्चस्स वग्गस्स तेरस प्रज्झयणा पण्णत्ता, दोच्चस्स णं भंते ! बगस्स पढमस्स अज्झयणस्स समणेणं जाव' संपत्तणं के अटू पण्णत्ते ?" दीर्घसेन आदि एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए / सेणिए राया। धारिणी देवी / सोहो सुमिणे / जहा जाली तहा जम्म, बालत्तणं, कलाप्रो / नवरं दोहसेणे कुमारे। "सच्चेव वत्तवया जहा जालिस्स जाव अंतं काहिइ।" एवं तेरस वि रायगिहे। सेणियो पिया। धारिणी माया। तेरसण्हं वि सोलस वासा परियानो। प्राणुपुवीए विजए दोण्णि, वेजयंते दोण्णि, जयंते दोष्णि, अपराजिए दोष्णि, सेसा महादुमसेणमाई पंच सव्वट्ठसिद्ध / "एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव अणुत्तरोववाइयदसाणं दोच्चस्स वग्गस्स अयम? पण्णत्त / " मासियाए संलेहणाए दोसु वि वग्गेसु त्ति। जम्ब स्वामी ने प्रश्न किया-... "भन्ते ! यदि श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान महावीर ने अनुत्तरौपपातिक दशा के प्रथम वर्ग का यह अर्थ कहा है, तो भन्ते ! अनुत्तरौपपातिक दशा के द्वितीय वर्ग का श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?" 1-5. देखिए वर्ग 1, सूत्र 1. 6. सब्वेब--M. C. Modi. 7. देखिए वर्ग 1, सूत्र 1. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वर्ग ] [ 13 सुधर्मा स्वामी उत्तर देते हैं—जम्बू ! श्रमण यावत निर्वाणसंप्राप्त भगवान महावीर ने अनुत्तरोपपातिक दशा के द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययन कहे हैं, जो इस प्रकार हैं:-- 1. दीर्घसेन 2. महासेन 3- लष्ट दन्त (लट्ठदन्त) 4. गूढदन्त 5. शुद्धदन्त 6. हल्ल 7. द्रम 8. द्र मसेन 6. महाद्र मसेन 10. सिंह 11. सिंहसेन 12. महासिंहसेन 13. पुण्यसेण (पुण्यसेन अथवा पूर्ण सेन) ____ "भन्ते ! यदि श्रमण यावत् निर्वाण-संप्राप्त भगवान् महावीर ने अनुत्तरौपपातिक दशा के द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययन कहे हैं, तो भन्ते ! द्वितीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर ने क्या अर्थ कहा है ?" "जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नाम का नगर था। गुणशिलक चैत्य था। वहां का राजा श्रोणिक था / धारिणी देवी रानी थी। उसने सिंह का स्वप्न देखा। जाली कुमार के सदृश जन्म, बाल्यकाल और कला-ग्रहण आदि जान लेना चाहिए / विशेष यह है कि कुमार का नाम दीर्घसेन था। शेष समस्त वक्तव्यता जालीकुमार के समान है / यावत् वह सब दुःखों का अन्त करेगा।" इस प्रकार तेरह ही राजकुमारों का नगर राजगह था। पिता श्रेणिक था और माता धारिणी थी / तेरह ही कुमारों की दीक्षापर्याय सोलह वर्ष थी। अनुक्रम से वे दो' विजय में, दोरे वैजयन्त में, दो जयन्त में, दो अपराजित में और शेष महाद्र मसेन आदि पाँच सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए। "जम्बू ! इस प्रकार श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर ने अनुत्तरौपपातिक दशा के द्वितीय वर्ग का यह अर्थ कहा है।" दोनों वर्गों में एक-एक मास की संलेखना समझनी चाहिए। विवेचन–प्रथम वर्ग की समाप्ति के अनन्तर श्रीजम्बू स्वामी ने श्रीसुधर्मा स्वामी से सविनय निवेदन किया-भगवन् ! मोक्ष को प्राप्त हुए श्रीश्रमण भगवान् ने अनुत्तरौपपातिक-दशा के द्वितीय वर्ग का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? प्रश्न के उत्तर में सुधर्मा स्वामी ने कहा हे जम्बू ! मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् ने अनुत्तरौपपातिकदशा के द्वितीय वर्ग के तेरह अध्ययन प्रतिपादन किये हैं। तेरह राजकुमार श्रेणिक राजा और धारिणी देवी के पात्मज अर्थात पुत्र थे। ये तेरह महर्षि सोलह-सोलह वर्ष तक संयम का पालन कर अनुत्तरविमानों में उत्पन्न हुए। यहां जो विवरण लिया गया है वह संक्षिप्त में लिया गया है क्योंकि 'ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र' के मेघकुमार के समान ही यहां का वर्णन है / इसके विषय में प्रथम अध्ययन में भी विवरण पा चुका है। अत: विशेष जानने की इच्छा वालों को उक्त सूत्र के ही प्रथम अध्ययन का स्वाध्याय करना चाहिए / 1. दीर्घसेन और महासेन 2. लष्टदन्त और गूढदन्त 3. शुद्धदन्त और हल्ल 4. द्रुम और द्रुमसेन Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 ] [ अनुत्तरौपपातिकदशा यहाँ एक बात विशेष ज्ञातव्य है कि इस सूत्र के दोनों वर्गों में उल्लिखित तेईस मुनियों ने एकएक मास का पादपोपगमन अनशन किया था और तदनन्तर वे उक्त अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए / __इस वर्ग में सम्यगदर्शन और सम्यगज्ञानपूर्वक सम्यक चारित्राराधना का शुभ फल दिखाया गया है। यह बात सर्व-सिद्ध है कि सम्यग्दर्शन और सम्यगज्ञान-पूर्वक अाराधन की हुई सम्यक् क्रिया ही कर्मों के क्षय करने में समर्थ हो सकती है। विभिन्न हस्तलिखित प्रतियों में कतिपय पाठ-भेद देखने में आते हैं तथापि ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र का प्रमाण होने से वे यहाँ नहीं दिखाये गये हैं / जिज्ञासुओं को वहीं से जान लेना चाहिए। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तच्चो वग्गो प्रथम अध्ययन धन्य उत्क्षेप १-जइ णं भंते ! समणेणं जाव' संपत्तणं अणुसरोववाइयदसाणं दोच्चस्स वग्गस्स अयम? पण्णत्त, तच्चस्स णं भंते ! वग्गस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं समणेणं जाव संपत्तग के अट्ठ पण्णत्त? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तणं अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता / तं जहा-- धणे य सुणखत्त य इसिदासे अ आहिए / पेल्लए रामपुत्ते य चंदिमा पिढिमाइ य॥ पेढालपुत्त अणगारे नवमे पोट्टिले वि य / वेइल्ले दसमे पुत्ते इमे य दस प्राहिया // "जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तणं अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं जाव संपत्तणं के अट्ठे पण्णत्त ?" जम्बू स्वामी ने श्रीसुधर्मा स्वामी के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की-"भन्ते ! यदि श्रमण यावत निर्वाणसंप्राप्त भगवान महावीर ने अनुत्तरौपपातिकदशा के द्वितीय वर्ग का यह अर्थ कहा है, तो भन्ते ! श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर ने अनुत्तरौपपातिकदशा के तृतीय वर्ग का क्या अर्थ कहा है ?" सुधर्मा स्वामी ने समाधान किया--"जम्बू ! श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर ने अनुत्तरोपपातिकदशा के तृतीय वर्ग के दश अध्ययन कहे हैं, जो इस प्रकार हैं-- १–धन्यकुमार, २-सुनक्षत्र, ३–ऋषिदास, ४–पेल्लक, ५–रामपुत्र, ६--चन्द्रिक, ७–पृष्टिमातृक, ८-पेढालपुत्र, 6- पोष्टिल्ल, १०-~-वेहल्ल / ___ जम्बू स्वामी ने फिर पूछा-"भन्ते ! यदि श्रमण यावत निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महाबीर ने अनुत्तरौपपातिक दशा के ततीय वर्ग के दश अध्ययन कहे हैं, तो भन्ते ! श्रमण यावत निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर ने अनुत्तरोपपातिकदशा के तृतीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?" २-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं कायंदी नामं नयरी होत्था, रिद्धस्थिमियस-- मिद्धा / सहसंबवणे उज्जाणे सन्वउउ जाव [पुष्फ-फल-समिद्ध] जियसत्तू राया। १-२-३-४-५-सूत्र 2, पृ. 1 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] [ अनुत्तरौपपातिकदशा तत्थ णं कायंदीए नयरीए भद्दा नाम सत्थवाही परिवसइ प्रडा जाव [दित्ता वित्ता वित्थिण्णविउल-भवण-सपणासण-जाणवाहणा बहुधण-जायरूव-रयया प्रारोग-पयोग-संपत्ता विच्छड्डिय-पउरभत्तपाणा बहुदासो-दास-गो-महिस-गवेलग-प्पभूया बहुजणस्स] अपरिभूया / तीसे णं भद्दाए सस्थवाहीए पुत धणे नामं दारए होत्था, अहीण जाव [पंचिदियसरीरे लक्वण-वंजण-गुणोववेए माणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुदरंगे ससिसोमाकारे कंते पियदंसणे सुरूवे] पंचधाईपरिग्गहिए / तं जहा-खीरधाईए जहा महब्बलो जाव बावरि कलाओ अहीए [तहा धण्णं कुमारं अम्मापियरो सातिरेगटठवासजायगं चेव गभट्ठ मे बासे सोहणसि तिहिकरणनक्खत्तमुहुत्त सि कलायरियस्स उत्रणेन्ति / तते णं से कलायरिए धणं कुमारं लेहाइयानो गणितप्पहाणाओ सउणरुतपज्जवसाणाओ बावरि कलाओ सुत्तमो न अत्थो अ करणनो य सेहावेति, सिक्खावेति / तं जहा-(१) लेहं (2) गणिय (3) रूदं (4) नट्ट (5) गीय (6) वाइयं (7) सरगय (8) पोक्खरगय (9) समतालं (10) जूय (11) जणवाय (12) पासयं (13) अहावय (14) पोरेकच्चं (15) दगमट्टिय (16) अन्नविहिं (17) पाणविहिं (18) वयविहिं (16) विलेवविहिं (20) सयणविहिं (21) अज्ज (22) पहेलियं (23) मागहियं (24) गाहं (25) गोइयं (26) सिलोयं (27) हिरण्णत्ति (28) सुबन्नत्ति (26) चन्नत्ति (30) आभरणविहिं (31) तरुणीपडिकम्मं (32) इथिलक्खणं (33) पुरिसलक्वणं (34) यलक्खणं (35) गयलक्खणं (36) गोणलक्खणं (37) कुक्कुडलक्खणं (38) छत्तलक्खणं (36) दंडलक्खणं (40) असिलक्खणं (41) मणिलक्खणं (42) कागणिलक्खणं (43) वत्थुविज्ज (44) खंधारमाणं (45) नगरमाणं (46) वूह (47) पडिवूह (48) चारं (46) पडिचारं (50) चक्कवहं (51) गरुलवूह (52) सगडवूह (53) जुद्ध (54) निजुद्ध (55) जुद्धातिजुद्ध(५६) अठिजुद्ध (57) मुठ्ठिजुद्ध (58) बाहुजुद्ध (56) लयाजुद्ध (60) ईसत्थं (61) छरुप्पवाय (62) धणुव्वेय (63) हिरन्नपागं (64) सुवन्नपागं (65) सुसखेडं (66) वट्टखेडं (67) नालियाखेडं (68) पत्तच्छेज्जं (66) कडगच्छेज्जं (70) सजीवं (71) निज्जीवं (72) सउणरुअमिति / तए णं से धष्ण कुमारे बावत्तरिकलापंडिए णवंगसुत्तपडिबोहिए अट्ठारसविहिप्पगारदेसीमासाविसारए गोइरई गंधवनदृकुसले यजोहो गयजोही रहजोही बाहुजोहो बाहुप्यमहो] अलं भोगसमत्थे साहसिए वियाल चारो जाए यावि होत्या। सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया-जम्बू ! इस प्रकार उस काल और उस समय में काकन्दी नामकी एक नगरी थी / वह नगरी ऋद्ध स्तिमित (स्थिर) और समृद्ध थी। वहां सहस्राम्रवन नाम का एक उद्यान था, जिसमें समस्त ऋतुओं के फल और फूल सदा रहते थे। उस समय वहां जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उस काकन्दी नगरी में भद्रा नामको एक सार्थवाही रहती थी। वह धनी तेजस्वी विस्तृत और विपुल भवनों, शय्याओं, आसनों, यानों और वाहनों वाली थी तथा सोना चांदी आदि धन की बहुलता से युक्त थी / अधमर्णी (ऋण लेनेवालों) को वह लेन-देन करने में कुशल थी। उसके यहाँ 1. देखिए वर्ग 1, सूत्र 1. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग ] [ 17 भोजन करने के अनन्तर भी बहुत-सा अन्न-पानी बाकी बच जाता था। उसके घर में बहुत से दासदासी आदि सेवक और गाय-भैंस और बकरी आदि पशु थे। वह बहुतों से भी पराभव को प्राप्त नहीं होती थी और जनता में सम्माननीय थी। उस भद्रा सार्थवाही के धन्यकुमार नामका एक पुत्र था, जो अहीन एव परिपूर्ण पाँचों इन्द्रियों से युक्त शरीरवाला था। अर्थात् उसका शरीर (लक्षण की अपेक्षा से) खामियों से रहित और (स्वरूप की अपेक्षा के) परिपूर्ण था। वह स्वस्तिक आदि लक्षण, तिल मष आदि व्यंजन और गुणों से युक्त था। माप, भार और प्राकार-विस्तार से परिपूर्ण और सुन्दर बने हुए समस्त अंगों वाला था। उसका आकार चन्द्र के समान सौम्य और दर्शन कान्त और प्रिय था। इस प्रकार उसका रूप बहुत सुन्दर था। महावल कुमार की तरह क्षीरधात्री (दध पिलाने वाली धाय) आदि पांच धायें उसका पालनपोषण अादि करती थी। तया जिस प्रकार महावल ने बहत्तर कलाओं का अध्ययन किया उसी प्रकार अन्य कुमार को माता-पिता ने शुभ तिथि, करण और मुहूर्त में कलाचार्य के पास भेजा। तत्पश्चात् कलाचार्य ने धन्य (धन्ना) कुमार को गणित जिन में प्रधान है, ऐसी लेख आदि शकुनिरुत (पक्षियों के शब्द) तक की बहत्तर कलाएँ सूत्र से, अर्थ से और प्रयोग से सिद्ध करवाई तथा सिखलाईं। वह कलाएँ इस प्रकार हैं—(१) लेखन (2) गणित (3) रूप बदलना (4) नाटक (5) गायन (6) बाद्य बजाना (7) स्वर जानना (8) वाद्य सुधारना (8) समान ताल जानना (10) जुआ खेलना (11) लोगों के साथ वादविवाद करना (12) पासों से खेलना (13) चौपड़ खेलना (14) नगर की रक्षा करना (15) जल और मिट्टी के संयोग से वस्तु का निर्माण करना (16) धान्य निपजाना (17) नया पानी उत्पन्न करना, पानी को संस्कार करके शुद्ध करना एवं उष्ण करना (18) नवीन वस्त्र बनाना, रंगना, सीना और पहनना (16) विलेपन की वस्तु को पहचानना, तैयार करना, लेपन करना आदि (20) शय्या बनाना, शयन करने की विधि जानना आदि (21) अार्या छन्द को पहचानना और बनाना (22) पहेलियाँ बनाना और बूझना (23) मागधिका अर्थात् मगध देश की भाषा में गाथा आदि बनाना (24) प्राकृत भाषा में गाथा प्रादि बनाना (25) गीति छन्द बनाना (26) श्लोक (अनुष्टुप् छन्द) बनाना (27) सुवर्ण बनाना, उसके आभूपरण बनाना, पहनना ग्रादि (28) नई चाँदी बनाना, उसके आभूषण बनाना, पहनना आदि (26) चूर्ण-गुलाब अवीर आदि बनाना और उनका उपयोग करना (30) गहने घड़ना पहनना आदि (31) तरुणी की सेवा करना, प्रसाधन करना (32) स्त्री के लक्षण जानना (33) पुरुष के लक्षण जानना (34) अश्व के लक्षण जानना (35) हाथी के लक्षण जानना (36) गाय, बैल के लक्षण जानना (37) मुर्गा के लक्षण जानना (38) छत्र-लक्षण जानना (36) दंड-लक्षण जानना (40) खड्ग-लक्षण जानना (41) मणि के लक्षण जानना (42) काकरणो रत्न के लक्षण जानना (43) वास्तुविद्या-मकान-दुकान आदि इमारतों की विद्या (44) सेना के पड़ाव का प्रमाण आदि जानना (45) नया नगर बसाने ग्रादि की कला (46) व्यूह-मोर्चा बनाना (47) विरोधी के व्यूह के सामने अपनी सेना का मोर्चा रचना (48) सैन्य संचालन करना (46) प्रतिचार-- शत्रुसेना के समक्ष अपनी सेना को चलाना (50) चक्रव्यूहचाक के प्राकार में मोर्चा बनाना(५१) गरुडके आकार का व्यूह बनाना (52) शकटव्यूह रचना (53) सामान्य युद्ध करना (54) विशेष युद्ध करना (55) अत्यन्त विशेष युद्ध करना (56) अट्ठि (यष्टि Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [ अनुत्तरौपपातिकदशा या अस्थि) से युद्ध करना (57) मुष्टियुद्ध करना (58) बाहुयुद्ध करना (56) लतायुद्ध करना (60) बहुत को थोड़ा और थोड़े को बहुत दिखलाना (61) खड्ग की मूठ आदि बनाना (62) धनुष-बाण संबंधी कौशल होना (63) चांदी का पाक बनाना (64) सोने का पाक बनाना (65) सूत्र का छेदन करना (66) खेत जोतना (67) कमल के नाल का छेदन करना (68) पत्र छेदन करना (66) कड़ा कुडल आदि का छेदन करना (70) मृत-मूच्छित को जीवित करना (71) जीवित को मृत (मृततुल्य) करना और (72) काक घूक आदि पक्षियों की बोली पहचानना। इस प्रकार धन्नाकुमार बहत्तर कलानों में पंडित हो गया। उसके नौ अंग-दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, जिह्वा, त्वचा और मन बाल्यावस्था के कारण जो सोये से थे-अव्यक्त चेतना वाले थे, वे जागृत हो गये। वह अठारह प्रकार की देशी भाषायों में कुशल हो गया। वह अश्वयुद्ध, गजयुद्ध, रथयुद्ध और बाहुयुद्ध करने वाला बन गया / अपनी वाहनों से विपक्षी का मर्दन करने में समर्थ हा गया / भोग भोगने का सामथ्र्य उसमें ग्रागया। साहसी होने के कारण विकालचारी अर्थात प्राधी रात में भी चल पड़ने वाला बन गया। विवेचन—द्वितीय वर्ग की समाप्ति होने पर जम्बू स्वामी ने सुधर्मा स्वामी से पुनः प्रश्न किया-भगवन् ! द्वितीय वर्ग का अर्थ मैंने श्रवण किया। अब मुझ पर असीम कृपा करते हुए तृतीय वर्ग का अर्थ भी सुनाइए, जिससे मुझे उसका भी बोध हो जाय। इसके उत्तर में श्रीसुधर्मा स्वामी ने प्रतिपादन किया--हे जम्बू ! मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने तृतीय वर्ग के दस अध्ययन प्रतिपादन किये हैं। उनमें से प्रथम अध्ययन धन्य कुमार के जीवन-वृत्तान्त के विषय में है / इस अध्ययन के पढ़ने से हमें उस समय की स्त्रीजाति की उन्नत अवस्था का पता लगता है / उस समय की स्त्रियाँ वर्तमान युग के समान पूरुष पर निर्भर न रहती हई, स्वयं उनकी बरावरी में व्यापार आदि कार्य करती थीं। उन्हें व्यापार आदि के विषय में सब तरह का पूरा ज्ञान होता था। यहाँ भद्रा नाम की सार्थवाही व्यापार का काम स्वयं करती थी। और विशेषता यह कि वह किसी से पराभूत नहीं होती थी-दबती नहीं थी। यह उल्लेख उन्नति के शिखर पर पहुँची हुई स्त्रीजाति का चित्र हमारी आंखों के सामने खींचता है / उन्होंने पुरुषों के समान ही मोक्षगमन भी किया। ३-तए णं सा भद्दा सस्थवाही धणं दारयं उम्मुक्कबालभावं जाव [विण्णायपरिणमित्त जोवणगमणुपत्तं बावतरिकलापंडियं गवंगसुत्तपडिबोहयं प्रद्वारसविहदेसिप्पगारभासाविसारयं गीयरई गंधव-गट्ट-कुसलं सिंगारागारचारवेसं संगयगय-हसिय-भणिय-चिट्टिय-विलाव-निउणजुत्तोवयारकुसलं हयजोहिं गयजोहि रहजोहि बाहुजोहिं बाहुप्पमहि] अलं भोगसमत्थं यावि जाणित्ता बत्तीसं पासाय. वडिसए कारेइ, अब्भुगयमूसिए जाव [पहसिए विव मणिकणगरयणभत्तिचित्ते, वाउदधतविजयवेजयंतीपडागाछत्ताइच्छत्तक लिए, तुगे, गगणतलमभिलंघमाणसिहरे, जालंतररयणपंजरुम्मिल्लियव मणिकणगथुभियाए, वियसियसयपत्तपुंडरीए तिलयरयणद्धचंदच्चिए नानामणिमयदामालंकिए, अंतो बहि च सण्हे तवणिज्जरुइलवालुयापत्थडे, सुहफासे सस्सिरीयरूवे पासादीए जाव पडिरूवे] i तेसि मज्झे एगं भवणं अणेगखंभसयसंनिविटुंजाव लीलट्ठियसालभंजियागे अन्भुग्गयसुकयवइरवेइयातोरणवरर इयसालभंजियासुसिलिटुविसिटुलट्ठसंठितपसत्थवेरुलियखंभनाणामणिकणगरयणखचितउज्जलं बहुसमसुविभत्तनिचियरमणिज्जभूमिभाग ईहामिय. जाव भत्तिचित्तं खंभुग्गयवइरवेइयापरि Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग ] [ 16 गयाभिरामं विज्जाहरजमलजुयलजुतं पिव अच्चीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं भिभिसमाणं चक्खल्लोयणलेसं सुहफासं सस्सिरीयरूवं कंचणमणिरयणथभियागं नाणाविहपंचवन्नघंटापडागपरिमंडियग्गसिरं धवलमरीचिकवयं विणिम्मुयंतं लाउल्लोइयमहियं जाव गंधवट्टिभूयं पासादीयं दरिसणिज्जं अभिरूवंद (तए णं भद्दा सत्यवाही) बत्तीसाए इन्भवरकण्णगाणं एगदिवसेणं पाणि गेण्हावेइ / बत्तीसो दानो जाव (बत्तीसं हिरणकोडोप्रो, बत्तीसं सुवण्णकोडोणो, बत्तीसं मउडे मउडप्पवरे, बत्तीस कुडलजुए कुडलजुयलप्पवरे, बत्तीसं हारे हारप्पवरे, बत्तीसं अद्धहारे अद्धहारप्पवरे, बत्तीसं एगावलीओ एगावलिप्पवरायो, एवं मुत्तावलोमो, एवं कणगावलीओ, एवं रयणावलीनो, बत्तीसं कडगजोए कडगजोयप्पवरे, एवं तुडियजोए, बत्तोसं खोमजुयलाई खोमजुयलप्पवराई, एवं पडगजुयलाइं, एवं पट्टजुयलाई, एवं दुगुल्लजुयलाई, बत्तीसं सिरोयो, बत्तीसं हिरोयो, एवं धिईप्रो, कित्तीयो, बुद्धीनो, लच्छोरो, बत्तीसं गंदाई, बत्तीसं भद्दाई बत्तीसं तले तलप्पवरे, सव्वरयणामए, णियगवरभवणकेऊ, बत्तीसं झए झयपवरे, बत्तीसं वये वयप्पवरे दसगोसाहस्सिएणं वएणं, बत्तीसं णाडगाइं णाडगप्पवराई बत्तीसबद्ध णं णाडएणं, बत्तीस प्रासे प्रासप्पवरे, सवरयणामए, सिरिघरपडिरूवए, बत्तीसं हत्थी हत्थिप्पवरे, सव्वरयणामए सिरिघरपडिरूबए, बत्तीसं जाणाई जाणप्पवराई, बत्तीसं जुगाई जुगप्यवराई, एवं सिवियानो, एवं संदमाणीमो, एवं गिल्लीप्रो थिल्लोओ, बत्तीसं वियडजाणाइं वियडजाणप्पवराई, बत्तीसं रहे पारिजाणिए, बत्तोसं रहे संगामिए, बत्तोसं आसे पासप्पवर, बत्तीसं हत्थी हत्थिपबरे, बत्तीसं गामे गामप्पवर, दसकुलसाहस्सिएणं गामेणं, बत्तीसं दासे दासध्यवर, एवं चेव दासोयो, एवं किंकर, एवं कंचइज्जे, एवं वरिसघर, एवं महत्तरए, बत्तोसं सोवष्णिए प्रोलंबणदीवे, बत्तीसं रुप्पामए प्रोलंबणदीवे, बत्तीसं सुवण्णरुप्पामए अोलंबणदीवे, बत्तीसं सोवणिए उक्कंचणदीवे, बत्तीसं पंचरदीवे, एवं चेव तिण्णि वि, बत्तीसं सोवण्णिए थाले, बत्तीसं रुप्पमए थाले, बत्तोसं सुवण्णरुप्पमए थाले, बत्तीसं सोवणियाप्रो पत्तीमो 3 x , बत्तीसं सोवणियाइं थासयाई 3, बत्तीसं सोवणियाई मल्लगाइं 3, बत्तीसं सोवणियानो तलियारो 3, बत्तीसं सोवष्णिप्राओ कावइयायो 3, बत्तीसं सोवण्णिए अवएडए 3, बत्तीसं सोवणियाओ अवयक्कानो 3, बत्तीसं सोवण्णिए पायपीढए 3, बत्तीसं सोवष्णियानो भिसियानो 3, बत्तीसं सोवणियानो करोडियानो 3, बत्तीसं सोवण्णिए पल्लंके 3, बत्तीसं सोवण्णियानो पडिसेज्जानो 3, बत्तीसं हंसासणाई, बत्तीसं कोंचासणाई, एवं गरुलासणाई, उण्णयासणाई, पणयासणाई, दोहासणाइं, भद्दासणाई, पक्खासणाई, मगरासणाई, बत्तीसं पउमासणाई, बत्तीसं दिसासोत्थियासणाई, बत्तीसं तेल्लसमुग्गे, जहा रायपसेणइज्जे, जाव बत्तीसं सरिसवसमग्गे, बत्तीसं खुज्जानो, जहा उववाइए, जाव बत्तीसं पारिसीयो, छत्ते, बत्तीसं छत्तधारिणीयो चेडोओ, बत्तीसं चामराम्रो, बत्तीसं चामरधारिणीयो चेडीओ, बत्तीसं ताडियंटे, बत्तीसं तालियंट-धारिणीओ चेडीग्रो, बत्तीसं करोडियाधारिणीअो चेडीओ, बत्तीसं खीरधाईयो, जाव बत्तीसं अंकधाईनो, बत्तीसं अंगमद्दियारो, बत्तीसं उम्मद्दियामो, बत्तीसं हावियाओ, बत्तासं पसाहियाओ, बत्तीसं वण्णगपेसीयो, बत्तीसं चण्णगपेसीओ, बत्तीस कोट्ठागारीयो, बत्तीसं दवकारीयो, बत्तीसं उवत्थाणियाओ, बत्तीसं णाडइज्जामो, बत्तीसं कोई बियणोप्रो, बत्तोसं महाणसिणीग्रो, बत्तीसं भंडामारिणीप्रो, बत्तीसं अज्झाधारिणीम्रो, बत्तीसं पफधारणोश्रो, बत्तीसं पाणिधारणोमो, बत्तीसं बलिकारीयो, बत्तीसं सेज्जाकारीप्रो, बत्तीसं अभितरियानो, पडिहारोमो, बत्तोसं बाहिरियायो, पडिहारीओ, बत्तीसं मालाकारीयो, बत्तीसं पेसणकारीयो, अण्णं वा सुबहुं हिरण्णं वा सुवण्णं वा कंसं वा दूसं वा विउलधण Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 ] [ अनुत्तरौपपातिकदशा कणग०जाव संतसारसावएज्ज, अलाहि जाव प्रासत्तमानो कुलवंसानो पकामं दाउं, पकाम भोत्तु, पकामं परिभाएउं। तए णं से धन्ने कुमारे एगमेगाए भज्जाए एगमेगं हिरण्णकोडि दलयइ, एगमेगं सुवष्णकोडि दलयइ, एगमेगं मउडं मउडप्पवरं दलयइ, एवं तं चेव सव्वं जाव एगमेगं पेसणकारि दलयइ, अण्णं वा सुबहुं हिरणं वा जाव परिभाएउं / तए णं से धन्ने कुमारे उघि पासाय] जाव' फुट्टतेहि जाव' विहरइ। अनंतर धन्यकुमार को बाल-भाव से उन्मुक्त जानकर, यावत् विज्ञान जिसका शीघ्रता से परिपक्व अवस्था में पहुँच गया है, यौवनावस्थाशाली हुआ, 72 कलाओं में विशेष रूप से निष्णात हुआ, जिसके नौ अंग (दो कान, दो नेत्र, दो नासिका छिद्र, एक जीभ एक स्पर्शन एवं एक मन) व्यक्तजागृत हो गए, अठारह प्रकार की भाषाओं में विशारद हुअा, गीत एवं रति में अनुरागयुक्त हुअा, गान्धर्व गान में-एवं नाटय क्रिया में पारङ्गत हा, तथा शृङ्गार के गह की तरह सून्दर वेष से युक्त हुअा, समुचित चेष्टा में समुचित विलास में-नेत्रजनित विकार में, समुचित संलाप में-एवं समुचित काकुभाषण में दक्ष हुअा, तथा-समुचित व्यवहारों में कुशल हुआ, अश्वयुद्ध करने में कुशल हुआ, गजयुद्ध करने में कुशल हुअा, रथयोधी हुआ, बाहुप्रयोधी हुआ, वाहुप्रमर्दी हुा-वाहु से भी कठोर वस्तु को चूर-चूर करने में समर्थ हुआ, तथा भोग में समर्थ हुअा, ऐसा जानकर भद्रा सार्थवाही ने बत्तीस सुन्दर प्रासाद बनवाए जो विशाल और उत्त ङ्ग थे। __ [वे भवन अपनी उज्ज्वल कान्ति के समूह से हँसते हुए से प्रतीत होते थे। मणि, सुवर्ण और रत्नों की रचना से विचित्र थे। वायु से फहराती हुई और विजय को सूचित करने वाली वैजयन्तीपताकामों से तथा छत्राति-छत्रों (एक दूसरे के ऊपर रहे हुए छत्रों) से युक्त थे। वे इतने ऊँचे थे कि उनके शिखर प्राकाशतल को उल्लंघन करते थे। उनकी जालियों के मध्य में रत्नों के पंजर ऐसे प्रतीत होते थे, मानों उनके नेत्र हों। उनमें मणियों और कनक की थूभिकाएँ (स्तूपिकाएँ) वनी थीं। उनमें साक्षात् अथवा चित्रित किये हुए शतपत्र और पुण्डरीक कमल विकसित हो रहे थे। वे तिलक रत्नों एवं अर्द्धचन्द्रों-एक प्रकार के सोपानों से युक्त थे, अथवा भित्तियों में चन्दन आदि के आलेख (हाथे) से चचित थे / नाना प्रकार की मणिमय मालाओं से अलंकृत थे। भीतर और बाहर से चिकने थे। उनके प्रांगन में सुवर्ण की रुचिर बालुका बिछी थी / उनका स्पर्श सुखप्रद था। रूप बड़ा ही शोभन था। उन्हें देखते ही चित्त में प्रसन्नता होती थी। यावत् वे महल प्रतिरूप थे—अत्यन्त मनोहर थे। उन प्रासादों के मध्य में एक उत्तम भवन का निर्माण करवाया जो अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर आधारित था। उसमें लीलायुक्त अनेक पुतलियाँ स्थापित की हुई थीं। उसमें ऊँची और सुनिर्मित वज्ररत्न की वेदिका थी और तोरण थे। मनोहर निर्मित पुतलियों सहित उत्तम, मोटे एवं प्रशस्त वैडूर्य रत्न के स्तम्भ थे-वह विविध प्रकार के मणियों सुवर्ण तथा रत्नों से खचित होने के कारण उज्ज्वल दिखाई देता था। उसका भूमिभाग बिलकुल सम, विशाल, पक्का और रमणीय था। उस भवन में ईहामृग, वृषभ, तुरग, मनुष्य, मकर आदि के चित्र चित्रित किये हुए थे। स्तम्भों पर बनी 1-2. अणुत्तरोववाइयदशा सूत्र 3. