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________________ 42] [ अनुत्तरौपपातिकशा विवेचन--इस सूत्र का अर्थ मूल पाठ से ही स्पष्ट है। फिर भी वक्तव्य इतना अवश्य है कि जिस में जो गुण हों उनका निःसङ्कोच-भाव से वर्णन करना चाहिए। और गुणवान् व्यक्ति का धन्यवाद आदि से उत्साह बढ़ाना चाहिए, जैसे श्रमण भगवान् महावीर ने किया। उन्होंने धन्य अनगार के अति उग्रतर तप का यथातथ्य वर्णन किया और उसकी सराहना की।। __ इस सब वर्णन से दूसरी शिक्षा हमें यह मिलती है कि एक बार जब संसार से ममत्व-भाव त्याग दिया तो सम्यक् तप के द्वारा प्रात्म-शुद्धि अवश्य कर लेनी चाहिए। क्योंकि तपश्चरण ही कर्म-निर्जरा का एकमात्र प्रधान उपाय है / यही संसार के सुखों को त्यागने का फल है। जो व्यक्ति साधु बन कर भी ममत्व में ही फंसा रहे उसको उस त्याग से किसी प्रकार की भी सफलता की आशा नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने से तो वह कहीं का नहीं रहता और उसके इह-लोक और पर-लोक दोनों ही बिगड़ जाते हैं। धन्य अनगार ने हमारे सामने एक आदर्श उदाहरण उपस्थित किया उन्होंने जब एक बार गृहस्थ के सारे सुखों को त्याग कर साधु-वृत्ति अंगीकार कर ली तो उसको सफल बनाने के लिये उत्कृष्ट से उत्कृष्ट तप किया और मुनिजनों को अपने कर्तव्य द्वारा बता दिया कि किस प्रकार तप के द्वारा प्रात्म-शुद्धि होती है और कैसे उक्त तप से प्रात्मा सुशोभित किया जाता है / तीसरी शिक्षा जो हमें इससे मिलती है, वह यह कि जब किसी व्यक्ति की स्तुति करनी हो तो उस में वास्तव में जितने गुण हों उन्हीं का वर्णन करना चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि जितने गुण उस व्यक्ति में विद्यमान हों उन्हीं को लक्ष्य में रख कर स्तुति करना उचित है न कि और अविद्यमान गुणों का आरोपण करके भी। क्योंकि ऐसी स्तुति कभी-कभी हास्यास्पद बन जाती है। अतः झूठी प्रशंसा कर निरर्थक ही किसी को बाँसों पर नहीं चढ़ाना चाहिए। अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसा से प्रशंसनीय व्यक्ति को प्रात्म को प्रात्मभ्रान्ति हो सकती है, उसके विकास की गति अवरुद्ध हो सकती है। यही तीन शिक्षाएँ हैं, जो हमें इस सूत्र से मिलती हैं। धन्य मुनि वास्तव में यथार्थनामा सिद्ध हुए / स्वयं तीर्थंकर देव अपने मुखारविन्द से जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करें उससे अधिक धन्य अन्य कौन हो सकता है ? धन्य अनगार का सर्वार्थसिद्ध-गमन १८-तए णं तस्स धण्णस्स अणगारस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं० इमेयारूवे प्रज्झस्थिए जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं जाव [तवोक्कम्मेणं धमणिसंतए जाए] जहा खंदो तहेव चिता। आपुच्छणं / थेरेहि सद्धि विउलं दुरूहइ / मासिया संलेहणा। नवमासा परियाओ जाव [पाउणिता] कालमासे कालं किच्चा उड्ड चंदिम जाव [सूर-गहगण-नक्खत्त-तारारूवाणं जाव] नवयगेवेज्जे विमाण-पत्थडे उड्ड दूरं बोईवइत्ता सम्वट्ठसिद्ध विमाणे देवत्ताए उनवणे / थेरा तहेव प्रोयरंति जाव' इमे से आयारभंडए। भंते ! त्ति भगवं गोयमे तहेव आपुच्छति, जहा खंदयस्स भगवं वागरेइ, जाव२ सव्वट्ठसिद्ध विमाणे उववष्णे। 1. अणुत्तरोववाइयदशा, वर्ग 1. सूत्र 4. 2. अणुत्तरोक्वाइयदशा वर्ग 1, सूत्र 4. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003477
Book TitleAgam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages134
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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