________________ 36] / अनुत्तरौपपातिकदशा 'बाहु' शब्द यद्यपि संस्कृत भाषा में उकारान्त है तथापि प्राकृत भाषा में स्त्रीलिंग की विवक्षा होने पर वह आकारान्त हो जाता है। अतः सूत्र में आया हुअा 'बाहाणं' पद प्राकृतव्याकरण की दृष्टि से शुद्ध है। सूत्र इस प्रकार है : बाहोरात् / / 8 / / 1 // 36 / / बाहुशब्दस्य स्त्रियामाकारान्तादेशो भवति, वाहाए जेण धरिपो एक्काए // स्त्रियामित्येव / वामेरो बाहू // ग्रीवा में भी अन्य अवयवों के समान मांस और रुधिर का अभाव हो गया था। अतः वह स्वभावत: लम्बी दिखाई देती थी। सूत्रकार ने उसकी उपमा लम्बे मुख वाले सुराही अादि पात्रों से दी है / इसके लिए मूत्र में एक 'उच्चस्थापनक' पद पाया है, जो इसी प्रकार का एक पात्र होता है ! यही दशा धन्य अनगार के चिबुक की थी। जो चिबुक कभी मांस और रुधिर से परिपूर्ण था उसकी तपश्चर्या के कारण यह दशा हो गई थी जैसे-एक सूखे हुए तुम्वे या हकुब (एक प्रकार की वनस्पति) के फल की होती है अथवा वह ऐसी दिखाई देती थी जैसे--एक आम की गुठली हो।। जो अोठ पहले बिम्बफल के समान रक्त वर्ण थे वे तप के कारण सूख कर बिल्कुल विवर्ण हो गये थे। उनकी आकृति अब इस प्रकार हो गई थी जैसी सूखी हुई मेंहदी की गुटिका की होती है। जिह्वा भी सूख कर वट वृक्ष के पत्ते के समान अथवां पलाश (ढाक) के पत्ते के समान नीरस और रूखी हो गई थी। उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि धन्य अनगार का तप-अनुष्ठान प्रात्मशुद्धि के ही लिये था। शरीर-मोह से वे सर्वथा मुक्त हो गए थे। यह भी इस वर्णन से सिद्ध होता है कि उत्कृष्ट तप ही आत्म-शुद्धि की सामर्थ्य रखता है और इसी के द्वारा कर्मों को निर्जरा भी हो सकती है। यहाँ यह अवश्य स्मरणीय है कि समीचीन तप सम्यकज्ञान और सम्यग्दर्शनपूर्वक ही हो सकता है / सम्यकज्ञान और सम्यग्दर्शन के अभाव में किया जाने वाला तप बालतप है। उससे हीन कोटि की देवगति भले प्राप्त हो जाए किन्तु वैमानिक जैसी उच्च देवगति भी प्राप्त नहीं होती। ऐसी स्थिति में उससे मुक्ति जैसे- सर्वोत्कृष्ट, लोकोत्तर एवं अनुपम पद की प्राप्ति तो हो ही कैसे सकती है / धन्य मुनि के नासिका, नेत्र एवं शीर्ष १४-धण्णस्स णं अणगारस्स नासाए जाव' से जहा जाव अंबगपेसिया इ वा, अंबाडगपेसिया इ वा, माउलुगपेसिया इ वा तरुणिया एवामेव जाव / धण्णस्स णं अणगारस्स अच्छीणं जाव' से जहा जाव' वीणाछिड्डे इ वा, वद्धीसगछिड्डे इ वा, पभाइयतारिगा इ वा एवामेव जाव / धण्णस्स कण्णाणं जाव' से जहा जाव मूलाछल्लिया इ वा, वालुकछल्लिया इ वा कारल्लयछल्लिया इ वा, एवामेव जाव' / 1. प्राचार्य हेमचन्द्रकृत प्राकृतव्याकरण / 2-10. देखिए वर्ग 3, सूत्र 10. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org