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयवर्ग ] [ 21 वज्र रत्न की वेदिका से युक्त होने के कारण रमणीय दिखाई पड़ता था। समान श्रेणी में स्थित विद्याधरों के युगल यंत्र द्वारा चलते दीख पड़ते थे। वह भवन हजारों किरणों से व्याप्त और हजारों चित्रों से युक्त होने से देदीप्यमान और अतीव देदीप्यमान था। उसे देखते ही दर्शक के नयन उसमें चिपक से जाते थे। उनका स्पर्श सुखप्रद था और रूप शोभा-संपन्न था। उसमें सुवर्ण, मणि एवं रत्नों की स्तूपिकाएँ बनी हुई थीं। उसका प्रधान शिखर नाना प्रकार के पाँच वर्षों से एवं घंटाओं सहित पताकाओं से सुशोभित था। वह चहुँ ओर देदीप्यमान किरणों के समूह को फैला रहा था। वह लिपा था, धुला था और चंदोवे से युक्त था। यावत् वह भवन गंध की बर्ती जैसा जान पड़ता था। वह चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप था--अतीव मनोहर था। ___ इसके पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने यावत् एक दिन में बत्तीस इभ्यवरों (श्रेष्ठिप्रवरों) की कन्याओं के साथ धन्यकुमार का पाणिग्रहण-विवाह सम्पन्न कराया। उनको बत्तीस-बत्तीस वस्तुएँ प्रदान की। यथा-[बत्तीस कोटि हिरण्य (चाँदी के सिक्के), बत्तीस कोटि सोनये (सोने के सिक्के), बत्तीस श्रेष्ठ मुकुट, बत्तीस श्रेष्ठ कुण्डलयुगल, बत्तीस उत्तम हार, बत्तीस उत्तम अर्द्ध हार, बत्तीस उत्तम एकसरा हार, बत्तीस मुक्तावली हार, बत्तीस कनकावली हार, बत्तीस रत्नावली हार, बत्तीस उत्तम कड़ों की जोड़ी, बत्तीस उत्तम त्रुटित (बाजूबन्द) की जोड़ी, उत्तम बत्तीस रेशमी वस्त्रयुगल, बत्तीस उत्तम सूती वस्त्रयुगल, बत्तीस टसर वस्त्रयुगल, बत्तीस पट्टयुगल, बत्तीस दुकुलयगल, बत्तीस श्री, बत्तीस ह्री, बत्तीस धृति, बत्तीस कीर्ति, बत्तीस बुद्धि और बत्तीस लक्ष्मी देवियों की प्रतिमा, बत्तीस नन्द, बत्तीस भद्र, बत्तीस ताड़ वृक्ष, ये सब रत्नमय जानने चाहिए। अपने भवन में केतु(चिह्नरूप) बत्तीस उत्तम ध्वज, दश हजार गायों के एक ब्रज (गोकूल) के हिसाव से बत्तीस उत्तम गोकुल, बत्तीस मनुष्यों द्वारा किया जाने वाला एक नाटक होता है--ऐसे बत्तीस उत्तम नाटक, बत्तीस उत्तम घोड़े, ये सब रत्नमय जानना चाहिए। भाण्डागार समान वत्तीस रत्नमय उत्तमोत्तम हाथी, भाण्डागार श्रीधर समान सर्व रत्नमय बत्तीस उत्तम यान, बत्तीस उत्तम युग्य (एक प्रकार का वाहन) बत्तीस शिविकाएं, बत्तीस स्यन्दमानिकाएं, बत्तीस गिल्ली (हाथी की अम्बाड़ी), बत्तीस थिल्लि (घोड के पलाण-काठी), बत्तीस उत्तम विकट (खले हुए) यान, बत्तीस पारियानिक (क्रीडा करने के) रथ, बत्तीस सांग्रामिक रथ, बत्तीस उत्तम अश्व, बत्तीस उत्तम हाथी, दस हजार कुल-परिवार जिसमें रहते हों ऐसे गांव के हिसाब से बत्तीस गाँव, बत्तीस उत्तम दास, बत्तीस उत्तम दासियां, बत्तीस उत्तम किंकर, बत्तीस कंचुकी (द्वाररक्षक), बत्तीस वर्षधर (अन्तःपुर के रक्षक-खोजा), बत्तीस महत्तरक (अन्तःपुर के कार्य का विचार करने वाले), बत्तीस सोने के, बत्तीस चांदी के और बत्तीस सोने-चांदी के अवलम्बनदीपक (लटकने वाले दीपक-हण्डियाँ), बत्तीस सोने के, बत्तीस चाँदी के, बत्तीस सोने-चाँदी के उत्कञ्चन दीपक, (दण्ड युक्त-दीपक-मशाल) इसी प्रकार सोने, चाँदी और सोने-चाँदी इन तीनों प्रकार के बत्तीस पञ्जर-दीपक दिये। तथा सोने, चाँदी और सोने-चाँदी के बत्तीस थाल, बत्तीस थालियाँ, बत्तीस मल्लक (कटोरे) बत्तीस तलिका (रकाबियाँ), बत्तीस कलाचिका (चम्मच), बत्तीस तापिकाहस्तक (संडासियाँ), बत्तीस तवे, बत्तीस पादपीठ (पैर रखने के बाजौठ) बत्तीस भिषिका (आसन विशेष), बत्तीस करोटिका (लोटा), बत्तीस पलंग, बत्तीस प्रतिशय्या (छोटे पलंग) बत्तीस हंसासन, बत्तीस क्रौंचासन, बत्तीस गरुडासन, बत्तीस उन्नतासन, बत्तीस अवनतासन, बत्तीस दीर्घासन, बत्तीस भद्रासन, बत्तीस पक्षासन, बत्तीस मकरासन, बत्तीस पद्मासन, बत्तीस दिक्स्वस्तिकासन, बत्तीस तेल के डिब्बे इत्यादि सभी राजप्रश्नीय सूत्र के अनुसार जानना चाहिये, यावत् बत्तीस सर्षप के डिब्बे, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अनुत्तरौपपातिकदशा बत्तीस कुब्जा दासियाँ इत्यादि सभी औपपातिक सूत्र में अनुसार जानना चाहिये, यावत् बत्तीस पारस देश की दासियाँ, बत्तीस छत्र, बत्तीस छत्रधारिणी दासियाँ, बत्तीस चामर, बत्तीस चामरधारिणी दासियाँ, बत्तीस पंखे, बत्तीस पंखाधारिणी दासियाँ, बत्तीस करोटिका (ताम्बूल के करण्डिए), बत्तीस करोटिकाधारिणी दासियाँ, बत्तीस धात्रियाँ (दूध पिलाने वाली धाय), यावत् बत्तीस अङ्कधात्रियाँ, वत्तीस अंगदिका (शरीर का अल्प मर्दन करने वाली दासियाँ), बत्तीस स्नान कराने वाली दासियाँ, बत्तीस अलंकार पहनानेवाली दासियाँ, बत्तीस चन्दन घिसने वाली दासियाँ, बत्तीस ताम्बूलचूर्ण पीसने वाली, बत्तीस कोष्ठागार की रक्षा करने वाली, बत्तीस परिहास करने वाली, बत्तीस सभा में पास रहने वाली, बत्तीस नाटक करने वाली, बत्तीस कोटस्विक (साथ जाने वाली), बत्तीस रसोई बनाने वाली, बत्तीस भण्डार की रक्षा करने वाली, बत्तीस तरुणियाँ, बत्तीस पुष्प धारण करने वाली (मालिने), बत्तीस पानी भरने वाली, बत्तीस बलि करने वाली, बत्तीस शय्या बिछाने वाली, बत्तीस आभ्यन्तर और बत्तीस बाह्य प्रतिहारियाँ, बत्तीस माला बनाने वालीं और बत्तीस पेषण करने (पीसने) वाली दासियाँ दीं। इसके अतिरिक्त बहत-सा हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, वस्त्र तथा विपुल धन, कनक यावत् सारभूत धन दिया, जो सात पीढ़ी तक इच्छापूर्वक देने और भोगने के लिए पर्याप्त था। तब धन्यकमार ने प्रत्येक पत्नी को एक-एक हिरण्यकोटि, एक-एक स्वर्ण कोटि इत्यादि पर्वोक्त सभी वस्तुएँ दे दी, यावत् एक-एक पेषणकारी दासी, तथा बहुतसा हिरण्य-सुवर्ण आदि विभक्त कर दिया यावत् ऊँचे प्रासादों में-जिन में मृदंग बज रहे थे, यावत् धन्यकुमार सुखभोगों में लीन हो गया। विवेचन उक्त सूत्र में धन्यकुमार के बालकपन, विद्याध्ययन, विवाहसंस्कार और सांसारिक सुखों के अनुभव के विषय में कथन किया गया है। यह सब वर्णन ज्ञातासूत्र के प्रथम अथवा पाँचवे अध्ययन के साथ मिलता है, अतः जिज्ञासु वहीं से अधिक जान लें। धन्य कुमार का प्रवज्या-प्रस्ताव ४--तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे जाव (भगवं महावोरे) समोसढे / परिसा निग्गया / राया जहा कोणियो तहा जियसत्तू निगयो। तए णं तस्स धण्णस्स तं महया जहा जमालो तहा निग्गयो / नवरं पायचारेणं जाव [एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, एग० करित्ता प्रायते चोक्खे, परमसुइन्भूए, अंजलिम उलियहत्थो जेणेव सपणे भगवं महावोरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिखतो प्रायाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ / तए णं समणे भगवं महावीरे धण्णरस कुमारस्स तोसे य महतिमहालियाए इसि० जाव धम्मकहा० जाव परिसा पडिगया। तए णं से धण्णे कुमारे समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए धम्म भोच्चा, णिसम्म हट-तुटु जाव हियए, उढाए उट्ठ ई, उट्ठता समणं भगवं महाबोरं तिक्तो जाव णसित्ता एवं वधासो सहहामि णं भंते ! णिग्गथं पावयणं / पत्तियामि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं / रोएमि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं / अन्भुट्टमिणं भंते ! णिग्गंथं पावयणं / Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग] एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुम्मे वयह, जं] नवरं अम्मयं भई सत्थवाहि पापुच्छामि। तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव [मुंडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं] पव्वयामि / प्रहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध / जाव जहा जमाली तहा प्रापुच्छइ [तए णं से धण्ण कुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्व-तु? समणं भगवं महावीरं तिक्खत्तो जाव णमंसित्ता, जाव जेणेव अम्मा-पियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अम्मा-पियरो जएणं विजएणं वद्धावेइ, जएणं विजएणं वद्धावित्ता एवं वयासी-एवं खलु अम्म-याओ! मए समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिथं धम्मे णिसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए / तए णं धण्णं कुमारं अम्मा-पियरो एवं बयासी-धण्णे सि णं तुम जाया ! कयत्थे सि णं तुम जाया ! कयपुण्णे सि णं तुमं जाया ! कयालक्खणे सि णं तुम जाया! जं णं तुमे समणस्स भगवो महावीरस्स अंतियं धम्मे णिसंते, से वि य धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए। तए णं से धण्णे कुमारे अम्मा-पियरो दोच्चंपि तच्चं पि एवं वयासी-एवं खलु मए अम्मयानो ! समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए धम्मे णिसंते, जाव अभिरुइए। तए णं अहं अम्मायाप्रो ! संसारभउबिग्गे, मीए जम्म-जरा-मरणेणं, तं इच्छामि गं अम्म-यानो! तुन्भेहि अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवरो महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगारानो अणगारियं पव्वइत्तए। उस काल और उस समय में श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर काकंदी नगरी में पधारे / परिषद् निकली। कोणिक की तरह जितशत्रु राजा भी दर्शनार्थ निकला। जमाली के समान धन्यकुमार भी साज-सज्जा के साथ निकला। विशेष यह है कि धन्यकुमार पैदल चल कर ही भगवान की सेवा में पहुँचा। श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास धर्म सुनकर और हृदय में धारण करके धन्यकुमार हर्षित और सन्तुष्ट हृदय वाला हुया यावत् खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दन-नमस्कार किया और इस प्रकार कहा "हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूँ। हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर विश्वास करता हूँ। हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन पर रुचि करता हूँ। हे भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन के अनुसार प्रवृत्ति करने को तत्पर हुआ हूँ। हे भगवन् ! यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य है, तथ्य है, असंदिग्ध है, जैसा कि आप कहते हैं। हे भगवन् ! मैं अपनी माता-भद्रा सार्थवाही की आज्ञा लेकर, गृहवास का त्याग करके, मुण्डित होकर आपके पास अनगार-धर्म स्वीकार करना चाहता हूँ।" Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] { अनुत्तरोपपातिकदशा भगवान् ने कहा-"देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो, धर्म-कार्य में समयमात्र भी प्रमाद मत करो।" जब श्रमण भगवान् महावीर ने धन्यकुमार से पूर्वोक्त प्रकार से कहा तो धन्यकुमार हर्षित और सन्तुष्ट हुना। उसने भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना-नमस्कार किया। फिर वह अपने माता-पिता के पास आया और जय-विजय शब्दों से बधाकर इस प्रकार बोला-“हे मातापिता ! मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से धर्म सुना है। वह धर्म मुझे इष्ट, अत्यन्त इष्ट और रुचिकर हुआ है। तब माता-पिता ने धन्य कुमार से कहा-वेटा ! तुम धन्य हो, बेटा ! तुम कृतार्थ हो, वेटा ! तुम पुण्यशाली हो, बेटा! तुम सुलक्षण हो कि तुमने भगवान् के मुख से धर्म श्रवण किया और वह धर्म तुम्हें प्रिय, अतिशय प्रिय और रुचिकर लगा। तब धन्य कुमार ने दूसरी और तीसरी भी बार अपने माता-पिता से इसी प्रकार कहा, साथ ही कहा कि- "हे माता-पिता ! मैं संसार के भय से उद्विग्न हुया हूँ, जन्म, जरा और मरण से भयभीत हुआ हूँ। अतः हे माता-पिता ! मैं आपकी प्राज्ञा होने पर श्रमण भगवान महावीर स्वामी के निकट मुण्डित होकर, गृहवास का त्याग करके अनगार-धर्म स्वीकार करना चाहता हूँ।" प्रव्रज्या-सम्पत्ति ५-तए णं सा धण्णस्स कुमारस्स माया तं अणिट्ठ, अकंतं, अप्पियं प्रमणुण्णं प्रमणाम, असुयपुव्वं गिरं सोच्चा मुच्छिया / वुत्तपडिवुत्तया जहा महब्बले। [रोयमाणी] कंदमाणी, सोयमाणो, विलवमाणो जाव [धणं कुमारं एवं वयासी-तुमं सि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इ8, कंते, पिए, मणण्णे, मणामे, येज्जे, वेसासिए, सम्मए, बहुमए, अणुनए, भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए, जीवियउस्सासे हिययणंदिजणणे उंबरपुष्फमिव दुल्लहे सवणयाए किमंग! पुण पासणयाए ! तं णो खलु जाया! अम्हे इच्छामो तुभं खणमवि विप्पोगं सहितए, तं अच्छाहि ताव जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो, तपो पच्छा अम्हेहि कालगएहि समार्गाह परिणयवये, वढियकुलवंसतंतुकज्जम्मि णिरत्यक्खे समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतियं मुडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पव्वइहिसि / तए णं धणे कुमारे अम्मा-पियरो एवं वयासी-तहेव णं तं अम्भ-यानो ! जं गं तुम्भे मर्म एवं वयह, तुमं सि गं जाया ! अम्हं एगे पुत्त इ8 कंते चेक, जाव पवइहिसि; एवं खलु अम्मयानो! माणस्सए भवे अणेगजाइ-जरा-मरण-रोग-सारीरमाणसपकामदुक्ख-वेयण-बसण-सप्रोवद्दवाभिभूए, अधुवे, अणिइए, प्रसासए संज्झन्भरागसरिसे, जलबुब्बुयसमाणे, कुसग्गजलबिदुसष्णिभे, सुविणगदसणोवमे, विज्जुलयाचंचले, प्रणिच्चे, सडणपडणविद्ध सणधम्मे, पुवि वा पच्छा वा अवस्स विष्पजहियन्वे भविस्सइ, से केस गं जाणइ अम्भया प्रो! के पुदिव गमणयाए, के पच्छा गमणयाए ? तं इच्छामि णं अम्मयानो ! तुउभेहिं अडभणुण्णाए समाणे समणस्स जाव-पव्यइत्तए। तए णं तं धणं कुमारं भद्दा सत्यवाही जाहे जो संचाएइ जाव जियसत्तु आपुच्छइ, इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! धण्णस्स दारयस्स णिक्खममाणस्स छत्त-मउड-चामरायो य विदिशाओ। तए णं जियसत्तू राया भदं सत्थवाहि एवं वयासी-अच्छाहि णं तुम देवाणुप्पिए ! सुनिवृत्तवीसस्था. अरण सयमेव धण्णस्तदारयस्स निक्खमणसक्कारं करिस्सामि। . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग] [25 सयमेव जितसतू निक्खमणं करेइ, जहा थावच्चापुत्तस्स कण्हो। तए णं धण्णे दारए सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ जाव पवइए। तए णं धण्णे दारए अणगारे जाए ईरियासमिए जाव गुत्तबंभचारी। धन्यकुमार की माता उसके उपयुक्त अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, मन को अप्रिय, अश्रु तपूर्व (जो पहले कभी नहीं सुनी) ऐसी (आघातकारक) वाणी सुनकर, मूछित हो गई। तत्पश्चात् होश में आने पर उनका कथन और प्रतिकथन हुआ। वह रोती हुई, आक्रन्दन करती हुई, शोक करती हुई और विलाप करती हुई महाबल के कथन के सदृश इस प्रकार कहने लगी-“हे पुत्र ! तू मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम (मन गमता), आधारभूत, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत, आभूषणों की पेटी के तुल्य, रत्न स्वरूप, रत्न तुल्य, जीवित के उच्छवास के समान और हृदय को आनन्ददायक एक ही पुत्र है / उदुम्बर (गूलर) के पुष्प के समान तेरा नाम सुनना भी दुर्लभ है, तो तेरा दर्शन दुर्लभ हो इसमें तो कहना ही क्या ? अतः हे पुत्र! तेरा वियोग मुझसे एक क्षण भी सहन नहीं हो सकता। इसलिए जब तक हम जीवित हैं तब तक घर ही रह कर कुल वंश की अभिवृद्धि कर / जब हम कालधर्म को प्राप्त हो जाएँ और तुम्हारी उम्र परिपक्व हो जाय तब, कुल वंश को वृद्धि करके तुम निरपेक्ष होकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुण्डित होकर अनगार धर्म को स्वीकार करना।" तब धन्यकुमार ने अपने माता-पिता से इस प्रकार कहा- "हे माता-पिता ! अभी जो आपने कहा कि-हे पुत्र ! तु हमें इष्ट, कान्त, प्रिय आदि है यावत् हमारे कालगत होने पर तू दीक्षा अंगीकार करना इत्यादि / परन्तु हे माता-पिता ! यह मनुष्य जीवन जन्म, जरा, मरण, रोग, व्याधि, अनेक शारीरिक और मानसिक दुःखों की अत्यन्त वेदना से और सैंकड़ों व्यसनों (कष्टों) से पीडित है। यह अध्र व अनित्य और प्रशाश्वत है / सन्ध्याकालीन रंगों के समान, पानी के परपोटे (बुदबुदे) के समान, कुशाग्र पर रहे हुए जल-बिन्दु के समान, स्वप्न-दर्शन के समान तथा बिजली की चमक के समान चंचल और अनित्य है / सड़ना, पड़ना, गलना और विनष्ट होना इसका धर्म (स्वभाव) है। पहले या पीछे एक दिन अवश्य ही छोड़ना पड़ता है; तो हे माता-पिता ! इस बात का निर्णय कौन कर सकता है कि हममें से कौन पहले जायगा (मरेगा) और कौन पीछे जायगा? इसलिए हे माता-पिता ! श्राप मुझे आज्ञा दीजिये। आपकी आज्ञा होने पर मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता हूँ।" जब धन्यकुमार की माता भद्रा सार्थवाही उसे समझाने-बुझाने में समर्थ नहीं हुई, तब उसने धन्यकुमार को प्रव्रज्या लेने की आज्ञा दे दी। जिस प्रकार थावच्चापुत्र की माता ने कृष्ण से छत्र चामरादि की याचना की, उसी प्रकार भद्रा ने भी जितशत्रु राजा से छत्र चामर आदि की याचना की, तब जितशत्रु राजा ने भद्रा सार्थवाही से कहा--'देवानुप्रिए ! तुम निश्चिन्त रहो। मैं स्वयं धन्यकुमार का दीक्षा-सत्कार करूँगा' तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने स्वयं ही धन्यकुमार का दीक्षा-सत्कार किया / जिस प्रकार कृष्ण ने थावच्चा-पुत्र का दीक्षामहोत्सव सम्पन्न किया था। ___ तत्पश्चात् धन्यकुमार ने स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया, यावत् प्रवज्या अंगीकार की। धन्यकुमार भी प्रवजित होकर अनगार हो गया। ईर्या-समिति, भाषा-समिति से युक्त यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गया। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 ] [ अनुत्तरोपपातिकदशा विवेचन-उक्त सूत्र में धन्य कुमार को किस प्रकार वैराग्य उत्पन्न हा, इस विषय का वर्णन किया गया है। जब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी काकन्दी नगरी में पधारे तो नगर की परिषद् के साथ धन्य कुमार भी उनके दर्शन करने और उनसे उपदेशामृत पान करने के लिए उनकी सेवा में उपस्थित हुआ। उपदेश का धन्य कुमार पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह तत्काल ही सम्पूर्ण सांसारिक भोग-विलासों को ठोकर मार कर अनगार बन गया। ___ इस सूत्र में हमें चार उदाहरण मिलते हैं। उनमें से दो धन्य कुमार के विषय में हैं और शेष दो में से एक जितशत्रु राजा का कोणिक राजा से तथा चौथा दीक्षा-महोत्सव का कृष्ण वासुदेव द्वारा किये हुए थावच्चापुत्र के दीक्षा-महोत्सव से है। ये सब 'औपपातिकसूत्र' 'भगवतीसूत्र' तथा 'ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र' से लिए गए हैं। इन सब का उक्त सूत्रों में विस्तृत वर्णन मिलता है। अतः नयागमों का एक बार अवश्य स्वाध्याय करना चाहिए। ये सब अागम ऐतिहासिक दष्टि से भी अत्यन्त उपयोगी हैं। यहाँ उक्त वर्णनों को दोहराने की आवश्यकता न जान कर संक्षेप कर दिया गया है। दीक्षा की अनुमति प्राप्त करने के प्रसंग में ब्रकेट में जो पाठ मूल और अर्थ में दिया गया है वह जमाली के प्रसंग का है, अतएव उनमें 'अम्मापियरों' (माता-पिता) का उस्लेख है किन्तु धन्य कुमार के विषय में यह घटित नहीं होता, अत: यहां केवल माता का ही ग्रहण करना चाहिए / इस प्रकरण में पिता का कहीं उल्लेख नहीं है / पाठकों को यह ध्यान में रखना चाहिए। धन्य मुनि की तपश्चर्या ६-तए णं से धणे अणगारे जं चेव दिवसे मुंडे भवित्ता जाव [अगाराओ अणगारिय] पव्वइए, तं चेव दिवसं समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ / वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी एवं खलु इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहि अन्भणुण्णाए समाणे जावज्जीवाए छट्टछट्टणं अणिविखतेणं प्राय बिलपरिग्गहिएणं तबोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणे विहरित्तए। छस्स वि य णं पारणय सि करपेइ मे आय बिलं पडिगाहेत्तए नो चेव णं अणाय बिलं / तं पि य संसटुंनो चेव णं असंसद। तं पि य णं उज्झियधम्मियं नो चेव णं अणुज्झिय धम्मियं / तं पि य जं अण्णे बहवे समण-माहण-प्रतिहिकिवण-वणीमगा नावखंति। महासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेह / तए णं से धण्णे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे छ-तुट्ठ जावज्जीवाए छ8छ?णं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तदनन्तर धन्य अनगार जिस दिन प्रवजित हुए यावत् गृहवास त्याग कर अगेही बने, उसी दिन श्रमण भगवान् महावीर को वंदन किया, नमस्कार किया तथा वंदन और नमस्कार करके इस प्रकार बोले भंते ! आप से अनुज्ञात होकर जीवन-पर्यन्त निरन्तर षष्ठ-बेला तप से तथा आयंबिल के पारणे से मैं अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करना चाहता हूँ। षष्ठ तप के पारणा में भी मुझे आयंबिल ग्रहण करना कल्पता है, परन्तु अनायंबिल ग्रहण करना नहीं कल्पता। वह भी संसृष्ट हाथों आदि से लेना कल्पता है, असंसृष्ट हाथों आदि से लेना नहीं कल्पता। वह भी उज्झित Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग] [ 27 धर्म वाला (त्याग देने-फेंक देने योग्य) ग्रहण करना कल्पता है, अनुज्झित धर्म वाला नहीं कल्पता / उसमें भी वह भक्त-पान कल्पता है, जिसे लेने की अन्य बहुत से श्रमण, माहण (ब्राह्मण), अतिथि, कृपण, और वनीपक (भिखारी) इच्छा न करें।" धन्य अनगार से भगवान् ने कहा---'हे देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुखकर हो, वैसा करो, परन्तु प्रमाद मत करो।" __अनन्तर वह धन्य अनगार भगवान महावीर से अनुज्ञात होकर यावत् हर्षित एवं तुष्ट होकर जीवन-पर्यन्त निरन्तर षष्ठ तप से अपने आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। विवेचन--इस सूत्र में धन्य अनगार की आहार और शरीर विषयक अनासक्ति का तथा रसनेन्द्रियसंयम का विशेष रूप से प्रतिपादन किया गया है / वे दीक्षा प्राप्त कर इस प्रकार धर्म में तल्लीन हो गये कि दीक्षा के दिन से ही उनकी प्रवृत्ति उग्र तप करने की ओर हो गई। उसी दिन निर्णय कर उनने भगवान से निवेदन किया कि-भगवन् ! मैं आपकी आज्ञा से जीवन भर षष्ठ (बेले) तप का आयंबिल-पूर्वक पारणा करूं। उनकी इस तरह की धर्मरुचि देख कर थी भगवान् ने अनुमति दे दी / धन्य अनगार ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तप अंगीकार कर लिया। ___ 'उज्झित-धर्मिक' उसे कहते हैं, जिस अन्न को विशेषतया कोई नहीं चाहता हो। टीका में कहा है-"उज्झिय-धम्मियं ति, उज्झितं-परित्यागः स एव धर्म:--पर्यायो यस्यास्तीति उज्झितधर्मः" अर्थात् जो अन्न सर्वथा त्याग कर देने योग्य या फेंक देने के योग्य हो, वह 'उज्झित-धर्म' होता है। आयंबिल के दिन धन्य अनगार ऐसा ही आहार किया करते थे। ७-तए णं से धणे अणगारे पढमछट्ठखमणपारणय सि पढमाए पोरिसीए सम्झाय करेइ / जहा गोयमसामी तहेव आपुच्छइ, जाव [बीयाए पोरिसीए झाणं झियायइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तिय पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता भायणाई वत्थाई पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता भायणाई पमज्जइ, पज्जित्ता भायणाई उग्गहेइ उग्महित्ता, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहि अभणुण्णाए छट्टक्खमणपारणगंसि काय दीए नयरोए उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए / प्रहासुहं देवाणुप्पिया मा पडिबंध / तए णं धणे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अभणुण्णाए समाणे समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतियाओ सहसंबवणाओ उज्जाणाम्रो पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए विट्ठीए पुरो रिय सोहमाणे सोहमाणे] जेणेव काय दो णगरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता काय दीए गयरीए उच्च० जाव [नीय-मज्झिमाइं कुलाइं घरसमुयाणस्स भिक्खायरिय] अडमाणे प्राय बिलं, नो अणाय बिलं जाव' नावखंति / तए णं से धणे अणगार ताए अन्भुज्जयाए पययाए पयत्ताए पग्गहियाए एसणाए एसमाणे जइ भत्तं लभइ, तो पाणं न लभइ, अह पाणं लभइ तो भत्तं न लभइ / तए णं से धण्णे अणगार प्रदोणे अविमणे अकलुसे अविसादी अपरितंतजोगी जयणघडणजोग१. अणुतरोववाइय वर्ग 3, सूत्र 6. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [ अनुत्तरौपपातिकदशा चरित्ते अहापज्जत्तं समुदाणं पडिगाहेइ / पडिगाहित्ता काय दोनो नयरीनो पडिणिक्खमइ / पडिणिक्खमित्ता जहा गोयमे जाव [जेणेव समणे भगवं महावीर तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवनो महावीरस्स अदूरसामन्ते गमणागमणाए पडिक्कमइ एसणमणेसणं आलोएइ, पालोएत्ता भत्तपाणं] पडिदंसेइ। तए णं से धण्णे अणगारे समणेणं भगक्या अन्भणुण्णए समाणे अमुच्छिए जाव [अगिद्ध अगढिए] अणझोववष्णे बिलमिव पण्णगभूएणं प्रपाणेणं पाहारं पाहार / प्राहारित्ता संजमेण तवसा जाब अप्पाणं भावमाणे बिहरइ / अनन्तर धन्य अनगार ने प्रथम षष्ठ तप के पारणा के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया। जिस प्रकार गौतम ने भगवान् से पूछा, उसी प्रकार पारणा के लिए धन्य अनगार ने भी भगवान् से पूछा, यावत् [दुसरी पौरिसी में ध्यान ध्याया, तीसरी पौरिसी में शारीरिक शीघ्रता रहित, मानसिक चपलता रहित, प्राकुलता और उत्सुकता रहित होकर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना की, फिर पात्रों की और वस्त्रों की प्रतिलेखना की / तत्पश्चात् पात्रों का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके पात्रों को लेकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ पाये / वहाँ आकर भगवान को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया-भगवन् ! आज मेरे बेले के पारणे का दिन है, सो आपकी आज्ञा होने पर मैं काकन्दी नगरी में ऊँच, नीच और मध्यम कुलों में भिक्षा की विधि के अनुसार भिक्षा लेने के लिये जाना चाहता हूँ।' श्रमण भगवान् महावीर ने धन्य अनगार से कहा-'हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार तुम्हें सुख हो उस प्रकार करो, विलम्ब न करो।' भगवान् की आज्ञा प्राप्त हो जाने पर धन्य अनगार भगवान् के पास से सहस्राम्रवन उद्यान से निकले / निकल कर शारीरिक त्वरा (शीघ्रता) और मानसिक चपलता से रहित एवं प्राकुलता व उत्सुकता से रहित युग (धूसरा) प्रमाण भूमि को देखते हुए ईर्यासमितिपूर्वक काकन्दी नगरी में पाये। वहाँ उच्च, नीच और मध्यम कुलों में यावत् घूमते हुए आयंबिल-स्वरूप-रूक्ष आहार ही धन्य अनगार ने ग्रहण किया / यावत् सरस आहार ग्रहण करने की आकांक्षा नहीं की। __ अनन्तर धन्य अनगार ने सुविहित, उत्कृष्ट प्रयत्न वालो गुरुजनों द्वारा अनुज्ञात एवं पूर्णतया स्वीकृत एषणा से गवेषणा करते हुए यदि भक्त प्राप्त किया, तो पान प्राप्त नहीं किया और यदि पान प्राप्त किया तो भक्त प्राप्त नहीं किया। (ऐसी अवस्था में भी) धन्य अनगार अदीन, अविमन अर्थात् प्रसन्नचित्त, अकलुष अर्थात कषायरहित, अविषादी अर्थात विषादरहित, अपरिश्रान्तयोगी अर्थात निरन्तर समाधियक्त रहे। प्राप्त योगों (संयम-व्यापारों) में यतना (उद्यम) वाले एवं अप्राप्त योगों की घटना-प्राप्त्यर्थ यत्न जिसमें है इस प्रकार के चारित्र का उन्होंने पालन किया / वह यथाप्राप्त समुदान अर्थात् भिक्षान्न को ग्रहण कर, काकन्दी नगरी से बाहर निकले, भगवान् के निकट आए। यावत् श्रमण भगवान महावीर स्वामी की सेवा में उपस्थित होकर गमनागमन सम्बन्धी प्रतिक्रमण किया, भिक्षा लेने में लगे हुए दोषों का आलोचन किया। उन्हें आहार-पानी दिखलाया / अनन्तर धन्य अनगार ने श्रमण भगवान महावीर से अनुज्ञात होकर अमूछित यावत् गृद्धि Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग ] [ 26 रहित-भोजन में राग से रहित अर्थात् अनासक्त भाव से इस प्रकार पाहार किया, जिस प्रकार सर्प बिल में प्रवेश करते समय बिल के दोनों पार्श्व भागों को स्पर्श न करके मध्यभाग से हो उस में प्रवेश करता है। अर्थात् धन्य अनगार ने सर्प जैसे सीधा बिल में प्रवेश करता है उस तरह स्वाद की आसक्ति से रहित होकर आहार किया। प्राहार करके संयम और तप से यावत् आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। विवेचन---यहाँ सूत्रकार ने धन्य अनगार के दृढ प्रतिज्ञा-पालन का वर्णन किया है। प्रतिज्ञा ग्रहण करने के अनन्तर वह जब भिक्षा के लिए नगर में गए तो ऊँच, मध्य और नीच अर्थात् सधन, निर्धन एवं मध्यम घरों में आहार-पानी के लिए अटन करते हुए जहाँ उज्झित आहार मिलता था वहीं से ग्रहण करते थे। उन्हें बड़े उद्यम से प्राप्त होने वाली, गुरुत्रों से प्राज्ञप्त, उत्साह के साथ स्वीकार की हुई एषणा-समिति से युक्त भिक्षा में जहाँ भोजन मिला, वहाँ पानी नहीं मिला, तथा जहाँ पानी मिला वहाँ भोजन नहीं मिला। इस पर भी धन्य अनगार कभी दीनता, खेद, क्रोध आदि, कलुषता और विषाद अनुभव नहीं करते थे, प्रत्युत निरन्तर समाधि-युक्त होकर, प्राप्त योगों में अभ्यास बढ़ाते हुए और अप्राप्त योगों की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हुए जो कुछ भी भिक्षावृत्ति में प्राप्त होता था उसको ग्रहण करते थे। इस प्रकार ने अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ रहे और उसी के अनुसार प्रात्मा को दृढ और निश्चल बनाकर संयम-मार्ग में प्रसन्न-चित्त होकर विचरते रहे। भिक्षा में उनको जो कुछ भी आहार प्राप्त होता था उसको वे इतनी अनासक्ति से खाते थे जैसे एक सर्प सीधा ही अपने बिल में घुस जाता है अर्थात् वे भोजन को स्वाद लेकर न खाते थे, प्रत्युत संयमनिर्वाह के लिये शरीररक्षा ही उनको अभीष्ट थी। 