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________________ 44] [ अनुत्तरौपपातिकदशा विद्यमान हैं, अतः यह सब अनुकूल सुविधाएँ रहते ही मैं इस जीवन की चरम साधना क्यों न कर लू ! इस विचार के आते ही उन्होंने प्रातःकाल श्रमण भगवन्त की आज्ञा प्राप्त की और आत्मविशुद्धि के लिये पञ्च महाव्रतों का पुनः पाठ पढ़ा तथा उपस्थित श्रमणों और श्रमणियों से क्षमा याचना कर तथा-रूप स्थविरों के साथ शनैः शनैः विपुलगिरि पर चढ़ गये। वहाँ पहुँच कर उन्होंने कृष्ण-वर्णी पृथिवी-शिला-पट्ट पर प्रतिलेखना कर दर्भ का संस्तारक बिछाया और पद्मासन लगाकर बैठ गये। फिर दोनों हाथ जोड़े और उनसे शिर पर आवर्तन किया। इस प्रकार पूर्व दिशा की ओर मुख कर 'नमोत्थुणं' के पाठ द्वारा पहले सब सिद्धों को नमस्कार किया, फिर उसीसे श्री श्रमण भगवान् महावीर को भी नमस्कार किया। कहा--'भगवन् ! वहाँ विराजमान आप सब कुछ देख रहे हैं. अतः मेरी वन्दना स्वीकार करें। मैंने पहले ही आपके समक्ष अष्टादश पापों का त्याग किया था अब मैं आप की ही साक्षी से उनका फिर से जीवन भर के लिये परित्याग करता हूँ। साथ ही साथ अव अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य पदार्थों का भी आजीवन परित्याग करता हूँ। अपने संयम सहायक शरीर का भी अन्तिम रूप से व्युत्सर्ग करता हैं। अब पादपोपगमन नामक अनशन धारण करता हूँ।' इस प्रकार श्री श्रमण भगवान को वन्दना कर और उनको साक्षी बना कर संथारा ग्रहण किया और उसी के अनुसार विचरने लगे। उन्होंने सामायिक प्रादि से लेकर एकादश अगों का अध्ययन कि नव मास पर्यन्त दीक्षापर्याय में रहे और एक मास तक अनशन व्रत में व्यतीत किया। साठभक्त अशनछेदन कर आलोचना-प्रतिक्रमणपूर्वक उत्तम समाधि-मरण प्राप्त किया। यहां कहा गया है कि धन्य मुनि ने साठ भक्तों का परित्याग किया तो जिज्ञासा हो सकती है कि भक्त किसे कहते हैं ? उत्तर यह है कि प्रत्येक दिन के दो भक्त अर्थात् पाहार या भोजन होते हैं। इस प्रकार एक मास के साठ भक्त हो जाते हैं / इस विषय में वृत्तिकार का कहना है कि-प्रतिदिन "भोजनद्वयस्य परित्यागात्त्रिशता दिनैः षष्ठिभक्तानां त्यक्ता भवति / " इस प्रकार जव धन्य अनगार ने एक मास पर्यन्त अनशन धारण किया तो साठ भक्तों के परित्याग में कोई सन्देह नहीं रहता। तत्पश्चात् शरीर का परित्याग कर धन्य अनगार सर्वोत्कृष्ट दिव्यलोक-सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए इत्यादि कथन स्पष्ट है / जब उनके साथ गए स्थविरों ने देखा कि धन्य अनगार अपनी इह-लीला संवरण कर स्वर्ग को प्राप्त हो गये हैं तो उन्होंने परिनिर्वाण-प्रत्ययक कायोत्सर्ग किया अर्थात् 'परिनिर्वाणम-मरणं यत्र, यच्छरीरस्य परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव, तदेव प्रत्ययो-हेतुर्यस्य स परिनिर्वाणप्रत्ययः' भाव यह है कि मृत्यु के अनन्तर जो ध्यान किया जाता है उसको परिनिर्वाण-प्रत्यय कायोत्सर्ग कहते हैं / मृत साधु के शरीर का परिप्ठापन करना भी परिनिर्वाण कहा जाता है। यहाँ समीपस्थ स्थविरों ने धन्य अनगार की मृत्यु देखकर यही कायोत्सर्ग (ध्यान) किया। फिर उनके वस्त्र-पात्र आदि उपकरण उठाकर लाये और श्रमण भगवान् महावीर के पास आकर और उनको धन्य अनगार के समाधि-मरण का समस्त वृत्तान्त सुना दिया। उनके गुणों का गान किया / उनके उपराम-भाव की प्रशंसा की तथा उनके वस्त्र आदि उपकरण श्री भगवान् को सौंप दिए। उस समय गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना की और उनसे प्रश्न किया कि हे भगवन् ! अापका विनीत शिष्य धन्य अनगार समाधिमरण प्राप्त कर कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुमा है ? वहाँ कितने काल तक उसकी स्थिति होगी और तदनन्तर वह कहाँ उत्पन्न होगा? उत्तर में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003477
Book TitleAgam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages134
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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