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________________ तृतीय वर्ग ] [33 धन्य अनगार की कटिपत्र (कमर) का तपस्याजनित रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे-ऊँट का पैर हो, बूढे बैल का पैर हो और बूढे महिष (भंसे) का पैर हो। उसमें अस्थि, चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं, मांस और शोणित उसमें नहीं रह गया था। धन्य अनगार के उदर-भाजन (पेट) का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे--सूखी मशक हो, चणकादि भूनने का खप्पर हो, आटा गूदने की कठौती हो। इसी प्रकार धन्य अनगार का पेट भी सूख गया था / उसमें मांस और शोणित नहीं रह गया था / धन्य अनगार को पसलियों का तपस्या के कारण लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसेस्थासकों की प्रावली हो अर्थात् जैसे ढलान पर एक दूसरे के ऊपर रक्खी हुई दर्पणों के आकार की पंक्ति हो. पाणावली हो अर्थात एक दसरे पर रखे हुए पान-पात्रों (गिलासों) की पंक्ति हो, मुण्डावली अर्थात् स्थाणु-विशेष प्रकार के खूटों की पंक्ति हो। जिस प्रकार उक्त वस्तुएँ गिनी जा सकती हैं, उसी प्रकार धन्य अनगार की पसलियाँ भी गिनी जा सकती थीं। उसमें अस्थि, चर्म और शिराएँ ही शेष रह गई थीं / मांस और शोणित उनमें नहीं रह गया था / धन्य अनगार के पृष्ठकरण्ड (रीढ का ऊपरी भाग) का स्वरूप ऐसा हो गया था, जैसेमुकुटों के कांठे अर्थात् मुकुटों की किनारियों के कोरों के भाग हों, परस्पर चिपकाए हुए गोल गोल पत्थरों को पंक्ति हो, अथवा लाख के बने हुए बालकों के खेलने के गोले हों। इस प्रकार धन्य अनगार का रीढ-प्रदेश सूख कर मांस और शोणित से रहित हो गया था, अस्थि चर्म ही उनमें शेष रह गया था। धन्य अनगार के उर:कटक (वक्षस्थल धन्य अन्न का तपोजन्य रूप-लावण्य इस प्रकार का हो गया था, जैसे- बांसकी बनी टोकरी के नीचे का हिस्सा हो, बांस की बनी खपच्चियों का पंखा हो अथवा ताडपत्र का बना पंखा हो / इस प्रकार धन्य अनगार की छाती एकदम पतली होकर सूख कर मांस और शोणित से रहित होकर अस्थि चर्म और शिरा-मात्र शेष रह गए थे। विवेचन-इस सूत्र में धन्य अनगार के कटि, उदर, पांसुलिका, पृष्ठ-प्रदेश और वक्षःस्थल का उपमानों द्वारा वर्णन किया गया है। उनका कटि-प्रदेश तप के कारण मांस और रुधिर से रहित हो कर ऐसा प्रतीत होता था जैसे ऊँट या बूढ़े बैल का खुर हो / इसी प्रकार उनका उदर भी सूख गया था। उसकी सूख कर ऐसी हालत हो गई थी जैसी सूखी मशक, चने आदि भूनने का पात्र (भाड़) अथवा कोलम्ब नामक पात्र-विशेष की होती है। __ कहने का तात्पर्य यह है कि धन्य अनगार का उदर इतना सूख गया था कि उक्त वस्तुओं के समान बीच में खोखला जैसा प्रतीत होता था। इसी प्रकार उनकी पसलियाँ भी सूखकर कांटा हो गई थीं / उनको इस तरह गिना जा सकता था जैसे—स्थासक (दर्पण को प्राकृति) की पंक्ति हो या गाय आदि पशुओं के चरने के पात्रों की पंक्ति अथवा उनके बांधने को कोलों की पंक्ति हो। उनमें मांस और रुधिर देखने को भी न था। यही दशा पृष्ठ-प्रदेशों की भी थी। उनमें भी मांस और रुधिर नहीं रह गया था और ऐसे प्रतीत होते थे मानो मुकुटों की कोरों, पाषाण के गोलकों की अथवा लाख आदि से वने हुए बच्चों के खिलौनों की पंक्ति खड़ी की हुई हो। उस तप के कारण धन्य अनगार के वक्षःस्थल (छाती) में भी परिवर्तन हो गया था। उस से भी मांस और रुधिर सूख गया था / और पसलियों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003477
Book TitleAgam 09 Ang 09 Anuttaropapatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages134
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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