'बिलमिव पग्णगभूतेणं' शब्द का वृत्तिकार यह अर्थ करते हैं--"यथा. बिले पन्नगः पार्श्वसंस्पर्शनात्मानं प्रवेशयति तथायमाहारं मुखेन संस्पृशन्निव रागविरहितत्वादाहारयति" अर्थात् जैसे सर्प पार्श्वभाग का स्पर्श करके ही बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार धन्य मुनि बिना किसी आसक्ति के आहार करके संयम के योगों में अपनी आत्मा को दृढ करते थे। इतना ही नहीं बल्कि अप्राप्त ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिये भी सदा प्रयत्नशील रहते थे। ६-तए गं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ कार्यदीपो नयरीनो सहसंबवणामो उउजाणाप्रो पडिणिक्खमइ / पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय-विहार विहरइ। तए णं से धण्णे अणगार समणस्स भगवनो महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ / अहिज्जित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / तए णं से धण्णे अणगारे तेणं उरालेणं जहा खंदो जाव [विउलेण पयत्तेणं पम्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं उदारणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे निम्मंसे अटि-चम्मावणद्ध किडिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए यावि होत्था, जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेण चिट्टइ, भासं भासित्ता वि गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासिस्सामीति गिलायइ / से जहानामए कटुसगडिया इ वा पत्तसगडिया इ वा पत्त-तिल-भंडगसगडिया इ वा एरंडकट्ठसगडिया इ वा इंगालसगडिया इ वा उण्हे दिण्णा सुक्का समाणी ससदं गच्छद, ससदं चिट्ठइ, एवामेव धणे वि Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 [ अनुत्तरौपपातिकदशा अणगारे ससदं गच्छइ, ससई चिटुइ, उवचिए तवेणं, अवचिए मंस-सोणिएणं, हयासणे विव भासरासिपडिच्छण्णे तवेणं, तेएणं, तब-तेयसिरीए अईव अईव उसोभेमाणे] उवसोभेमाणे चिट्ठइ। अनन्तर श्रमण भगवान् महावीर अन्यदा कदाचित् काकन्दी नगरी के सहस्राम्र-वन उद्यान से निकले और बाहर जनपदों में विहार करने लगे। धन्य अनगार ने श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अङ्गों का अध्ययन किया और इसके पश्चात वह संयम और तप से अपने प्रात्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। तब वह धन्य अनगार उस उदार तप से स्कन्दक की तरह यावत् [उदार, विपुल, प्रदत्त, प्रगृहीत, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्यरूप, मंगलरूप, श्रीसम्पन्न, उत्तम उदग्र-उत्तरोत्तर उज्ज्वल, उत्तम उदार और महान प्रभावशाली तप से शुष्क हो गये, रूक्ष हो गये, मांस रहित हो गये, उनके शरीर की हड्डियाँ चमड़े से ढकी हुई रह गई। चलते समय हड्डियाँ खड़खड़ करने लगीं / वे कृश-दुबले हो गये। उनकी नाड़ियाँ सामने दिखाई देने लगीं। वे केवल अपने आत्मबल से ही गमन करते थे, आत्मबल से ही खड़े होते थे। तथा वे इस प्रकार दुर्बल हो गये कि भाषा बोलकर थक जाते थे, भाषा बोलते समय थक जाते थे और भाषा बोलने के पहले, 'मैं भाषा बोलूगा ऐसा विचार करने मात्र से भी थक जाते थे। जैसे सूखी लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी, पत्तों से भरी हुई गाड़ी, पत्त तिल और सूखे सामान से भरी हुई गाड़ी, एरंड की लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी, कोयले से भरी हुई गाड़ी, ये सब गाड़ियाँ धूप में अच्छी तरह सुखाकर जव चलती हैं, खड़-खड़ आवाज करती हुई चलती हैं और आवाज करती हुई खड़ी रहती हैं, इस प्रकार जब धन्य अनगार चलते, तो उनकी हड्डियाँ खड़-खड़ आवाज करतीं और खड़े रहते हुए भी खड़-खड़ अावाज करती। यद्यपि वे शरीर से दुर्बल हो गये थे, तथापि वे तप से पुष्ट थे। उनका मांस और खून क्षीण हो गये थे। राख के ढेर में दबी हुई अग्नि की तरह वे तप से, तेज से और तपस्तेज की शोभा से अतीवअतीव] शोभित हो रहे थे। विवेचन-सूत्र स्पष्ट है। इसका सम्पूर्ण विषय सुगमतया मूलार्थ से ही ज्ञात हो सकता है / उल्लेखनीय केवल इतना है कि यद्यपि तप और संयम की कसौटी पर चढ़कर धन्य ग्रनगार का शरीर अवश्य कृश हो गया था, किन्तु उससे उनका प्रात्मा अलौकिक बलशाली हो गया था, जिसके कारण उनके मुख का प्रतिदिन बढ़ता हुग्रा तेज अग्नि के समान देदीप्यमान हो रहा था। धन्य मुनि को शारीरिक दशा : पैर और अंगुलियों का वर्णन १०-धण्णस्स णं अणगारस्स पायाणं प्रयमेयारूवे तवरूवलावष्णे होत्या, से जहानामए सुक्कछल्ली इ वा कट्टपाउया इ वा जरग्गओवाहणा इ वा, एवामेव धण्णस्स अणगारस्स पाया सुक्का लुक्खा निम्मंसा अटिचम्मछिरत्ताए पण्णायंति, नो चेव णं मंससोणियत्ताए। धण्णस्स णं प्रणगारस्स पायंगुलियाणं अयमेयारूवे तवरूबलावणे होत्था-से जहानामए कलसंगलिया इ वा मुग्गसंगलिया इ वा माससंगलिया इ वा, तरुणिया छिण्णा, उण्हे दिण्णा, सुक्का समाणो मिलायमाणो चिट्ठति, एवामेव धण्णस्स पायंगुलियानो सुक्कामो [लुक्खायो निम्मंसानो प्रटिचम्मछिरत्ताए पण्णायंति, नो चेव णं मंस] सोणियत्ताए। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग] [ 31 धन्य अनगार के पैरों का तपोजनित रूप-लावण्य (देखाव) इस प्रकार का हो गया थाजैसे-वृक्ष की सूखी छाल हो, काठ की खड़ाऊं हो अथवा पुराना जूता हो। इस प्रकार धन्य अनगार के पैर सूखे थे-रूखे थे और निर्मास थे / अस्थि (हड्डी), चर्म और शिराओं से ही वे पहिचाने जाते थे। मांस और शोणित (रक्त) के क्षीण हो जाने से उनके पैरों की पहिचान नहीं होती थी। धन्य अनगार के पैरों की अंगुलियों का तपोजनित रूप लावण्य इस प्रकार हो गया थाजैसे-कलाय (मटर) की फलियाँ हो, मूग की फलियाँ हों, उड़द की फलियाँ हों, और इन कोमल फलियों को काटकर धूप में डाल देने पर जैसे वे सूखी और मुर्भायी हो जाती हैं, वैसे ही धन्य अनगार के पैरों की अंगुलियाँ भी सूख गई थीं, रूक्ष हो गई थी और निर्मास हो गईं थी, अर्थात् मुरझा गई थीं। उनमें अस्थि, चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं, मांस और शोणित उनमें (प्रायः) नहीं रह गया था। विवेचन--यहाँ सूत्रकार ने धन्य अनगार की शारीरिक दशा में कितना परिवर्तन हो गया था, इस विषय का प्रतिपादन किया है। तप करने से उनके दोनों चरण इस प्रकार सूख गये थे जैसे सूखी हुई वृक्ष को छाल, लकड़ी की खडाऊं अथवा पुरानी सूखी हुई जूती हो / उनके पैरों में मांस और रुधिर नाम मात्र के लिए भी दिखाई नहीं देता था। केवल हड्डी, चमड़ा और नसें ही देखने में आती थी। पैरों की अंगुलियों की भी यही दशा थी / वे भी कलाय, मूग या उड़द की उन फलियों के समान हो गई थी जो कोमल-कोमल तोड़ कर धूप में डाल दी गई हों---मुरझा गई हों। उनमें भी मांस और रुधिर नहीं रह गया था / धन्य मुनि को जंघाएँ, जानु एवं ऊर ११-धण्णस्स अणगारस्स जंघाणं अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था से जहानामए काकजंघा इ वा, कंकजंघा इ वा, ढेणियालियाजंघा इ वा जाव [सुक्कामो लुक्खाम्रो निम्मंसानो अद्विचम्मछिरत्ताए पण्णायंति, नो चेव णं मंस] सोणियत्ताए। धण्णस्स अण्णगारस्स जाणणं अयमेयारूवे जाव तवरूवलावणे होत्था--से जहानामए कालिपोरे इ वा मयूरपोरे इ वा ढेणियालियापोरे इ वा एवं जाव [धपणस्स अणगारस्स जाणू सुक्का निम्मंसा अट्टिचम्मछिरत्ताए पण्णायंति, नो चेव णं मंस] सोणियत्ताए। धण्णस्स उरुस्स अयमेयारूवे तवरूवलावण्णे होत्था-से जहानामए बोरीकरीले इ वा सल्लइकरीले इ वा, सामलिकरोले इ वा, तरुणिए उण्हे जाव [दिण्णे सुक्के समाणे मिलायमाणे] चिट्ठइ, एकामेव धण्णस्स अणगारस्स ऊरू जाव [सुक्का लुक्खा निम्मंसा अट्ठिचम्मछिरत्ताए पण्णायंति, नो चेव ण मंस] सोणियत्ताए। धन्य अनगार की जंघाओं (पिंडलियों) का तपोजनित रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे-काक पक्षी को जंघा हो, कंक पक्षी की जंघा हो, ढेणिक पक्षी (टिड्ढे) की जंधा हो / यावत् [धन्य अनगार की जंघा सूख गई थीं रूक्ष हो गई थीं, निर्मांस हो गई थी अर्थात् मुरझा गई थीं। उनमें अस्थि चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं, मांस और शोणित उनमें प्रायः नहीं रह . गया था। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] [अनुत्तरौपपातिकदशा धन्य अनगार के जानुओं (घुटनों) का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार हो गया था, जैसेकाली नामक वनस्पति का पर्व (सन्धि या जोड़) हो, मयूर पक्षी का पर्व हो, ढेणिक पक्षी का पर्व हो। यावत् [धन्य अनगार के जानु सूख गए थे / रूक्ष हो गए थे, निर्मास हो गए थे, अर्थात् मुरझा गए थे। उनमें अस्थि चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं, मांस और शोणित उनमें प्रायः नहीं रह गया था।] धन्य अनगार की उरूओं-सांथलों का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया थाजैसे वदरी, शल्यको तथा शाल्मली वृक्षों की कोमल कोंपले काट कर धूप में डालने से सूख गई हों-मुरझा गई हों। इसी प्रकार धन्य अनगार की उरू भी सूख गई थीं, मुरझा गई थीं, उनमें मांस और शोणित नहीं रह गया था। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में धन्य अनगार की जङ्गा, जान और उरूत्रों का वर्णन किया गया है। तीव्रतर तप के प्रभाव से धन्य अनगार की जङ्घाएँ मांस और रुधिर के प्रभाव से ऐसी प्रतीत होती थीं मानो काक जङ्घा नामक वनस्पति की- जो स्वभावतः शुष्क होती है-नाल हों। अथवा यों कहिए कि वे कौवे की जङ्घात्रों के समान ही क्षीण-निर्मास हो गई थीं। उनकी उपमा कङ्क और ढंक पक्षियों की जङ्घात्रों से भी दी गई है। इसी प्रकार उनके जानु भी उक्त काक-जङ्घा वनस्पति की गांठ के समान अथवा मयूर और ढंक नामक पक्षियों के संन्धि-स्थानों के समान शुष्क हो गये थे। दोनों ऊरू मांस और रुधिर के अभाव से सूख कर इस तरह मुरझा गये थे जैसे प्रियङ गु, वदरी, कर्कन्धू, शल्यकी या शाल्मली वनस्पतियों की कोमल-कोमल कोंपले तोड़कर धूप में सुखाने से मुरझा जाती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि धन्य अनगार कर्मनिर्जरा के अनन्य कारण तपश्चरण में इस प्रकार तन्मय हो गए कि अपने शरीर से भी निरपेक्ष हो गए / उनको शरीर का मोह भी लेश मात्र नहीं रहा / उन्होंने कठोर से कठोर तप अंगीकार किये। अतः उनके किसी अङ्ग में भी मांस और रुधिर अवशिष्ट नहीं रहा / सर्वत्र केवल अस्थि, चर्म और नसा-जाल ही देखने में आता था / सदेह होकर भी वे विदेह दशा प्राप्त करने में समर्थ हो गए। कटि. उदर एवं पसुलियों आदि का वर्णन १२–धण्णस्स कडिपत्तस्स इमेयारूवे जाव' से जहा जाव' उट्टपादे इ वा जरग्गपाए इ वा, महिसपाए इ वा जावसोणियत्ताए। धण्णस्स उयरभायणस्स इमेयारूवे जाव से जहा जाव' सुक्कदिए इ वा, भज्जणयकभल्ले इ वा कट्टकोलंवए इ वा एवामेव उदरं सुक्कं जाव' / धण्णस्स पासुलियाकडयाणं इमेयारूवे जाव से जहा जाव' थासयावली इ वा, पाणावली इवा, मुडावली इ वा जाव / धण्णस्स पिट्टिकरंडयाणं अयमेयाहवे जाव' से जहा जाव११ कण्णावली इ वा गोलावली इ वा वट्टयावली इ वा एवामेव जाव'२ / धण्णस्स उरकडयस्स प्रयमेयारूवे जाव' 3 से जहा जाव'४ चित्तकट्टरे इ वा वीणयपत्ते इ वा तालियंटपत्ते इ वा एवामेव जाव"। 1 से १५-वर्ग 3, सूत्र 10. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग ] [33 धन्य अनगार की कटिपत्र (कमर) का तपस्याजनित रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे-ऊँट का पैर हो, बूढे बैल का पैर हो और बूढे महिष (भंसे) का पैर हो। उसमें अस्थि, चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं, मांस और शोणित उसमें नहीं रह गया था। धन्य अनगार के उदर-भाजन (पेट) का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे--सूखी मशक हो, चणकादि भूनने का खप्पर हो, आटा गूदने की कठौती हो। इसी प्रकार धन्य अनगार का पेट भी सूख गया था / उसमें मांस और शोणित नहीं रह गया था / धन्य अनगार को पसलियों का तपस्या के कारण लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसेस्थासकों की प्रावली हो अर्थात् जैसे ढलान पर एक दूसरे के ऊपर रक्खी हुई दर्पणों के आकार की पंक्ति हो. पाणावली हो अर्थात एक दसरे पर रखे हुए पान-पात्रों (गिलासों) की पंक्ति हो, मुण्डावली अर्थात् स्थाणु-विशेष प्रकार के खूटों की पंक्ति हो। जिस प्रकार उक्त वस्तुएँ गिनी जा सकती हैं, उसी प्रकार धन्य अनगार की पसलियाँ भी गिनी जा सकती थीं। उसमें अस्थि, चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं / मांस और शोणित उनमें नहीं रह गया था / धन्य अनगार के पृष्ठकरण्ड (रीढ का ऊपरी भाग) का स्वरूप ऐसा हो गया था, जैसेमुकुटों के कांठे अर्थात् मुकुटों की किनारियों के कोरों के भाग हों, परस्पर चिपकाए हुए गोल गोल पत्थरों को पंक्ति हो, अथवा लाख के बने हुए बालकों के खेलने के गोले हों। इस प्रकार धन्य अनगार का रीढ-प्रदेश सूख कर मांस और शोणित से रहित हो गया था, अस्थि चर्म ही उनमें शेष रह गया था। धन्य अनगार के उर:कटक (वक्षस्थल धन्य अन्न का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे- बांसकी बनी टोकरी के नीचे का हिस्सा हो, बांस की बनी खपच्चियों का पंखा हो अथवा ताडपत्र का बना पंखा हो / इस प्रकार धन्य अनगार की छाती एकदम पतली होकर सूख कर मांस और शोणित से रहित होकर अस्थि चर्म और शिरा-मात्र शेष रह गए थे। विवेचन-इस सूत्र में धन्य अनगार के कटि, उदर, पांसुलिका, पृष्ठ-प्रदेश और वक्षःस्थल का उपमानों द्वारा वर्णन किया गया है। उनका कटि-प्रदेश तप के कारण मांस और रुधिर से रहित हो कर ऐसा प्रतीत होता था जैसे ऊँट या बूढ़े बैल का खुर हो / इसी प्रकार उनका उदर भी सूख गया था। उसकी सूख कर ऐसी हालत हो गई थी जैसी सूखी मशक, चने आदि भूनने का पात्र (भाड़) अथवा कोलम्ब नामक पात्र-विशेष की होती है। __ कहने का तात्पर्य यह है कि धन्य अनगार का उदर इतना सूख गया था कि उक्त वस्तुओं के समान बीच में खोखला जैसा प्रतीत होता था। इसी प्रकार उनकी पसलियाँ भी सूखकर कांटा हो गई थीं / उनको इस तरह गिना जा सकता था जैसे—स्थासक (दर्पण को प्राकृति) की पंक्ति हो या गाय आदि पशुओं के चरने के पात्रों की पंक्ति अथवा उनके बांधने को कोलों की पंक्ति हो। उनमें मांस और रुधिर देखने को भी न था। यही दशा पृष्ठ-प्रदेशों की भी थी। उनमें भी मांस और रुधिर नहीं रह गया था और ऐसे प्रतीत होते थे मानो मुकुटों की कोरों, पाषाण के गोलकों की अथवा लाख आदि से वने हुए बच्चों के खिलौनों की पंक्ति खड़ी की हुई हो। उस तप के कारण धन्य अनगार के वक्षःस्थल (छाती) में भी परिवर्तन हो गया था। उस से भी मांस और रुधिर सूख गया था / और पसलियों की Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 ] [ अनुत्तरौपपातिकदशा पंक्ति ऐसी दिखाई दे रही थी मानों ये किलिज आदि के खण्ड हो अथवा यह बांस या ताड़ के पत्तों का बना हुया पंखा हो। इन सब अवयवों का वर्णन, जैसा पहले कहा जा चुका है, उपमालङ्कार से किया गया है। इससे एक तो स्वभावतः वर्णन में चारुता आ गई है, दूसरे पढ़ने वालों को वास्तविकता को समझने में सुगमता होती है। जो विषय उदाहरण देकर शिष्यों के सामने रखा जाता है, उसको अत्यल्पबुद्धि भी बिना किसी परिश्रम के समझ जाता है। यहाँ ध्यान रखने योग्य एक बात विशेष है कि धन्य अनगार का शरीर यद्यपि सूखकर कांटा हो गया था किन्तु उनकी आत्मिक तेजस्विता अत्यधिक बढ़ गई थी। धन्य मुनि के बाहु हाथ उंगलो ग्रीवा दाढी होठ एवं जिह्वा १३-धण्णस्स णं अणगारस्स बाहाणं जाव' से जहानामए जाव समिसंगलिया इवा बाहायासंगलिया इवा, प्रगस्थियसंगलिया इवा, एवामेव जाव / धष्णस्स णं अणगारस्स हत्थाणं जाव से जहा जाव' सुक्क छगणिया इ वा, वडपत्ते इ वा, पलासपत्ते इ वा, एवामेव जाव / धण्णस्स णं अणमारम्स हत्थंगुलियाणं जाव से जहा जाव कलसंगलिया इ वा, मुग्गसंगलिया इ वा, माससंगलिया इ वा, तरुणिया छिण्णा प्रायवे दिण्णा सुक्का समाणो एवामेव जाव। धण्णस्स गीवाए जाव' से जहा जाव 1 करगगीवा इ वा, कुडियागीवा इ वा उच्त्तद्ववणए इ वा एवामेव जाव१२। धण्णस्स णं अणगारस्स हणुयाए जाब' से जहा जाव' 4 लाउयफले इ वा, हकुवफले इवा, अंबगट्टिया इ वा, एवामेव जाव। धण्णस्स णं अणगारस्स उखाणं जाव' से जहा जाव१७ सुक्कजलोया वा, सिलेसगुलिया इ वा, अलत्तगुलिया इ वा एवामेव जाव' / ___धण्णस्स णं अणगारस्स जिभाए जाव से जहा जा३२ वडपत्ते इ वा पलासपत्ते इ वा, सागपत्ते इ वा एवामेव जाव२१ // धन्य अनगार की बाहु अर्थात् कंधे से नीचे के भाग (भुजाओं) का तपोजन्य रूप लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे-शमी (खेजड़ी) वृक्ष की सुखी हुई लम्बी-लम्बी फलियाँ हों, बाहाया (अमलतास) वृक्ष की सूखी हुई लम्बी-लम्बी फलियाँ हों, अथवा अगस्तिक (अगतिया) वृक्ष की सूखी हुई फलियाँ हों / इसी प्रकार धन्य अनगार की भुजाएँ भी मांस और शोणित से रहित होकर, सूख गई थी। उनमें अस्थि, चर्म और शिराऐं ही शेष रह गई थी मांस और शोणित उनमें नहीं रह गया था। धन्य अनगार के कुहनी के नीचे के भागरूप हाथों की अवस्था तपश्चर्या के कारण इस प्रकार की हो गई थी, जैसे-सूखा छाण (कंडा) हो, वड का सूखा पत्ता हो या पलाश का सूखा पत्ता हो। इसी प्रकार धन्य अनगार के हाथ भी सूख गये थे, मांस और शोणित से रहित हो गए थे। उनमें अस्थि चर्म और शिराएं ही शेष रह गई थीं। मांस और शोणित उनमें नहीं था। १-२१----देखिए वर्ग 3, सूत्र 7. Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग 1 धन्ध अनगार के हाथों की अंगुलियों का उग्र तप के कारण इस प्रकार का स्वरूप हो गया था, जैसे कलाय अर्थात् मटर की सूखी फलियाँ हों, मूग को सूखी फलियाँ हो अथवा उड़द की सूखी फलियाँ हों। उन कोमल फलियों को काट कर, धूप में सुखाने पर जिस प्रकार वे सूख जाती हैं, कुम्हला जाती हैं, उसी प्रकार धन्य अनगार के हाथों की अंगुलियाँ भी सूख गई थीं, उनमें मांस और शोणित नहीं रह गया था / अस्थि, चर्म और शिराऐं ही शेष रह गई थीं। धन्य अनगार की ग्रीवा अर्थात् गर्दन तपश्चर्या के कारण इस प्रकार की हो गई थी, जैसे करक (करवा-जल-पात्र विशेष) का कांठा (गर्दन) हो, छोटी कुण्डी (पानी की झारी) की गर्दन हो, उच्च स्थापनक-सुराही की गर्दन हो। इसी प्रकार धन्य अनगार को गर्दन मांस और शोणित से रहित होकर सूखी-सी और लम्बी सी हो गई थी। धन्य अनगार की हनु अर्थात् ठोड़ी का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे-तूम्बे का सूखा फल हो, रकुब नामक एक वनस्पति अर्थात् हिंगोटे का सूखा फल हो अथवा प्राम की सूखी गुठली हो। इस प्रकार धन्य अनगार की हनु अर्थात् ठोड़ी भी मांस और शोणित से रहित होकर सूख गई थी। धन्य अनगार के प्रोष्ठों का अर्थात् होठों का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे-सूखी जोंक हो, सूखी श्लेष्म को गुटिका अर्थात् गोली हो, अलते की गुटिका अर्थात् अगरबत्ती के समान लाख के रस की लम्बी बत्ती हो। इसी प्रकार धन्य अनगार के होठ सूख कर मांस और शोणित से रहित हो गए थे। धन्य अनगार की जीभ की तपस्या के कारण ऐसी अवस्था हो गई थी, जैसे-वड़ का सूखा पत्ता हो, पलाश का सूखा पत्ता हो, शाक अर्थात् सागवान वृक्ष का सूखा पत्ता हो। इसी प्रकार धन्य अनगार की जीभ भी सूख गई थी, उसमें मांस नहीं रह गया था और शोणित भी नहीं रह गया था। विवेचन—इस सूत्र में धन्य अनगार की भुजाओं, हाथों, हाथ की अंगुलियों, ग्रीवा, चिबुक, पोठों और जिह्वा का उपमा अलङ्कार से वर्णन किया गया है। उनकी भुजाएँ अन्यान्य अङ्गों के समान ही तप के कारण सूख गई थी और ऐसी दिखाई देती थीं जैसी शमी, अगस्तिक अथवा बाहाय वृक्षों की सूखी हुई फलियां होती हैं। ___वाहाया' शब्द के अर्थ का निर्णय करना कठिन है। यह किस वृक्ष की और किस देश में प्रचलित संज्ञा है, कहना मुश्किल है। वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि ने भी इसका अर्थ वृक्षविशेष ही लिखा है / सम्भवतः उस समय किसी प्रांत में यह नाम लोकप्रचलित रहा हो। यही दशा धन्य अनगार के हाथों की भी थी। उनका भी मांस और रुधिर सूख गया था तथा वे इस तरह दिखाई देते थे जैसा सूखा गोबर (छाणा-कंडा) होता है अथवा सूखे हुए वट और पलाश के पत्त होते हैं। हाथ की अंगुलियों में भी अत्यन्त कृशता आ गई थी। अंगुलियाँ कभी रक्त और मांस से परिपूर्ण थीं, वे अब सूख कर एक निराली रूक्षता एवं क्षीणता धारण कर रही थीं। सूख जाने से उनकी यह हालत हो गई थी जैसे एक कलाय, मूग अथवा माष (उड़द) की फली-जिसे कोमल अवस्था में ही तोड़ कर धूप में सुखा दिया गया हो। पहले वाला मांस और रुधिर उनमें देखने को भो शेष नहीं रह गया था। यदि उनको कोई पहचान सकता था तो केवल अस्थि और चर्म से ही, जो उनमें अवशिष्ट रह गये थे। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36] / अनुत्तरौपपातिकदशा 'बाहु' शब्द यद्यपि संस्कृत भाषा में उकारान्त है तथापि प्राकृत भाषा में स्त्रीलिंग की विवक्षा होने पर वह आकारान्त हो जाता है। अतः सूत्र में आया हुअा 'बाहाणं' पद प्राकृतव्याकरण की दृष्टि से शुद्ध है। सूत्र इस प्रकार है : बाहोरात् / / 8 / / 1 // 36 / / बाहुशब्दस्य स्त्रियामाकारान्तादेशो भवति, वाहाए जेण धरिपो एक्काए // स्त्रियामित्येव / वामेरो बाहू // ग्रीवा में भी अन्य अवयवों के समान मांस और रुधिर का अभाव हो गया था। अतः वह स्वभावत: लम्बी दिखाई देती थी। सूत्रकार ने उसकी उपमा लम्बे मुख वाले सुराही अादि पात्रों से दी है / इसके लिए मूत्र में एक 'उच्चस्थापनक' पद पाया है, जो इसी प्रकार का एक पात्र होता है ! यही दशा धन्य अनगार के चिबुक की थी। जो चिबुक कभी मांस और रुधिर से परिपूर्ण था उसकी तपश्चर्या के कारण यह दशा हो गई थी जैसे-एक सूखे हुए तुम्वे या हकुब (एक प्रकार की वनस्पति) के फल की होती है अथवा वह ऐसी दिखाई देती थी जैसे--एक आम की गुठली हो।। जो अोठ पहले बिम्बफल के समान रक्त वर्ण थे वे तप के कारण सूख कर बिल्कुल विवर्ण हो गये थे। उनकी आकृति अब इस प्रकार हो गई थी जैसी सूखी हुई मेंहदी की गुटिका की होती है। जिह्वा भी सूख कर वट वृक्ष के पत्ते के समान अथवां पलाश (ढाक) के पत्ते के समान नीरस और रूखी हो गई थी। उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि धन्य अनगार का तप-अनुष्ठान प्रात्मशुद्धि के ही लिये था। शरीर-मोह से वे सर्वथा मुक्त हो गए थे। यह भी इस वर्णन से सिद्ध होता है कि उत्कृष्ट तप ही आत्म-शुद्धि की सामर्थ्य रखता है और इसी के द्वारा कर्मों को निर्जरा भी हो सकती है। यहाँ यह अवश्य स्मरणीय है कि समीचीन तप सम्यकज्ञान और सम्यग्दर्शनपूर्वक ही हो सकता है / सम्यकज्ञान और सम्यग्दर्शन के अभाव में किया जाने वाला तप बालतप है। उससे हीन कोटि की देवगति भले प्राप्त हो जाए किन्तु वैमानिक जैसी उच्च देवगति भी प्राप्त नहीं होती। ऐसी स्थिति में उससे मुक्ति जैसे- सर्वोत्कृष्ट, लोकोत्तर एवं अनुपम पद की प्राप्ति तो हो ही कैसे सकती है / धन्य मुनि के नासिका, नेत्र एवं शीर्ष १४-धण्णस्स णं अणगारस्स नासाए जाव' से जहा जाव अंबगपेसिया इ वा, अंबाडगपेसिया इ वा, माउलुगपेसिया इ वा तरुणिया एवामेव जाव / धण्णस्स णं अणगारस्स अच्छीणं जाव' से जहा जाव' वीणाछिड्डे इ वा, वद्धीसगछिड्डे इ वा, पभाइयतारिगा इ वा एवामेव जाव / धण्णस्स कण्णाणं जाव' से जहा जाव मूलाछल्लिया इ वा, वालुकछल्लिया इ वा कारल्लयछल्लिया इ वा, एवामेव जाव' / 1. प्राचार्य हेमचन्द्रकृत प्राकृतव्याकरण / 2-10. देखिए वर्ग 3, सूत्र 10. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग / [ 37 धण्णस्स सोसस्स जाव' से जहा जाव तरुणगलाउए इ वा, तरुणगएलालुए इ वा सिण्हालए इ वा तरुणए जाव [छिपणे प्रायवे दिण्णे सुक्के समाणे मिलायमाणे] चिट्ठइ, एवामेव जाव' सीसं सुक्कं लुक्खं निम्मंसं अठि-चम्म-छि रत्ताए पण्णायइ, नो चेव णं मंस-सोणियत्ताए। एवं सम्वत्थ / नवरं, उयर-भायण-कण्ण-जीहा-उठा एएसि अट्ठी न भण्णइ, चम्म-छिरत्ताए पण्णायइ त्ति भण्णइ / धन्य अनगार की नासिका का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे—ाम की सूखी फाँक हो, आम्रातक अर्थात् एक फल विशेष (ग्रामडे) की सूखी फाँक हो, मातुलिंग अर्थात् विजौरे की सूखी फाँक हो-उन कोमल फाँकों को काट कर, धूप में सुखाने पर, जिस प्रकार वे मुरझा जाती हैं, सिकुड़ जाती हैं, उसी प्रकार धन्य अनगार की नाक भी मांस और शोणित से रहित होकर सूख गई थी। धन्य अनगार की आँखों का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे-वीणा का छिद्र हो, बद्धीसक अर्थात् बांसुरी का छिद्र हो, प्राभातिक तारक अर्थात् प्रभातकाल का प्रभाहीन तारा हो / इस प्रकार धन्य अनगार की आँखें भी मांस और शोणित से रहित हो कर अन्दर की ओर धंस गई थी तथा वे प्रकाश-हीन-तेजोहीन होगई थी। अर्थात् आँखों में कीकी की मात्र टिमटिमाहट ही दिखलाई देती थी। धन्य अनगार के कानों का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे----मूले की कटी हुई लम्बी-पतली छाल हो, ककड़ी (चीभड़ा) की कटी हुई लम्बी-पतली छाल हो या करेले को कटी हुई लम्बी-पतली छाल हो / इसी प्रकार धन्य अनगार के कान भी सूख गए थे। उनमें मांस और शोणित नहीं रह गया था। धन्य अनगार के शीर्ष (मस्तक) का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसेसूखा तूम्बा हो, सूखा सूरण कन्द हो, सूखा तरबूज हो-इन कोमल फलों को काट कर धूप में सुखाने पर जैसे ये सूख जाते हैं, मुरझा जाते हैं, वैसे ही धन्य अनगार का मस्तक भी मांस और शोणित से रहित होने के कारण सूख गया था, मुरझा गया था। उसमें अस्थि, चर्म और शिराएं ही शेष रह गई थीं। धन्य अनगार के तपःपूत देह के समस्त अङ्गों का यह सामान्य वर्णन है। विशेषता यह है कि पेट, कान, जीभ, और होठ-इन अवयवों में अस्थि का वर्णन नहीं कहना चाहिए / केवल चर्म और शिराओं से ही इनकी पहिचान होती थी। विवेचन-इस सूत्र में धन्य अनगार के पूर्वोक्त अङ्गों के समान ही उपमा अलङ्कार से नासिका कान, नेत्रों और शिर का वर्णन किया गया है / अर्थ मूल पाठ से ही स्पष्ट है / / इस सूत्र में अनेक प्रकार के कन्दों, मूलों और फलों से धन्य अनगार के अवयवों की उपमा दी गई है। उनमें से ग्राम्रातक, मूलक वालु की और कारेल्लक ये कन्द और फल विशेषों के नाम हैं / आलुक एक प्रकार का कन्द होता है, जो वर्तमान युग में 'पाल' के नाम से प्रसिद्ध है। 