________________ तृतीय वर्ग ] "धण्णस्स णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णता?" "गोयमा ! तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता।" "से णं भंते ! तानो देवलोगानो कहि गच्छिहिइ ? कहि उववज्जिहिइ ?" "गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ।" तं एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमस्स अज्झयणस्स प्रयम? पण्णत्ते। पढमं प्रज्झयणं समत्त / तत्पश्चात् किसी दिन रात्रि के मध्य भाग में धन्य अनगार के मन में धर्म-जागरिका (धर्मविषयक विचारणा) करते हुए ऐसी भावना उत्पन्न हुई मैं इस प्रकार के उदार तपःकर्म से शुष्क-नीरस शरीर वाला हो गया हूँ, इत्यादि यावत् जैसे स्कन्दक ने विचार किया था, वैसे ही चिन्तना की, आपृच्छना की। स्थविरों के साथ विपुलगिरि पर आरुढ हुए, एक मास की संलेखना की / नौ मास की दीक्षापर्याय यावत् पालन कर काल करके चन्द्रमा से ऊपर यावत् सूर्य, ग्रह नक्षत्र तारा नव वेयक विमान-प्रस्तटों को पार कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए। धन्य मुनि के स्वर्ग-गमन होने के पश्चात् परिचर्या करने वाले स्थविर मुनि विपुल पर्वत से नीचे उतरे यावत् 'धन्य मुनि के ये धर्मोपकरण हैं उन्होंने भगवान् से इस प्रकार कहा / भगवान् गौतम ने भंते !' ऐसा कह कर भगवान् से उसी प्रकार प्रश्न किया, जिस प्रकार स्कन्दक के अधिकार में किया था। भगवान् महावीर ने उसका उत्तर दिया, यावत् धन्य अनगार सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप से उत्पन्न हुआ है। "भंते ! धन्य देव की स्थिति कितने काल की कही है ?" "हे गौतम ! तेतीस सागरोपम की स्थिति कही है।" "भंते ! उस देवलोक से च्यवन कर धन्य देव कहाँ जायगा, कहाँ उत्पन्न होगा ?" "हे गौतम ! महाविदेह वर्ष से सिद्ध होगा।" श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा--"हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण यावत् निर्वाणसंप्राप्त भगवान् महावीर ने तृतीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है।" प्रथम अध्ययन समाप्त / / विवेचन- प्रस्तुत सूत्र में धन्य अनगार की अन्तिम समाधि का वर्णन किया गया है और उसके लिए सूत्रकार ने धन्य अनगार की स्कन्दक संन्यासी से उपमा दी है। ज्ञान ध्यान तप त्याग में लीन बने हुए धन्य अनगार को एक समय मध्य-रात्रि में जागरण करते हुए विचार उत्पन्न हुआ कि मुझ में अभी तक उठने की शक्ति विद्यमान है और शासनपति श्रमण भगवान् महावीर भी अभी तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org