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________________ सम्पादकीय नाम अनुत्तरोपपातिकदशा सूत्र द्वादशांगी का नववा अंग है। शब्दार्थ के अनुसार 'अनुत्तर, उपपात और दशा' शब्दों से अनुत्तरोपपातिकदशा शब्द बना है। अनुत्तर अर्थात्-अनुत्तर विमान, उपपात अर्थात् उत्पन्न होना और दशा अर्थात् अवस्था या दश संख्या का सूचन। इस सूत्र के दश अध्ययन होने से दशा ऐसा शब्द प्रयुक्त होना चाहिए। इसमें ऐसे साधकों का वर्णन है जिन्होंने यहां से प्रायुष्य पूर्ण कर अनुत्तर विमानों में जन्म लिया और फिर मनुष्य जन्म पाकर मोक्ष प्राप्त करेंगे / समवायांगसूत्र में इसके दश अध्ययनों का सूचन किया गया है किन्तु दश अध्ययनों के नामों का निर्देश नहीं मिलता है। स्थानांगसूत्र के अनुसार उनके नाम इस प्रकार हैं-ऋपिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिक स्वस्थान, शालिभद्र, प्रानन्द और अतिमुक्त / ' तत्वार्थराजवार्तिक के अनुसार उनके नाम इस प्रकार हैं--ऋषिदास, वान्य, सुनक्षत्र, कार्तिक, नन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, बारिषेण, चिलातपुत्र / अंगपण्णत्ती में उनके नाम इस प्रकार हैं-ऋषिदास, शालिभद्र, सुनक्षत्र, अभय, धन्य, वारिषेण, नन्दन, नन्द, चिलातपुत्र, कार्तिक / धवला में कार्तिक के स्थान पर कार्तिकेय और नन्द के स्थान पर आनन्द नाम प्राप्त होते हैं।४ वर्तमान में प्रस्तुत प्रागम 3 वगों में विभक्त है, जिनमें क्रमशः 10, 13, और 10 अध्ययन हैं। इस प्रकार 33 अध्ययनों में 33 महान् प्रात्माओं का संक्षेप में वर्णन किया गया है / इनमें 23 राजकुमार तो श्रेणिक के पुत्र हैं। . अनुत्तरोपपातिकदशा का जो स्वरूप वर्तमान में उपलब्ध है वह स्थानांग और समवायांग को वाचना से पृथक् है। प्राचार्य अभयदेव ने स्थानांगवत्ति में इसे वाचनान्तर कहा है। विषय-वस्तु समवायांग सूत्र में, अनुत्तरोपपातिक सूत्र में वर्णित विषय का निर्देश तथा उसका श्लोक-परिमारण पदसंख्या आदि का कथन इस प्रकार है सौधर्म ईशान प्रादि नाम वाले बारह स्वर्ग माने गए हैं। बारहवें स्वर्ग के ऊपर नव वयक विमान पाते हैं और उनके ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित एवं सर्वार्थसिद्ध-ये पाँच अनुत्तर विमान पाते हैं। इन विमानों से उत्तर-उत्तम प्रधान अन्य विमान न होने के कारण इनको अनुत्तर विमान कहते हैं। जो साधक अपने उत्कृष्ट तप और संयम की साधना से इनमें उपपात (जन्म) पाते हैं, उनको 'अनुत्तरोपपातिक' कहते हैं। अनुत्तरौपपातिक में अनुत्तरोपपातिकों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, समवसरण तत्कालीन राजा, के माता-पिता, धर्मगुरु, धर्माचार्य, धर्मकथा, संसार की ऋद्धि, भोग-उपभोग का तथा तप, त्याग, प्रव्रज्या, उत्सर्ग, संलेखना, अंतिम समय के पादोपगमन (संथारा) आदि, अनुत्तरविमान में उपपात 1. स्थानांग-१०१११४ 2. तत्त्वार्थराजवातिक-१२०, पृ 73. 3. अंगपण्णत्ती 55. 4. षट्खंडागम 11112. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003477
Book TitleAgam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages134
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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