1-3. देखिये वर्ग 3, सूत्र 10 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अनुत्तरौपपातिकदशा ___ इस प्रकार सूत्रकार ने धन्य अनगार के पैर से लेकर शिर तक सब अङ्गों का वर्णन कर दिया है इसमें विशेषता केवल इतनी ही बतलाई गई है कि उदर-भाजन, जिह्वा, कान, और अोठों के साथ अस्थि शब्द का अन्वय नहीं करना चाहिए क्योंकि इनमें अस्थियां नहीं होती है। शेष सब अंगों के साथ सुक्क, लुक्खं, णिम्मसं, इत्यादि सब विशेषणों का प्रयोग करना चाहिए। धन्य मुनि की आन्तरिक तेजस्विता १५--धण्णे णं अणगारे सुक्केणं भुक्केणं लुक्खेणं पायघोरुणा, विगयतडिकरालेणं कडिकडाहेणं, पिट्टिमवस्सिएणं उदरभायणेणं जोइज्जमार्गाह पासुलियकडएहि, अवखसुत्तमाला इव गणेज्जमाणेहि पिट्टिकरंडगसंधीहि, गंगातरंगभूएणं उरकडग-देशभाएणं, सुक्कसप्पसमाईि बाहाहि, सिढिलकडालो विव लंबतेहि य अग्गहत्थेहि, कंपणवाइए विव वेवमाणीए सीसघडीए पच्वायवयणकमले उन्भडघडमुहे उच्छुद्धणयणकोसे जीवंजीवेणं गच्छइ, जीवंजीवेणं चिट्ठइ, भासं भासित्ता गिलाइ, भासं भासमाणे गिलाइ, भासं भासिस्सामि त्ति गिलाइ। से जहानामए इंगालसगडिया इ वा / जहा खंदग्रो तहा, जाव' हुयासणे इव भासरासिपलिच्छण्णे तवेणं तेएणं अईव अईव तबतेयसिरीए उपसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिठ्ठ। __ घोर तपस्वी वह धन्य अनगार मांस आदि के अभाव के कारण सूखे, और भूख के कारण वभक्षित एवं पैर आदि अवयवों के कृशतर हो जाने के कारण रूक्ष दिखाई देते थे। उनका क कटाह (कच्छप की पीठ अथवा भाजनविशेष-कढ़ाई) सरीखा विकृत एवं मांसहीन होने के कारण हड्डियां ऊपर दिखाई देने से विकराल दृष्टिगोचर होता था। मांस-मज्जा और शोणित के अभाव में पीठ से लगे पेट से, निर्मास होने के कारण स्पष्ट दिखलाई देने वाली पसलियों से, मांस और मज्जारहित होने से रुद्राक्ष की माला के मणकों के समान स्पष्ट गिने जाने योग्य पृष्ट-करंडग (रीढ़) की सन्धियों से, गङ्गा की तरङ्गों के तुल्य स्पष्ट दिखने वाली अस्थियों के कारण उनके वक्षस्थल का भाग दीख पड़ता था। उनकी भुजाएँ, सूखे हुए सर्प के तुल्य लम्बी एवं सूखी थीं। लोहे की घोड़े की लगाम के तुल्य उनके अग्रहस्त कांपते हुए थे। कम्पनबात-ग्रस्त रोगी के तुल्य उनका मस्तक कांपता रहता था। उनका मुख-कमल म्लान हो गया था। होठों के सूख जाने से उनका मुख टूटे मुखवाले घड़े के समान विकृत दृष्टिगोचर होता था। उनके नयनकोष अन्दर की ओर धंस गये थे / दीर्घ तप से इस प्रकार क्षीण होकर वह धन्य अनगार अपने शरीर के वल से नहीं; परन्तु अपने ग्रात्मबल से ही गमन करते थे। अपने आत्मबल से ही खड़े होते थे और वैठते थे। भाषा बोलकर वे थक जाते थे, वोलते सयय भी उन्हें थकावट का अनुभव होता था, यहाँ तक 'मैं बोलूगा इस विचार मात्र से ही वे थक जाते थे। जिस समय वह चलते तो उनके शरीर की हड्डियां ऐसा शब्द करती थीं जैसे कोई कोयलों से भरी गाड़ी हो, इत्यादि / ___ जो दशा स्कन्दक की हो गई थी, वही दशा धन्य अनगार की भी हो गई थी। फिर भी वे राख के ढेर से ढंकी आग के समान अन्दर ही अन्दर आत्म-तेज से प्रदीप्त हो रहे थे। वह धन्य अनगार तप से, तेज से और तपस्तेज की शोभा-आभा से अत्यन्त सुशोभित होकर (अपनी साधना में स्थिर थे, अडिग थे और अडोल थे)। 1. देखिए अणुत्तरोववाइयदसा वर्ग 3, सूत्र 8. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग ] [36 विवेचन—यहाँ एक ही सूत्र में सूत्रकार ने प्रकारान्तर से धन्य अनगार के सब अवयवों का वर्णन किया है / धन्य अनगार के पैर, जङ्घा और ऊरू मांस आदि के प्रभाव से अत्यन्त सूख गये थे और निरन्तर भूखे रहने के कारण बिलकुल रूक्ष हो गये थे। चिकनाहट उन में नाम-मात्र के लिये भी शेष नहीं थी। कटि मानो कटाह (कच्छप की पीठ अथवा भाजन विशेष-हलवाई अादियों की कढाई) था / वह मांस के क्षीण होने से तथा अस्थियों के ऊपर उठ जाने से इतना भयङ्कर प्रतीत होता था जैसे नदी के ऊँचे तट हों-दोनों ओर ऊँचे और बीच में गहरे / पेट बिलकुल सूख गया था / उस में से यकृत् और प्लीहा भी क्षीण हो गये थे। अतः वह स्वभावत: पीठ के साथ मिल गया था। पसलियों पर का भी मांस बिलकुल सूख गया था और एक-एक अलग-अलग गिनी जा सकती थी। यही हाल पीठ के उन्नत प्रदेशों का भी था। वे भी रुद्राक्ष की माला के दानों के समान सूत्र में पिरोये हुए भी जैसे अलग-अलग गिने जा सकते थे। उर के प्रदेश ऐसे दिखाई देते थे, जैसी गङ्गा की तरङ्ग हो। भुजाएँ सूख कर सूखे हुए साँप के समान हो गई थीं। हाथ अपने वश में नहीं थे और घोड़े की ढीली लगाम के समान अपने आप ही हिलते रहते थे। शिर की स्थिरता भी लुप्त हो गई थी। वह शक्ति से हान होकर कम्पन-वायू रोग वाले पुरुष के शिर के समान कांपता ही रहता था। इस अत्युग्न तप के कारण जो मुख कभी खिले हुए कमल के समान शोभायमान था, अब मुरझा गया था। अोठ सूखने के कारण विकृत-से हो गये थे। इससे मुख फूटे हुए घड़े के मुख के समान विकराल दिखाई देता था। उनकी दोनों ग्राँखें भीतर धंस गई थीं। शारीरिक बल बिलकल शिथिल हो गया था। वे केवल यात्मिक शक्ति से ही चलते थे और खड़े होते थे। इस प्रकार सर्वथा दुर्वल होने के कारण उनके शरीर की यह दशा हो गई थी कि भाषण करने में भी उनकी अतीव खेद प्रतीत होता था, थकावट होती थी। कुछ कहते भी थे तो अत्यन्त कष्ट के साथ / शरीर साधारणतः इस प्रकार खचपचा गया था कि जब वे चलते थे तो अस्थियों में परस्पर रगड़ लगने के कारण चलती हुई कोयलों की गाड़ी के समान शब्द उत्पन्न होने लगता था। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्कन्दक मुनि का शरीर तप के कारण अत्यन्त क्षीण हो गया था, उसी प्रकार धन्य अनगार का शरीर भी क्षीण कृश एवं निर्बल हो गया था। किन्तु शरीर क्षीण होने पर भी उनकी आत्मिक-दीप्ति बढ़ रही थी। उनकी अवस्था ऐसी हो गई थी जैसे भस्म से पाच्छादित अग्नि होती है। उनका आत्मा तप के तेज से और उत्पन्न कान्ति से अलौकिक सुन्दरता धारण कर रहा था / वे आत्मिक दीप्ति से देदीप्यमान थे। इस सूत्र में 'उन्भडघडमुहे त्ति' पद की व्याख्या वत्तिकार ने इस प्रकार की है-'उद्भटंविकरालं, क्षीणप्राय-दशनच्छदत्वाद् घटकस्येव मुखं यस्य स तथा।' इस कथन से मुख पर मुख-पत्ती बंधी हुई सिद्ध नहीं होती ? ऐसी शंका उपस्थित होती है। समाधान में यह है कि यहाँ पर सूत्रकार का तात्पर्य केवल तप के कारण क्षीण शरीर के वर्णन से ही है, धर्मोपकरणों के वर्णन से नहीं / यदि वे शरीर सम्बन्धी अन्य धर्मोपकरणों का वर्णन करते और मुखवस्त्रिका का न करते तो यह शङ्का उपस्थित हो सकती थी। परन्तु यहाँ तो किसी भी उपकरण का वर्णन नहीं किया गया है / अतः स्पष्ट है कि यहाँ सूत्रकार को उनकी शरीर-निरपेक्ष तीव्रतर तपश्चर्या का और उसके कारण शरीर के अंगोपांगों पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन करना ही अभिप्रेत है। यदि ऐसा न माना जाय तो उनके कटि आदि अङ्गों के वर्णन के साथ चौलपट्ट आदि का भी वर्णन अवश्य मिलता / अतएव मुख अथवा होठों की कृशता आदि के वर्णन से उनके मुख पर मुखवस्त्रिका का अभाव किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होता। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40] [ अनुत्तरौपपातिकदशा भगवान् महावीर द्वारा प्रशंसा १६-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे / परिसा निग्गया। सेणिए निग्गए। धम्मकहा / परिसा पडिगया। तए णं से सेणिए राया समणस्स भगवत्रो महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-~ इमासि णं भंते ! इंदभूइ-पामोक्खाणं चोद्दसण्हं समणसाहस्सीणं कयरे अणगारे महादुक्करकारए चेव महाणिज्जरयराए चेव ? एवं खलु सेणिया! इमासि इंदभूइ-पामोक्खाणं चोदसम्हं समणसाहस्सीणं धण्णे अणगारे महादुक्करकारए चेव महाणिज्जरयराए चेव / ___ से केणोणं भंते ! एवं वुच्चइ इमासि जाव [इमासि इंदभूइ-पानोक्खाणं चोद्दसण्हं समणसाहस्सीणं] धण्णे अणगारे महादुक्करकारए चेव महाणिज्जरयराए चेव ? एवं खलु सेणिया! तेणं कालेणं तेणं समएणं कायंदी नामं नयरी जाव [धण्णे दारए] उप्पि पासायडिसए विहरइ। तए णं अहं अण्णया कयाई पुवाणपुवीए चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे जेणेव कायंदी नयरी जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागए / उवागमित्ता प्रहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हामि संजमेणं जाव [तवसा अप्पाणं भावेमाणे] विहरामि / परिसा निग्गया, तहेव जाव' पव्वइए जाव' बिलमिव जाव' श्राहारेइ / धण्णस्स णं अणगारस्स पादाणं शरीरवण्णो सब्बो जाव उसोभेमाणेउवसोभेमाणे चिठ्ठइ। __ से तेण?णं सेणिया! एवं बुच्चइ इमासि चउदसण्हं समणसाहस्सीणं धण्णे अणगारे महादुक्करकारए महाणिज्जरयराए चेव / उस काल और उस समय में राजगृह नामका नगर था / गुणशिलक चैत्य था / श्रोणिक वहां का राजा था। उस काल और उस समय में, श्रमण भगवान महावीर पधारे। परिषदा निकली। राजा श्रेणिक भी निकला। धर्मकथा हई। परिषदा वापिस चली गई। अनन्तर उस श्रोणिक राजा ने श्रमण भगवान् महावीर के सान्निध्य में धर्म को सुनकर, विचार कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन किया, नमस्कार किया / वन्दन नमस्कार करके, भगवान् से इस प्रकार कहा ‘भंते ! आपके इन इन्द्रभूति-प्रमुख चौदह हजार श्रमणों में कौन अनगार महादुष्कर-कारक है, एवं महानिर्जराकारक है ?' भगवान ने उत्तर दिया-श्रोणिक ! इन इन्द्रभूति-प्रमुख चौदह हजार श्रमणों में धन्य अनगार ही महादुष्करकारक है और महानिर्जरकारक है / 1 अणुत्तरोववाइयदसा वर्ग 3, सूत्र 4. 2. अणुत्तरोबवाइयदसा वर्ग 3, सूत्र 4-5-6. 3. अणुत्तरोबवाइयदसा वर्ग 3, सूत्र 7.. 4. अणुत्तरोववाइयदसा बर्ग 3, सूत्र 7 से 15 तक / Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 41 तृतीय वर्ग] श्रेणिक ने पुनः प्रश्न किया-भंते ! किस दृष्टि से अापने यह कहा कि इन इन्द्रभूति प्रमुख चौदह हजार श्रमणों में धन्य अनगार ही महादुष्करकारक है, महानिर्जराकारक है ? उत्तर में भगवान ने इस प्रकार कहा-श्रोणिक ! उस काल और उस समय में, काकन्दी नामकी नगरी थी। यावत् वहाँ ऊँचे महलों में धन्य कुमार भोगों में लीन था। अनन्तर मैं एक अनुक्रम से चलता हुआ, एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विहार करता हुआ, जहाँ काकन्दी नगरी थी और जहाँ पर सहस्राम्रवन उद्यान था वहाँ आया। आकर यथाप्रतिरूप (साधुजनोचित) स्थान की याचना की। संयम यावत् तप से भावित होकर रहा / परिषदा निकली, मार प्रवजित या। यावत वह अनासक्ति से प्रहार करता था। धन्य अनगार के पैर से लेकर मस्तक तक सारे शरीर का वर्णन पूर्ववत् भगवान ने श्रेणिक को कह सुनाया, ऐसा समझ लेना चाहिए, यावत् वह तप के प्रखर तेज से सुशोभित हो रहा है / श्रेणिक ! इस दृष्टि से मैं यह कहता हूँ कि इन इन्द्रभूति-प्रमुख चौदह हजार श्रमणों में धन्य अनगार महादुष्करकारक है और महानिर्जराकारक है। धन्य श्रेणिक द्वारा धन्य मुनि को स्तुति १७–तए णं से सेणिए राया समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए एयम? सोच्चा निसम्म हट्ठ जाव [तु8 ] समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो पायाहिणपयाहिणं करेइ, करित्ता, बंदई नमसइ / वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव धण्णे अणगारे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता धण्णं प्रणगारं तिक्खुत्तो आयाहिण-पायाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ नमसइ / वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी "धण्णे सि णं तुमं देवाणुपिया! सुपुणे सुकयत्ये कयलक्खणे सुलद्धे णं देवाणुप्पिया ! तव माणुस्सए जम्मजीवियफले"-त्ति कटु वंदइ, नमसइ / वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ / वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए, तामेव दिसं पडिगए। तदनन्तर श्रेणिक राजा ने श्रमण भगवान् महावीर से इस अर्थ को सुन कर, उस पर विचार कर एवं तुष्ट होकर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार प्रदक्षिणा की, वन्दन किया तथा नमस्कार किया। वन्दन करके तथा नमस्कार करके जहाँ धन्य अनगार थे, वहाँ अाया। प्राकर, धन्य अनगार की प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दन किया, नमस्कार किया। वन्दन करके, नमस्कार करके वह इस प्रकार कहने लगा - "हे देवानुप्रिय ! आप धन्य हो। पाप पुण्यशाली हो। आप कृतार्थ हो। आप सुकृतलक्षण हो ! हे देवानुप्रिय ! आपने मनुष्य-जन्म और मनुष्य-जीवन को सफल किया।" यह कह कर उसने धन्य अनगार को वन्दन किया, नमस्कार किया। बन्दन करके, नमस्कार करके, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, पुन: वहाँ पहुँचा। पहुँच कर श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन तथा नमस्कार किया। वन्दन तथा नमस्कार करके जिस दिशा से पाया था, उसी दिशा की ओर चला गया। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] [ अनुत्तरौपपातिकशा विवेचन--इस सूत्र का अर्थ मूल पाठ से ही स्पष्ट है। फिर भी वक्तव्य इतना अवश्य है कि जिस में जो गुण हों उनका निःसङ्कोच-भाव से वर्णन करना चाहिए। और गुणवान् व्यक्ति का धन्यवाद आदि से उत्साह बढ़ाना चाहिए, जैसे श्रमण भगवान् महावीर ने किया। उन्होंने धन्य अनगार के अति उग्रतर तप का यथातथ्य वर्णन किया और उसकी सराहना की।। __ इस सब वर्णन से दूसरी शिक्षा हमें यह मिलती है कि एक बार जब संसार से ममत्व-भाव त्याग दिया तो सम्यक् तप के द्वारा प्रात्म-शुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिए। क्योंकि तपश्चरण ही कर्म-निर्जरा का एकमात्र प्रधान उपाय है / यही संसार के सुखों को त्यागने का फल है। जो व्यक्ति साधु बन कर भी ममत्व में ही फंसा रहे उसको उस त्याग से किसी प्रकार की भी सफलता की आशा नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने से तो वह कहीं का नहीं रहता और उसके इह-लोक और पर-लोक दोनों ही बिगड़ जाते हैं। धन्य अनगार ने हमारे सामने एक आदर्श उदाहरण उपस्थित किया उन्होंने जब एक बार गृहस्थ के सारे सुखों को त्याग कर साधु-वृत्ति अंगीकार कर ली तो उसको सफल बनाने के लिये उत्कृष्ट से उत्कृष्ट तप किया और मुनिजनों को अपने कर्तव्य द्वारा बता दिया कि किस प्रकार तप के द्वारा प्रात्म-शुद्धि होती है और कैसे उक्त तप से प्रात्मा सुशोभित किया जाता है / तीसरी शिक्षा जो हमें इससे मिलती है, वह यह कि जब किसी व्यक्ति की स्तुति करनी हो तो उस में वास्तव में जितने गुण हों उन्हीं का वर्णन करना चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि जितने गुण उस व्यक्ति में विद्यमान हों उन्हीं को लक्ष्य में रख कर स्तुति करना उचित है न कि और अविद्यमान गुणों का आरोपण करके भी। क्योंकि ऐसी स्तुति कभी-कभी हास्यास्पद बन जाती है। अतः झूठी प्रशंसा कर निरर्थक ही किसी को बाँसों पर नहीं चढ़ाना चाहिए। अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा से प्रशंसनीय व्यक्ति को प्रात्म को प्रात्मभ्रान्ति हो सकती है, उसके विकास की गति अवरुद्ध हो सकती है। यही तीन शिक्षाएँ हैं, जो हमें इस सूत्र से मिलती हैं। धन्य मुनि वास्तव में यथार्थनामा सिद्ध हुए / स्वयं तीर्थंकर देव अपने मुखारविन्द से जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करें उससे अधिक धन्य अन्य कौन हो सकता है ? धन्य अनगार का सर्वार्थसिद्ध-गमन १८-तए णं तस्स धण्णस्स अणगारस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं० इमेयारूवे प्रज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं जाव [तवोक्कम्मेणं धमणिसंतए जाए] जहा खंदो तहेव चिता। आपुच्छणं / थेरेहि सद्धि विउलं दुरूहइ / मासिया संलेहणा। नवमासा परियाओ जाव [पाउणिता] कालमासे कालं किच्चा उड्ड चंदिम जाव [सूर-गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं जाव] नवयगेवेज्जे विमाण-पत्थडे उड्ड दूरं बोईवइत्ता सम्वट्ठसिद्ध विमाणे देवत्ताए उनवणे / थेरा तहेव प्रोयरंति जाव' इमे से आयारभंडए। भंते ! त्ति भगवं गोयमे तहेव आपुच्छति, जहा खंदयस्स भगवं वागरेइ, जाव२ सव्वट्ठसिद्ध विमाणे उववष्णे। 1. अणुत्तरोववाइयदशा, वर्ग 1. सूत्र 4. 2. अणुत्तरोक्वाइयदशा वर्ग 1, सूत्र 4. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग ] "धण्णस्स णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णता?" "गोयमा ! तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता।" "से णं भंते ! तानो देवलोगानो कहि गच्छिहिइ ? कहि उववज्जिहिइ ?" "गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ।" तं एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स अज्झयणस्स प्रयम? पण्णत्ते। पढमं प्रज्झयणं समत्त / तत्पश्चात् किसी दिन रात्रि के मध्य भाग में धन्य अनगार के मन में धर्म-जागरिका (धर्मविषयक विचारणा) करते हुए ऐसी भावना उत्पन्न हुई मैं इस प्रकार के उदार तपःकर्म से शुष्क-नीरस शरीर वाला हो गया हूँ, इत्यादि यावत् जैसे स्कन्दक ने विचार किया था, वैसे ही चिन्तना की, आपृच्छना की। स्थविरों के साथ विपुलगिरि पर आरुढ हुए, एक मास की संलेखना की / नौ मास की दीक्षापर्याय यावत् पालन कर काल करके चन्द्रमा से ऊपर यावत् सूर्य, ग्रह नक्षत्र तारा नव वेयक विमान-प्रस्तटों को पार कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। धन्य मुनि के स्वर्ग-गमन होने के पश्चात् परिचर्या करने वाले स्थविर मुनि विपुल पर्वत से नीचे उतरे यावत् 'धन्य मुनि के ये धर्मोपकरण हैं उन्होंने भगवान् से इस प्रकार कहा / भगवान् गौतम ने भंते !' ऐसा कह कर भगवान् से उसी प्रकार प्रश्न किया, जिस प्रकार स्कन्दक के अधिकार में किया था। भगवान् महावीर ने उसका उत्तर दिया, यावत् धन्य अनगार सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप से उत्पन्न हुआ है। "भंते ! धन्य देव की स्थिति कितने काल की कही है ?" "हे गौतम ! तेतीस सागरोपम की स्थिति कही है।" "भंते ! उस देवलोक से च्यवन कर धन्य देव कहाँ जायगा, कहाँ उत्पन्न होगा ?" "हे गौतम ! महाविदेह वर्ष से सिद्ध होगा।" श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा--"हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर ने तृतीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है।" प्रथम अध्ययन समाप्त / / विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में धन्य अनगार की अन्तिम समाधि का वर्णन किया गया है और उसके लिए सूत्रकार ने धन्य अनगार की स्कन्दक संन्यासी से उपमा दी है। ज्ञान ध्यान तप त्याग में लीन बने हुए धन्य अनगार को एक समय मध्य-रात्रि में जागरण करते हुए विचार उत्पन्न हुआ कि मुझ में अभी तक उठने की शक्ति विद्यमान है और शासनपति श्रमण भगवान् महावीर भी अभी तक Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44] [ अनुत्तरौपपातिकदशा विद्यमान हैं, अतः यह सब अनुकूल सुविधाएँ रहते ही मैं इस जीवन की चरम साधना क्यों न कर लू ! इस विचार के आते ही उन्होंने प्रातःकाल श्रमण भगवन्त की आज्ञा प्राप्त की और आत्मविशुद्धि के लिये पञ्च महाव्रतों का पुनः पाठ पढ़ा तथा उपस्थित श्रमणों और श्रमणियों से क्षमा याचना कर तथा-रूप स्थविरों के साथ शनैः शनैः विपुलगिरि पर चढ़ गये। वहाँ पहुँच कर उन्होंने कृष्ण-वर्णी पृथिवी-शिला-पट्ट पर प्रतिलेखना कर दर्भ का संस्तारक बिछाया और पद्मासन लगाकर बैठ गये। फिर दोनों हाथ जोड़े और उनसे शिर पर आवर्तन किया। इस प्रकार पूर्व दिशा की ओर मुख कर 'नमोत्थुणं' के पाठ द्वारा पहले सब सिद्धों को नमस्कार किया, फिर उसीसे श्री श्रमण भगवान् महावीर को भी नमस्कार किया। कहा--'भगवन् ! वहाँ विराजमान आप सब कुछ देख रहे हैं. अतः मेरी वन्दना स्वीकार करें। मैंने पहले ही आपके समक्ष अष्टादश पापों का त्याग किया था अब मैं आप की ही साक्षी से उनका फिर से जीवन भर के लिये परित्याग करता हूँ। साथ ही साथ अव अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य पदार्थों का भी आजीवन परित्याग करता हूँ। अपने संयम सहायक शरीर का भी अन्तिम रूप से व्युत्सर्ग करता हैं। अब पादपोपगमन नामक अनशन धारण करता हूँ।' इस प्रकार श्री श्रमण भगवान को वन्दना कर और उनको साक्षी बना कर संथारा ग्रहण किया और उसी के अनुसार विचरने लगे। उन्होंने सामायिक प्रादि से लेकर एकादश अगों का अध्ययन कि नव मास पर्यन्त दीक्षापर्याय में रहे और एक मास तक अनशन व्रत में व्यतीत किया। साठभक्त अशनछेदन कर आलोचना-प्रतिक्रमणपूर्वक उत्तम समाधि-मरण प्राप्त किया। यहां कहा गया है कि धन्य मुनि ने साठ भक्तों का परित्याग किया तो जिज्ञासा हो सकती है कि भक्त किसे कहते हैं ? उत्तर यह है कि प्रत्येक दिन के दो भक्त अर्थात् पाहार या भोजन होते हैं। इस प्रकार एक मास के साठ भक्त हो जाते हैं / इस विषय में वृत्तिकार का कहना है कि-प्रतिदिन "भोजनद्वयस्य परित्यागात्त्रिशता दिनैः षष्ठिभक्तानां त्यक्ता भवति / " इस प्रकार जव धन्य अनगार ने एक मास पर्यन्त अनशन धारण किया तो साठ भक्तों के परित्याग में कोई सन्देह नहीं रहता। तत्पश्चात् शरीर का परित्याग कर धन्य अनगार सर्वोत्कृष्ट दिव्यलोक-सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए इत्यादि कथन स्पष्ट है / जब उनके साथ गए स्थविरों ने देखा कि धन्य अनगार अपनी इह-लीला संवरण कर स्वर्ग को प्राप्त हो गये हैं तो उन्होंने परिनिर्वाण-प्रत्ययक कायोत्सर्ग किया अर्थात् 'परिनिर्वाणम-मरणं यत्र, यच्छरीरस्य परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव, तदेव प्रत्ययो-हेतुर्यस्य स परिनिर्वाणप्रत्ययः' भाव यह है कि मृत्यु के अनन्तर जो ध्यान किया जाता है उसको परिनिर्वाण-प्रत्यय कायोत्सर्ग कहते हैं / मृत साधु के शरीर का परिप्ठापन करना भी परिनिर्वाण कहा जाता है। यहाँ समीपस्थ स्थविरों ने धन्य अनगार की मृत्यु देखकर यही कायोत्सर्ग (ध्यान) किया। फिर उनके वस्त्र-पात्र आदि उपकरण उठाकर लाये और श्रमण भगवान् महावीर के पास आकर और उनको धन्य अनगार के समाधि-मरण का समस्त वृत्तान्त सुना दिया। उनके गुणों का गान किया / उनके उपराम-भाव की प्रशंसा की तथा उनके वस्त्र आदि उपकरण श्री भगवान् को सौंप दिए। उस समय गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की और उनसे प्रश्न किया कि हे भगवन् ! अापका विनीत शिष्य धन्य अनगार समाधिमरण प्राप्त कर कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुमा है ? वहाँ कितने काल तक उसकी स्थिति होगी और तदनन्तर वह कहाँ उत्पन्न होगा? उत्तर में Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग] श्रमण भगवान् ने कहा--हे गौतम ! मेरा विनयो शिष्य धन्य अनगार समाधि-मरण प्राप्त कर सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुया है। वहां उसको तेतीस सागरोपम की स्थिति है। वहाँ से च्युत होकर वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर मोक्ष प्राप्त करेगा, अर्थात् सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर परिनिर्वाण प्राप्त कर सर्व दुःखों का अन्त कर देगा / __इस सूत्र से हमें यह शिक्षा प्राप्त होती है कि प्रत्येक साधक को आलोचना आदि क्रिया करके समाधि-पूर्वक मृत्यु का सामना करना चाहिए जिससे वह अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक सच्चा पाराधक रहे और साक्षात् या परम्परा से मोक्षाधिकारी बन सके / Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन सुनक्षत्र १६---"जइ णं भंते ! जाव" उखेवनो। एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं कायंदी नयरी। जियसत्तू राया। तत्थ णं कायंदीए नयरीए भद्दा नाम सत्यवाही परिवसइ, अट्टा। तीसे णं भद्दाए सत्थवाहीए पुत्ते सुणक्खत्ते नामं दारए होत्था अहीण० जाव' सुरुवे / पंचधाइपरिक्खित्ते, जहा धण्णो तहा बत्तीसओ दाओ जाव' उपि पासायडिसए विहरइ / तेणं कालेणं तेणं समएणं समोसरणं / जहा धण्णो तहा सुणक्खत्तो वि निग्गयो / जहा थावच्चापुत्तस्स तहा निक्खमणं जाव प्रणगारे जाए ईरियासमिए जाव' बंभयारी। तए णं से सूणक्खत्ते अणगारे जं चेव दिवसं समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए मुडे जाव' पम्वइए तं चेव दिवसं अभिग्गहं। तहेव जाव' बिलमिव जाव प्राहारेइ, संजमेणं जाव' विहरइ / जाव बहिया जणवय-विहारं विहरह। एक्कारस अंगाई अहिज्जइ जाव' संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / तए णं से सुणक्खत्ते तेणं उरालेणं जाव१२ जहा खंदो। जम्बू अनगार ने आर्य सुधर्मा से पूछा:-भन्ते ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने तीसरे वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा है तो दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? आर्य सुधर्मा ने जम्बू से इस प्रकार कहा-हे जम्बू ! उस काल और उस समय में काकन्दी नाम की एक मगरी थी / वहाँ का राजा जितशत्रु था। उस काकन्दी नगरी में भद्रा नाम की एक सार्थवाही रहती थी। वह सम्पन्न यावत् अपरिभूता थी। उस भद्रा सार्थवाही के सुनक्षत्र नाम का एक पुत्र था। वह अहीन अंगोपांग वाला यावत् सुरूप था। पञ्चधात्रीपरिपालित था / धन्यकुमार की तरह उसे भी वत्तीस का दहेज दिया गया यावत् वह महलों में भोगों में लीन होकर रहने लगा। उस काल और उस समय में भगवान् महावीर वहाँ पधारे। धन्यकुमार की तरह सुनक्षत्र भी धर्मदेशना श्रवण करने के लिए निकला। यावच्चापुत्र की तरह निष्क्रमण हुआ यावत् वह अनगार हो गया। ई-समित यावत् ब्रह्मचारी हो गया। अनन्तर वह सुनक्षत्र, जिस दिन भगवान् महावीर के पास मुण्डित हुआ यावत् प्रव्रजित हुआ उसी दिन उसने अभिग्रह (प्रतिज्ञा) किया, यावत् अनासक्त होकर प्राहार किया। संयम में यावत् स्थिर होकर विचरण किया। बाहर जनपदों में विहार किया। ग्यारह अङ्गों का अध्ययन किया। 1. अणुत्तरोववाइय दशा वर्ग 1, सूत्र 2. 3. अणुत्तरोववाइय दशा वर्ग 3, सूत्र 2,3 5. अणुत्तरोववाइय दशा वर्ग 3, सूत्र 5. 7-8. अणुत्तरोववाइय दशा वर्ग 3, सूत्र 7. 10. अणुत्तरोवया इय दशा वर्ग 3, सूत्र 9. 12. अणुत्तरोववाइय दशा वर्ग 3, सूत्र 9. 2. अणत्तरोववाइय दशा वर्ग 3, सूत्र 2. 4. अणुत्तरोववाइय दशा वर्ग 3, सूत्र 4-5. 6. अणत्तरोववाइय दशा वगं 3, सत्र 5. 9. अणत्तरोव वाइय दशा वर्ग 3, सूत्र 7. 11. अणुत्तरोववाइय दशा वर्ग 3. सूत्र 9. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग] [47 संयम तथा तप से प्रात्मा को भावित कर विचरण करने लगा। अनन्तर वह सुनक्षत्र मुनि उस उदार तप से स्कन्दक की तरह कृश हो गया। विवेचन-यहां से सूत्रकार तीसरे वर्ग के शेष अध्ययनों का वर्णन करते हैं। इस सूत्र में सुनक्षत्र अनगार का वर्णन किया गया है। सूत्र का अर्थ मूलपाठ से ही स्पष्ट है। उदाहरण के लिये सूत्रकार ने थावच्चापूत्र और धन्य अनगार को लिया है। पाठकों को थावच्चापत्र के विषय में जानने के लिये 'ज्ञाताधर्म-कथाडसत्र के पांचवें अध्ययन का अध्ययन करना चाहिए। धन्य अनगार का वर्णन इसी वर्ग के प्रथम अध्ययन में आचुका है। _इस सूत्र में प्रारम्भ में ही “उक्खेवप्रो-उत्क्षेपः" पद पाया है। उसका तात्पर्य यह है कि इसके साथ के पाठ का पिछले सूत्रों से आक्षेप कर लेना चाहिए अर्थात् उसके स्थान पर निम्न-लिखित पाठ पढ़ना चाहिए : जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेरणं जाव संपत्तणं नवमस्स अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स पढमस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते नवमस्स गं भंते ! अंगस्स अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स वितियस्स अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णते ? इस प्रकार का पाठ प्रायः प्रत्येक अध्ययन के प्रारंभ में आता है। इसे 'उक्खेवरो या उत्क्षेप' कहते हैं, जिसका प्राशय है भूमिका या प्रारंभ ! पाठ को संक्षिप्त करने के लिये यहाँ 'उक्खेवो' पद दे दिया जाता है / दूसरे सूत्रों में भी इसी शैली का अनुसरण किया गया है। जिस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर के पास दीक्षित होकर धन्य अनगार ने पारणा के दिन ही आचाम्लव्रत धारण किया था इसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार ने भी किया। जिस प्रकार 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' के द्वितीय शतक में स्कन्दक अनगार ने श्रमण भगवान के पास दीक्षित होकर तप द्वारा अपना शरीर कृश किया था उसी प्रकार सुनक्षत्र अनगार का शरीर भी तप से कृश हो गया। इस सूत्र से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जब कोई अपना समीचीन लक्ष्य स्थिर कर ले तो उसकी प्राप्ति के लिये उसको सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिये और दृढ संकल्प कर लेना चाहिये कि वह उस पद की प्राप्ति करने में बड़े से बड़े कष्ट को भी तुच्छ समझेगा और अपने प्रयत्न में कोई भी शिथिलता नहीं ग्राने देगा। जब तक कोई ऐसा दृढ़ संकल्प नहीं करता तब तक वह लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता। किन्तु जो अपने ध्येय की प्राप्ति के लिये एकाग्र चित्त से प्रयत्न करता है वह अवश्य और शीघ्र ही सफलता प्राप्त कर लेता है / 20 तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए / सेणिए राया। सामो समोसढे / परिसा निग्गया। राया निग्गयो। धम्मकहा / राया पडिगो / परिसा पडिगया। तए णं तस्स सुणक्खत्तस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्म-जागरियं जहा खंदयस्स / बहु वासा परियानो। गोयम-पुच्छा। तहेव कहेइ जाव सम्वदसिद्ध विमाणे देवत्ताए उबवणे / तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई / से णं भंते ! जाव महाविदेहे सिज्झिहिइ। उस काल और उस समय में राजगह नाम का एक नगर था / गुणशिलक नामक चैत्य था / Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] [ अनुत्तरौपपातिकदशा श्रेणिक राजा था / भगवान् महावीर पधारे / परिषदा निकली। राजा भी निकला। धर्मकथा हुई। राजा वापिस चला गया। परिषदा भी वापिस चली गई। सुनक्षत्र ने प्रव्रज्या अंगीकार की। अनन्तर सुनक्षत्र ने अन्य किसी समय मध्य रात्रि में धर्मजागरण करते हुए विचारणा की, जिस प्रकार स्कन्दक ने की थी। बहुत वर्षों तक संयम का पालन किया / गौतम की पृच्छा / यावत् सुनक्षत्र अनगार सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए / तेतीस सागरोपम की स्थिति हुई। - गौतम ने पूछा--"भगवन् ! वह सुनक्षत्रदेव देवलोक से च्यवन कर कहाँ पैदा होगा ?" यावत् 'गौतम ! महाविदेह वर्ष से सिद्ध होगा।' विवेचन—इस सूत्र में 'पूर्वरात्रापररात्रकाल' शब्द आया है जिसका अर्थ मध्य-रात्रि है / यही समय एक ऐसा है जब वातावरण एकदम प्रशान्त रहता है। अतः धर्म-जागरण करने वालों का चित्त इस समय एकाग्र हो जाता है और उसमें पूर्ण स्थिरता विद्यमान होती है। ऐसे ही समय में विचारधारा बहुत स्वच्छ रहती है और मस्तिष्क में बहुत ऊंचे विचार उत्पन्न होते हैं। यही कारण है कि धन्य आदि अनगारों के उस समय के विचार उनको सन्मार्ग की ओर ले गये / Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3-10 अध्ययन इसिदास आदि २१---एवं सुणक्खत्त-गमेणं सेसा वि अट्ठ भाणियव्वा / नवरं प्राणुपुब्बीए दोण्णि रायगिहे, दोणि साएए, दोणि वाणियग्गामे / नवमो हस्थिणापुरे। दसमो रायगिहे / नवण्हं भद्दाओ जणणीनो, नवण्हं वि बत्तीसग्रो दाओ। नवण्हं णिक्खमणं थावच्चायुत्तस्स सरिसं वेहल्लस्स पिया करेइ (णिक्खमणं)। छम्मासा वेहल्लए / नव धण्णे / सेसाणं बहू वासा / मासं संलेहणा। सव्वदृसिद्ध / सम्वे महाविदेहे सिज्झिस्संति / एवं दस अज्झयणाणि / निक्षेप इस प्रकार सुनक्षत्र की तरह शेष पाठ कुमारों का वर्णन भी समझ लेना चाहिए। विशेष यह है कि अनुक्रम से दो राजगृह में, दो साकेत में, दो वाणिज्य ग्राम में, नववाँ हस्तिनापुर में और दसवां राजगह में उत्पन्न हुआ / नौ की जननी भद्रा थी। नौ को बत्तीस-बत्तीस का दहेज दिया गया। नौ का निष्क्रमण थावच्चापुत्र की तरह जानना चाहिए / वेहल्ल का निष्क्रमण उस के पिता ने किया। छह मास की दीक्षा पर्याय वेहल्ल की, नौ मास की दीक्षा पर्याय धन्य की रही। शेष की पर्याय बहुत वर्षों की रही। सब की एक मास की संलेखना। सर्वार्थसिद्ध विमान में उपपात (जन्म)। सब महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध होंगे। इस प्रकार दश अध्ययन पूर्ण हुए। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र उपसंहार-रूप है। इस सूत्र से सर्वप्रथम यही बोध मिलता है कि प्रत्येक शिष्य को देव-गुरु-धर्म के प्रतिपूर्ण रूप से अनुराग होना चाहिए और गुरु-भक्ति द्वारा सद्गुणों को प्रकट करना चाहिए / जैसे अन्तिम सूत्र में श्रीसुधर्मा स्वामी ने, उपसंहार करते हुए, श्रमण भगवान् महावीर के सद्गुणों को प्रकट किया है। वे अपने शिष्य जम्बु से कहते हैं कि हे जम्बू ! इस मूल को उन भगवान् ने प्रतिपादित किया है जो आदिकर हैं अर्थात् श्र त-धर्म-सम्बन्धी शास्त्रों के अर्थ प्रणेता हैं, तीर्थङ्कर हैं अर्थात् (तरन्ति येन संसार-सागरमिति तीर्थम-प्रवचनम्, तदव्यतिरेकादिह सङ्घः-तीर्थम्, तस्य करणशीलत्वात्तीर्थक रस्तेन) जिसके द्वारा लोग संसार रूपी सागर से पार हो जाते हैं उसको तीर्थ कहते हैं। वह तीर्थ भगवत्प्रवचन है और उससे अभिन्न होने के कारण संघ भी तीर्थ कहलाता है। उसकी स्थापना करने वाले महापुरुष ने ही इस सूत्र के अर्थ का प्रकाश किया है। यह प्रकट करके आगम की प्रामाणिकता प्रकट की है। इसी उद्देश्य से सुधर्मा स्वामी भगवान् के 'नमोत्थु णं' में प्रदर्शित सब गुणों का दिग्दर्शन यहाँ कराते हैं। जब कोई व्यक्ति सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है उस समय वह अनन्त और अनुपम गुणों का धारण करने वाला हो जाता है। उसके पथ का अनुसरण करने वाला भी एक दिन उसी रूप में परिणत हो सकता है / अत: प्रत्येक व्यक्ति को उनका अनुकरण यथाशक्ति अवश्य करना चाहिए / भगवान् हमें संसार-सागर में अभय प्रदान करने वाले हैं और शरण देने वाले हैं अर्थात् (शरणम्-त्राणम्, अज्ञानोपहतानां तद्रक्षास्थानम्, तच्च परमार्थतो निर्वाणम्, तद्ददाति इति शरणदः) अज्ञान-विमूढ व्यक्तियों की एकमात्र रक्षा के स्थान निर्वाण को देने वाले हैं, Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50] [ अनुत्तरौपपातिकदशा जिसको प्राप्त कर आत्मा सिद्ध-पद में अपने प्रदेश में स्थित हो जाता है। भगवान को 'अप्रतिहतज्ञान-दर्शन-धर' भी बताया गया है / उसका अभिप्राय यह है (अप्रतिहते कटकुड्यपर्वतादिभिरस्खलितेऽविसंवादके वा क्षायित्वाद् वरे-प्रधाने ज्ञान-दर्शने केवललक्षणे धारयतीति-अप्रतिहतवरज्ञान-दर्शनधरस्तेन) अर्थात् किसी प्रकार से भी स्खलित न होने वाले सर्वोत्तम केवलज्ञान और केवलदर्शन को धारण करने वाले सर्वज्ञ और सर्वदर्शी भगवान की जब शुद्ध चित्त से भक्ति की जायेगी तो ग्रात्मा अवश्य ही निर्वाण-पद प्राप्त कर तन्मय हो जायेगा / ध्यान रहे कि इस पद की प्राप्ति के लिये सम्यग्ज्ञान-दर्शन और चारित्र के सेवन की अत्यन्त आवश्यकता है। जब हम किसी व्यक्ति की भक्ति करते हैं तो हमारा ध्येय सदैव उसीके समान बनने का होना चाहिए / तभी हम उसमें सफल हो सकते हैं। पहले कहा जा चुका है कि कर्म ही संसार का कारण हैं। उनका क्षय करना मुमुक्षु का पहला ध्येय होना चाहिए। जब तक कर्म अवशिष्ट रहते हैं तब तक निर्वाण-रूप अलौकिक पद की प्राप्ति नहीं हो सकती। उन का क्षय या तो विपाकानुभव (उपभोग) से होता है या तप रूपी अग्नि के द्वारा। उपभोग के ऊपर ही निर्भर रहा जाय तो उन का सर्वथा नाश कभी नहीं हो सकता। क्योंकि उनके उपभोग के साथ-साथ नये-नये कर्म सञ्चित होते रहते हैं। अत: तपोऽग्नि से ही उन का क्षय करना चाहिए। अतः स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन के साथसाथ सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्र का तथा विशेषतः तप का प्रासेवन आवश्यक है। इस प्रकार ज्ञान और चारित्र की सहायता से धन्य अनगार और उन के समान अन्य महापुरुष या तो सम्पूर्ण कर्मों के क्षीण होने पर मुक्ति प्राप्त करते हैं अथवा कुछ कर्म शेष रह जाएँ और आयुष्य समाप्त हो जाए तो अनुत्तर विमानों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। जो इन विमानों में उत्पन्न होते हैं वे अवश्य ही एक-दो भवों में मोक्ष-गामी होते हैं। अतएव प्रस्तुत आगम में उन्हीं महान् व्यक्तियों का वर्णन किया गया है, जो उक्त विमानों में उत्पन्न हुए हैं। इस सूत्र से अन्तिम शिक्षा यह प्राप्त होती है कि उक्त महषियों ने महाघोर तप करते हुए भी एकादशाङ्ग सूत्रों का अध्ययन किया। अत: प्रत्येक साधक को योग्यतापूर्वक शास्त्राध्ययन में प्रयत्नशील होना चाहिए, जिससे वह अनुक्रम से निर्वाण-पद की प्राप्ति कर सके ! निक्षेप ___२२---एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरणं आइगरणं तित्थगरणं सयंसंबुद्ध णं लोगणाहेणं लोगप्पदीवेणं लोगप्पज्जोयगरणं अभयदएणं सरणदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मवरचाउरतचक्कट्टिणा अप्पडिहय-वर-णाण-दसणधरणं जिणेणं जावएणं बुद्ध णं बोहएणं मुत्तेणं मोयएणं तिण्णेणं तारएणं, सिवं प्रयलं अरुयं प्रणतं अक्खयं अव्वाबाहं अपुणरावत्तयं सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्तेणं अणुत्तरोववाइयदसाणं तच्चस्स वग्गस्स अयम? पण्णत्ते। आर्य सुधर्मा ने कहा- "हे जम्बू ! धर्म की आदि करने वाले, धर्म-तीर्थ की स्थापना करने वाले, स्वयं ही सम्यग् बोध को पाने वाले, लोक के नाथ, लोक में प्रदीप, लोक में प्रद्योत करने वाले, अभय देने वाले, शरण के दाता, नेत्र देने वाले, धर्म-मार्ग के दाता, धर्म के दाता, धर्म के उपदेशक, धर्म के उत्तम आचरण द्वारा चार गति का अन्त करने वाले धर्म-चक्रवर्ती, अप्रतिहत तथा श्रेष्ठ ज्ञानदर्शन के धर्ता, स्वयं राग-द्वोष के विजेता, अन्यों को राग-द्वेष पर विजय दिलाने वाले, स्वयं बोध को Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग] पाने वाले तथा दूसरों को बोध देने वाले, स्वयं मुक्त तथा दूसरों को मुक्त करने वाले, स्वयं तिरे हुए तथा दूसरों को तारने वाले, तथा उपद्रव रहित, अचल, रोग-रहित, अन्त-रहित अक्षय, बाधा-रहित एवं पुनरागमन से रहित, सिद्धिगतिनामक स्थान को समीचीनता से प्राप्त करने वाले श्रमण भगवान् महावीर ने अनुत्तरौपपातिक दशा के तृतीय वर्ग का यह अर्थ कहा है। परिशेष अणुत्तरोववाइयदसाणं एगो सुयक्खंधो। तिणि धग्गा। ति चेव दिवसेसु उद्दिसिज्जति / तत्य पढमे वग्गे दस उद्देसगा। विइए वग्गे तेरस उद्देसगा। तइए वग्गे दस उद्देसगा। सेसं जहा नायाधम्मकहाणं तहा नेयन्वं / / अनुत्तरौपपातिक दशा का एक श्रु त-स्कन्ध है / तीन वर्ग हैं / तीन दिनों में उद्दिष्ट होता हैअर्थात् पढ़ाया जाता है। उसके प्रथम वर्ग में दश उद्देशक हैं, द्वितीय वर्ग में तेरह उद्देशक हैं, तृतीय वर्ग में दश उद्देशक हैं। शेष वर्णन जो प्रस्तुत अंग में साक्षात् रूप से नहीं कहा गया है, उसे ज्ञाताधर्मकथासूत्र के समान समझ लेना चाहिए / विवेचन--यहाँ कहना केवल इतना ही है कि प्रस्तुत आगम में बार-बार स्कन्दक अनगार की उदाहरण-रूप में उपस्थित किया गया है / उनका वर्णन हमें कहाँ से प्राप्त हो ? तथा थावच्चापुत्र के विषय में भी यही कहा जा सकता है। उत्तर यह है कि प्रथम अर्थात् स्कन्दक मुनि का वर्णन पञ्चम अङ्ग भगवती के द्वितीय शतक में पाया है और थावच्चापुत्र का वर्णन छठे अङ्ग के पञ्चम अध्ययन में है। यह 'अनुरोपपातिक सूत्र' नौवाँ अङ्ग है / अतः सूत्रकार ने उसी वर्णन को यहाँ पर दोहराना उचित न समझ कर केवल दोनों का उल्लेखमात्र करके बात समाप्त कर दी है। पाठकों को इनके विषय में पूरा ज्ञान प्राप्त करने के लिये उक्त सूत्रों का अवश्य अध्ययन करना चाहिये / यहां श्री श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म-कथा सुनने को जाना, वहाँ वैराग्य की उत्पत्ति, दीक्षामहोत्सव, परम उच्चकोटि का तपः कर्म, शरीर का कृश होना, उसी के कारण अर्ध रात्रि में धर्म गरण करते हा अनशन व्रत की भावना का उत्पन्न होता. अनशन कर सर्वार्थ-सिद्ध विमान में उत्पन्न होना, भविष्य में महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध-गति प्राप्त करना इत्यादि विषयों का संक्षेप में कथन किया गया है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट टिप्पण 7 कोष्ठक-प्रथम वर्ग, द्वितीय वर्ग एवं तृतीय वर्ग 1 पारिभाषिक शब्द-कोष [] अव्यय-पद-संकलना क्रिया-पद-संकलना शब्दार्थ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पण राजगृह राजगह, भारत का एक सुन्दर, समृद्ध और वैभवशाली नगर था। मगध जन-पद की राजधानी तथा जैन-संस्कृति और बौद्ध-संस्कृति का मुख्य केन्द्र था। इस पूण्यधाम पावन नगर में र ने 14 वर्षावास किये थे तथा दो-सौ से अधिक समवसरण हए थे। हजारों लाखों मानवों ने यहाँ पर भगवान् महावीर की वाणी श्रवण की थी और श्रावक-धर्म तथा श्रमण-धर्म स्वीकृत किया था। यह नगर प्राचीन युग में क्षितिप्रतिष्ठित नाम से प्रसिद्ध था, उसके क्षीण होने के बाद वहीं पर ऋषभपुर नगर वसा / उसके नष्ट होने पर कुशाग्रपुर नगर बसा / जब यह नगर भी जल गया तब राजा श्रोणिक के पिता राजा प्रसेनजित ने राजगह बसाया, जो वर्तमान में "राजगिर" नाम से प्रसिद्ध है। इसका दूसरा नाम गिरिव्रज भी था, क्योंकि इसके आस-पास पाँच पर्वत हैं। राजगिर बिहार प्रान्त में पटना से पूर्व-दक्षिण और गया से पूर्वोत्तर में स्थित है। बौद्ध ग्रन्थों में भी राजगृह का बार-बार उल्लेख उपलब्ध होता है। सुधर्मा ___ भगवान महावीर के पंचम गणधर, और जम्बू स्वामी के गुरु थे। उनका पूर्व परिचय इस प्रकार है-वे कोल्लाग संनिवेश के रहने वाले, अग्निवैश्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम धम्मिल, तथा माता का नाम भहिला था। वे वेद के प्रखर ज्ञाता और अनेक विद्यानों के परम विज्ञाता थे / पाँच-सौ शिष्यों के पूजनीय वन्दनीय और पादरणीय गुरु थे। जन्मान्तर-सादृश्यवाद में उनको विश्वास था / “पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पशवः पशुत्वम्' अर्थात् मरणोत्तर जीवन में पुरुष, पुरुष ही होता है, और पशु, पशु रूप में ही जन्म लेता है। साथ ही सुधर्मा को वेदों में जन्मान्तर वैसादृश्य-वाद के समर्थक वाक्य भी मिलते थे, जैसे—"शृगालो वै एष जायते, यः सपुरीषो दह्यते / सुधर्मा दोनों प्रकार के परस्पर विरुद्ध वाक्यों से संशय-ग्रस्त हो गये थे। भगवान् महावीर ने पूर्वापर वेद-वाक्यों का समन्वय करके जन्मान्तर-वैसादृश्य सिद्ध कर दिया। अपनी शंका का सम्यक् समाधान हो जाने पर सुधर्मा को भगवान् ने वेदवाक्यों से ही समझाया, उनकी भ्रान्ति का निवारण कर दिया। 50 वर्ष की आयु में उन्होंने दीक्षा ली, 42 वर्ष तक वे छद्मस्थ रहे / महावीरनिर्वाण के 12 वर्ष वाद वे केवली हुए, और 18 वर्ष केवली अवस्था में रहे। ___ गणधरों में सुधर्मा स्वामी का पांचवां स्थान था। वे सभी गणधरों से दीर्घ-जीवी थे। अतः भगवान् ने तो उन्हें गण-समर्पण किया ही था किन्तु अन्य गणधरों ने भी अपने-अपने निर्वाण समय पर अपने-अपने गण सुधर्मा स्वामी को समर्पित किए थे। पागम में प्राय: सर्वत्र सुधर्मा का उल्लेख मिलता है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अनुत्तरौपपातिकदशा जम्बू आर्य सुधर्मा के परम शिष्य तथा प्रार्य प्रभव के प्रतिबोधक / आगमों में प्रायः सर्वत्र जम्बू एक परम जिज्ञासु के रूप में प्रतीत होते हैं / जम्बू राजगृह नगर के समृद्ध, वैभवशाली-इभ्य-सेठ के पुत्र थे। पिता का नाम ऋषभदत्त और माता का नाम धारिणी था। जम्बू कुमार की माता ने जम्बू कुमार के जन्म से पूर्व स्वप्न में जम्बूवृक्ष देखा था, अत: पुत्र का नाम जम्बू कुमार रखा / सुधर्मा स्वामी की दिव्य वाणी से जम्बू कुमार के मन में वैराग्य जागा / अनासक्त जम्बू को माता-पिता के अत्यन्त प्राग्रह से विवाह स्वीकृत करना पड़ा और पाठ इभ्य-वर सेठों की कन्याओं के साथ विवाह करना पड़ा। विवाह की प्रथम रात्रि में जम्बू कुमार अपनी पाठ नव विवाहिता पत्नियों को प्रतिबोध दे रहे थे। उस समय एक चोर चोरी करने को आया / उसका नाम प्रभव था / जम्बू कुमार की वैराग्यपूर्ण वाणी श्रवण कर वह भी प्रतिबुद्ध हो गया। 501 चोर, 8 पत्नियां, पत्नियों के 16 माता-पिता, स्वयं के 2 माता-पिता और स्वयं जम्बू कुमार-इस प्रकार 528 ने एक साथ सुधर्मा के पास दीक्षा ग्रहण की। जम्बू कुमार 16 वर्ष गृहस्थ में रहे, 20 वर्ष छद्मस्थ रहे, 44 वर्ष केवली पर्याय में रहे। 80 वर्ष की आयु भोग कर जम्बू स्वामी अपने पाट पर प्रभव को स्थापित कर सिद्ध बुद्ध और मुक्त हुए / इस अवसर्पिणी काल के यही अन्तिम केवली थे / अंग साक्षात् जिनभाषित एवं गणधर-निबद्ध जैन सूत्र-साहित्य अंग कहलाता है। आचारांग से लेकर विपाकश्र त तक के ग्यारह अंग तो अभी तक भी विद्यमान हैं, परन्तु वर्तमान में बारहवाँ अंग अनुपलब्ध है, जिसका नाम 'दृष्टिवाद' है। 'दष्टिवाद'-चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु तथा दश पूर्वधर वज्रस्वामी के बाद में सारा पूर्व साहित्य अर्थात् ; सारा 'दृष्टिवाद' विच्छिन्न हो गया। अन्तकृत दशा यह आठवाँ अंग-सूत्र है, जिसमें अपनी प्रात्मा का अधिकाधिक विकास करके अपने वर्तमान जीवनकाल में ही सम्पूर्ण आत्म-सिद्धि का लाभ पाने वाले और अन्ततः मुक्त होने वाले साधकों को जीवन-चर्या का तपोमय सुन्दर वर्णन है / अनुत्तरौपपातिक दशा यह नवमा अंग-सूत्र है, जिसमें तेतीस महापुरुषों की तपोमय जीवन-चर्या का सुन्दर वर्णन है। धन्य अनगार की महती तपोमयी साधना का सांगोपांग वर्णन है। इस में वर्णित पुरुष अनुत्तरौपपाती हुए हैं, अर्थात् विजयादि अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए हैं, और भविष्य में एक भव अर्थात्-मनुष्य. भव पाकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होंगे। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-टिप्पण] [ 57 गुणशिलक (गुणशील)-चैत्य राजगृह नगर के बाहर ईशानकोण में एक चैत्य (उद्यान) था। राजगृह के बाहर अन्य बहुत से उद्यान होंगे, परन्तु भगवान् महावीर गुणशिलक उद्यान में ही विराजित होते थे। __ यहाँ पर भगवान् के समक्ष सैकड़ों श्रमण और श्रमणियाँ तथा हजारों श्रावक-श्राविकाएं बनी थीं। वर्तमान में 'गुणावा' जो नवादा स्टेशन से लगभग तीन मील पर है, प्राचीन काल का यही गुणशिलक चैत्य माना जाता है / श्रेणिक राजा मगध देश का सम्राट् था। अनाथी मुनि से प्रतिबोधित होकर भगवान् महावीर का परम भक्त हो गया था / ऐसी एक जन-श्रु ति है। राजा श्रेणिक का वर्णन जैन ग्रन्थों तथा बौद्ध ग्रन्थों में प्रचुर मात्रा में मिलता है। इतिहासकार कहते हैं कि श्रोणिक राजा हैहय कुल और शिशुनाग वंश का था। बौद्ध ग्रन्थों में 'सेनिय' और 'बिविसार' ये दो नाम मिलते हैं। जैन ग्रन्थों में 'सेणिय, भिभसार और भंभासार नाम उपलब्ध हैं। भिभसार और भंभासार नाम कैसे पड़ा? इस सम्बन्ध में श्रेणिक के जीवन का एक सुन्दर प्रसंग है श्रेणिक के पिता राजा प्रसेनजित कुशाग्रपुर में राज्य करते थे। एक दिन की बात है, राजप्रासाद में सहसा आग लग गई / हरेक राजकुमार अपनी-अपनी प्रिय वस्तु लेकर बाहर भागा। कोई गज लेकर, तो कोई अश्व लेकर, कोई रत्नमणि लेकर / परन्तु श्रेणिक मात्र एक "भंभा" लेकर ही वाहर निकला था। श्रोणिक को देखकर दूसरे भाई हँस रहे थे, पर पिता प्रसेनजित प्रसन्न थे; क्योंकि श्रेणिक ने अन्य सब कुछ छोड़कर एकमात्र राज्यचिह्न की रक्षा की थी। इस पर राजा प्रसेनजित ने उसका नाम 'भिभसार', या 'भंभासार' रखा / भिभसार शब्द ही संभवतः आगे चलकर उच्चारण भेद से बिंबसार बन गया। धारिणी देवी श्रेणिक राजा की पटरानी थी। धारिणी का उल्लेख आगमों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। ___ संस्कृत साहित्य के नाटकों में प्रायः राजा की सबसे बड़ी रानी के नाम के आगे 'देवी' विशेषण लगाया जाता है, जिसका अर्थ होता है-रानियों में सबसे बड़ी अभिषिक्त रानी, अर्थात्पटरानी। राजा श्रोणिक की अनेक रानियाँ थी, उनमें धारिणी मुख्य थी। इसीलिए धारिणी के आगे 'देवी' विशेषण लगाया गया है। देवी का अर्थ है-पूज्या। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] [अनुत्तरौपपातिकदशा मेघकुमार इसी धारिणी देवी का पुत्र था, जिसने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की थी। सिंह-स्वप्न किसी महापुरुष के गर्भ में आने पर उसकी माता कोई श्रेष्ठ स्वप्न देखती है। इस प्रकार का वर्णन भारतीय साहित्य में भरा पड़ा है। जैन साहित्य में और बौद्ध साहित्य में इस प्रकार के वर्णन प्रचुर मात्रा में हैं। बुद्ध की माता माया देवी ने बुद्ध के गर्भ में आने पर रजत-राशि जैसा पड्दन्त गज देखा था। तीर्थंकर एवं चक्रवर्ती की माता 14 महास्वप्न देखती है / वासुदेव की भाता 14 में से कोई भी सात स्वप्न देखती है। बलदेव की माता कोई चार स्वप्न देखती है। इसी प्रकार माण्डलिक राजा की माता एक महास्वप्न देखती है / सिंह का स्वप्न वीरतासूचक और मंगलमय माना गया है। मेधकुमार मगध सम्राट् श्रेणिक और धारिणी देवी का पुत्र था, जिसने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की थी। एक बार भगवान् महावीर राजगह के गुणशिलक उद्यान में पधारे। मेघकुमार ने भी उपदेश सुना / माता-पिता से अनुमति लेकर भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण की। जिस दिन दीक्षा ग्रहण की, उसी रात को मुनियों के यातायात से, पैरों को रज और ठोकर लगने से मेघ मुनि व्याकुल हो गए। भगवान् ने उन्हें पूर्वभवों का स्मरण कराते हुए संयम में धृति रखने का उपदेश दिया, जिससे मेघ मुनि संयम में स्थिर हो गए। ___ एक मास की संलेखना की। सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए / महाविदेह वास से सिद्ध होंगे। -ज्ञातासूत्र, अध्ययन 1. स्कन्दक स्कन्दक संन्यासी श्रावस्ती नगरी के रहने वाले गद्दभालि परिव्राजक के शिष्य और गौतम स्वामी के पूर्व मित्र थे / भगवान महावीर के शिष्य पिंगलक निर्ग्रन्थ के प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सके; फलतः श्रावस्ती के लोगों से जव सुना कि भगवान् महावीर यहाँ पधारे हैं तो उन के पास जा पहुंचे। समाधान मिलने पर वह भगवान् के शिष्य हो गए। स्कन्दक मुनि ने स्थविरों के पास रहकर 11 अंगों का अध्ययन किया। भिक्षु की 12 प्रतिमानों की क्रम से साधना की. अाराधना की। गणरत्न संवत्सर तप किया। शरी ,क्षीण और अशक्त हो गया / अन्त में राजगह के समीप विपुल-गिरि पर जाकर एक मास की संलेखना की। काल करके 12 वें देवलोक में गए / महाविदेह वास से सिद्ध होंगे / स्कन्दक मुनि की दीक्षा पर्याय 12 वर्ष की थी। -भगवती शतक 2. उद्देश 1. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट- - टिप्पण ] [ 56 गौतम (इन्द्र भूति) आपका मूल नाम इन्द्रभूति है, परन्तु गोत्रतः गौतम नाम से प्राबाल-वृद्ध प्रसिद्ध हैं। ___ गौतम, भगवान महावीर के सबसे बड़े शिष्य थे। भगवान् के धर्म-शासन के यह कुशल शास्ता थे, प्रथम गणधर थे। मगध देश के गोवर ग्राम के रहने वाले, गौतम गोत्रीय ब्राह्मण वसुभूति के यह ज्येष्ठ पुत्र थे। इनकी माता का नाम पृथिवी था। इन्द्रभूति वैदिक धर्म के प्रखर विद्वान् थे, गंभीर विचारक थे, महान् तत्त्ववेत्ता थे। एक वार इन्द्रभूति सोमिल ग्रार्य के निमन्त्रण पर पावापुरी में होने वाले यज्ञोत्सव में गए थे। उसी अवसर पर भगवान महावीर भी पावापुरी के बाहर महासेन उद्यान में पधारे हुए थे। गवान् की महिमा को देखकर इन्द्रभूति उन्हें पराजित करने की भावना से भगवान के समवसरण में पाये / किन्तु वे स्वयं ही पराजित हो गये / अपने मन का संशय दूर हो जाने पर वे अपने पांच-सौ शिष्यों सहित भगवान् के शिष्य हो गये / गौतम प्रथम गणधर हुए। आगमों में और आगमोत्तर साहित्य में गौतम के जीवन के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा मिलता है। इन्द्रभूति गौतम दीक्षा के समय 50 वर्ष के थे। 30 वर्ष साधू पर्याय में और 12 वर्ष केवली पर्याय में रहे। अपने निर्वाण के समय अपना गण सुधर्मा को सौपकर गुणशिलक चैत्य में मासिक अनशन करके भगवान् के निर्वाण से 12 वर्ष बाद 62 वर्ष की अवस्था में निर्वाण को प्राप्त हुए। शास्त्रों में गणधर गौतम का परिचय इस प्रकार का दिया गया है। वे भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य थे। सात हाथ ऊँचे थे। उनके शरीर का संस्थान और संहनन उत्कृष्ट प्रकार का था / सुवर्ण-रेखा के समान गौर वर्ण थे। उग्र तपस्वी, महातपस्वी, घोरतपस्वी, घोर ब्रह्मचारी, और विपुलतेजोलेश्या से सम्पन्न थे / शरीर में अनासक्त थे / चौदह पूर्वधर थे। मति, श्रु त, अवधि और मनः पर्याय-चार ज्ञान के धारक थे। सर्वाक्षरसन्निपाती थे। वे भगवान महावीर के समीप में उक्कुड ग्रासन से नीचा सिर करके बैठते थे। ध्यानमद्रा में स्थिर रहते हए. संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते विचरते थे। गणधर गौतम के जीवन की एक विशिष्ट घटना का उल्लेख इस प्रकार है---- उपासकदशांग में वर्णन है कि जब आनन्द श्रावक ने अपने को अमुक मर्यादा तक के अवधिज्ञान प्राप्ति की बात उनसे कही तो उन्होंने कहा-इतनी मर्यादा तक का अवधिज्ञान श्रावक को नहीं हो सकता / तब अानन्द ने कहा-मुझे इतना स्पष्ट दीख रहा है। अतः मेरा कथन सद्भूत है / यह सुनकर गणधर गौतम शंकित हो गए और अपनी शंका का निवारण करने के लिए भगवान् के पास पहुँचे / भगवान् ने आनन्द की बात को सही बताया, और प्रानन्द श्रावक से क्षमापना करने को कहा / गौतम स्वामी ने अानन्द के समीप जाकर क्षमायाचना की। विपाकसूत्र में मृगापुत्र राजकुमार का जीवन वर्णित है। उसमें उसे भयंकर रोगग्रस्त कहा गया है। उसके शरीर से असह्य दुर्गन्ध आती थी, जिससे उसे तल घर में रखा जाता था। एक बार गणधर गौतम मृगापुत्र को देखने गए। उसकी बीभत्स रुग्ण अवस्था देखकर चार ज्ञान के धारक, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अनुत्तरौपपातिकदशा चतुर्दशपूर्वी और द्वादशांग वाणी के प्रणेता गणधर गौतम ने कहा-मैंने नरक तो नहीं देखे, किन्तु यही नरक है।" -विपाकसूत्र गौतम के सम्बन्ध में एक और घटना प्रचलित है, जिसका उल्लेख मूल में तो नहीं, किन्तु उत्तरकालीन साहित्य में है। उत्तराध्ययन सूत्र के 10 वें अध्ययन की नियुक्ति में भगवान महावीर के मुख से इस प्रकार कहलवाया गया है कि "अष्टापद सिद्ध पर्वत है, अतः जो चरम शरीरी है, वही उस पर चढ़ सकता है, दूसरा नहीं." भगवान का उक्त कथन सनकर जब देव समवसरण से बाहर निकले, तब सिद्ध पर्वत हैं' ऐसी आपस में चर्चा कर रहे थे। गौतम गणधर ने देवों की यह बातचीत सुनी। गणधर गौतम द्वारा प्रतिबोधित शिष्यों को केवलज्ञान हो जाता था, पर गौतम को नहीं होता था, इससे गौतम खिन्न हो गए। तब भगवान ने कहा- 'गौतम ! मेरे शरीर त्याग के पश्चात् मैं और तुम समान हो जाएंगे / तू अधीर मत बन / ' इस प्रकार भगवान् के कहने पर भी गौतम को संतुष्टि न हुई, अधृति बनी ही रही / भगवान् की उक्त बात सुनने पर भी गणधर गौतम अष्टापद पर गए, और जब वहाँ से लौटकर भगवान् के पास आए, तब भगवान् ने कहा - "कि देवाणं बयणं गिझ अहवा जिणवराणं?" अर्थात् देवों का वचन मान्य है, अथवा जिनवरों का ? भगवान् के इस कथन को सुनकर गौतम ने अपने आचरण के लिए क्षमा मांगी। -पाइय टीका, पृ. 323 उत्तराध्ययन के टीकाकार प्राचार्य नेमिचन्द्र ने भी गौतम की अष्टापद-सम्बन्धी उक्त कथा का अवतरण लिया है। उसमें लिखा है कि-"तत्थ गोयमसामिस्स सम्मत्तमोहणीयकम्मोदयवसेण चिता जाया "मा ण न सेज्झिज्जामि" ति।' नेमिचन्द्र टीका, पृ. 154 भगवान के निश्चित प्राश्वासन देने पर भी गणधर गौतम को सम्यक्त्वमोहनीय कर्म के उदय से इस प्रकार की चिन्ता हो गई थी, कि कदाचित् मैं सिद्ध पद न पा सकूगा / उक्त चिन्ता के निवारण के लिए ही वे अष्टापद पर गए / गणधर गौतम के जीवन-सम्बन्ध में अनेक वर्णन उपलब्ध हैं। विद्वान् विचारकों एवं संशोधकों को उक्त प्रसंगों के तथ्यातथ्य का ऐतिहासिक दृष्टि से अनुसंधान करना चाहिए / कुछ भी हो, किन्तु यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि इन्द्रभूति गौतम सत्य के महान् शोधक थे। अपना सब कुछ भूलकर वह भगवान् के चरणों में ही सर्वतोभाव से समर्पित हो गए थे। चेल्लणा राजा श्रेणिक की रानी और वैशाली के अधिपति चेटक राजा की पुत्रो। चेल्लणा सुन्दरी, गुणवती, बुद्धिमती, धर्मप्राणा नारी थी। श्रोणिक राजा को धार्मिक बनाने में-जैनधर्म के प्रति अनुरक्त करने में चेल्लणा का बहुत बड़ा योग था। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-टिप्पण] चेल्लणा का राजा श्रेणिक के प्रति कितना प्रगाढ़ अनुराग था इसका प्रमाण "निरयावलिका' में मिलता है / कोणिक, हल्ल और विहल्ल-ये तीनों चेल्लणा के पुत्र थे। -जैनागमकथाकोष नन्दा श्रोणिक की रानी थी। उसने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की। 11 अंगों का अध्ययन किया / 20 वर्ष तक संयम का पालन किया / अन्त में संथारा करके मोक्ष प्राप्त किया। विपुलगिरि राजगृह नगर के समीप का एक पर्वत / श्रागमों में अनेक स्थलों पर इसका उल्लेख मिलता है। बहुत से साधकों ने यहाँ पर संलेखना व संथारा किया था। स्थविरों की देखरेख में घोर तपस्वी यहाँ आकर संलेखना करते थे। जैन ग्रंथों में इन पांच पर्वतों का उल्लेख मिलता है : 1, वैभारगिरि 2. विपुल गिरि 3. उदयगिरि 4. सुवर्णगिरि 5. रत्नगिरि महाभारत में पांच पर्वतों के नाम ये हैं वैभार, वाराह, वृषभ, ऋषिगिरि और चैत्यक / वायुपुराण में भी पांच पर्वतों का उल्लेख मिलता है। जैसे-वैभार, विपुल, रत्नकूट, गिरिज और रत्नाचल / भगवती सूत्र के शतक 2, उद्देश 5 में राजगृह के वैभार पर्वत के नीचे महातपोपतीरप्रभव नाम के उष्णजलमय प्रस्रवण-निर्भर का उल्लेख है जो आज भी विद्यमान है। बौद्ध ग्रन्थों में इस निर्भर का नाम 'तपोद' मिलता है, जो सम्भवतः 'तप्तोदक' से बना होगा। चीनी यात्री फाहियान ने भी इसको देखा था। उक्कमेणं सेसा : उत्क्रमेण शेषा __ "अनुक्रम और उत्क्रम"। अनुक्रम का अर्थ है, नीचे ने ऊपर की ओर क्रमश: बढ़ना, तथा उत्क्रम का अर्थ है, ऊपर से नीचे की ओर क्रमश: उतरना। अनुक्रम को (In Serial Order) कहते हैं, तथा उत्क्रम को (In the Upward Order) कहते हैं। अनुत्तरौपपातिकदशा के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन में दश कुमारों के देवलोक सम्बन्धी उपपात = जन्म (Rebirth) वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है जालि, मयालि, उपजालि, पुरुषसेन तथा वारिषेण अनुक्रम से-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न हुए। दीर्घदन्त सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न हुआ। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62] [ अनुत्तरौपपातिकदशा शेष चार उत्क्रम से उत्पन्न हुए, जैसे कि-अपराजित में लष्टदन्त, जयन्त में बेहल्ल, वैजयन्त में वेहायस विजय में अभय / उक्त दश कुमारों के सम्बन्ध में शेष वर्णन प्रथम अध्ययन में वर्णित जालिकुमार के वर्णन के समान समझ लेना चाहिए / लद्वदन्त ___इस नाम का उल्लेख प्रथम वर्ग में भी आ चुका है। वहाँ माता धारिणी तथा पिता श्रेणिक है, और उपपात जयंतविमान में बताया है। द्वितीय वर्ग में भी लठ्ठदन्त नामका उल्लेख पाता है, और वहाँ भी माता धारिणी तथा पिता श्रेणिक ही हैं, तथा उपपात वैजयन्त विमान में बताया है / प्रश्न होता है, कि क्या यह लट्ठदन्त एक ही व्यक्ति का नाम है, या भिन्न व्यक्तियों का एक ही नाम है ? एक व्यक्ति का नाम होने पर किसी भी तरह संगति नहीं बैठ सकती। एक व्यक्ति का अलगअलग उपपात नहीं हो सकता / और संख्या प्रथम वर्ग की 10 और इस वर्ग की 13 दोनों मिलकर 23 होनी चाहिए, यह भी एक व्यक्ति मानने पर कैसे हो सकता है ? 'श्रमण भगवान महावीर' के लेखक पूरातत्त्ववेत्ता आचार्य कल्याणविजयजी ने अपनी उक्त पुस्तक के प्र.६३ पर तीर्थकर जीवन वाले प्रकरण में लिखा है-'श्रेणिक की उपर्युक्त घोषणा का बड़ा सुन्दर प्रभाव पड़ा। अन्यान्य नागरिकों के अतिरिक्त जालिकूमार, मयालि, उपयालि, पूरुषसेन, वारिषेण, दीर्घदन्त, लष्टदन्त, वेहल्ल, वेहास, अभय, दीर्घसेन, महासेन, लष्टदन्त, गूढदन्त, शुद्धदन्त, हल्ल, द्रम, द्रुमसेन, महाद्र मसेन, सिंह, सिंहसेन, महासिंहसेन तथा पूर्ण सेन-श्रेणिक के इन तेईस पुत्रों और नन्दा, नन्दामती, नन्दोत्तरा, नन्दसेणिया, मरुया, सुमरुता, महामरुता, मरुदेवा, भद्रा, सुभद्रा, सुजाता, सुमना और भूतदत्ता नाम की श्रेणिक की तेरह रानियों ने प्रवजित होकर भगवान् महावीर के श्रमणसंघ में प्रवेश किया।" अस्तु, विभिन्न स्थलों पर आया लष्टदन्त नाम किसी एक व्यक्ति का न होकर भिन्न व्यक्ति का होने से ही सूत्रोक्त उल्लेख संगति पा सकता है / इस सम्बन्ध में विशेष गम्भीरता से सोचने पर जो संगति मालूम हुई है, वह इस प्रकार है: प्राकृत शब्द के संस्कृत में भिन्न-भिन्न उच्चारण हो सकते हैं : जैसे 'कय' का संस्कृतरूपान्तर कज, कच, कृत / 'कई' का कपि, कवि / 'पुण्या' का पुण्य अथवा पूर्ण / इसी प्रकार 'लट्ठदन्त' शब्द के भिन्न-भिन्न उच्चारण होना असंगत नहीं। जैसे कि लष्टदन्त एवं राष्ट्रदान्त / लष्टदन्त का अर्थ है-मनोहर दांत वाला / दूसरे उच्चारण राष्ट्रदान्त का अर्थ है, जिसने राष्ट्र का दमन किया हुया है अर्थात् जिसने राष्ट्र-देश को अपने वश में किया हुआ है। एक नाम 'पुण्णसेण' भी आता है, जिस प्रकार उसके पुण्यसेन अथवा पूर्णसेन ऐसे दो उच्चारण असंगत नहीं, इसी प्रकार प्रस्तुत प्रथम वर्ग में और द्वितीय वर्ग में आए हुए 'लट्ठदन्त' शब्द के 'लष्टदन्त' तथा 'राष्ट्रदन्त' ऐसे भिन्न-भिन्न उच्चारण असंगत नहीं। इस प्रकार विचार करने से लट्ठदन्त तामके दो व्यक्तियों की संभावना की जा सकती है, और इसी तरह से 33 की संख्या में संगति हो सकती है। इसके सम्बन्ध में एक दूसरी युक्ति भी है, वह यह है : पिता का नाम तो एक श्रेणिक ही ठीक है, परन्तु माताएँ इन दोनों की अलग-अलग हो सकती हैं। यद्यपि दोनों की माता का नाम धारिणी मूलपाठ में दिया हुआ है, परन्तु ये धारिणी नाम वाली दो रानियां भी हो सकती हैं / श्रेणिक राजा के कई रानियां थीं यह तो निविवाद है, तो Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-टिप्पण] दो रानियों का समान नाम भी होना असंभव नहीं / वर्तमान में भी कई कुटुम्बों में ऐसा होना बहुत सम्भवित है। हमारे एक परिचित पंजाबी जैन घराने में दो भाइयों की पत्नियों का एक ही नाम 'निर्मला' है. तब एक बड़ी निर्मला और एक छोटी निर्मला ऐसा विभाग करके व्यवहार चलाया जाता है। इसी प्रकार राजा श्रेणिक की समान नाम वाली दो रानियाँ मान लेने से प्रथम वर्ग के लट्ठदन्त की माता अन्य धारिणी थी और द्वितीय वर्ग के लट्ठदन्त की माता कोई दूसरी धारिणी थी, ऐसा समझ लेने पर एक जैसा नाम पुत्रों का हो और माताएं अलग अलग हों यह समाधान भी असंगत नहीं बल्कि संगत और संभव है। अथवा एक धारिणी के ही लट्ठदंत नाम के दो पुत्र हो सकते हैं / तात्पर्य यह कि किसी भी प्रकार से दो लट्ठदन्त होने चाहिए। विशेषज्ञ इस सम्बन्ध में अन्य कोई समाधान उपस्थित करेंगे, तो उसका स्वागत होगा। गुणसिलए : गुण-शिलक 'गुण-शिलक' शब्द में शिलक का 'शि' ह्रस्व है, यह ध्यान में रहे / 'गुणशिल' अथवा 'गुण-शिलक' शब्द का अर्थ इस प्रकार होना चाहिए : गुणप्रधानं शिलं यत्र तत् गुणशिलकम्' / 'शिल' अर्थात् खेत में पड़े हुए अनाज के कणों कोदानों को--एकत्रित करना। जो लोग त्यागी, भिक्षु, मुनि और संन्यासी होते हैं, उनमें कुछ ऐसे भी होते हैं, कि वे अनाज के जो दाने खेत में स्वत: गिरे हुए मिलते हैं, उनको ही एकत्रित करके अपनी आजीविका चलाते रहते हैं। ___ इस प्रकार की चर्या से साधु संन्यासी का बोझ समाज पर कम पड़ता है। गुण प्रधान शिल जहां मिलता हो वह 'गुण-शिलक' है / शिल के द्वारा जीवन चलाने का नाम ऋत है / शिल द्वारा अपना जीवन व्यतीत करने वाले 'कणाद' नाम के एक ऋषि हो गए हैं। उनका 'कणाद' नाम, 'कणों' को–अनाज के दानों को-एकत्रित करके, 'अद' खानेवाला यथार्थ है। 'उञ्छं शिलं तु ऋतम्'----अमर कोश, 16 वैश्य वर्ग, काण्ड 2 श्लोक 2 / 'कणिशायजैनं शिलम्, ऋत तत्'- अभिधान, मयंका०, श्लोक 865-866 / 'गुणसिल' शब्द की दूसरी व्युत्पत्ति इस प्रकार भी की जा सकती है, 'गुणाः शिरसि यस्य यस्मिन् वा तत् गुणशिरः / ' इसका प्राकृत रूप गुणशिल सहज सिद्ध है। 'गुणसील' शब्द भी इस उद्यान के लिए प्रयुक्त होता है। उद्यान के गुणों के सदा विद्यमान रहने के कारण उसे 'गुणशील' भी कहा जाता है। काकन्दी जितशत्रु राजा की राजधानी / घोर तपस्वी धन्ना अनगार की जन्म-भूमि / यह उत्तर भारत की प्राचीन और प्रसिद्ध नगरी थी। भगवान् महावीर के समय में इस नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 ] [ अनुत्तरौपपातिकदशा काकन्दी नगरी के बाहर 'सहस्राम्रवन' नाम का एक सुन्दर उद्यान था। भगवान् का समवसरण यहीं पर लगा था / धन्य अनगार की दीक्षा भी इसो उद्यान में हुई थी। 'वर्तमान में, गोरखपुर से दक्षिण-पूर्व तीस मील पर और ननखार स्टेशन से दो मील पर, कहीं काकन्दी रही होगी।' सहस्संबवण सहस्राम्रवन / अागमों में इस उद्यान का प्रचुर उल्लेख मिलता है। काकन्दी नगरी के बाहर भी इसी नाम का एक सुन्दर उद्यान था, जहां पर धन्यकुमार और सुनक्षत्रकुमार की दीक्षा हुई थी। सहस्राम्रवन का उल्लेख निम्नलिखित नगरों के बाहर भी आता है:१. काकन्दी के बाहर / 2. गिरनार पर्वत पर। 3. काम्पिल्य नगर के बाहर / 4. पाण्डु मथुरा के बाहर / 5. मिथिला नगरी ने बाहर। 6. हस्तिनापुर के बाहर-अादि जितशत्रु राजा ___ शत्रु को जीतने वाला / जिस प्रकार बौद्ध जातकों में प्रायः ब्रह्मदत्त राजा का नाम आता है, उसी प्रकार जैन-ग्रन्थों में प्रायः जितशत्रु राजा का नाम आता है / जितशत्रु के साथ प्रायः धारिणी का भी नाम आता है। किसी भी कथा के प्रारम्भ में किसी न किसी राजा का नाम बतलाना, कथाकारों की पुरातन पद्धति रही है। __ इस नाम का भले ही कोई एक राजा न भी हो, तथापि कथाकार अपनी कथा के प्रारम्भ में इस नाम का उपयोग करता है। वैसे जैन साहित्य के कथा-ग्रन्थों में जितशत्रु राजा का उल्लेख बहुत पाता है। निम्नलिखित नगरों के राजा का नाम जितशत्रु बताया गया हैनगर राजा 1. वाणिज्य ग्राम जितशत्रु 2. चम्पा नगरी 3. उज्जयनी 4. सर्वतोभद्र नगर 5. मिथिला नगरी 6. पांचाल देश 7. प्रामलकल्पा नगरी 8. सावत्थी नगरी 6. वाणारसी नगरी 10. पालभिया नगरी 11. पोलासपुर Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-टिप्पण] [ 65 भद्रा सार्थवाही काकन्दी नगरी के वासी धन्यकुमार और सुनक्षत्रकुमार की माता। काकन्दी नगरी में भद्रा सार्थवाही का बहुमान था। भद्रा के पति का उल्लेख नहीं मिलता। भद्रा के साथ लगा सार्थवाही विशेषण यह सिद्ध करता है कि वह साधारण व्यापार ही नहीं अपितु सार्वजनिक कार्यों में भी महत्त्वपूर्ण भाग लेती होगी और देश तथा परदेश में बड़े पैमाने पर व्यापार करती रही होगी। पंचधात्री शिशु का लालन-पालन करने वाली पांच प्रकार की धाय माताएं। शिशु-पालन भी मानवजीवन की एक कला है / एक महान् दायित्व भी है। किसी शिशु को जन्म देने मात्र से ही माता-पिता का गौरव नहीं होता। माता-पिता का वास्तविक गौरव शिशु के लालन-पालन की पद्धति से ही प्रांका जा सकता है / प्राचीन साहित्य के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में राजघरानों में और सम्पन्न घरों में शिशु-पालन के लिए धाय माताएं रखी जाती थीं, जिन्हें धात्री कहा जाता था। धाय माताएं पाँच प्रकार की हुआ करती थीं 1. क्षीरधात्री-दूध पिलाने वाली / 2. मज्जनधात्री-स्नान कराने वाली। 3. मण्डनधात्री-साज-सिंगार कराने वाली। 4. क्रीडाधात्री-खेल-कूद कराने वाली,मनोरंजन कराने वाली / 5. अंकधात्री-गोद में रखने वाली। महाबल बल राजा का पुत्र / सुदर्शन सेठ का जीव महाबल कुमार / हस्तिनापुरनामक नगर का राजा बल और रानी प्रभावती थी / एक बार रात में अर्धनिद्रा में रानी ने देखा "एक सिंह आकाश से उतर कर मुख में प्रवेश रहा है।" सिंह का स्वप्न देखकर रानी जाग उठी, और राजा बल के शयनकक्ष में जाकर स्वप्न सुनाया। राजाने मधुर स्वर में कहा-"स्वप्न बहुत अच्छा है। तेजस्वी पुत्र की तुम माता बनोगी।" प्रात: राजसभा में राजा ने स्वप्न पाठकों से भी स्वप्न का फल पूछा / स्वप्नपाठकों ने कहा--"राजन् ! स्वप्नशास्त्र में 42 सामान्य और 30 महास्वप्न हैं, इस प्रकार कुल 72 स्वप्न कहे हैं। तीर्थकरमाता और चक्रवर्तीमाता 30 महास्वप्नों में से इन 14 स्वप्नों को देखती हैं : 1. गज 2. वृषभ 3. सिंह लक्ष्मी 5. पुष्पमाला >> Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66] [अनुत्तरोपपातिकदशा 6. सूर्य 8. ध्वजा 10. पद्मसरोवर 11. समुद्र 12. विमान 13. रत्नराशि 14. नि— म अग्नि राजन् ! प्रभावती देवी ने एक महास्वप्न देखा है / अत: इसका फल अर्यलाभ, भोगलाभ पुत्रलाभ और राज्यलाभ होगा। कालान्तर में पुत्रजन्म हुआ, जिसका नाम महाबलकुमार रखा गया। कलाचार्य के पास 72 कलाओं का अभ्यास करके महाबल कुशल हो गया / आठ राजकन्याओं के साथ महाबल कुमार का विवाह किया गया। महाबलकुमार भौतिक सुखों में लीन हो गया। भगवान् का उपदेश श्रवण कर दीक्षित हो मुनिधर्म अंगीकार किया। तत्पश्चात् महाबल मुनि ने 14 पूर्वो का अध्ययन किया / अनेक प्रकार का तप किया / 12 वर्ष श्रमणपर्याय पालकर, ब्रह्मलोक कल्प में देव रूप में जन्म हुआ। -भगवती शतक 11, उद्देश 11 कोणिक राजा श्रोणिक की रानी चेल्लणा का पुत्र, अंगदेश की राजधानी चम्पा नगरी का अधिपति भगवान महावीर का परम भक्त / कोणिक राजा एक प्रसिद्ध राजा है। जैनागमों में अनेक स्थानों पर उसका अनेक प्रकार से वर्णन मिलता है। भगवती, औपपातिक, और निरयावलिका में कोणिक का विस्तृत वर्णन है / राज्यलोभ के कारण इसने अपने पिता श्रेणिक को कैद में डाल दिया था। श्रेणिक की मृत्यु के बाद कोणिक ने अंगदेश में चम्पानगरी को अपनी राजधानी बनाया था। अपने सहादेर भाई हल्ल और विहल्ल से हार और सेचनक हाथी को छीनने के लिए अपने नाना चेटक से भयंकर युद्ध भी किया था / कोणिक-चेटक युद्ध प्रसिद्ध है। --जैनागमकथाकोष जमाली वैशाली के क्षत्रियकुण्ड का एक राजकुमार था। एक बार भगवान् क्षत्रियकुण्ड ग्राम में पधारे / जमालो भी उपदेश सुनने को पाया। अपनी पाठ पत्नियों का त्याग करके उसने पांच-सौ क्षत्रिय कुमारों के साथ भगवान् के पास दीक्षा ली। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / 67 परिशिष्ट-टिप्पण] जमाली ने भगवान् के सिद्धान्त विरुद्ध प्ररूपणा की थी। अतएव वह निह्नव कहलाया। -भगवती शतक 6, उद्देश 33 / थावच्चापुत्र द्वारका नगरी की समृद्ध थावच्चा गाथापत्नी का पुत्र, जिसने एक सहस्र मनुष्यों के साथ भगवान् नेमिनाथ से दीक्षा ग्रहण की / दीक्षा महोत्सव श्रीकृष्ण ने किया। थावच्चा पुत्र ने 14 पूर्वो का अध्ययन किया / अनेक प्रकार का तप किया। अन्त में सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त करके सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गया। -ज्ञातासूत्र, अध्ययन 5 कृष्ण कृष्ण वासुदेव / माता का नाम देवकी, पिता का नाम वसुदेव था / कृष्ण का जन्म अपने मामा कंस की कारा में मथुरा में हुग्रा / जरासन्ध के उपद्रवों के कारण श्रीकृष्ण ने ब्रज-भूमि को छोड़ कर सुदूर सौराष्ट्र में जाकर द्वारका नगरी बसाई। श्रीकृष्ण भगवान् नेमिनाथ के परम भक्त थे। भविष्य में वह 'अमम' नाम के तीर्थंकर होंगे / जैन साहित्य में, संस्कृत और प्राकृत उभय भाषाओं में श्रीकृष्ण का जीवन विस्तृत रूप में मिलता है / द्वारका का विनाश हो जाने पर श्रीकृष्ण की मृत्यु जराकुमार के हाथों से हुई। -जैनागमकथाकोष महावीर वर्तमान अवसपिणी कालचक्र के 24 तीर्थकरों में चरम तीर्थंकर 1 आगम-साहित्य और आगमोत्तर ग्रन्थों में भगवान महावीर के इतने नाम प्रसिद्ध हैं 1. वर्धमान, 2. महावीर, 3. महाश्रमण, 4. चरम तीर्थकृत्, 5. सन्मति, 6. महतिवीर, 7. विदेह दिन्न, 8. वैशालिक, 6. ज्ञातपुत्र, 10. देवार्य, 11. दीर्घतपस्वी आदि / भगवान् महावीर के माता-पिता पार्श्वनाथीय परम्परा के श्रमणोपासक थे। भगवान महावीर का जन्म वैशाली में, जो आज पटना से 27 मील उत्तर में 'बसार' या 'बसाड़' नाम से प्रसिद्ध है, हुआ था। महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ, माता त्रिशलादेवी, ज्येष्ठ भ्राता नन्दिवर्धन थे। महावीर की माता त्रिशलादेवी वैशाली-गणतन्त्र के प्रमुख राजा चेटक की बहिन थी। माता-पिता के दिवंगत हो जाने के बाद नन्दिवर्धन से अनुमति लेकर तीस वर्ष की अवस्था में महावीर ने दीक्षा ग्रहण की। 12 // वर्षों तक घोर तप किया। कठोर साधना की / केवलज्ञान पाकर 42 वर्षों तक जनकल्याण के लिए धर्म देशना दी। 72 वर्ष की आयु में पावापुरी में भगवान् का परिनिर्वाण हुआ। बौद्ध साहित्य के ग्रन्थों में भगवान महावीर को दीर्घतपस्वी निग्गण्ठ नातपुत्त कहा गया है / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अनुत्तरौपपातिकदशा स्थविर, वृद्ध / शास्त्रों में तीन प्रकार के स्थविर कहे गए हैं(१) वयःस्थविर--६० वर्ष या इससे अधिक की आयु वाला भिक्षु वयःस्थविर है / (2) प्रव्रज्यास्थविरः-२० वर्ष या इससे अधिक दीक्षापर्याय वाला भिक्षु प्रव्रज्यास्थविर है। (3) व तस्थविर स्थानांग, समवायांग आदि के ज्ञाता भिक्षु को श्रु तस्थविर कहते हैं। सिलेस-गुलिया : श्लेष-गुटिका ___श्लेष' शब्द का वास्तविक अर्थ है–चिपकना, चोंटना। जब किसी कागज के दो टुकड़ों को चिपकाना होता है, तब गोंद अादि का उपयोग किया जाता है / वह श्लेष है / प्रतीत होता है, कि प्रस्तुत प्रसंग में 'श्लेष' शब्द का अर्थ गोंद आदि चिपकाने वाली वस्तु है। 'श्लेष' अर्थात् गोंद की गुटिका अर्थात् वटिका (बत्ती)। इसका अर्थ हुग्रा-गोंद की लम्बी-सी बत्ती। यह अर्थ यहाँ पर संगत बैठता है। टीकाकार ने इसका 'श्लेष्मणो गुटिका' अर्थ किया है। इसके अनुसार यदि 'कफ की गुटिका अर्थ' प्रस्तुत में लागू करना हो तो इस प्रकार घटाना होगा-- जैसे कफ की कोई लम्बी बत्ती-सी गुटिका कहीं पड़ी हुई फीकी-सी होती है, वैसे ही धन्यकुमार के होंठ हो गए थे। किन्तु 'श्लेष' शब्द, कफ अर्थ का वाचक नहीं मिलता। अमरकोषकार ने तथा प्राचार्य हेमचन्द्र ने कफ के जो पर्याय बताएँ हैं, वे इस प्रकार हैंमायुः पित्त कफः श्लेष्मा / -द्वि. कां. 16, मनुष्य वर्ग श्लोक 62. पित्त मायुः कफ: श्लेष्मा वलाश: स्नेहभूः खरः। -अभि. मर्त्य का., श्लोक 462. प्राचार्य हेमचन्द्र के कथनानुसार-कफ, श्लेष्मन्, वलाश, स्नेहभू और खर, ये पाँच नाम श्लेष्म के हैं / इसमें 'श्लेष' शब्द नहीं पाया है। धन्य अनगार : धन्यदेव मनुष्य गति या तिर्यंच गति से जो प्राणी देवगति में जन्म लेता है, उसका वहाँ कोई नया नाम नहीं होता / परन्तु उसके पूर्व जन्म का ही नाम चलता रहता है। धन्य मुनि का नाम धन्य देव पड़ा। दर्दु र मर कर देव हुआ, तो उसका नाम भी दर्दुर देव हुआ / मालूम होता है, कि देव जाति में मानव जाति के समान नामकरण-संस्कार की कोई प्रथा नहीं है / वहाँ पर मनुष्य-कृत अथवा पशुयोनि-प्रसिद्ध नाम का ही प्रचलन है / चाउरंत : चतुरन्त 'चाउरंत' शब्द का अर्थ है--चार अन्त / सारी पृथ्वी चार दिशाओं में आ जाती है। जिस प्रकार चक्रवर्ती राजा क्षत्रिय-धर्म का उत्तम रीति से पालन करता हुआ, उन चारों दिशाओं का अन्त करता है-चारों दिशाओं पर विजय पाता है, सारी पृथ्वी पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है, उसी प्रकार भगवान् महावीर ने चार अन्त वाले-मनुष्यगति, देवगति, तिर्यंचगति और नरकगति रूपसंसार पर, वास्तविक लोकोत्तर धर्म का पालन करते हुए विजय प्राप्त की / उस लोकोत्तर क्षात्र-धर्म से Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-टिप्पण] अपने अन्तरंग वैरी राग-द्वप तथा क्रोध, मान, माया, लोभ आदि को जीत कर, पूर्ण रूप से विजय प्राप्त की। यहाँ पर एक महाभोगी चक्रवर्ती के साथ एक महायोगो (भगवान् महावीर) की तुलना की गई है / भगवान् धर्म के चक्रवर्ती हैं, अतः यह उपमा उचित ही है। वाणिज्यग्राम मगध देश का एक प्राचीन नगर / यह कोशल देश की राजधानी था। प्राचार्य हेमचन्द्र ने साकेत, कोशल और अयोध्या-इन तीनों को एक ही कहा है। साकेत के समीप ही "उत्तरकुरु" नाम का एक सुन्दर उद्यान था, उसमें "पाशामृग" नाम का एक यक्षायतन था। साकेत नगर के राजा का नाम मित्रनन्दी और रानी का नाम श्रीकान्ता था। वर्तमान में फैजाबाद जिले में, फैजाबाद से पूर्वोत्तर छह मील पर सरयू नदी के दक्षिणी तट पर स्थित वर्तमान अयोध्या के समीप ही प्राचीन साकेत होना चाहिए, ऐसी इतिहासज्ञों की मान्यता है / हस्तिनापुर ___ भारत के प्रसिद्ध प्राचीन नगर का नाम / महाभारत काल के कुरुदेश का यह एक सुन्दर एवं मुख्य नगर था। भारत के प्राचीन साहित्य में इस नगर के अनेक नाम उपलब्ध हैं--- (1) हस्तिनी (2) हस्तिनपुर, (3) हस्तिनापुर, (4) गजपुर आदि / आजकल हस्तिनापुर का स्थान मेरठ से 22 मील पूर्वोत्तर और बिजनौर से दक्षिण-पश्चिम के कोण में बूढ़ी गंगा नदी के दक्षिण कूल पर स्थित है। षष्ठ (छट्ट) छह टंक नहीं खाना (पहले दिन एकाशन करना, दूसरे दिन एवं तीसरे दिन उपवास करना, तथा चौथे दिन फिर एकाशन करना, इस प्रकार छह बार न खाने को छट्ठ (बेला) कहते हैं / इस प्रकार पाठ बार नहीं खाने को अट्ठम (तेला) कहते हैं। चार बार नहीं खाने को चउत्थभत्त; अर्थात् उपवास कहते हैं / इस व्याख्या से प्रतीत होता है कि उस युग में धारणा और पारणा करने की पद्धति का प्रचलन नहीं था, जो आज वर्तमान में चल रही है / वर्तमान में जो धारणा और पारणा की पद्धति है, वह तपस्या की अपेक्षा से तथा चउत्थभत्त छट्ठभत्त इत्यादिक को जो व्याख्या शास्त्र में विहित है, उसकी अपेक्षा से भी शास्त्रानुकूल नहीं है / आयंबिल ___ 'यायंबिल' शब्द एक सामासिक शब्द है। उस में दो शब्द हैं—ायाम और अम्ल / आयाम का अर्थ है-मांड अथवा प्रोसामण / अम्ल का अर्थ है खट्टा (चतुर्थ रस)। इन दोनों को मिला कर जो भोजन बनता है, उसको अायामाम्ल'; अर्थात् आयंबिल कहते हैं। प्रोदन. उड़द और सत्त इन तीन अन्नों से आयंबिल किया जाता है / यह जैन परिभाषा है। . Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70] / अनुत्तरौपपातिकदशा प्रवचनसारोद्धार में 'यायाम' शब्द के स्थान में 'पाचाम' शब्द का प्रयोग किया गया है। प्राचार्य हरिभद्र आयामाम्ल' प्राचामाम्ल एवं प्राचाम्ल शब्दों का प्रयोग करते हैं। उक्त पुरानी व्याख्याओं से ज्ञात होता है, कि आयंबिल में प्रोदन (चावल), उड़द और सत्त इन तीन अन्नों का भोजन के रूप में प्रयोग होता था, और स्वादजय की दृष्टि से यह उपयुक्त था / आज तो प्रायः आयंबिल में बीसों चीजों का उपयोग किया जाता है। यह किस प्रकार शास्त्रविहित है ? यह विचारने योग्य है। स्वाद-जय की साधना करने वाले विवेकी साधकों को शास्त्रीय व्याख्या पर ध्यान देना आवश्यक है। परन्तु उक्त शब्द में 'अम्ल' शब्द का जो प्रयोग किया गया है, और उसका जो चतुर्थ रस अर्थ बताया गया है, उसका भोजन के साथ क्या सम्बन्ध है ? यह मालूम नहीं पड़ता। संशोधक विद्वान् इस पर विचार करें। / क्योंकि प्रायंबिल में भोजन की सामग्री में खटाई का कोई सम्बन्ध मालम नहीं पड़ता, अत अम्ल शब्द से जान पड़ता है कि श्री हरिभद्र सूरि से भी पूर्व समय में आयंबिल में कदाचित् छाछ का सम्बन्ध रहा हो। बौद्धग्रन्थ मज्झिमनिकाय के 12 वें महासोहनाद सुत्त में बुद्ध की कठोर तपस्या का वर्णन है / उसमें बुद्ध को 'पायामभक्षी' अथवा 'आचामभक्षी' कहा गया है। वहाँ आयाम शब्द का अर्थ मांड किया गया है। इस प्राचीन उल्लेख से मालूम होता है, कि आयाम का मांड अर्थ था और आयामभक्षी कहे जाने वाले तपस्वी केवल मांड ही पीते थे। जैन परिभाषा में पायाम शब्द से प्रोदन, उड़द एवं सत्त लिया गया है। परन्तु ये तीन आयाम के अर्थ में नहीं समाते / याद रखना चाहिए कि श्री हरिभद्र आदि प्राचार्यों ने पायाम का मुख्य अर्थ मांड ही बताया है। -- देखो आवश्यकनियुक्तिवृत्ति, गाथा 1603 -प्राचार्य सिद्धसेनकृत प्रवचनसारोद्धार वृत्ति -प्राचार्य देवेन्द्रकृत श्राद्धप्रतिक्रमण वृत्ति संसृष्ट गृहस्थ भोजन कर रहा हो और मुनिराज गोचरी के लिए गृहस्थ के घर पहुंचे, तब भोजन करते हुए दाता का हाथ साग, दाल, चावल वगैरह से या उसके रसदार जल से लिप्त हो-संसृष्ट हो और वह दाता उसी संसृष्ट हाथ से भिक्षा देने को तत्पर हो तो, ऐसे भिक्षान्न को संसृष्ट अन्न कहते हैं। प्रस्तुत में धन्य अनगार को ऐसे संसृष्ट हाथ से दिये हुए अन्न के लेने का संकल्प है। शास्त्रों में इसका अनेक भंग करके विवेचन किया गया है। उज्झितर्धामक जो खाद्य तथा पेय वस्तु केवल फेंकने लायक है, जिसको कोई भी खाना-पीना पसन्द नहीं करता; ऐसे खाद्य या पेय को उज्झितर्मिक कहा जाता है। उच्च, नीच, मध्यम कुल प्रस्तुत में उच्च, नीच वा मध्यम शब्द कोई जाति वा वंश की अपेक्षा से विवक्षित नहीं हैं, Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-टिप्पण] [71 मात्र सम्पत्तिमान् कुल को लोग उच्च कुल कहते हैं, सम्पत्तिविहीन कुल को नीच कहते हैं और साधारण कुल को मध्यम कहा जाता है। जाति वा वंश की विवक्षा होती तो प्रस्तुत में मध्यम शब्द की संगति नहीं हो सकती। जैन शासन में आचार तथा तत्त्व की दृष्टि से जातीयता अपेक्षित उच्चनीच भाव सम्मत नहीं है / जैन शासन गुणमूलक है, किसी भी जाति का व्यक्ति जैन धर्म का प्राचरण कर सकता है / प्रस्तुत में उच्च-नीच और मध्यम कुल में भिक्षाभ्रमण का जो उल्लेख है, वह स्पष्टतया मुनिराज के जाति निरपेक्ष होकर सब कुलों में गोचरी जाने के सामान्य नियम का सूचक है / सनातन जैनशासन को पहले से ही यह प्रणाली रही है। विलमिव पन्नगभूएणं जैसे पन्नग-सर्प जब बिल में प्रवेश करता है तो सीधा ही उसमें उतर जाता है. ठीक उसी प्रकार स्वादेन्द्रिय के ऊपर जय पाने के इच्छुक मुनिराज प्राप्त प्रासुक खाद्य वस्तु को मुख में डालते ही निगल जाते हैं, परन्तु एक जबड़े से दूसरे जबड़े की तरफ ले जाकर चवाते नहीं ; अर्थात् खाद्य का रस न लेने के कारण वे निगल जाते हैं। ऐसा अभिप्राय बिलमिव पन्नग' इत्यादि वाक्य का है। इसका मूल आशय यही है कि मुनि की भोजन में प्रासक्ति नहीं होनी चाहिए। लेशमात्र भो रस-लोलुपता नहीं होनी चाहिए। केवल संयम-पालन के लिए शरीर-निर्वाह के लक्ष्य से ही उसे आहार करना चाहिए। सामाइयमाइयाई इस वाक्य से सूचित होता है कि सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। ग्यारह अंगों में प्रथम नाम आचारांग सूत्र का पाता है। अतः प्रस्तुत में 'पायारमाइयाई' अर्थात् ; आचारांग वगैरह ग्यारह अंगों का निर्देश होना उचित है, तव 'सामाइयमाइमाई' ऐसा निर्देश क्यों? इसका समाधान इस प्रकार है आचारअंग के प्रथम वाक्य से ही अनारंभ की चर्चा है और इधर सामायिक में भी अनारंभ की चर्चा तथा चर्या प्रधान है: अत: प्राचारअंग तथा सामायिक दोनों में असाधारण साम्य है, एकरूपता है; अत: 'पायारमाइयाई' के स्थान में 'सामाइयमाइयाई' ऐसा निर्देश असंगत नहीं है। अथवा मुनिराज प्रथम सामायिक स्वीकार करता है और उस में अनारंभधर्मप्ररूपक प्राचारअंग का भी समावेश हो जाता है; इस कारण भी ऐसा निर्देश असंगत प्रतीत नहीं होता / अथवा साम अर्थात् सामायिक तथा आजाइय अर्थात् याचारांगसूत्र / प्राचारांग की नियुक्ति में जिस गाथा में आयार, आचाल इत्यादि शब्दों को 'प्राचार' का पर्याय बताया गया है, उसी गाथा में 'आजाति' शब्द को भी आचारअंग का पर्याय बताया है। अत: 'सामाइय' का अर्थ सामायिक और प्राचारअंग इत्यादि (ग्यारह अंग) बराबर संघटित होता है। इस प्रकार योजना करने से 'सामायिक' का ग्रहण हो जाएगा और प्राचारअंग भी। साथ ही 'आइय' शब्द से आदिक अर्थात् दूसरे सब शेष अंग भी ग्रा जाएंगे। अथवा इस पद का अर्थ इस प्रकार करना चाहिए–सामायिक से प्रारम्भ करके ग्यारह अंग-सामायिकादिकानि / दोनों पदों के बीच में जो मकार है वह 'अन्नमन्न' प्रयोग की तरह अलाक्षणिक है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम वर्ग-कोष्ठक क्रम व्यक्ति / माता | पिता स्थान गुरु दीक्षा | तप संलेखना स्थान | विमान मोक्ष 1 . जालिकुमार धारिणी श्रेणिक राजगृह भगवान् महावीर 16 व. | गुणरत्न० / एक मास विपुल | विजय महाविदेह 2 मयालि वैजयन्त उपजालि ! जयन्त पुरुषसेन अपराजित " 5 वारिषेण " सवाथसिन्द दीर्घदन्त लष्टदन्त " " अपराजित 8 वेहल्लकुमार चेलणा ,, " जयन्त वेहायसकुमार " " वैजयन्त [ अनुत्तरोपपातिकदशा अभयकुमार नन्दादेवी , , विजय Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वर्ग-कोष्ठक क्रम व्यक्ति माता | पिता | स्थान | गुरु दीक्षा तप / संलेखना | स्थान | विमान मोक्ष धारिणी श्रेणिक राजगृह | भगवान् महावीर 16 व. एक मास | विपुल ! विजय / 1 दीर्घसेन 2 . महासेन परिशिष्ट-द्वितीय वर्ग-कोष्ठक ] लष्टदन्त विजय गूढ़दन्त शुद्धदन्त जयन्त हल्लकुमार Mi Gr अपराजित सर्वार्थसिद्ध द्र मसेन 6. महाद्र मसेन 10 सिंह 11 | सिंहसेन 12 महासिंहसेन 13 पुण्यसेन Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय वर्ग-कोष्ठक 74 / क्रम व्यक्ति माता पिता स्थान गुरु दोक्षा | तप संलेखना स्थान | विमान | मोक्ष भगवान् महावीर | 6 मास | गुण० एक मास विपुल | सर्वार्थसिद्ध महा० / धन्यकुमार भद्रा | - | काकन्दी सुनक्षत्र 3 ऋषिदास राजगृह 4 / पेल्लक | रामपुत्र साकेत चन्द्रिकुमार 7 पृष्टिमातृक ! वाणिज्य ग्राम पेढालपुत्र 6 पोष्टिल्ल हस्तिनापुर [ अनुत्तरौपपातिकदशा 10 / वेहल्लकुमार , राजगृह " " Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्दकोष 1. अंग गणधरप्रणीत जैन आगमसाहित्य / प्राचारांग से दृष्टिवाद तक बारह अंग हैं / [दृष्टिवाद लुप्त है / 2. अन्तगडदसा 8 वाँ अङ्गसूत्र / इसमें उसी भव में अन्तिम श्वासोच्छ्वास के साथ संसार का अन्त करने वाले-मोक्ष प्राप्त करने वाले साधकों के जीवन का वर्णन है।। 3. अणगार जिसके अगार-घर-न हो, त्यागी, साधु, भिक्षु / 4. अपरितंतजोगी खेद-रहित योग वाला, खेदशून्य-समाधि वाला, संयम-साधना में न थकने वाला साधक ! 5. अभिग्गह प्रतिज्ञा, भोजन आदि लेने में पदार्थों की मर्यादा बाँधना, विशेष प्रकार का नियम लेना। 6. पायार-भंडय प्राचार पालने के उपकरण–पात्र, मुखवस्त्रिका और रजोहरण आदि / 7. आयंबिल तप विशेष, रूक्ष आहार ग्रहण करना, स्वादजय की साधना / 8. आउक्खय, भवक्खय, ठिइक्खय प्रायु-कर्म के दलिकों का क्षय / भव का क्षय, वर्तमान नर नारक आदि पर्याय का अन्त / भुज्यमान आयुकर्म की स्थिति का अर्थात् कालमर्यादा की समाप्ति / 6. ईरियासमिय चलने-फिरने में, आने जाने में उपयोग (विवेक) रखने वाला, अर्थात् यतना-सावधानी से गमन करने वाला। 10. उववाय आत्मा औपपातिक है, देव और नारक भव में उत्पत्ति / 11. उज्झियधम्मिय ऐसा पदार्थ जो हेय अर्थात् छोड़ने योग्य हो, जिसे दूसरों ने त्याग दिया हो / Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 [अनुत्तरौपपातिकदशा 12. काउस्सग्ग कायोत्सर्ग, कायिक ममत्व का परित्याग, एवं शारीरिक क्रियाओं का परित्याग / 13. गुणरयण तवोकम्म गुण-रत्न तप / यह तप 16 मास का है, जिस में प्रथम मास में एक उपवास, दूसरे में दो और क्रमश: बढ़ते १६वें में 16 उपवास होते हैं। 14. गुत्तबंभयारी ___ मन, वचन और काय को संयत करने वाला ब्रह्मचारी भिक्षु / 15. छ? एक साथ दो उपवास अर्थात् दो दिन संपूर्ण आहार का परित्याग एवं अगले-पिछले दिन एकाशन करके छह वार के भोजन ग्रादि का त्याग करना / 16. जयण-घडण जोग-चरित्त यतन-यत्न, यतना, विवेक, प्राणि-रक्षा करना / घटन-प्रयत्न, उद्यम, पुरूषार्थ / योगसंबन्ध, मिलाप, जोड़ना / जिसमें याना और उद्यम है, इस प्रकार के चारित्र या चरित्र वाला व्यक्ति / 17. तव तपः, जिससे कर्मों का क्षय होता है, इच्छानिरोध / 18. थेर स्थविर, वृद्ध / आगम में स्थविर के तीन प्रकार बताये हैं--. (1) वयःस्थविर–६० वर्ष की आयु वाला भिक्षु / (2) प्रव्रज्यास्थविर-२० वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला भिक्षु / (3) श्रुतस्थविर-स्थानांग, समवायांग आदि का ज्ञाता। 16. पत्त-चीवर पात्र-भाजन, चीवर-वस्त्र / 20. परिणिन्वाणवत्तिय श्रमणों के देह-त्याग के निमित्त से कायोत्सर्ग का किया जाना / 21. पोरिसी एक पहर का समय / पुरुष-प्रमाण छाया-काल / 22. संयम ___ मनोनिरोध, इन्द्रिय-निग्रह, यत्नापूर्वक जीवहिंसादि का त्याग / 23. समुदाण उच्च, नीच और मध्यम कुल की भिक्षा, गोचरी। 24. सज्झाय स्वाध्याय, शास्त्र का पदन आवर्तन इत्यादि / Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-पारिभाषिक शब्दकोष | / 77 25. समण __ श्रमण-श्रमशील मुनि, निर्ग्रन्थ / 26. संलेहणा संलेखना, शारीरिक और मानसिक तप से कषाय आदि आत्मविकारों को तथा काय को कृश करना / मरण से पूर्व अनशन बत, संथारा करना / 27. सामण्ण-परियाय श्रामण्यपर्याय, साधुता का काल, संयम-वृत्ति / 28. समोसरण समवसरण, तीर्थङ्कर का पधारना / 12 प्रकार की सभा का मिलना। जहां भगवान् विराजित होते हैं, वहाँ देवों द्वारा की जाने वाली विशिष्ट रचना। 26. सागरोवम सागरोपम, काल विशेष, दश कोडाकोडी पल्योपमपरिमित काल जिसके द्वारा नारकों और देवों का आयुष्य नापा जाता है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय-पद-संकलना ठीक ही यदि जिस जब 2. अन्तं 3. अंतिए 4. अण्णया 5. अलं 6. अवि 7. ग्रह 8. अहापज्जतं 6. अहापडिरूवं 10. अहासुहं और 25. चेव अन्त, अवसान, मृत्यु समीप, पास अन्यदा, किसी समय 26. जइ समर्थ, पूर्ण 27. जं 28. जया 26. जहा अथ, पक्षान्तर, प्रारम्भ * जहानामए पर्याप्त, काफी यथायोग्य 31. जामेव 32. जाव सुख से, माराम से 33. जावज्जीवाए 34. जाहे अनुक्रम से 35. जेणेव जैसे यथानाम, जैसे कि जिस यावत्, तक जीवन पर्यन्त जब जिस ओर 11. प्राणुपुब्बीए 12. इ, इति 13. इमेयारूवे समाप्ति, पूर्ण वाक्यालंकार इस प्रकार नहीं 38. णवरं 14. उच्च 15. उड्ढे 16. उप्पि ऊँचा 38. णाणत्त ऊपर 40. णाम ऊपर 41. णो विशेष नानात्व, भिन्नता नाम नहीं त 17. एवं 18. एव 16. एवामेव 20. कई 21. कदाइ, कयाइ 22. कहि 23. केवइयं इस प्रकार 42. तए ही, निश्चय 43. तं जहा इसी प्रकार 44. तत्थ 45. तहा कितने 46. तहेव कभी 4 . तामेव कहाँ 48. ति कितने 46. तिकटटु 50. तेणं निश्चय 51. तेणेव अनन्तर वह इस प्रकार वहाँ तथा, उसी प्रकार उसी प्रकार उसी समाप्त इस प्रकार करके उस 24. खलु उस पोर Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्यय-पद-संकलना ] [76 52. दूरं विकल्प अपि, भी 53. नवरं 54. नामं दूर 58. वा 56. वावि विशेष नाम 60. सच्चेव 61. सद्धि भी 62. सयं 63. सव्वत्थ नहीं, निषेध 64. से वही, साथ स्वयं, अपने आप सर्वत्र वह, अथ hd और 65. हु, खलु निश्चय Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया-पद-संकलना जाना गिनना ग्रहण करना करेह ग्लानि करना ग्रहण करना 1. अड घमना 8. गच्छ अडमाणे गच्छइ 2. अहिज्ज अध्ययन करना गच्छित्ता अहिज्जइ गच्छिहिइ अहिज्जिता गच्छित्तए अहीए (अधीतः) उवागच्छइ 3. कर करना 6. गणेज्ज करेइ गणेज्जमाणे करेन्ति 10. गेह उरिगण्हामि कारेइ 11. गिल काहिइ गिलाइ करित्ता 12. गिह करित्तए गेण्हति किच्चा मेण्हावेइ पडिगाहित्तते कहना पडिगाहित्ता कहेइ 13. चर 5. कप्प योग्य चरमाणे कप्पइ 14. चिट्ठ कम घूमना चिट्ठइ निक्खमई 15. जाण निक्खमित्ता जाणित्ता पडिनिक्खमइ 16. जोइज्ज पडिनिक्खमित्ता जोइज्जमाणे निक्खंतो 17. तर वीईवइत्ता (वि अति ब्रज) लांघ कर उत्तरंति 7. गम जाना अवयरंति उवागए ओयरंति उवागमित्ता 18. दूइज्ज पडिगए दुइज्जमाणे पडिगया 16. दिस निग्गया उद्दिस्सइ कटु कह चलना ठहरना जानना दिखाई देना गति करता घुमना बतलाना Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [81 बोलना रहना जाना सकना सिद्ध होना पूछना परिशिष्ट-क्रिया-पद-संकलना ] 20. दंस दिखलाना वागरित्ता पडिदंसेइ 35. वय 21. नमस नमस्कार करना वयासी नमसइ वदासी नमंसित्ता 36. वस 22. पज्जुवास (परि, उप, आस) सेवा करना परिवसइ पज्जुवासइ 37. वय पज्जुवासित्ता पब्वयामि 23. पन्नाय पहचानमा पव्व इत्ता पन्नायंति पब्वइए 24. पाउण पालन करना 38. संचाए पाउरिणत्ता संचाएइ 25. पण्णत्ते (प्रज्ञप्त) कहा 36. सिझ 26. पुच्छ सिज्झइ पुच्छइ सिज्झइत्ता पापुच्छामि सिज्झिहि प्रापुच्छित्ता सिज्झिसंति 27. भण कहना 40. सम्म भन्नइ निसम्म (निशम्य) भाणियव्वं 41. सोच्चा-श्रु त्वा 28. भव होना 42. सोभ भवमाणे उवसोभमाणे भवित्ता 43. समोसढे (सम्, अव, सृतः) 26. भास बोलना 44. हर भासिस्सामि आहारेइ 30. मिलाय म्लान होना आहारित्ता मिलायमाणी विहरेइ 31. रुह चढ़ना विहरित्ता 32. लभ प्राप्त करना विहरित्तए लभइ 45. हो 33. बन्द वन्दना करना होइ वन्दइ होत्था वन्दित्ता 46. ने, णे 33. बागर कहना नेयव्वा वागरेइ णेयव्वा सुनना सुनकर शोभित होना पाए, पधारे लेना होना ले जाना Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ अ=और अणगारे अनगार अंगस्स = अंग का अणज्भोववण्णे = विषयों में अनासक्त अंगाई = अंग (ब. वचन) अणायंबिलं = अनाचाम्ल, आयंबिल नामक तप अंतं = अन्त, अवसान, मृत्यु विशेष से रहित अंतिए - समीप, पास, नजदीक अणि विखत्तणं = अनिक्षिप्त (निरन्तर), बिना किसी अंतेवासी = शिष्य बाधा के अंब-गुठिया=आम की गुठली अणुझिय-धम्मियं = उपयोगी, रखने योग्य अंबगपेसिया =आम की फाँक अणुत्तरोववाइयदसाणं = अनुत्तरौपपातिकदशा नाम अंबाडग-पेसिया = अाम्रातक-अम्बाड़े की फांक वाले नवें अंगशास्त्र का अकलुसे = क्रोध आदि कलुषों से रहित अणेग-खंभसयसन्निविट्ठ-अनेक सैकड़ों स्तम्भों से अक्खयं = कभी नाश न होने वाला युक्त अक्खसुत्त-माला = रुद्राक्ष की माला अण्णया = अन्यदा, किसी समय अगस्थिय-संगलिया=अगस्तिक वृक्ष को फली अदीणे = दीनता से रहित अग्गहत्थेहि हाथ के पंजों से / अपराजिते = अपराजित नामक अनुत्तर विमान में अच्छीण = आँखों का अपरितंतजोगी = अविधान्त अर्थात् निरन्तर अज्ज = आर्य समाधि-युक्त अज्झयणस्स = अध्ययन का अपरिभूया = अतिरस्कृत, नीचा न देखने वाली अभयणा =अध्ययन अपुणरावत्तयं-जिससे वापिस न लौटना पड़े अज्झयणे - अध्ययन अप्पडिहय-वर-नाण-दसण-धरेणं = अप्रतिहत अट्ठ = आठ (विघ्न-बाधा से रहित) श्रेष्ठ ज्ञान और अठ्ठठ्ठोपाठ-पाठ दर्शन धारण करने वाले अट्ठण्हं = आठ के (विषय में) अप्पाणं - अपने आत्मा को अट्ठमस्स पाठवें का अप्पाणेणं = प्रात्मा से अठि-चम्म-छिरत्ताए = हड्डी, चमड़ा और नसों से अभणुण्णाते- प्राज्ञा होने पर, आज्ञा मिल जाने अट्ठी अस्थि, हड्डी अछे = अर्थ अब्भत्थिते = अन्दर उत्पन्न हुआ विचार अडमाणे = घूमता हुआ अभुग्गत-मुस्सिते = बड़े और ऊंचे अड्ढा = समृद्धा, ऐश्वर्य वाली अब्भुज्जताए = उद्यम वाली अणंतं = अन्त रहित अभप्रो= अभय कुमार अणगारं= अनगार को अभय-दएणं = अभय देने वाले अणगारस्स-अनगार-माया ममता को अभयस्स-अभयकुमार का छोडकर घर का त्याग करने वाले साधु का अभये = अभयकुमार Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [83 परिशिष्ट-शब्दार्थ ] अभिग्गहं = प्रतिज्ञा, आहार आदि करने की मर्यादा बाँधना अमुच्छिते - बिना किसी लालसा के, अनासक्त अम्मयं - माता को अयं यह अयल-अचल, स्थिर अरुयं = प्राधि व्याधि से रहित अलं-पूर्ण अलत्तग-गुलिया = महेंदी (महावर) की गुटिका अवकखंति = चाहते हैं अवि-भी अविमणे = विना दुःखित चित्त के अविसादी - बिना विषाद (खेद) के अव्वाबाहं -बाधा से रहित प्रसंसट्ठ = बिना भरे हाथों से असि =है अह (हं)= मैं अहम् अथ, पक्षान्तर या प्रारम्भ सूचक अव्यय अहा-पज्जत्त = आवश्यकतानुसार अहापडिरूवं यथायोग्य, उचित अहासुहं सुख के अनुसार अहिज्जति - अध्ययन करता है अहीए= पठित, सीखा अहीण -हीनतारहित, पूरा प्राइगरेणं - प्रारम्भ करने वाले आइल्लाण = आदि के, पहले के आउक्खएणं = आयु के क्षय होने से प्राणुपुव्वीए = अनुक्रम से आपुच्छइ, ति= पूछता है, पूछती है आपुच्छण - पूछना आपुच्छामिपूछता हूँ आयंबिलं = एक प्रकार का तप आयंबिल-परिग्गहिएणं - आयंबिल तप की रीति से ग्रहण किया हुआ आयवे = धूप में आयार-भंडए =संयम पालने के उपकरण आयाहिणं = आदक्षिण आयाहिणं-पायाहिणं = दक्षिण दिशा से प्रारम्भ की हुई प्रदक्षिणा श्रारण्णच्चुए = प्रारण-ग्यारहवां देवलोक, अच्युत-बारहवां देवलोक प्राहरति =ग्राहार करता है आहारं =भोजन अाहारेति = भोजन करता है आहिते कहा गया है। इ= इति, परिचय या समाप्ति-सूचक अव्यय इंगाल-सगडिया = कोयलों की गाड़ी इंदभूति-पामोक्खाणं = इन्द्रभूति आदि में इच्छामि = चाहता हूँ इति =समाप्ति-बोधक-अव्यय, परिचयात्मक अव्यय इब्भवर-कन्नगाणं =धनी श्रेष्ठियों की कन्याओं का इमासि = इनमें इमे=ये इमेणं = इससे इमेयारूवे = इस प्रकार के इसिदासे = ऋषिदास कुमार ईर्या-समिते = ईर्या-समिति वाला, यत्नाचारपूर्वक चलने वाला उक्कमेणं = उत्क्रम से, उलटे क्रम से, नीचे से ऊपर उक्खेवग्नो प्राक्षेप, न कहे हुए वाक्यों का पीछे के वाक्यों से ग्रहण करना उग्गहं = अवग्रह, सम्मान, पूजा आदि उच्च. = (उच्च-मज्झम-नीय) उच्च, मध्यम और नोच कुलों से उच्चट्ठवणते=ऊँचे गले का पात्र विशेष उज्जाणातो- उद्यान से, बगीचे से उज्जाणे = उद्यान, बगीचा उज्झिय-धम्मियं = निरुपयोगी, फेंक देने योग्य उदृ-पाद-ऊँट का पैर उहाणं = ओंठों की Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84] उडढं = ऊँचे उण्हे = गर्मी में उदरं = पेट उदर-भायण = उदर-भाजन, पेट रूपी पात्र उदर-भायणेणं - उदर-भाजन से उदर-भायणस्स- उदर-भाजन की उप्पि =ऊपर उब्भड-घटामुहे = घड़े के मुख के समान विकराल मुख वाला उम्मक्क-बालभाव =बालकपन से अतिक्रान्त. जिसने बचपन पार किया है उयरंति = उतरते हैं उर-कडग-देस-भाएणं = वक्षस्थल (छाती) रूपी चटाई के विभागों से उर-कडयस्स = छाती रूपी चटाई की उवयालि = उपजालि कुमार उववजिहिंति = उत्पन्न होंगे उववण्णे, न्ने = उत्पन्न हुया उववायो= उपपात, उत्पत्ति उवसोभेमाणे = शोभायमान होता हुआ उवागच्छति = आता है उवागवे =पाया उब्वुड-णयणकोसे = जिसकी आँखें भीतर धंस गई हैं ऊरुस्स = ऊरुओं का ऊरू=दोनों ऊरू एएसि- इनके विषय में, इनका एक्कारस = ग्यारह एग-दिवसेणं = एक ही दिन में एयं इस एयारूवे इस प्रकार का एवं = इस प्रकार एव ही, निश्चयार्थ बोधक अव्यय एवामेव=इसी प्रकार एसणाए एषणा-समिति = उपयोगपूर्वक आहार आदि की गवेषणा से [ अनुत्तरोपपातिकदशा ओयरंति - उतरते हैं अोरालेणं = उदार-प्रधान कई = कितने कंक-जंघा=कङ्क नामक पक्षी की जंघा कंपण-वातियो= कम्पनवायु के रोग वाला व्यक्ति कट्ठ-कोलंबए = लकड़ी का कोलंब--पात्र विशेष कट्ठ-पाउया = लकड़ी की खड़ाऊँ कडि-कडाहेणं = कटि (कमर) रूपी कटाही से कडि-पत्तस्स = कटि-पत्र की, कमर की कण्ण = कान कण्णाण = कानों की कण्हो= कृष्ण वासुदेव कतरे कौनसा कदाति-कभी, कदाचित् कन्नावली = कान के भूषणों की पंक्ति कप्पति = कल्पता है, योग्य है कप्पे = कल्प, वैमानिक देवों के सौधर्म आदि विमान कय-लक्खण =सफल लक्षण वाला कयाइ (ति) = कदाचित्, कभी करग-गीवा-करवे (मिट्टी के छोटे से पात्र) __ की ग्रीवा अर्थात् गला करेंति करते हैं करेति = करता है करेह = करो कल-संगलिया=कलाय-धान्य विशेष की फली कलातो=कलाएँ कलाय-संगलिया कलाय की फली कहिं = कहाँ कहेति= कहता है काउस्सग्ग = कायोत्सर्ग, धर्म-ध्यान काक(गं)दी-काकन्दी नाम की नगरी काक-जंघा = कौवे की जाँघ, काक-जंघा नामक ओषधि विशेष कागंदीए = काकन्दी नगरी में Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [85 परिशिष्ट--शब्दार्थ / कायंदीयो काकन्दी नगरी से कारेति = करवाता है कारल्लय-छल्लिया = करेले का छिलका 1. कालं = काल, समय 2. कालं = मृत्यु (से) काल-गते= मृत्यु को प्राप्त कालगयं = मृत्यु को प्राप्त हुए को काल-मासे = मृत्यू के समय कालि-पोरा = कालि-वनस्पति विशेष का पर्व (सन्धि-स्थान) कालेणं = काल से, समय से (में) काहिति = करेगा किच्चा = करके कुडिया-गीवा = कमण्डलु का गला कुमारे =कुमार के = कौनसा केणठेण = किस कारण केवतियं - कितने कोणितो=कोणिक राजा खंदो(तो) स्कन्दक संन्यासी खंदग-बतब्वया=स्कन्दक सम्बन्धी कथन खंदयस्स स्कन्दक संन्यासी का खलु = निश्चय से खीर-धाती= दूध पिलाने वाली धाय गंगा-तरंग-भूएणं = गंगा की तरंगों के समान हुए गच्छति = जाता है गच्छिहिति =जाएगा गणिज्ज-माला = गिनती करने की माला गणेज्ज-माणेहि = गिने जाते हुए गते= गया गामानुगाम = एक गाँव से दूसरे गाँव गिलाति = खेद मानता है, दुःखित होता है गीवाए = ग्रीवा की, गर्दन की गुणरयण गुणरत्न नामक तप गुणसिलए (ते) = गुण-शिल नामक उद्यान गूढदंते = गूढदन्त कुमार गेण्हति = ग्रहण करते हैं गेण्हावेति = ग्रहण कराता (ती) है गेवेज्जविमाणपत्थडे = ग्रेवेयक देवों के निवास-स्थान के प्रान्त भाग से गोतमपुच्छा = गौतम का पूछना गौतमस्वामी = गौतम स्वामी, श्री महावीर स्वामी के मुख्य शिष्य गोत(य)मा हे गौतम ! गोतमे = गौतम स्वामी गोयमे =गौतम स्वामी गोलावली = एक प्रकार के गोल पत्थरों की पंक्ति चउदसण्हं = चौदह का चंदिम = चन्द्रविमान चंदिमा = चन्द्रिकाकुमार चक्खुदएणं =ज्ञानचक्षु प्रदान करने वाले चम्मच्छिरत्ताए = चमड़ा और शिराओं के कारण चरेमाणे = चलते हुए, विहार करते हुए चलंतेहि = चलते हुए, हिलते हुए चितरणा धर्मचिन्ता चिंता = चिन्ता चिट्ठति = स्थित है, रहता है, रहती है चित्त-कटरे = गौ के चरने के कुण्ड के नीचे का हिस्सा चेतिए (ते)--- चैत्य, उद्यान, बगीचा चेल्लगाए = चेल्लणा रानी के चेव ही ठीक ही चोदसण्हं = चौदह का छठंछठे =षष्ठ षष्ठ तप से, बेले-बेले छठस्सवि = छठे (भक्त) पर भी छत्तचामरातो छत्र और चामरों से छ मासा= छः महीने छिन्ना =तोड़ी हुई ज=जिस जंघाणं =जंघाओं का जंबु = जम्बू स्वामी को Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अनुत्तरौपपातिकदशा जंबू = जम्बू स्वामी, सुधर्मा स्वामी के मुख्य शिष्य / जेणेव - जिस श्रीर जणगीग्रो= माताएँ जोइज्जमाणेहि = दिखाई देती हुई जरणवयविहार = देश में विहार ठाणं = स्थान को जधा=जैसे ठिती = स्थिति जमालि = जमालि कुमार ढेणालिया-जंघा ढेरिणक पक्षी की जंघा जम्म-जन्म ढेणालियापोरा = ढेणिक पक्षी के सन्धिस्थान जम्मजीवियफले = जन्म और जीवन का फल 76 ण = नहीं, निषेधार्थक अव्यय जयंते-जयन्त विमान में गगरी-नगरी जयणघडणजोगचरित्त - जयन (प्राप्त योगों में णगरीए = नगरी में उद्यम) घटन (अप्राप्त योगों की प्राप्ति का णगरीतो नगरी से उद्यम) और योग (मन आदि इन्द्रियों के गरे= नगर संयम) से युक्त चरित्र वाला णमंसति-नमस्कार करता है जरग्ग-प्रोवाणहा = सूखी जूती णवरं= विशेषता-बोधक अव्यय जरग्ग-पाद = बूढे बैल का पैर (खुर) णाणत्त = नानात्व, भिन्नता जहा=जैसा, जैसे णाम = नाम जहाणामए (ते) = यथा-नामक, कुछ भी नाम वाला णाम= नाम वाला जा=जैसी णिक्खतो = निकला, गृहस्थी छोड़कर दीक्षित हो जाणएणं जानने वाले गया जाणूणं =जानुओं का णिक्खमणं = निष्क्रमण, दीक्षा होना जाणेत्ता = जानकर णिग्गता (या)=निकली जाते =बालक णिग्गते = निकला जाते-हो गया णिग्गतो(ओ) = निकला जामेव = जिसी णिम्मंस = मांस-रहित जाली = जालि अनगार को णो = नहीं, निषेधार्थक अव्यय जालि = जालि कुमार तए - इसके अनन्तर जालिस्स = जालि की तग्रो तीन जालीकुमारो= जालिकुमार तं = उस जावज्जीवाए जीवनपर्यन्त तंजहा=जैसे जाहे जब तच्चस्स= तीसरे जिणेणं = राग-द्वेष को सर्वथा जीतने वाले जिन तते = इसके अनन्तर भगवान् ने ततो- इसके अनन्तर जियसत्तु = जितशत्रु राजा को तत्थ = वहां जियसत्त = जितशत्रु नाम का राजा तरुणए (ते) - कोमल जिब्भाए = जिह्वा की, जीभ की तरुणगएलालुए = कोमल आलू जीवेण = जीव की शक्ति से तरुणग-लाउए - कोमल तुम्बा जोहा जिह्वा, जीभ तरुणिका= छोटी, कोमल Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - शब्दार्थ ] [87 तव =तेरा तेरसमे =तेरहवाँ तब-तेय-सिरीए = तप और तेज की लक्ष्मी से तेरसवि = तेरह की तव-रूव-लावन्ने =तप के कारण उत्पन्न हुई सुन्दरता तेसि उनके तवसा = तप से तो तो तवेणं-तप से त्ति= इति तवो-कम्मतपः क्रिया थावच्चापुत्तस्स-थावच्चा पुत्र की, थावच्चा नामक तवो-कम्मेणं -तप-कर्म से गाथापत्नी का पुत्र, जिसने एक सहस्र मनुष्यों तस्स = उसका के साथ दीक्षा ली तहा= उसी तरह थावच्चापुत्तो-थावच्चा पुत्र तहा-रूवाणं = तथा-रूप, शास्त्रों में वर्णन किये हुए थासयावली= दर्पणों (पारसियों) की पंक्ति ___ गुणों से युक्त साधुओं का थेरा=स्थविर भगवान तहेव = उसी प्रकार थेराणं = स्थविर भगवन्तों का ताए= उस थेरेहि - स्थविरों के (से) ताओ उस दस-दश तामेव - उसी दसमे = दशवाँ, दशम तारएणं = दूसरों को तारने वाले दसमो-दशम, दशवां तालियंट-पत्त = ताड़ के पत्त का पंखा दामो- दहेज ति- इति समाप्ति या परिचयबोधक अव्यय दारए- बालक तिकटु = इस प्रकार करके दारयं = बालक को तिक्खुत्तो- तीन वार दिन्ना = दो हुई तिण्णि - तीन दिवसं दिन तिण्हं - तीन का दिसं = दिशा को तित्थगरेणंचार तीर्थों की स्थापना करने वाले दोहदंते- दीर्घदन्त कुमार द्वारा दीहसेणे = दीर्घसेन कुमार तिन्नेणं -संसार-सागर से पार हुए दुमसेणे = द्र मसेन तीसे = उस दुमे =द्रम कुमार तुब्भेणं = पाप से दुरुहंति = प्रारोहण करते हैं, चढ़ते हैं तुमं= तुम दुरूहति = प्रारोहण करता है, चढ़ता है ते=वे दूरंदूर तेएणं-तेज से देवस्स-देव की तेणं = उस देवत्ताए-देव-रूप से तेणठेणं = इस कारण देव-लोगायो- देवलोक से तेणेव = उसी ओर देवाणु प्पियाणं = देवों के प्रिय (आप) का तेत्तीसं = तेतीस देवाणु प्पिया- देवों के प्रिय (तुम) तेरस = तेरह देवी = राज-महिषी, पटरानी तेरसहवि-तेरहों की देवे= देव Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88] [ अनुत्तरौपपातिकदशा दोच्चस्स- दूसरे पंच-धाति-परिग्गहित= पाँच धाइयों द्वारा ग्रहण दोण्ह-दो का किया हुआ दोन्नि =दो का पगति-भद्दए - प्रकृति से भद्र, सौम्य स्वभाव वाला धष्णस्स = धन्य कुमार या धन्य अनगार का पग्गहियाए = ग्रहण की हुई, स्वीकार की हुई धण्णे (न्ने)-धन्य कुमार या अनगार पज्जवासति-सेवा करता है धण्णे-धन्य है पडिगए = चला गया धण्णो (नो)- धन्य अनगार पडिगो= चला गया धन्न - धन्य कुमार नाम का पडिगता-चली गई धन्नस्स - धन्य कुमार या अनगार का पडिगया- चली गई धम्म-कहा-धर्म-कथा पडिगाहेति ग्रहण करता है धम्म-जागरियं =धर्म-जागरण पडिग्गहित्तते = ग्रहण करने के लिए धम्म-दएणं = श्रु त और चारित्र रूप धर्म देने वाले पडिणिक्खमति = बाहर निकलता है धम्म-देसएणं =धर्म का उपदेश करने वाले / पडिदंसेति = दिखाता है धम्म-वर-चाउरत-चक्कवट्टिणा = उत्तम चारों पडिबंध - प्रतिबन्ध, विघ्न, देरी दिशाओं पर अखंड शासन करने वाले उत्तम पढम-छट्ठ-क्खमण-पारणगंसि पहले षष्ठ व्रत धर्म के चक्रवर्ती (वेले) के पारण में धारिणी= श्रेणिक राजा की एक रानी पढमस्स = पहले धारिणी-सुपा-धारिणी देवी के पुत्र पढमाए = पहली नंदादेवी = इस नाम वाली रानी पढमे = पहले (अध्ययन) में नगरी=नगरी पण्णग-भूतेणं = सर्प के समान नगरीए = नगरी में पण्ण (न्न) त्ता प्रतिपादन किये हैं नगरे नगर पण्ण (न) त्ते = प्रतिपादन किया है, कहा है नव = नौ पण्णा (ना) यति = पहचाने जाते हैं नवण्हं = नौ की पत्त-चीवराई पात्रों और वस्त्रों को नवण्हवि = नौवों की पयययाए=अधिक यत्न वाली नवमस्स = नौवें का परिनिव्वाण-वत्तियं - मृत्यु के उपलक्ष्य में किया नव-मास-परियातो- नौ महीने की संयमवृत्ति जाने वाला नवमे = नौवाँ परियातो= संयम अवस्था या साधु-वृत्ति नवमोनौवाँ परिवसइ(ति) = रहता है(थी) नवरं= विशेषता-सूचक अव्यय परिसा परिषद्, श्रोतृ-समूह नाम नाम वाला पलास-पत्ते = पलाश (ढाक) का पत्ता नासाए - नासिका की, नाक की पव्वइ(ति)ते प्रवजित हुआ निसम्म = ध्यानपूर्वक सुनकर पव्वयामि = प्रवजित हुआ हूँ, दीक्षा ग्रहण करता हूँ पंच-पांच पव्वाय-बदण-कमले = जिसका मुख-कमल पंचण्हं पाँच का मुरझा गया हो पंच-धाति-परिक्खित्तो - पाँच धाइयों से घिरा हुआ पाउणित्ता - पालन कर Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट शब्दार्थ ] [86 पाउन्भूते = प्रकट हुआ फुट्टतेहि = बड़े जोर से बजाते हुए मृदङ्ग आदि पांसुलि-कडएहि = पलसियों की पंक्ति से वाद्यों के नाद से युक्त पांसुलिय-कडाणं - पार्श्वभाग को अस्थियों बंभयारी- ब्रह्मचारी (हडियों) के कटकों की बत्तीसं = बत्तीस पाणं = पानी बत्तीसाए = बत्तीस पाणावली = पाण- एक प्रकार के बर्तनों की पंक्ति बत्तीसाप्रो= वत्तीस पाणि =हाथ बद्धीसग-छिड्डे = बद्धीसक नामक बाजे का छेद पात-जंघोरुणा = पैर, जंघा और उरुओं से बहवे = बहुत से पादाणं पैरों की बहिया - बाहर पाभातिय-तारिगा-प्रातःकाल का तारा बहू = बहुत पायंगुलियाणं = पैरों की अँगुलियों का बारसबारह पाय-चारेणं =पैदल चल कर बालत्तणं-बालकपन पाया• पैर बावत्तरि = बहत्तर पारणयंसि-पारण करने पर, पारणा में बाहाणं = भुजानों की पासायडि (डे)सए(ते) = श्रेष्ठ महल में बाहाया-संगलिया = बाहाय नाम वाले वृक्ष विशेष पि = भी की फली पिठि-करंडग-संधीहि -पृष्ठ-करण्डक (पीठ बाहाहि = भुजाओं से के उन्नत प्रदेशों) की सन्धियों से बिलमिव = बिल के समान पिठि-करंडयाणं = पीठ की हड्डियों के बीणा-छिड्डे = वीणा का छेद उन्नत प्रदेशों की बुद्धणं = बुद्ध, ज्ञानवान् पिठि-मवस्सिएणं = पीठ के साथ मिले हुए बोद्धव्वे - जानना चाहिए पिठि-माइया = पृष्ठिमातृक कुमार बोरी-करील्ल =बेर की कोंपल पिता(या) पिता बोहएणं = दूसरों को बोध कराने वाले पुच्छति = पूछता है भंते हे भगवन् ! पुठिले पृष्ठिमायी कुमार भगवं = भगवान् पुत्ते = पुत्र भगवंता= भगवान् पुन्नसेणे = पुण्यसेन कुमार भगवता (या)- भगवान् ने पुरिससेणे = पुरुषसेन कुमार भगवतो= भगवान् का पुव्वरत्तावरत्तकाल-समयंसि = मध्य रात्रि के समय भज्जणयकभल्ले = चने आदि भूनने की कढ़ाई भत्त = भात, भोजन पुन्वरत्तावरत्तकाले मध्य रात्रि में भद्द - भद्रा सार्थवाहनी को पुवाणुपुब्बीए= क्रम से भद्दा = भद्रा नाम वाली पेढालपुत्त = पेढालपुत्र कुमार भद्दाए - भद्रा सार्थवाहिनी का पेल्लए- पेल्लक कुमार भद्राप्रो = भद्रा नाम वाली से पोरिसीए = पौरुषी, प्रहर, दिन या रात का चौथा / भन्नति = कहा जाता है भाग भवणं = भवन Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ अनुत्तरौपपातिकदशा भवित्ता = होकर मुंडे = मुण्डित भाणियव्वं, व्वा-कहना चाहिए मुग्ग-संगलिया=मूग की फली भावेमाणे- भावना करते हुए मुच्छिया = मूच्छित भासं =भाषा, बोल मूलाछल्लिया = मूली का छिलका भास-रासि-पलिच्छिन्ने = राख के ढेर से ढंकी हुई मेहो - मेघकूमार भासिस्सामि = बोलूगा मुक्केणं स्वयं मुक्त हुए भुक्खेणं = भूख से मोयएणं = दूसरों को संसार-सागर से मुक्ति भोग-समत्थे = भोग भोगने में समर्थ दिलाने वाले मंस-सोणियत्ताए - मांस और रुधिर के कारण य= और मग्ग-दएणं = मुक्ति-मार्ग दिखाने वाले रायगिहे राजगृह नगर मज्झे = बीच में राया =राजा मम = मेरा रिद्ध (द्धि ? ) स्थिमिय-समिद्ध, द्धा= धन धान्य से मयालि= मयालिकुमार युक्त, भयरहित और सब प्रकार के ऐश्वर्य से मयूर-पोरा= मोर के पर्व (सन्धि-स्थान) युक्त महता=बड़े भारी लटठदंते-लष्ट दन्त कुमार महब्बले = महाबलकुमार लभति प्राप्त करता है महाणिज्जरतराए-बहुत कर्मों की निर्जरा करने लाउय-फले - तुम्बे का फल वाला लुक्ख - रूक्ष महा-दुक्कर-कारए = अत्यन्त दुष्कर तप करने वाला लोग-नाहेणं = तीनों लोकों के स्वामी महादुमसेणमाती = महाद्र मसेन आदि लोग-पज्जोयगरेणं = लोक उद्योतकर, लोक में या महादुमसेणे - महाद्र मसेन कुमार लोक को प्रकाशित करने वाला महाविदेहे = महाविदेह (क्षेत्र) में लोग-प्पदीवेणं = लोकों में दीपक के समान प्रकाश महावीरं = भगवान महावीर स्वामी को करने वाले महावीरस्स = महावीर स्वामी का वंदति-वन्दना करता है महावीरे =महावीर स्वामी वग्गस्स = वर्ग का महावीरेणं = महावीर से वग्गा = वर्ग महासीहसेणे = महासिंहसेन कुमार वट्टयावली - लाख आदि के बने हुए बच्चों के महासेणे = महासेनकुमार खिलौनों की पंक्ति मा = नहीं, निषेधार्थक अव्यय वड-पत्त = बड़ का पत्ता माणुस्सए = मनुष्य सम्बन्धी वत्तव्वया वक्तव्य, विषय मातुलुगपेसिया =मातुलुग-बीजपूरक की फाँक वयासी = कहने लगा, बोला माया (ता)= माता वा = विकल्पार्थ-बोधक अव्यय मास-संगलिया -उडद की फली वारिसेणे = वारिसेन कुमार मासिका एक मास की वालुक-छल्लिया=चिर्भरी की छाल मिलायमाणी = मुरझाती हुई वावि (वा+अवि) भी मुडावली = खम्भों की पंक्ति वासा=वर्ष Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-शब्दार्थ ] वासाई, (ति)= वर्ष तक वासे-क्षेत्र में विउलं = विपुलगिरि पर्वत विगत-तडि-करालेणं = नदी के तट के समान भयंकर प्रान्त भागों से विजए (ये) - विजय विमान में विजय-विमाणे = विजय नामक विमान में विपुलं = विपुलगिरि नामक पर्वत विमाणे = विमान में वियण-पत्त = बाँस आदि का पंखा विहरति = विचरण करता है विहरामि = विचरण करता हूँ विहरित्तते = विहार करने के लिए वीतिवतित्ता = व्यतिक्रान्त कर, अतिक्रमण कर, लांघकर वुच्चति = कहा जाता है वृत्तपडिवुत्तया = उक्ति-प्रत्युक्ति वुत्त = कहा गया है वेजयंते-वैजयंत विमान में वेवमाणीए = काँपती हुई वेहल्ल-बेहायसा = वेहल्ल कुमार और विहायस कुमार बेहल्लस्स = वेहल्लकुमार का वेहल्ले = वेहल्लकुमार वेहायसे = विहायसकुमार संचाएति = समर्थ होता है संजमे =संयम में, साधु-वृत्ति में संजमेणं =संयम से संपत्तण = मोक्ष को प्राप्त हुए संलेहणा = संलेखना, शारीरिक व मानसिक तप द्वारा कषायादि का नाश करना, अनशन व्रत संसट्ठ = भोजन से लिप्त (हाथों) आदि से दिया हुया सच्चेव = वही सत्त-सात सत्थवाहि -सार्थवाहिनी को [61 सत्थवाही = सार्थवाहिनी, व्यापार में निपुण स्त्री सद्धि' = साथ समएणं = समय समणं - श्रमण को समरण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा श्रमण, माहन (श्रावक), अतिथि, कृपण और वनीपक (याचक विशेष) समणस्स-श्रमण भगवान् का समणे = श्रमण भगवान् समणेणं = श्रमण भगवान् ने समाणी = होने पर समाणे होने पर समि= संगलिया-शमी वृक्ष की फली समोसढे = पधारे, विराजमान हुए समोसरणं = पधारना, तीर्थकर का पधारना सयं अपने आप सयं-संबुद्धणं अपने आप बोध प्राप्त करने वाले सरण-दएणं = शरण देने वाले सरिसं-समान सरीर-वन्नो शरीर का वर्णन सल्लति-करिल्ले शल्य वृक्ष की कोंपल सव्वट्ठसिद्ध = सर्वार्थसिद्ध विमान में सवस्थ = सर्वत्र, सब के विषय में सव्वो सब सम्वोदए - सब ऋतुओं में हरा-भरा रहने वाला सहस्संबवणे = सहस्राम्रवन नाम वाला एक बगीचा सहस्संबवणातो = सहस्राम्रवन उद्यान से सा= वह साएए = साकेतपुर में साग-पत्त = शाक का पत्ता सागरोवमाई =सागरोपम, काल का एक विभाग साम-करील्ले = प्रियंगु वृक्ष की कोंपल सामन्न-परियागं = साधु का पर्याय, साधु का भाव, संयम-वृत्ति सामन्न-परियातो=संयम-वृत्ति सामली-करिल्ले =सेमल वृक्ष को कोंपल Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] सामाइयमाइयाइं सामायिक आदि सामी=स्वामी साहस्सीणं = सहस्रों में-(सहस्रों का) सिझणा - सिद्धि सिज्झहिति= सिद्ध होगा सिढिल-कडाली = ढीली लगाम सिण्हालए =सेफालक नामक फल विशेष सिद्धि-गति-नामधेयं = सिद्धि गति नाम वाले सिलेस-गुलिया =श्लेष्म की गुटिका सिवं- कल्याणरूप सीस --शिर सीस-घडीए - शिररूपी घट से सीसस्स = शिर की सीहसेणे = सिंहसेन कुमार सीहे = सिंह कुमार सीहो=सिंह, शेर सुकयत्थे = सुकृतार्थ, सफल सुक्कं = सूखा हुआ सुक्क-छगणिया = सूखा हुआ गोबर, गोहा-छाणा सुक्क-छल्ली - सूखी हुई छाल सुक्कदिए सूखी हुई मशक सुक्क-सप्प-समाणाहिं = सूखे हुए सर्प के समान सुक्का = सूखी हुई, सूखे हुए सुक्कातो सूखी हुई से सुक्केण = सूखे हुए सुणक्खत्त-गमेणं = सुनक्षत्र के समान सुणक्खत्तस्स = सुनक्षत्र के सुणक्खत्त = सुनक्षत्र कुमार सुपुण्णे = अच्छे पुण्य वाला सुमिणे = स्वप्न में सुरूपे = सुन्दर, अच्छे रूप वाला / अनुत्तरौपपातिकदशा सुलद्ध = अच्छी तरह से प्राप्त सुहम्मस्स = सुधर्मा नामक गणधर का सुहम्मे= सुधर्मा स्वामी सुहुय० (सुहुय-हुयासण इव) = अच्छी तरह से जली हुई अग्नि के समान सुद्धदंते = शुद्धदन्त कुमार से= वह, उसके से = अथ, प्रारम्भ-बोधक अव्यय सेणिए (ते)= श्रेणिक राजा सेणियो-श्रोणिक राजा सेणिया हे श्रेणिक ! सेसं शेष (वर्णन), बाकी सेसा=शेष सेसाणं = शेषों का सेसाणवि = शेषों का भी सेसावि = शेष भी सोच्चा=सुनकर सोणियत्ताए (ते) = रुधिर के कारण सोलस =सोलह सोहम्मीसाण == सौधर्म और ईशान नामक पहला और दूसरा देवलोक हकुब-फले = हकुब वनस्पति विशेष का फल हट्ठ-तुट्ठ = प्रसन्न और सन्तुष्ट हणुयाए चिबुक, ठोड़ी की हत्थंगुलियाणं - हाथों की अंगुलियों की हत्थाणं = हाथों की हत्थिणपुरे हस्तिनापुर में हल्ले हल्ल कुमार हुयासणे (इव) =अग्नि के समान होति होते हैं होत्था= था, थी Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास 1. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चोपड़ा, ब्यावर 2. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 2. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरड़िया, मद्रास 3. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, मद्रास 3. श्री ज्ञानराजजी मूथा, पाली 4. श्री एस. किशनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 4. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 5. श्री गुमानमलजी चोरड़िया, मद्रास 5. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 6. श्री कंवरलालजी बेताला, गोहाटी 6. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा७. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर टोला 8. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 7. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, 9. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, ब्यावर सिकन्दराबाद 8. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता 6. श्री जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, स्तम्भ बागलकोट 1. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपूर 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा (K. 2. श्री अगरचंदजी फतेचंदजी पारख, जोधपुर F.) एवं जाड़न 3. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, बालाघाट 11. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तालेरा, पाली 4. श्री मूलचंदजी चोरडिया, कटंगी 12. श्री नेमीचंदजी ललवाणी, चांगाटोला 5. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास 13. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 6. श्री जे. दुलीचंदजी चोरड़िया, मद्रास 14. श्री सिरेकवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगनचंद७. श्री हीराचंदजी चोरड़िया, मद्रास जी झामड़, मदुरान्तकम 8. श्री एस. रतनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 15. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर 6. श्री वर्द्ध मान इन्डस्ट्रीज, कानपुर 16. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 10. श्री एस. सायरचंदजी चोरड़िया, मद्रास 17. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 11. श्री एस. बादलचंदजी चोरड़िया, मद्रास 18. श्री भेरुदानजी लाभचंदजी सुराणा, धोवड़ी 12. श्री एस. रिखबचंदजी चोरडिया, मद्रास तथा नागौर 13. श्री आर. परसनचंदजी चोरड़िया, मद्रास 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 14. श्री अन्नराजजी चोरड़िया, मद्रास बालाघाट 15. श्री दीपचंदजी बोकड़िया, मद्रास 20. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 16. श्री मिश्रीलालजी तिलोकचंदजी संचेती, दुर्ग 21. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजी बोहरा, झूठा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] / अनुत्तरौपपातिकदशा 22. श्री मोहनराजजी बालिया, अहमदाबाद 6. श्री रतनलालजी चतर, ब्यावर 23. श्री चेनमलजी सुराणा, मद्रास 7. श्री जंवरीलालजी अमरचंदजी कोठारी, ब्यावर 24. श्री गणेशमलजी धर्मीचंदजी कांकरिया, नागौर 8. श्री मोहनलालजी गुलाबचंदजी चतर, ब्यावर 25. श्री बादलचंदजी मेहता, इन्दौर 6. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 26. श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 10. श्री के. पुखराजजी बाफना, मद्रास 27. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 11. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया 28. श्री इन्दरचंदजी बैद, राजनांदगांव 12. श्री चम्पालालजी बुधराजजी बाफणा, ब्यावर 26. श्री मांगीलालजी धर्मीचंदजी चोरडिया, चांगा- 13. श्री नथमलजी मोहनलालजी लुणिया, चण्डावल टोला 14. श्री मांगीलालजी प्रकाशचंदजी रुणवाल, बर 30. श्री रघनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा- 15. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपर टोला 16. श्री भंवरलालजी गौतमचंदजी पगारिया, 31. श्री भंवरलालजी मूलचंदजी सुराणा मद्रास कुशालपुरा 32. श्री सिद्धकरणजी बैद, चांगाटोला 17. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, कुशाल३३. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा पुरा 34. श्री भंवरीमलजी चोरड़िया, मद्रास 18. श्री फूलचंदजी गौतमचंदजी कांठेड, पाली 35. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चोपड़ा, अजमेर 16. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 36. श्री घेवरचंदजी पुखराज जी, गोहाटी 20. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 37. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, आगरा 21. श्री देवकरणजी श्रीचंदजी डोसी, मेडतासिटी 38. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 22, श्री माणकराजजी किशनराजजी, मेड़तासिटी 36. श्री गुणचंदजी दल्लीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 23. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, मेड़ता 40. श्री अमरचंदजी बोथरा, मद्रास सिटी 41. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा 24. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सलेम 42. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, 25. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, बैंगलोर विल्लीपुरम् 43. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास 26. श्री कनकराज जी मदनराजजी गोलिया, 44. श्री पुखराजजी विजयराज जी, मद्रास जोधपुर 45. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास 27. श्री हरकराजजी मेहता, जोधपुर 46. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कुप्पल 28. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 26, श्री घेवरचंदजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर सहयोगी सदस्य 30. श्री गणेशमलजी नेमीचंदजी टांटिया, जोधपुर 1. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 31. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 2. श्री अमरचंदजी बालचंदजी मोदी, व्यावर जोधपुर 3. श्री चम्पालालजी मीठालालजी सकलेचा, 32. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर जालना 33. श्री जसराजजी जंबरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 4. श्री छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री मूलचंदजी पारख, जोधपुर 5. श्री भंवरलालजी चोपड़ा, ब्यावर 35. श्री आसुमल एण्ड कं., जोधपुर Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली] [65 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई नं. 3 37. श्री धेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर 68. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी, भिलाई नं. 3 38. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 66. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुड्डी जोधपुर 70. श्री प्रेमराजजी मिट्ठालालजी कामदार, 36. श्री वच्छराजजी सुराणा, जोधपुर चांवडिया 40. श्री लालचंदजी सिरेमलजी बाला, जोधपुर 71. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 41. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 72. श्री भंवरलालजी नवरतनमलजी सांखला, 42. श्री मिश्रीलालजी लिखमीचंदजी साँड, जोधपुर मेटूपालियम 43. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 73. श्री सूरजकरणजी सुराणा, लाम्बा 44. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 74. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 45. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 75. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 46. श्री सरदारमल एन्ड कं., जोधपुर 76. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर 47. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 77. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 48. श्री नेमीचंदजी डाकलिया, जोधपुर 78. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 46. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 76. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 50. श्री मुन्नीलालजी, मूलचंदजी, पुखराजजी 80. श्री अखेचंदजी भण्डारी, कलकत्ता गुलेच्छा, जोधपुर 81. श्री बालचंदजी थानमलजी भुरट (कुचेरा), 51. श्री सुन्दरबाई गोठी, महामन्दिर कलकत्ता 52. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा 82. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 53. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर 83. श्री तिलोकचंद जी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 54. श्री इन्द्रचन्दजी मुकन्दचन्दजी, इन्दौर 84. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 55. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 85. श्री जीवराज जी भंवरलालजी, भैरुंदा 56. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 86. श्री माँगीलाल जी मदनलालजी, भैरुदा 57. श्री स्व. भीकमचंदजी गणेशमलजी चौधरी, 87. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता धूलिया सिटी 58. श्री सुगनचंदजी संचेती, राजनांदगाँव 88. श्री भीवराजजी बागमार, कुचेरा 56. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गोलेच्छा, राज- 86. श्री गंगारामजी इन्दरचंदजी बोहरा, कुचेरा नांदगाँव 60. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 60. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग कुचेरा 61. श्री आसकरणजी जसराज जी पारख, दुर्ग 61. श्री सोहनलालजी लणकरणजी सुराणा, कुचेरा 62. श्री अोखचंदजी हेमराज जी सोनी, दुर्ग 62. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर (भरनपुर) 63. श्री भंवरलालजी मूथा, जयपुर 63. श्री भंवरलालजी रिखवचंदजी नाहटा, नागौर 64. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 64. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन 65. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, 65. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन भिलाई नं. 3 66. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 66. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई नं. 3 कोठारी, गोठन या. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66] [ अनुत्तरौपपातिकदशा 67 श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 112. श्री कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री स्व. 68. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया पारसमलजी ललवाणी, गोठन 66. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन, श्रावकसंघ, 113. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, दिल्ली-राजहरा कुचेरा 100. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 114. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह बुलारम 115. श्री कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास 101. श्री फतेराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 116. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 102. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गोहाटी 117 श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर 103. श्री जुगराजजी बरमेचा, मद्रास 118. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 104. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, 116. श्री इन्दरचंदजी जुगराजजी बाफणा, बैंगलोर बुलारम 120. श्री चम्पालालजी माणकचंदजी सिंघी, कुचेरा 105. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, नागौर 121. श्री संचालालजी बाफना, औरंगाबाद 106. श्री सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास 122. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 107. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भण्डारी, सिटी बैंगलोर 123. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, 108. श्री रामप्रसन्न ज्ञान प्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर सिकन्दराबाद 106. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास 124. श्रीमती रामकुवर धर्मपत्नी श्रीचांदमलजी लोढ़ा, बम्बई 110. श्री अमरचंदजी चम्पालालजी छाजेड़, पादु 125. श्री भीकमचन्दजी मारणकचन्दजी खाविया, बड़ी (कुडालोर), मद्रास 111. श्री माँगीलालजी शांतिलालजी रुणवाल, 126. श्री जीतमलजी भंडारी, कलकत्ता हरसोलाव 127. श्री सम्पतराजजी सुराणा-मनमाड़ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० प्राचार्यप्रवर श्री प्रात्मारामजी म० द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए। अनध्यायकाल में स्वाध्याय वजित है। मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं। इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है / जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इन का भी आगमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाए पणत्ते, तं जहा- उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, निग्घाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्घाते / दसविहे ओरालिते, असज्झातिते, तं जहा—अट्ठि, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा चउहि महापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए, तं जहाआसाढपाडिवए, इंदमहापाडिवए कत्तिअपाडिवए, सुगिम्हपाडिवए / नो कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पडिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्ढरत्त / कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउकालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा–पुब्बण्हे, अवरण्हे, पनोसे, पच्चूसे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्र पाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीम अनध्याय माने गए हैं। जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसे - प्राकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन~यदि महत् तारापतन हुना है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्र स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 3. गजित-बादलों के गर्जन पर दो प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे। 4. विद्युत-बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। किन्तु गर्जन और विद्युत का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्जन और विद्युत प्रायः ऋतु स्वभाव से ही होता है। अतः आर्द्रा में स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्धात-बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जन होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है। 6. यूपक-शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, को सन्ध्या चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है / इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 7. यक्षादीप्त—कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है। अत: आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 8. धूमिका कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है। इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध पड़ती है / वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है / जब तक यह धुध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 6. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण का सूक्ष्म जलरूप धुन्ध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है। 10. रज उद्घात-वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है / स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / उपरोक्त दस कारण अाकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक सम्बन्धी इस अनध्याय 11-12-13. हड्डी, मांस और रुधिर-पंचेद्रिय तिर्यंच की हड्डी मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएँ उठाई न जाएँ तब तक अस्वाध्याय है / वृत्तिकार अास पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वध्याय मानते हैं / इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है / 14, अशुचि-मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। 15. श्मशान-श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। 16. चन्द्रग्रहण--चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य पाठ, मध्यम बारह, और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 17. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः पाठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्र पुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय न करना चाहिए / अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 16. राजव्युद्ग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर--उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं . करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण प्रौदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28 चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-ग्राषाढपूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूर्णिमाओं के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं / इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 26-32. प्रातः सायं मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पोछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31ঠাঠা সাদুল হাসান, ওয়ান্তg द्वारा ও নষ্ট সন্তাছান 3Iাঠা (1) प्राचारांग प्रथम भाग 30) रु० (2) आचारांग द्वितीय भाग __35) 20 (3) उपासकदशांग 25) 20 (4) ज्ञाताधर्मकथांग 45) 20 (5) अन्तकृद्दशांग 25) 20 (6) अनुत्तरोपपातिकदशांग 16) रु० विभिन्न विद्वानों द्वारा सम्पादित, शुद्ध मूल पाठ, हिन्दी भाषा में अनुवाद, विवेचन, श्रीदेवेन्द्र मुनिजी शास्त्री द्वारा लिखित विस्तृत प्रस्तावना तथा विविध परिशिष्टों के साथ, अद्यतन शैली में, उत्कृष्ट छपाई और सुन्दर श्वेत कागज पर मुद्रित हैं / मूल्य लागत से भी कम रक्खा गया है / __ अग्रिम ग्राहक बनने वाले संघों, ग्रन्थालयों तथा अन्य सार्वजनिक संस्थानों को 700) रु. में पूरी प्रागमवत्तीसी (जो लगभग चालीस से अधिक भागों में पूर्ण होगी) दी जाएगो / अग्रिम ग्राहक सज्जनों को 1000) रु. में दी जाएगी। प्रकाशनाधीन आगम सूत्रकृतांग (दोनों श्रुतस्कन्ध) स्थानाङ्ग Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________